सामाजिक समस्याएँ
और
सामाजिक परिवतेन
डा० राम आहूजा
है एम० (०, पी-एच० डो०
अध्यक्ष, समाजश्ास्त्र विभाग,
राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर ।
मीनाक्षी प्रकाशन
प्रस्तावना |
समाज में परिवर्तत से यह क्रावश्यक हो जाता है कि विभिन्न सामाजिक
समस्याओं को एक नये दृष्टिकोण से देखा जाये । यह हृष्टिकोण न केवल समाज की
सरचना व संस्कृति को आधार बनाता है किन्तु नये उत्पन्न सामाजिक तत्त्वो को
भी महत्त्व देता है। समस्याएँ प्रत्येक समाज में पायी जाती हैं परन्तु उनका च्घानिक
अध्ययव उसी समाज के नियमों, मूल्यों एवं निर्धारित लक्ष्यों की प्रष्ठभूमि मे ही
देखना पड़ता है। फिर समस्याओं के समाजश्ास्त्रीय अध्ययन हेतु विश्लेषण-विधि
भी विपय कै,न्दर्भ में अपनानी होती है। प्रस्तुत पुस्तक में सामाजिक समस्याओं के
अध्ययन में तीन पहलुओों को ध्यान से रखा गया है--बहु-कारक पहलु, विभिन्न
समस्याओं के पारस्परिक सम्बन्ध का पहलू एवं प्रत्येक समस्या का समय झौर स्थान
से सम्बन्ध का पहलू । इन पहलुओं के आधार पर यह देखने का श्रयत्न किया गया है
कि हमारे समाज में विभिन्न समस्याएँ किस प्रकार व्यक्तिगत एवं संस्थात्मक समायोजन
की असफलता, सामाजिक संरचना में दोष, एकमत की कमी, संस्थाओं के एकीकरण
के अभाव, सामाजिक नियन्त्रण के साधनों की अपर्याप्तता तथा सामाजिक नीतियों में
संस्थात्मक विलम्बनाओं के कारण उत्पन्न होती हैं। सामाजिक समस्याओं का समाज-
शास्त्रीय शोध उनके समाधान हेतु नही होता किन्तु व्यक्तियों और समूंहों के व्यवहार
को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने के लिए होता है | यहाँ पर भी हमेंने कुछ समस्याओं के
प्रति प्रचलित लोकप्रिय विश्वासों की विश्वसनीयता एवं कुछ विद्वानों की विचार-
धाराओं के विश्लेषण द्वारा वास्तविकता और सिद्धान्त के अन्तर-सम्बन्ध परखने का
प्रयास किया है ।
प्रस्तुत संस्करण मे नगरीकरण एवं औद्योगीकरण के दो अध्याय और बढ़ाये
गये हैं तथा सभी अध्यायों को संझोधित कर दिया गया है। आश्या है पहले संस्करण
की भाँति ही यह संस्करण भी लोकप्रिय होगा ।
-+राम प्राहुजा
विषय-सूची
प्रस्तावना
रु) शामाजिय शाषस्याएँ और सामाजिय परिितंन- पत्र
(८८, अपराध और अपराधी. व *
4. भिक्षावृत्ति
०८80 ३४७०४. -
(6 पिशर्पी अग़लोप 7
प. नपरोरुण्ण
8. औद्योगीकरण
9. गरामुदापिद विगरास योजनाएँ कौर पंचायतों राज
(9) चंप प्णा
(0) झतगंगगणद्वि एं परिवार नियोजन _2
सरदभं-प्रग्ष-गूषी
20
43
94
प्रा
॥42
39$
79
88
206
223
238
॥ सामाजिक समस्याएं ओर सामाजिक परिवतेन
(50टए&, एर0०७%,65 30४० 50048, एप्त6४672)
प्रत्येक समाज का ढाँचा उस समाज मे रहने वालों की आकांक्षाओं की पूर्व
का साघन होता है| परन्तु समय के परिवर्तन के साथ-साथ जब परम्परागत ढाँचा
नहीं बदलता तो समाज में रहने वालों की आकांक्षाओं की पूर्ति में वह बजाय साधक
होने के बाधक होने का कार्य करने लगता है। इसलिए आवश्यक है कि बदले हुए
समाज में एक वदला हुआ ढाँचा अपनाकर आवश्यक समायोजन (80|7४॥7९॥/)
लाया जाये। परन्तु जब परम्परा-प्राप्त मान्यताएँ समाप्त नही होती, पर जमी रहती
हैं तो नयी आवश्यकताओं और प्रराने विचारों के ढाँचे में एक दरार पड़ जाती है
जो एक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करती है जिसका समाज के सभी सदस्यों पर प्रत्रिकुल
प्रभाव पड़ता है। ऐसी परिस्थिति ही सामाजिक समस्या की जन्मदाता है।
सामाजिक समस्या का श्र
राव और सेल्ज़निक के अनुसार सामाजिक समस्या एक मानवीय सम्बन्धों
की समस्या है जो समाज के लिए एक गम्भीर खतरा उत्पन्न करती है अथवा जो
व्यक्ति .की महत्त्वपूर्ण आकाक्षाओं की प्राप्ति में बाधाएँ पैदा करती हैं ।! पाल
लैण्डिस के मतानुसार सामाजिक समस्याएँ व्यक्तियों की कल्याण सम्बन्धी अपूर्ण
आकाक्षाएँ हैं ! मेरिल और एल्डिरिज का विचार है कि सामाजिक समस्याएँ तव
उत्पन्न होती हैं जब गतिहीमता के कारण अधिक संख्या में लोग अपनी अपेक्षित
सामाजिक भूमिकाओं में कार्य करने मे असमर्थ होते हैं |! यद्यपि सामाजिक जीवन के
प्रत्येक क्षेत्र में समस्याएँ पायी जाती हैं, जेसे आशिक क्षेत्र में कृषि उत्पादन बढ़ाने
हेतु सिंचाई और खाद की समस्या, राजनीतिक क्षेत्र मे केन्द्रीय सरकार तथा राज्य
सरकारों के सम्वन्धों की समस्या आदि, परन्तु इनको हम सामाजिक समस्या नहीं
मानते । केवल उन्हीं समस्याओं को सामाजिक समस्याएँ माना जाता है जिनसे
गगा 8 8 छा0एेला 0 वचयात। उरॉं4007579$ क्णी इटाा005५ एहाट्वाटा३
300८५ ए | ग्राएच्चट3 पा6 गाएकाबा। बहज़ायपणा5$ एॉ ग्रधाज़ एल0फञॉट." सिवा र॥॥
न बरस 0. 7., 37/7 59० 270७, (0०४ एटाटइजा_2800 0०0., ॥7/05९,
58०९4! जाएए८छ३ घाह 35" धािवि]20 ४४छाॉ(ब7005 0 ऋष्&2,ँ" .4506:5,
एच्ण प्र... 5तव7/7्शधकऊ, ॥/9900०॥ 0०., ।४, ४०:£, 959, 3.
3 १८७5], साब/लंड 2. 8घ6 ६07९0३8०, घर. १४., ८#ब्क€ ०ल्वे उ०टटड, 57,
2 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
समाज में सामंजस्य, सुहृदता वे मूल्यों को खतरा होता है। इसी प्रकार व्यक्तिगत
समस्या और सामाजिक समस्या में भी अन्तर है । व्यक्तिगत समस्या एक व्यक्ति के
हितों से सम्बन्धित होती है जबकि सामाजिक समस्या पूरे समाज के हितों को
प्रभावित करती है। अष्टाचार, साम्प्रदायिकता, बैकारी
अपराध, नशाखोरी, सिक्नावृत्ति। अनुशासनहीनता आदि सामार्जिक समस््याएँ हैं जवकि
पुत्री के लिए दहेज के रुपये एकत्रित करना एके व्यक्ति की समस्या है। व्यक्तिगत
समस्या के निवारण के लिए प्रमत्न की व्यक्तिगत होने चाहिए परन्तु सामाजिक
समस्या के समाधान के लिए सामूहिक प्रयास की
बाल और फफे ने भी सामाजिक समस्या की परिभाषा में, इसी सामूहिक
प्रयास पर बल दिया है। उनके अनुसार सामाजिक समस्या सामाजिक आदर्शों से
विचलन है जिंसका निवारण सामूहिक प्रयास से ही सम्भव है इस परिभाषा में
स्पप्ट रूप से दो तत्व मिलते हैं-- ल रे ्
(१) किसी ऐसी स्थिति का होना जिसकी अनुचित, नियम-विदृढ। व्यवस्था
के प्रतिकूल व सामाजिक आदर्श से विचलित मानता जाता है। यहाँ, अ्ामार्जिक
आदशे' की परिभाषा मनमानी नहीं हैं परन्तु सामाजिक नीतिशास्त्र पर आधारित
है। अपराध इसलिए सामाजिक समस्या है क्योकि वह सार्वजनिक कल्यार्थ
हस्तक्षेप करता है तथा निर्धनता इस कारण सामाजिक समस्या है क्योकि वह, समाज
के आधिक विकास में बाधाएँ उत्पन्न करती हैं।
(2) सामाजिक समस्या का सामूहिक प्रयास दास ही लिवारण हो सकता
है अथवा उसका समाधान एक अकेला व्यक्ति नही कर संकता। _किसी व्यक्ति का
हाथ द्वूट जाये तो डाबटर से उसे ठीक करवाना उसकी व्यक्तिगत समस्या होगी,
परन्तु यदि हैंगें का सक्रामक रोग पूरे देश में फेल जाये तव उसे रोकते के लिए,
व्यवस्थित प्रयास बी आवश्यकता होगी । कभी-कभी एक ही समस्या कुछ परिस्थितियों
में तो व्यक्तिगत समस्या होती है परन्तु अन्त परिस्थितियों में बही सामार्जिक
समस्या मानी जाती है। एक इल्जीनियर जो बेरोजगारी के कीरग एक वतर्क का
कार्य अपनाकर अपने परिवार के पोषण के लिए पर्याप्त धन नहीं जुटा पाता एक
व्यक्तिगत समस्या का सामता करता है; परन्तु जब समाज में अधिकाँश इ्स्जी|
बहुत समय तक बेरोजगार रहते हैं तव वे अपनी समस्या जनता व सरकीर तक
सामाजिक कार्यकर्ताओं व शजनीतिज्ञों दारा पहुँचाते हैं जिसे सरकार इल्जीनियरों में
बेकारी तथा अर्द बेकारी की समस्या के रूप में हल करने का भयात करती है। ईर्स
प्रकार व्यक्तिगत समस्या का तब सामाजिक समस्या के रूप में, तिवाएग जया
जाता है!
फुल्लर और मेयर्स के अनुमार सामाजिक समस्या एक वह वरिस्यिति है जिस
5 आप पल
अखााफ़, शथय/ | बाप सिएाविक लिए प्र. इम्तन कग्शलाए दावे 5नदोर्ग
# €/व्क ?मष्णताएव झ्रग्ञ, 0:८.. छृहह्टौरू००4 (3752 0० 496, . हा
सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक पर्रिवर्तेन 5
अधिकांश व्यक्ति उत सामाजिक नियमों का विचलन मानते हैं जिन्हें वे प्रिय समभते
हैं ।5 यदि इस परिभाषा का द्वाब्दिक अर्थ लिया जाये तो सामाजिक समस्या की
परिभाषा मतमानी होगो क्योकि इसके अनुसार जब “बहुसंख्यक व्यक्ति! जिसको भी
“नियम से विचलन मानेंगे वह 'उनके अनुसार सामाजिक समस्या होगी ।
हार्टन और लेस्ले के जनुसार सामाजिक समस्या वह स्थिति है जो चहुत्त से
लोगो को अनुचित रूप से प्रभावित करती है और जिसका निवारण सामूहिक क्रिया
से ही हो सकता है ।* इस परिभाषा में चार मुख्य तत्त्व मिलते हैं--
4. एक ऐसी स्थिति जो समाज में बहुसंस्यक लोगो को प्रभावित करती है।
2. प्रभाव ऐसा है जिसे अनुचित व हानिकारक समझा जाता है ।
3. जिसका निवारण सम्भव माना जाता है अथवा इसमें सुधार की
सम्भावता का विश्वास है ।
4, निवारण सामूहिक क्रिया से ही सम्भव है ।
इन तत्तवों के आधार पर हार्टन और लेसले का विचार है कि सामाजिक
समस्याएँ उत्पत्ति में सामाजिक हैं (क्योंकि वे समाज के बहुत सदस्यों को प्रभावित
करती हैं), परिभाषा में सामाजिक हैं. (क्योकि समाज उन्हे अनुचित मानता है),
तथा सुधार में सामाणिक हैं (क्योकि सामूहिक प्रयास पर वल दिया जाता है) ।”
सामाजिक समस्याओं को सामूहिक प्रयत्नो के आधार पर व्यक्ति तभी हल
कर पाते हैं जब उनके सोचने में ये चार तत्त्व होते हैं---
7. एक चिश्वास कि जीवन की परिस्थिति को सुधारा जा सकता है, *
2. इन परिस्थितियों को सुधारने का निश्चय,
3, सुधार लाने व समेन्नति के लिए वेज्ञानिक ज्ञान तथा तकनीकी निपुणता
(४०४० ०हांध्बो अंत!) का प्रयोग, तथा
4. व्यक्तियों में एक गहन विश्वास कि उनकी बुद्धि और प्रयास के कारण
उनकी समुन्नति की कोई सीमा नही है।
चस्तुतः हम कह सकते हैं कि मनुष्यो अथवा समूहों के व्यवहार से उत्पन्न
दशाएँ जो आधारभूत सामाजिक मूल्यों की चुनौती हैं चया जिस चुनौती के प्रति
सचेत होकर समाण के वहुसंख्यक लोग अपेक्षित रचनात्मक कार्ये करने की आवश्यकता
अनुभव करते है, सामाजिक समसस््याएँ कही जायेंगी ।
358 8००४] फाठएंश्या 48 3 007गंणा छांती व 06गरारए0 99 3 एशाओंतिशब06
प्रणफहर ठा एड्ाइ00$ 45 8 तल्शंबांता वित्त 50च्रा6 5०चश गा छेंयी पल काध्यंआ,?
फ्णोक्, फाक्रोगघत ९0. गाते ३३०३, एालाडाएं 2., "॥6 पक्राप्राग प्राआठा३ 004 3059] *
ए/एण९ा, 4कालांट्दव 5ग्लंगग?व्द्वं ३००७, 294, ४०. 6, 320.
हे ह सकाता, एिण 9. बाव॑ ॥6€ञ86, उठाए ?2., 7#6 उत्द्रगग? मी 3न्ठता
4/०8/धशज, #990९9॥ (थापय४ (7०३ वरा८., [(, ४07, (2एप ९७६०॥), 4960, 4.
॥55009 फाठ्ज॑दा$ डा उठलंओें क्5 तांड्ोंस (89०8 पपर४ शील््टा 4 ]88९ 56९०
6 38००९५), 5०छंब्री 30 वलीव्रापिग्व (अ॥ए७ 50लंल> स०वड्रतशड वीला खगा6&चरो497९) शाए
इप्शोब वंघ्र धदबापरिंट7१ (फाशर #संगड ध्याफ्धधश्चाड 00 ०णी०८घ४६ ३5०शंत्रा 8707) /” /8/2., 6.
4 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
सामूहिक प्रयत्न के अतिरिक्त जो समस्या के निवारण के " लिए व्यय आदि
की आवश्यकता होती है वह भी सावंजनिक धन से किया जाता है । श्रीमती बारबरा
बूटन मे इसी सा्वेजनिक घन के व्यय के आधार पर ही सामाजिक समस्या को
परिभाषित भी किया है। उनके अनुसार सामाजिक समसस््याएँ वे क्रियाएँ हैं जिनके
निरोध के लिए सावंजनिक धन व्यय किया जाता है अथवा जिन (क्रियाओ) के करने
वालों को दण्ड देने का व्यय भी सार्वजनिक घन से ही किया जाता है ॥* परन्तु बटन
की परिभाषा बहुत सीमित है और इसको मानने का अथ यह होगा कि सामाजिक
समस्याओं में केवल “क्रियाओं को ही सम्मिलित किया जाये 'परिम्थितियो' को नही;
और क्रियाओं मे भी केवल उन क्रियाओं को जो एक विशिष्ट समय में राज्य का
ध्यान आकपित करती हैं। इस आधार पर निर्धतता तथा औद्योगिक संघर्ष
जैसी परिस्थितियों को सामाजिक समस्याओं के क्षेत्र से अलग करना होगा। यही
कारण है कि बटन की परिभाषा को अधिक मान्यता नहीं भ्रदात की जाती ।
इस प्रकार सामाजिक समस्याओं के प्रति. जो फुल्लर, मेयसं, बटन आदि द्वारा
कुछ गलत धारणाएँ (/8॥8046७) श्रस्तुत की गयी हैं, जिनका कोई आधार नही है , हमे
समाप्त करनी होंगी, जैसे यह कि, सामाजिक समस्याएँ स्वाभाविक और अवश्यम्भावी
हैं, या सामाजिक समस्याएँ 'खराब' लोगों द्वारा.उत्पन्न की जाती हैं, या सभी लोग
सामाजिक समस्याओं का निवारण चाहते हैं, या सामाजिक समस्याओं का अपने आप
समाधान हो जायेगा, या सामाजिक समस्याएँ बिता सस्थात्मक परिवतनों के हल हो
जायेंगी, आदि ।* फिर, हमें यह् भी स्मरण रखना होगा कि किसी समस्या का समाधान
तुरन्त सम्भव नही है। फुल्लर के अनुसार सामाजिक समस्याओं को परिभाषित किये
जाने और उनके निवारण के बीच तीन अवस्थाओ से गुजरना पड़ता है"...
() सचेतना (&७थ7०००55)--इससे पहले कि किसी परिस्थिति को
सामाजिक समस्या माना जाये, लोगों में इस हृढ़ विश्वास का होना आवश्यक है कि
वह परिस्थिति अनुचित है और उसके समाधान के लिए कुछ किया जाना चाहिए ।
(2) नीति-निर्धारण (?०॥०७ 0०शाांतभोणा)--सामाजिक समस्या के
अस्तित्व (४०7००) के माने जाने पर उसके निवारण के लिए कुछ सुझाव दिये
जाते हैं। इनमे से किसी एक सुमाव को मानकर उसको सफलता के लिए फिर
साधन ढूँढ़ने के प्रयत्व किये जाते हैं |
(3) छुघार ((१८(०7४)--साघन दूँढने के पश्चात् उसको कार्यान्वित्त करने
का प्रइन आता है ।
सामाजिक समस्याभ्रों के कारण
राव और सेल्डनिक के अनुसार सामाजिक समस्याएँ तभी उत्पन्न होती हैं
ब छु.ा5ा३ ०0007, उन्ल॑ग उलट ब्यवं उत्सव >द# ०822.
# एृ१0005 डघवे [.23॥6, ०7. २४... 6-2.
४ एणाल, शिक्केडत्ठ ए. 854 8१7०, रागाजत्व पे... ०5. ८(/. 320-28.
सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवतंन 5
जब--.() एक संगठित समाज के लोगों के सम्बन्धों को व्यवस्थित करने की
योग्यता समाप्व होती प्रतीत होती है, (7) समाज की विशिन्न संस्थाएँ विचलित
होने लगती हैं, (॥) समाज के कानूनों का उल्लंघन किया जाता है, (४) समाज के
मूल्यों का एक पीढ़ी से दूसरी को संचारण (7575&0॥) बन्द हो जाता है, तथा
(५) आकांक्षाओं का ढाँचा (टिवया०७४०7८ ० ०००८४१०7७) सड़खड़ाने लगता है ।
पाल लैण्डिस ने सामाजिक समस्याओ के निम्न कारण बताये हैं--
() व्यक्तितत समायोजन की असफलता (शाप वी कथाइणाथ् 80]प7४767(),
(४) सामाजिक संरचना में दोष (त०(६९७ गा 5००ंगों आपंलंपा८७5), (7) संस्थात्मक
समायोजन की असफलता (श्ीफ्यल वं। गंगधाप्रांणिव बतुंप्रशशाथा), तथा
(५) सामाजिक नीतियों मे संस्थात्मक अगतिशीलता (#रहमाएीणाओं वह वी
$०्णंथ ए0॥09) ।
व्यक्तिगत समायोजन की सफलता का कारण गिलिन और गिलिन (छाए
0 0) ने अपूर्ण समाजीकरण बताया है ।*
राव और सेल्जनिक तथा पाल लैण्डिस ने सामाजिक समस्याओं को अलग
अलग कर उनका विश्लेषण किया है जबकि हरमन (प्रट्या॥0)/ और वाल्श
(प०५४)४ आदि ने इस प्रकार के अध्ययत विधि की आलोचना की है क्योकि अब
यह माना जाता है कि सभो समस्याओं का पारस्परिक सम्बन्ध है ।
सामाजिक समस्या भौर सैद्धान्तिक श्रवधारणा
विभिन्न सामाजिक समस्याओं में पारस्परिक सम्बन्ध पाये जाने की मान्यता
के अतिरिक्त अब यह भी विश्वास किया जाता है कि सभी समस्याओं का एक
सामान्य आधार है। इस सामान्य आधार की चार अवधारणाएँ--सामाजिक
विघटन, सांस्कृतिक विलम्बना, मुल्य संघर्ष और वैयक्तिक विचलन--मिलती हैं। हम
इन चारो सँद्धान्तिक अवधारणाओं का अलभ-अलग विश्लेषण करेंगे।
सामाजिक विघटन का सिद्धान्त (7॥6079 ० $0लं॥! 0080784754॥07)
सामाजिक विघटन के कारण सामाजिक समस्याओं की उत्पत्ति को मानने
वाले विद्वानों का यह विश्वास है कि अतीत काल में कोई समस्या थी ही नहीं ।
समाज में एक प्रकार की स्थिर साम्यावस्था थी जिसमे क्वियाओं (9720०0०९5) और
मूल्यों में समन्वय था | फिर कुछ ऐसा परिवर्तन हुआ जिसने इस समन्वय की नष्ट
3) इर्बद्ठत 374 $वाट्वाह॥, ०5. ८2/., 6.
कर एड [,ब्रग05, ०7, (६
पे वध बणव (9, ०9, €।.. मु
35 प्रथा), 40000 9,, 48 4/#:0व 7० 50ठंदां 2:०१/शक्रड,. छ0500,.. 097,
949, 9-7,
38 ए/बाच् इ0व #एाह७, ००. थ।., 42,
6 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
कर दिया । इस परिवर्तन के कारण नयी क्वियाएँ और नयी स्थिति पंदा हुई जिसमें
या तो पुरानी क्रियाएँ समाप्त हो गयी अथवा उन्हें अनुचित व अनुपयोगी समझी
जामे लगा । इस उत्पन्न अव्यवस्थित स्थिति में यद्यपि पुरामे नियम अस्वीकार किये
जाने लगे व उनकी उपेक्षा होने लगी परन्तु नये नियम अभी स्वीकार नहीं किये गये
थे । परिवर्तन ने इस प्रकार पुराने व्यावहारिक ढाँचे फो विधटित कर दिया अथवा
ऐसी स्थिति पैदा की जिसमें व्यक्ति अपने ही समाज के नियमों से नियन्भ्रित मही
होते थे अथवा उसके भूल्यों और मैतिकता के अनुसार कार्य नहीं करते थे। इसी
सामाजिक विघटन की स्थिति के कारण ही सामाजिक समस््याएँ उत्पन्न हुई ।
रोलाण्ड वारेन ने सामाजिक विघटन को एक वह स्थिति बताया है जिसमें
ऐकमत्य की कमी, संस्थाओं के एकीकरण का अभाव और सामाजिक नियन्त्रण के
साधनों की अपर्याप्तता पायी जाती है !९ एक मत के अभाव में समूह के लक्ष्यों के
प्रति मतभेद और भावनात्मक धारणाओं में विरोध मिलता है। ऐसी स्थिति में
समाज की विभिन्न संस्थाएँ एक-दूसरे के विपरीत कार्य करती हैं ओर इससे जो
अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न होती है उसके कारण व्यक्ति समाज में अपने नियमपूर्वक
कार्य नही कर पाते । विधटित सामाजिक समूह का एक उदाहरण है आकस्मिक भय
और घबराहट के कारण सेना का भागना । ऐसी स्थिति में सेना एक'कुशल लड़ने
वाले समूह से भीड़ वन जाती है। अतः हम कह सकते हैं कि सामाजिक विधटन
के भुख्य लक्षण हैं: पद और कार्य की अनिश्चितता, नियन्त्रण के साधनों की शक्ति में
कमी, तथा ऐकमत्य का अभाव । फैरिस ने सामाजिक विधटन के लक्षण इस प्रकार
दिये हैं!” : पवित्र तत्त्वों का ह्वास, स्वार्थों और रुचियों में वैयक्तिकता (॥7ताशंवए-
॥), वैयक्तिक स्वतन्त्रता और व्यक्तिगत अधिकारों पर बल, भौतिक सुख सम्बन्धी
(76००४$70) व्यवहार, एक-दूसरे पर अविश्वास, तथा अशान्ति उत्पन्न करने
वाले तत्त्व ।
रावर्ट फैरिस जंसे कुछ लेखको का विचार है कि सामाजिक विघटत का
सिद्धान्त उस परिस्थिति को स्पष्ट नही करता जिसमे सामाजिक सभस्या उत्पन्न
होती है ।8४ इस कारण ये लेखक सामाजिक विधटन को सामाजिक समस्याओं का
मुख्य कारण नही मानते । फेरिंस सामाजिक विधटन! की धारणा को सामाजिक
समस्या का प्रतिस्थापक (5७050(ए७९) मानता है। उसका कहना है कि सामाजिक
विघटन को अध्ययनकर्त्ता के स्वयं के मुल्यों के भ्रमाव के बिना वस्तुनिष्ठता
(०४ं००ाशा।) से मालूम किया जा सकता है जवकि सामाजिक समस्या में स्पप्ट रूप
से मूल्य समावेश (श्थाए८ ००४०४४०४) पाया जाता है जिस कारण वह एक
3५ ५# ८णाप्याप00 गार0जाड 4९९ ० टजाब्टाएए5, 807 त(हहथाणा 08॥00-
[075 8707 उ0ड्तएच6 ॥8८8083 छा इ0लाबोी जाए, 06379, ॥.. एशबाउटा), 5009
॥05078भा5शराा 3009 धाट जालाशबा05४9 ० 0एजफाडओ ए०९३१ #4#न््कॉट्व ड०2०-
4०८4४ अ7९ा2४, ४०१. 44, 949,
2? इृद्ा5, ॥७७०॥ ए,7.., 57वें 050 एवए्यैं4/००, 7९०००0, पर, ४००८, 955, 9,
पे 7884., 35-36.
सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन प्र
वस्तुनिष्ठ घारणा नही है। परन्तु वाल्स और फर्फे ने इस विचार को सही नहीं
साना है। उनका कहता है कि सामाजिक विघटन की घारणः में भी पक्षएतत
मिलता है।” जब समाजश्ञास्त्री सामाजिक विघटन के सम्भव लक्षण बताते हैं तब
आवश्यक है कि उनकी यह घारणा पूरी तरह वस्तुनिय्ठ बही हो सकती | उदाहरण-
तया हाब्स* द्वारा सामाजिक विधघदन के कारणों और उसके समाधान के लिए
आर्थिक कारक पर अधिक बल दिया गया है जो स्पष्ट रूप से लेसक का पद्षपात
सूचित करता है ।
इस आधार पर हम कह सकते है कि सामाजिक समस्याओं के उत्पत्ति
सम्बन्धी सामाजिक विघटन का सिद्धान्त समाज की उन सभी स्थितियों को स्पष्ट
नही करता जिनसे सामाजिक समस्याएं उत्पन्न होती है। हिटलर की जमंनी और
स््टालिन का रूस समाज पूर्णतः निविष्नता से कार्य कर रहे थे। उनमें सामाजिक
विघटन किसी माणा में भी नही था। परन्तु फिर भी दोनों समाजों में सामाजिक
आदर्शों से विंचलन मिलता था जिसके लिए सामूहिक क्रिया की आवश्यकता थी।
दूसरे शब्दों में दोनो समुदायों में सामाजिक समस्याएँ मिलती थीं ।
लेकिन इसका यह अर्थ भी नही कि सामाजिक विघटन और सामाजिक
समस्या का पारस्परिक सम्बन्ध ही नही है! यद्यपि सामाजिक विघटन सामाजिक
समस्या को ध्रू्ण रूप से नहीं तो कुछ अंश में अवश्य समभाता है। वाल्स ने भी
इस तथ्य पर बल दिया है ।*
हार्टन और लेस्ले के अनुसार सामाजिक समस्याओं भे सामाजिक विघटन के
अध्ययन विधि के भ्रयोग में हम निम्न कुछ प्रश्न पुछते है :१* परम्परागत नियम और
क्ियाएँ क्या थी ? किस प्रकार के सामाजिक परिवतेनों ने उन्हें व्यर्थ थ निर्थक
बना दिया ? कौनसे पुराने नियम समाप्त हो गए है ? क्या समाज में परिवर्तन
अब भी हो रहा है ? यदि हाँ, तो किस गति से और किय दिखा में ? असान्तुष्ट
समूह कौन-कौन से हैं तथा उन समूहों ने समस्याओं के समाथान के लिए कौनरो
उपाय बताये हैं ? जो उन्होंने निवारण के विभिन्न उपाय बताये हैं उनमें से कौनरो
सामाजिक परिवतेन के अनुकूल हैं ? भविष्य में किन नियमों को मान्यता अदान कौ
जाएगी, इत्यादि ।
सांस्कृतिक विलम्बना का सिद्धान्त (77609 ० टप/एर् 7.98)
यद्यपि परिवर्तन हर समाज में पाया जादा है परन्तु सभ्यता यय हर पहलू
# ९७॥)॥ 880 +छ[०५, ०, ६., !4.
3९ [६009$, #. ., 2#6 ८/छशह ०/37तगगरऊर 4 ८तााएबर ०/ उत्या 27०,
पावा$0प्रत्ड, 5050:50०, 495॥, (४. 9, ्
मे बु( क6 इ०८ा3] 630इश्यॉइबांएण शीलणज 4$ ॥07 8 [9] €त43009 [0
इ०टरांगे 7709०75, 40 45 8॥ [९35६ 8 फथव9] ८़ौद्लण्या0ा णि 3799 0 6.7
&॥9 ्वाा५, ०९. ४॥., 5.
७ ह[0760०9 337 [.९5॥८, ०5, ८.ढ, 32
/ *
४] के # कक.
8 सामाजिक समस्याएँ और सासाजिक परिवर्तन
एक ही मात्रा में तथा एक ही गति से नही वदलता | सांस्क्रेतिक विशम्वना के
सिद्धान्त को मानने वालों का यह विश्वास है कि औद्योगिक प्रगति इतनी तीत्र गति
से होती है कि उसमें हम अपना समायोजन नही कर पाते । दूसरे घब्दो मे अभौतिक
संस्कृति की प्रगति भौतिक संस्कृति की प्रगति से पीछे रह णाती है। संस्कृति के
दोनों पक्षो में से एक के अधिक विकसित हो जाने और दूसरे की वृद्धि उसी अनुपात
में न हो सकने की स्थिति को ऑगवर्न ने “सांस्कृतिक विलम्बना” माना है। यही
सास्कृतिक विलम्वता सामाजिक समस्याएँ भी उत्पन्न करती है। उदाहरण के लिए
भारत में औद्योगीकरण का विकास तो उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से शुरू हो गया
और कारखानो में दुघंटनाओ की संख्या बढती गयी परन्तु श्रमिकों के लिए श्रमिक
क्षतिपूति अधिनियम (जगांताकां३ 0०एफथा5४४०० #०) 923 में ही पास
किया गया। मालिकों और श्रमिकों के सम्वन्धों को नियत्रित करने एवं श्रमिकों के
शोषण को रोकने व मालिको और मजदूरों के भग्डों के निपटाने सम्बन्धित कानून
946 में ही पास किया गया तथा श्रमिक संगठनों का निर्माण व विकास 930
के बाद ही हुआ इस प्रकार बीच का काल सांस्कृतिक विलम्बना का काल था।
इसी तरह देश में बेरोजगारी इतनी पायी जाती है परन्तु अभी तक बेरोजगारी बीमा
जैसी सुरक्षा की थोजना आरम्भ नही की गयी है। इस स्थिति और आवश्यकता
के मध्य का तनाव 'सास्कृतिक विलम्बना' ही कहलायेगा। सामाजिक सुरक्षा की
योजना के अभाव मे वेरोजगार व्यक्ति यदि सामाजिक नियमों से विचलित होगे तो
अपराध की समस्या स्वाभाविक ही है। इससे पता लगता है कि संस्थात्मकः अभि-
योजना के अभाव मे अथवा सांस्कृतिक विलम्बना से किस प्रकार सामाजिक समस््याएँ
उत्न्न होती हैं। आँगवर्न ने इस सांस्कृतिक विलम्बना के कारणों भें व्यक्तियों की
रूढ़िवादिता, नए विचारों के प्रति भय, अतीत के प्रति निष्ठा, निहित स्वार्थ तथा
नवीन विचारों की परीक्षा मे कठिनाई बताये हैं ।!* सांस्कृतिक विलम्बना का सिद्धान्त
कुछ सामाजिक समस्याओं को तो स्पष्ट करता है पर सभी को नही | किर्तु वास्तव
में इस सिद्धान्त को मानने वाले भी यह दावा नही करते कि 'सास्कृतिक विलम्बना'
सभी सामाजिक समस्याओं को स्पष्ट करती है | स्थायी समाजों में भी अपराध
और निर्धनता जेसी समस्याएँ पायी जाती हैं ।
मूल्पों में संघर्ष फा सिद्धान्त (४००४ 0०070 796०५)
सामाजिक मूल्य हमारे जीवन के लिए इस कारण महत्त्वपूर्ण हैं बयौकि यही
मूल्य यह निश्चित करते हैं कि समाज के लिए क्या महत्त्वपूर्ण है, किस वस्तु को प्राप्त
करने का भ्रयत्त करना चाहिए तथा किनसे बचना चाहिए । दूसरे शब्दी में समाज
के मूल्य ही उसके अधिमान (छार्शटा८४०८५) और जम्वीकृत आचार (70[९०४०४॥)
3३ 0800७79 ४. ए. 504 रगाणी, छह. ए,, उत्लग॑गएऊ, पिण्णडगा00 गाए
+ छे०श67 (३3४व ९३४०७), 958, 703-2.
सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन "9
होते हैं। हर समाज में बहुत से मूल्य समान रूप से महत्त्वपूर्ण नहीं होते । कृछ मुल्य
दूसरों की अपेक्षा कम महत्त्वपूर्ण होते हैं और कुछ समाज के प्रत्येक कार्य में आधार-
भूत होते हैं। फिर, अलग-अलग समूहों के मूल्य अलग-अलग होने के कारण मूल्य-
मतभेद मिलता है। इन्ही मूल्यों में मतभेद अथवा मूल्यों के सामान्य अर्थों में परिवर्तन
के कारण सामाजिक समसस््याएँ उत्पन्न होती हैं। उदाहरण के लिए, रूढ़िवादी व्यापारी
व्यक्तिगत प्रीत्साहन और लाभ-उद्देश्य पर आधारित पुराने पूंजीवाद के पक्ष मे होते
हैं जवकि उदारवादी व्यापारी व्यापार परः सरकार का कठोर नियस्त्रण चाहते है
अथवा वे समाजवाद के पक्ष में होते है। दोनों समूहों मे तीतियो के अन्तर के
अतिरिक्त मूल्यों में भी अधिक अन्तर मिलता है। रुढ़िवादी इस कारण पूंजीवाद को
व्यक्तियों के लिए अच्छा मानते हैं क्योंकि उनके अनुसार इस ढाँचे से अभिलापा,
अल्यव्ययिता तथा कठोर परिश्रम आदि जैसे मूल्यों को प्रोत्साहन मिलता है। दूसरी
ओर, उदारवादी इस ढाँचे (पूंजीवाद) में एक भौसत व्यक्ति का शोषण और कुछ
विश्विष्ट व्यक्तियों का लाभ पाते हैं। मूल्यों के इस तरह के संघ से सामाजिक
समस्थाएँ उत्तन्न हीती हैं। फ़ुल्चर का भी कहना है कि हमारे आधिक स्वार्थ के
कारण अपराध बढ़ते है, पूँजीवादियों के मुताफेखोरी के कारण श्रमिकों में बेरोजगारी
उत्पन्न हीती है तथा एक-विवाह की प्रथा पर वजल देने के कारण अविवाहित माताएँ
बच्चों की उपेक्षा करती हैं /४ उगूवर और हारपर ने परिवार सम्बन्धी सामाजिक
समस्याओं में प्रौढ़ और युवा पीढी के मूल्यों के सघर्प का उल्लेस किया है। प्रौढ़
पीढी के मूल्य विवाह की पवित्रता, रूढ़ियो की आस्था, परम्परागुसार कर्ता के
सर्वाधिकार सम्पन्न व्यक्ति होने, आदि में विश्वास करते हैं, जबकि युवा पीढ़ी के
मूल्य अधिनायकवाद, व्यक्तिगत योग्यता, समान अधिकार आदि पर आधारित होते
हैं १ वाल्लर ने सामाजिक समस्याओं की उत्पत्ति संगठन सम्बन्धी और मानवतावादी
लोकाचार मे संधपं के आधार पर वतायी है ।* संगठन सम्बन्धी मूल्यों में बह
व्यक्तिवाद, वैयक्तिक सम्पत्ति आदि लोकाधार सम्मिलित करता है और मानवता-
बादी लोकाचार में वह संतार को अच्छा बनाने की इच्छा अथवा लोगों के कप्टो
का समाधान करने जैसे मूल्य सम्मिलित करता है ।
फुल्लर, कयूबर और वाल्लर के विश्लेषण मे कुछ दोष मिलते हैँ। फुल्लर
का यह विश्वास कि हमारे वर्तमान लोकाचार घन पर अधिक बल देते हैं और यह
धारणा चोरी के अपराध की प्तमस्या को प्रौत्साहन देती है, सही नही है क्योंकि पूरे
अपराध की समस्या को केवल मूल्यों के संघ के आधार पर नहीं समभाया जा
सकता । इसी प्रकार क्यूबर और हारपर की यह मान्यता कि वर्तमान परिवार की
ब झाप्रोक, फाटागात (., ब्रा शच्छंता गे प्रध्तांगढ 8००॑ंगर काक्ाटा$',
अींफाशार्या 7गवकावा 2/5०2०7०९०, (44), 4937, 49,
रू एफ्था, उगाए के, बात परबाफुल्ल, रि०ट६ &... उ77शट्यफ ० 7
कै०लेश ३ 72/7९३ ०० ८०#पिट, सठ॥, २, ४०7/८, 948, 305-06.
2 ज्यादा ज्राधद्वाव, १0०2वां शरत्णल्ाड बचव धढ 30763 #लदवदत
हवा >?शपंट०, 936 (4), 924,
१0 सामाजिक समसस््याएँ और सामाजिक परिवर्तन
कुछ समस्याएँ किसी न किसी मूल्य के संघपे के कारण होती हैं सही हैं परन्तु यह
मानता कि सभी पारिवारिक समस्याएँ केवल मूल्यों के संघर्ष के आधार पर ही
स्पष्ट की जा सकती है गलत होगा क्योकि ऐसे समुदायों मे भी जहाँ मूल्यों में पुर्ण
सहमति मिलती है पति-पत्नी अथवा माता-पिता तथा सन्तान के सम्बन्ध पूर्ण रूप
से समस्यामुक्त नही मिलते हैं।
इस तरह यह कहा जा सकता है कि मूल्य संघ दो तरह से समाज में
सामाजिक समस्याएं पैदा करते हैं--पहला, वे वाँछनीय सामाजिक परिस्थितियों के
विरोधी परिभाषाएँ देने से समस्याएँ उत्पन्न करते है--और दूसरा, वे नैतिक अव्यव-
स्थितता (7० ००॥०श४०॥) को उत्साहित करते है जिससे वेयक्तिक विचलन को
प्रोत्साहन मिलता है।
इस अध्ययन विधि के प्रयोग में हार्टन और लेस्ले के अनुसार कुछ प्रश्न इस
प्रकार पूछे जाते हैं?--कौत्-से मूल्यों में संघर्ष पाया जाता है ? मूल्य संघर्प कितना
गहरा है ? समस्या के समाधान के लिए दिया हुआ सुझाव कौनसे मूल्यों को समाप्त
करना चाहता है, इत्यादि ।
चैयक्तिक विचलन का सिद्धान्त (?शइ०णाश 06एंथाणा 8फछा/०००7)
सामाजिक विघटन के सिद्धान्त में हम यह देखते हैं कि कौन-से नियम, मूल्य
व क्रियाएँ हूठे है, किस तरह के परिवर्तन के कारण हूटे हैं, और कौन-कौन-से नये
नियम उत्तन्न हुए हैं । दूसरी ओर, वेयक्तिक विचलन के सिद्धान्त (9८5079] 06ए9-
धं०० ०997020) में हम उन लोगों की प्रेरणा और व्यवहार का अध्ययन करते
हैं जो समस्या को उत्पन्न करने मे प्रभावशाली हैं, जो उसकी प्रकृति को परिभाषित
करते है, जो उसका विरोध करते हैं अथवा जो उसके समाधान के सुझाव देते हैं ।
में लोग विचलित व्यक्ति हैं जिनका विचलित व्यवहार सामाजिक समरयाओं की उत्त्ति
से बहुत सम्बन्धित है । इस प्रकार हम वेयक्तिक विचलन की अध्ययन-विधि द्वारा मह्
सालूम करने का प्रयत्न करते हैँ कि वंयक्तिक विचलन कंसे विकसित होता है, तथा
सामाजिक समस्याओं में किस प्रकार का वँयक्तिक विचलन पाया जाता है।
वैयक्तिक विचलन के दो मुख्य कारण पाये जाते हैं--(क) समाज द्वारा
सान्यताप्राप्त नियमों के पालन की असमर्थता; (ख) समाज द्वारा मान्यताप्राप्त
नियमों के पालन में असफलता । इससे ज्ञात होता है कि वेयक्तिक विचलन ऐसे
व्यक्तियों में पाया जाता है जिनका सही समाजीकरण नहीं हुआ है अथवा विचलित
व्यवहार समाजीकरण प्रक्रिया के असफलता के कारण पेदा होता है। जहाँ तक
वेयक्तिक विचलन के प्रकारों का प्रइव है इसके दो प्रकार मिलते हैं--() मान्यता-
प्राप्त नियमों से विचलन, (2) स्वयं उत्पन्न किए हुए नियमों वाले विचलित उप-
संस्कृतियों का पाया जाना।
# झुतााए5 १8५ [-ाट, ०. ८0-, 38-
सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन 8 ।
सामाजिक समसस््याओ में वैयक्तिक विचलन' के अध्ययन-विधि के प्रयोग में
हम हर्टन और लेस्ले के अनुसार निम्न प्रइन पूछते हैं“---किस प्रकार के व्यक्ति और
समूह नियमों से विचलित होते हैं ? क्या विचलित व्यक्ति स्वयं समाज के लिए
समस्या हैं अथवा वे समस्या उत्पन्न करते हैं ? यदि समस्या उत्पन्न करते है तो कैसे ?
क्या विचलित व्यक्ति मौलिक रूप से कुसमायोजित (773)90]7५०४) व्यक्ति हैं?
कौन-सी आवश्यकताएँ उनको मान्यता-प्राप्त व्यवहार से विचलन की प्रेरणा देती हैं ?
कौत-सी विचलित उप-संस्क्ृतियाँ पायी जाती हैं तथा इन समूहों द्वारा कौन-से तियम
माने जाते है ? नियमों से विचलन करने वाले व्यक्तियों के पुन:ःसमाजीकरण के लिए
कौन-कौन से सुझाव उपलब्ध हैं ?
उपर्युक्त चार सिद्धान्त कुछ सामाजिक समस्याओं का आपस में अन्तर-
सम्बन्ध सिद्ध करते है परन्तु ये समी समस्याओं का हर प्रकार का पारस्परिक
सम्बन्ध स्पष्ट नही करते । वाल्स के अनुसार इन सिद्धान्तों का प्रमुख दोप समस्या
को बहुत सरल बनाने का प्रयत्व है ।/” हर सिद्धान्त सभी सामाजिक समस्याओं की
उत्पत्ति में एक सरल कारक पर बल देता है परन्तु स्थिति इतनी सरल नहीं है|
चर्तमान समाजशास्त्रीय अध्ययन यह स्पष्ट रूप से बताते है कि सामाजिक समस्या
कया निवारण इतना सरल नही हो सकता । यद्यपि चारों सिद्धान्तों की यह मान्यता
सही है कि सामाजिक समस्याएं समाज से ही उत्पन्न होती हैं भौर इस कारण उनमें
कोई सामान्य कारक होगा परन्तु वह 'कोई कारण' क्या है यह स्पष्ट नही कर पाये
हैं। हम यह मानते हैं कि विभिन्न सामाजिक समस्याओं का आपस में सम्बन्ध अवश्य
होता है) यही पारस्परिक सम्बन्ध उनके (सामाजिक समस्याओं) कारणों व निवारण
के विश्तेषण का आधार होना चाहिए।
सामाजिक समस्याओ्रों का निवारण
सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए निम्नलिखित तीन पहलुओं
(9097040॥65$) को ध्यान में रपना चाहिए---
(।) बहु-कारकबादी हप्टिकोश (१४७४छा०-४०० 8.9700४०॥)--इस
दृष्टिकोण के आधार पर हमें यह मानना पड़ता है कि कोई समस्या किसी एक कारण
से नही परन्तु अनेक कारणों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती है। उदाहरणतः यह
मानना कि भारत में क्योकि 80 प्रतिशत अपराध चोरी से सम्बन्धित होते हैं इसलिए
निर्धनता ही अपराध का मुख्य कारण है, सही नहीं होगा । यदि केवल निर्धनता ही
अपदाध का कारण हो तो सभी तिर्घन व्यक्ति अपराधी होते अथया धनी व्यक्तियों में
हमें अपराध बिल्कुल नहीं मिलता परन्तु ऐसा नहीं है। इस कारण अपराध का
कारण केवल निर्धतता न भानकर अनेक सामाजिक, मतोवैज्ञानिश और जैविकीय
3 /674., 35.
8 १७४४)५, ०5. ८४/., 8.
42 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
आदि कारक बताये जाते हैं। इस दृष्टिकोण को बहुकारकबादी दृष्टिकोण कहा
गया है।
(2) पारस्परिक सम्बद्धता ([007०3(०१॥०६३)--इसका भर्य यह है कि
एक सामाजिक समस्या अन्य बहुत समस्याओं से सम्बन्धित होती हैँ जिस कारण
हमे एक समस्या को सुलभाने के लिए अन्य रामस्थाओं को भी सुलभाने के प्रयल
करने पड़ते हैं। उदाहरण के लिए, अस्पृश्यता समस्या के रामाघान के लिए म केवल
हमे अछूत लोगों के आधिक व सामाजिक उत्थान का प्रयत्न करना होगा पर
साधारण लोगों के उनके प्रति पूर्व निश्वित घारणाओं ($९:८०॥७८७) को भी समाप्त
करना होगा जो थिक्षा आदि द्वारा ही सम्भव है। किर पास किये गये कानून के
कठोर परिपालन से लोगो में मय पैदा करना होगा कि अस्पृश्यता के मनाने से उन्हें
कठोर दण्ड मिल सकता है। इसके अतिरिक्त जातीय ढाँचे को भी समाप्त करने का
प्रयत्त करना होगा तथा परम्परागत व्यवसाय में जो अस्पृष्य लोग साधन अपनाते हैं
उनमें आधुनिकीकरण लाना होगा जिससे लोग उनको गन््दा, मूर्ख, बुद्धिहीन, अन्घ-
विश्वासी आदि न कहे । दूसरे छब्दों मे अस्पृश्यता के उपचार के लिए हमे निर्धनता,
अज्ञानता, जाति-प्रथा आदि समस्याओं को समाप्त करने का प्रयास करना होगा।
फिर कुछ सामाजिक समस्याएँ सामाजिक नियन्त्रण (कानून) से भी उत्पन्न हो सकती
हैं बयोकि साधारणतया लाभकारी कानूनों के साथ कई बार अवोदित परिणाम भी
प्रकट होते हैं। मशानिरोध अधिनियम के कारण अवैध रूप से दराव बेचना तथा
शराब का अवाछित व्यापार जैसे परिणाम उत्पन्न हुए हैं। इसी तरह वेश्यावृत्ति
अधिनियम के कारण अवेध यौत-सम्वन्ध अथवा अवैध वेश्यागृह आदि जैसी समस्याएँ
भी उत्पन्न हो गयी हैं। इस आधार पर विभिन्न सामाजिक समस्याओ के पारस्परिक
सम्बन्धों का विचार ही सामाजिक समस्याओं के उपचार का आधार हो सकता है।
(3) सापेक्षिकता (२९८[४४९५)--इसके अनुसार प्रत्येक सामाजिक समस्या
का समय और स्थान से अभिन्न सम्बन्ध होता है। कोई सामाजिक स्थिति हानिकर
और गम्भीर है अथवा नही, यह अमुक समाज के निर्णय पर आशित है । जिस समस्या
को एक समाज में गम्भीर माना जाता है आवश्यक नहीं कि अन्य समाजो में वहू
समस्या गम्भीर मानी जाती हो। उदाहरणत' जनसस्याधिक्य हमारे लिए अति गम्भीर
समस्या है परन्तु शायद चीन के लिए इतनी नहीं है। इसी प्रकार प्रजातीय संघर्ष
की समस्या जितनी इस समय अमरीका व अफ्रीका में मिश्नती है उतती अन्य देशों में
नहीं मिलती । फिर, जो समस्या आज समस्या मानी जाती है आवश्यक नहीं कि
सदा उसको समस्या ही समझ लिया जाये ।
सामाजिक समस्या का समाधान केवल उपर्युक्त पहलुओ के आधार पर सम्भव
हो सकता है और इन्हीं पहलुओ के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि कभी
यह सम्भव नही है कि किसी समाज मे अथवा किसी विशद्येप समय में कोई समस्या
पाई ही न जाये । समस्याएँ हर समाज मे हर काल मे मिलती हैं, केवल उनका रूप
व उनकी गम्भीरता अलग-अलग रूपो में मिलती है । समस्या के निराकरण के लिए
सामाजिक स्मेस्याएँ और सामाजिक परिवतेव व3
जब तक समस्त समूह रुचि न लें तब तक उसको समाप्त करना असम्भव है और
समस्त समूहों मे अभिरुचि उत्पन्न करना आसान नहीं है। जनता के एक भाग की
रूचि वेकारी समाप्त करने में होगी तो दूसरे की निर्धनता खत्म करने मे और तीसरे
की निरक्षरता (शपलाश३०४) दुर करने मे । सभी लोगो में आवश्यक धारणाएँ उत्पन्न
करना बहुत आवश्यक है। गिलिन मे इत आवश्यक सामाजिक धारगाओं को इस
प्रकार परिभाषित किया है--“जब एक समाज अथवा समूह किसी (अहितकर) स्थिति
का सामना करता हैं तव उसके (समाधान के) लिए ऐसी सामूहिक धारणाएँ उत्पन्न
करना जो किन््ही विश्वासों व भाववाओं पर आधारित हो ।२९
इन सामाजिक घारणाओ की उत्तत्ति मे नेता भुख्य कार्य कर सकते हैं | जिन
विभिन्न तरीकों से ये आवश्यक घारणाएँ उत्पन्न कर सकते है वे हैं--(क) अपने
उदाहरण हारा अपने अनुसरण करने वालो को प्रेरणा प्रदान करना, जैसे गाधी जी
ने अस्पृश्यता को समाप्त करने में अपना उदाहरण जनसाधारण के सामने रखा ।
(ख) व्यक्तियों को समस्या के निवारण के लिए नये व स्वस्थ विचार देना ।
(ग) सफलता भ्राप्ति से पहले सफलता का भ्रम उत्पन्न करना ।
जानसन के अनुसार सामाजिक समस्याओं का समाधान तीच कारकों के
कारण कठिन होता है--
(4) विद्यमान सामाजिक संरचना को शक्तिशाली भावनाओं (४८०४॥7९7॥5)
तथा निहित स्वार्थों (९९४६० [श८४($) का समर्थन होता है। वालर का कहना
है कि कभी-कभी यह निहित स्वार्थ उन्ही लोगों में पाये जाते हैं जो विद्यमात'
परिस्थिति को, जिसे हम सामाजिक समस्या मानते हैं, शोचनीय व हानिकर बताते
हैं।/ इसका. उदाहरण मिडेल* ने अमरीका मे प्रजातीय विभेद का दिया है।
उसका कहना है कि वे ही लोग जो प्रजातीय विभेद के मनन -मे शर्म व अपसान
अनुभव करते हैं उसे सस्ते श्रम, कार्य के एकाधिकार तथा ऊँची सामाजिक प्रतिष्ठा
मिलने के लाभ के कारण समाप्त करने के लिए अनिच्छुक पाये जाते है। भारत में
अस्पृश्यता, घूसखोरी व भ्रप्टाचार की समस्याओं के लिए भी यह कहा जा सकता
है ! समस्या को समाप्त करने के लिए दिये गये सुझावों का विरोध कई रूप में पाया
जाता है। सबसे सामान्य युक्ति जो अधिकतर निहित स्वार्थ वाले समूहों द्वारा
१० १7007 ९ए०शकटं०४ 6०0 8० #ण्ादा।ग्राशत 89 ॥ टॉप ०णरधाफ्रगाए ता
इएलाशड, इडहावालशाड 07 तल्डाटड, ऋगादा व. ३०2९७ 67 हाठपए णी वहतारातएवौड शा6
एजाणाहप जा 8 हॉश्व्क श्रीष्या[क्त,'. छा, 3. 7.., टलकाशलंगए कब बीछगक्ऊ,
#फए००च5 एथशआाए79, गैर, ४078, 945, 446.
शभ 0प्ता50॥, पिड्षााओ '... उ०ल/०१०-4 5957क्का2:. [##/ग्बबट/ए,,. #ताल्त
एप्णाआथवड शांस्वांद 7.6., छ8०ण0१७, 960, 640,
2 ब्रालह (७०. *$म्नंग ०0८७5 2०१ व6 #80765", #कटहल्डव उ्लंगगढ
अऑशांशर, ॥्रण, ॥, 922-33.
ग ह[ज़ए3, (., 4व 4क्टाव्यिव ऐप्रेकिय्व० ३ पगेट हेल्टल0 आहट ठद्वी *
इएथशग्त०० पेडाफटा, रे, हट, 944, 94.
34 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
अपनाई जाती है वह है समस्या के अस्तित्व को ही अस्वीकार करना। उदाहरणतः
उन्नीसवी शताब्दी मे वाल-श्रम एक सामाजिक समस्या थी, परन्तु कुछ फैक्ट्री मालिकों
ने जिनके कारखानों में बच्चे काम कर रहे थे, यह कहा कि वाल-श्रम इस कारण
अच्छा है क्योकि इससे बच्चो का चरित्र बनता है और उनमें वचत करने तथा मेहनत
की आदते विकसित होती है। ऐसे तर्क केवल मनोवैज्ञानिक युक्तिकरण (98900-
॥0809व 74/078॥$400०४७)है. और जनसाधारण को बहकाने के लिए होते हैं ।
(2) सामाजिक समस्या को सुलभाने मे साधारणतया दिया जाने वाला. यह
तर्क भी विरोध का कार्य करता है कि दिये गये मुझाव समस्या को सुलभाने के
बदले और ज्यादा हानियाँ उत्पन्न करेगे। निर्धनता को कम करने और औद्योगिक
विकास के लिए पूँजी उपलब्ध करने के लिए 969 में जो भारत में बैंको का
राष्ट्रीयदरण किया गया था उसके विरोध में बहुत से पूँजीपतियो और उनके
समयथंको ने ऐसे ही तक दिये थे |
(3) तीसरी कठिनाई धीरे-धीरे काये 'करने की है । उदाहरण के लिए बहुत
समय तक भारत में यही नहीं भाना गया कि राजनीतिक नेताओं तथा ऊँचे अफसरों
में भ्रष्टाचार पाया जाता है। अब जब उसे अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार किया गया है
तो उसकी समाप्ति के लिए प्रयास बहुत धीरे-धीरे हो रहे हैं।
यद्यपि निहित स्वार्थ वालो के युक्तिकरण [शीगाक्ांइथ्वांणा३ ० एलाव्त
एरशा८४५) केवल समस्या के समाधान सम्बन्धी प्रयास का विरोध करने मात्र होते
हैं परन्तु यह भी नहीं माना जा सकता कि उनके तक हमेशा ही गलत व बहकाने
वाले होते हैं । कभी-कभी उनके तक सही भी होते हैँ जिस कारण किसी सोचे हुए
सुझाव का सभस्या के निवारण के लिए तुरन्त प्रयोग नही किया जा सकता । प्रत्येक
सुझाव और प्रत्येक विरोधी तक की श्रेप्ठता को सामाजिक हितों के सम्दर्भ में
परखना आवश्यक रहता है। है
सामाजिक समस्याओं के समाधान का एक वैज्ञानिक सुझाव वाल्श और फर्फे
ने दिया है। उनका कहना है कि हर समस्या का निवारण अवलोकेन, निर्णय और ,
क्रिया द्वारा ही हो सकता है ।+ यहाँ अवलोकन के अभिप्राय वैज्ञानिक तरीके से
तथ्यों को एकत्रित करना है, निर्णय से अभिप्राय एकश्नित किये गये तथ्यों के वैज्ञानिक
विश्लेषण से है, और क्रिया से अभिप्राय विभिन्न कार्यों मे से सही कार्य को ढूँढ
निकालेसे है। हि
अवलोकन भ्रथवा तथ्यों को एकन्रित करमा--जव तक समस्या के सही कारण
मालूम करने के लिए पूरे तथ्य प्राप्त-नही है तव तक उसको समाप्त करने के लिए
कोई भी उपाय बताना-अनिष्ट होगा । उदाहरण के लिए, यह सुझाव कि कढोर
दण्ड देंने से अपराधी पुनः अपराध नही करेगा तथा अपराध बिल्कुल समाप्त हो
जायेगा तभी सही होगा जब सभी अपराधी 'सोचना' आरम्भ करेंगे । परन्तु क्योकि
७ १एग5॥ 994 एच, ०. | 23-59.
सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन 4$
कुछ अपराधी हीनबुद्धि के अथवा मानसिक रूप से अविफसित होते हैं और कुछ
अनुकरण व कुछ उद्गे ग आदि के कारण अपराध करते है इसलिए केवल कठोर दण्ड
अपराध-निरोधन का साधन नहीं हो सकता । इसी प्रकार यह कहना कि भारत में
अछ्ूत लीग प्रथाओं और नियमों द्वारा बदे हुए प्रतिबन्धों पर आपत्ति नहीं करते
बिल्कुल गलत होगा । ऐसा वे हो कह सकते हैं जिनको अस्पृश्य लोगों का राही भान
नही है । अत: किसी सामाजिक समस्या के समाधान का सुझाव केवल बैशानिक
तरीकों से तथ्य एकत्रित करके व उसके सही कारण मासूम करके ही दिया जा
सकता है। तथ्यों की प्राप्ति में दुज्ञानिक साधन अपनाने बाले इस समय तीन ही
समूह हैं : विश्वविद्यालय, सरकारी ससस््थाएँ तथा अनुसन्धानक्गरों कुछ गैर-सरकारी
सस्थाएँ । यद्यवि इन संस्थाओ द्वारा किये गये अध्ययन सामाजिक सर्मस्याओं के
निवारण के लिए सही तथ्य उपलब्ध कर सकते हैं परन्तु सामाजिक अनुसन्धानों
द्वारा प्राप्त तथ्यों की प्रामाणिकता मे. निदर्शत ($009॥78), अध्ययन-विधि तथा
पक्षपात॒ (0४5) आदि को,श्यान में रसना होगा ।, «+
निर्ंय भ्रथवां तथ्यों का विश्लेषश--तथ्यों के विश्लेषण की एफ विशेषता
यह है कि एक ही सामाजिक परिस्थिति की अलग-अलग व्यक्ति. अलग-अलग व्यास्या
देते हैँ । जनसंख्या के नियत्त्रण में परिवार नियोजन को कुछ लोग बुरा मानते हैं. तो
कुछ आवश्यक । इसलिए किसी सामाजिक समस्या के विष्लेषण में यह मालूम करना
अत्यन्त आवश्यक है कि कौन-सी सामाजिक घटनाएँ सामाजिक समस्याएँ उत्पन्त
करती हैं तथा कौन-सी कम महत्त्वपूर्ण । अब यह निर्णय कैसे लिया जाये ? इसके
लिए सर्वीच्च तरीका यह है कि प्राप्त सूचना के वैज्ञानिक विष्लेषण के अतिरिक्त
सामाजिक नीतिप्नास्त्र (5०अं ०४४०5), जो तय पर निर्धारित है, और नैतिक
अध्यात्मवियया (7००८) ॥०00०६५) जो नैतिक सदाचार पर आधारित है, फी भी
सहायता लेनी चाहिए, क्योंकि यह दोनो विज्ञान मानवीय व्यवह्ार के आदर्श नियमों
का अध्ययन करते हैं जिससे सामाजिक समस्याओं को राही तरीके से समझा जा
सकता है। .,
कर्म--वेशानिक विश्लेषण के उपरान्त हमें यह निश्चित करना होगा कि
सामार्जिक समस्या के समाधान के लिए कहाँ सामाजिक फर्म (502४) 8९०) फी
आवश्यकता है और कहाँ सामाजिक कार्य ($0शंशं ७०६) की। इन दोनो में अवार
है। सामाजिक कर्म प्रचलित सामाजिक और आर्थिक संरयाजों के परिवर्तन के लिए
एक प्रयास है जबकि सामाजिक कार्य उन व्यक्तियों वे सहायता पहुँचाना है, जिरहें
सहायता की आवश्यकता है। सामानिक कम॑ सामाजिक रामस्याओं को जड़ से
उखाइकर उनके उत्पत्ति सम्बन्धी कारणीं को दूर करने का प्रयत्न करती है,
सामाजिक कार्य केवल उनकी बुराइयों का शमन करता है। उदाहरणतः निर्धनता के
उपचार के लिए सामाजिक सुरक्षा सम्बन्धी कानून पास करता एक सामाशिक कर्म
होगा अवकि किसी निर्धव परिवार को कोई सहायता देना सागाजिक काये होगा।
इस आधार पर स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि सामाजिक कर्म माप्ानशिक +
]6 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
समस्या के समाधान का सर्वोत्तम उपयय होगा । फिर सामाजिक कर्म संगठित भी हो
सकता है और व्यक्तिवादी कर्म भी । संगठित कर्म सामूहिक प्रयास द्वारा अपनाया
गया कर्म है और सामाजिक समस्या को समाप्त करते के लिए यह ही संग्रठित कर्म
चाहिए। परन्तु व्यक्तिवादी कर्म भी कहीं-कहीं पर आवश्यक होगा । अन्त में हम कह
सकते हैं कि ध्याक्ति और समूह दोनों क्रियाझ्ील (8०४0८) होकर सामाजिक समस्या
का निवारण कर सकते हैं। दूसरा, सामाजिक समस्या के लक्षणों तथा उस समाज
के लक्षणों का, जिसमे समस्या को हल करने का प्रयत्त किया जा रहा है, विश्लेषण
ही सामाजिक समस्या के नियत्तण में सहायक होगा ।
सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तत
निरुषधि (7८३४४४) सामाजिक जीवन में विस्तार और समस्या में विकास
स्वाभाविक है । परन्तु यह विस्तार और विकास जो समाज में परिवर्तन उत्पन्न करता
है कभी-कभी हमारी सामाजिक संरचना की नीव को हिला देता है । इसका व्यक्तियों
और समूहों पर इसना प्रभाव पड़ता है कि सामाजिक कुसमायोजन (४०णंशे
गा240]039 600) पैदा होता है और इसी कुसमायोजन से सामाजिक समसस््याएँ
उत्पन्त होती हैं जैसा कि ऊपर बताया गया है सामाणिक परिवर्तेन और सामाजिक
समस्याओं का घनिष्ठ सम्बन्ध है । कुछ रामस्याएँ सामाजिक परिवर्तत का परिणाम
होती हैं और कुद्ध स्वयं सामाजिक परिवर्तन लाती हैं । फिर कभी-की सामाजिक
समस्याओं के समाधान से भी सामाजिक परिवर्तन होता है। समाज के परिवर्तन में
जब लोग समायोजन नहीं कर पाते तब इसी अपसमायोजन से सामानिक समस्याएँ
उत्पन्न होती हैं । फेल्पस और हेन्डर्सत में अमेरिका में 840 और 860 के मध्य
कैवल 22 समस्याएँ पायी जबकि 950 में इनकी संख्या उन्होंने 90 पायी ।" इनके
बढ़ने का एफ कारण उन्होंने सामाजिक परिवर्तत बताया है जो नयी परिस्पितियाँ
दैंदा करता है जिनसे विभिपष्न समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। उदाहरण के लिए, गाड़ियों
की दुर्धटनाएँ 860 में सामाजिक समस्या नही थी परन्तु अब उसे गम्भीर समस्या
मामा जाता हैं। ग्रितित डिट्रमर, कोलवर्ट और कैसलर का भी कहता है कि समाज
में परिवर्तव हर व्यक्ति और हर समूह को प्रभावित करता है और क्योंकि समाज का
शक बुत बड़ा भाग अपने को समय के अनुकूल शीघ्र और सम्पूर्ण रूप से बदत नहीं
पाता इस कारण सामाशिक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं ।५
मैल्मन, रेम्ज्े और वर्मेर” वा विचार है कि अधिकांश मालवीय समस्याओं में
विसी ने किसो रूप में सामाजिक फरिवर्तत मिलता है। सबसे पहले ती परिवर्तत
भ काराछ, शउाणंव 4. हब #004ंटाउठ8 0350, (०#/स०फ्रनण> उनसे गिक
##नऊ पिल्या&० हीजी, ह:72ॉ7७००० (4 ६5805), 7952, 6-7.
३९ 5॥॥7७ ३ ६... 9:8/666, 0.0. (०७, हू. 3., $.3४06; 7२. का, उत्सव 220०
हारूप (सश ल्राघ9त*,. पम्ेद पचाल ठ विठए एल्लड, ह0वाए3१५ 4965, 2.
३ कटाउउत, प्बताइटक बहाव धटाएटा, ०, 2. 39.
सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन हक
किसी प्रकार का भी हो उससे समस्याएँ अवश्य उत्तन्न होंगो क्योंकि परिवतेन अभ्यस्त
व्यवहार से एक तरह का विचलन है। दूसरा, परिवर्तेत के कारण जब व्यक्ति किसी
समस्या का सामता करता है और उसके समाधान हेतु वह अपने सम्बन्धों का
समायोजन करता है तो सम्बन्धों का यह समायोजन भी एक प्रकार का परिवर्तन
हीगा। कभी-कभी व्यक्ति के सामाजिक सम्बन्ध इस तरह बदलते है जिसका उसने
अनुमान भी नही लगाया था और न वैसे नये सम्बन्ध वह चाहता ही था। इन नये
अप्रिय तथा अनिच्छित सम्बन्धों के कारण फिर नयी समस्याएं उत्पन्न होती हैं । इस
प्रकार एक समस्या कै निवारण से दूसरी समस्या पंदा होती है और यह कार्यक्रम
निरन्तर चलता रहता है ।
सामाजिक परिवर्तन को अनुभव करना आसान है परन्तु उसकी प्रकृति की
भविष्यवाणी करना तथा इसका नियन्त्रण कठिन है। परिवर्तत को समभने के लिए
यह आवश्यक है कि कोई आधार रेखा हो जिससे परिवर्तन को नापा जा सके परन्तु
मूल्यों की भिन्नता आदि के परिणामस्वरूप यह आधारभूत रेखा प्राप्त करना सरल
नही होता ।
अब हमें यह देखना है कि भारत में इस शताब्दी में पिछली शताब्दी करी
अपेक्षा किस तरह का परिवर्तन मिलता है जिसमें हम अपना समायोजन नहीं फर
पाये हैं जिसके फलस्वरूप समस्याओं का सामना कर रहे है। मुख्य रूप से हमें घार
प्रकार के परिवर्तन मिलते हैं--- पर
4. धर्मरक्षित (5४०९०) से धर्मनिरपेक्षता (०८००) में परिवर्तन ।
2. समरूपता (#णा०हथाशा9) से भिन्नता (#९6६०एथाला३) में परिवर्तत ।
3. लोक कथाओं (0)0076) से विज्ञान ($थ्था०८) में परिवर्तन ।
4. प्राथमिक समूहों के प्रभाव में कमी ।
जहाँ तक परिवतंन लाने वाले तत्त्वों का प्रश्न है प्रमुस रूप, से चार तत्त्नो ने
इस सन्दर्भ से मुख्य कार्य किया है--(क) औद्योगीकरण; (ख) यातायात थे संचारण
के साधनो का विकास; (ग) शिक्षा के कारण धामिक विचारों में परिवर्तन; और
(घ) सरकार द्वारा पास किये गये अधिनियम । ओद्योगीकरण भारत में ब्रिटिश काण
से प्रारम्भ हुआ है। इस औद्योगीकरण का जाति-व्यवस्था, परिषार,, सम्पत्ति आदि
पर गहरा प्रभाव पड़ा है। पूंजीवाद उद्योग-व्यवस्था का प्रारम्भ सम्पत्ति प्रणाती वे
श्रम-विभाजन में परिवर्तत लाया है तथा इसने मये सामाजिक यर्गों को जन्म दिगा है
जिन्होंने भारत के राजनीतिक विकास में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। इसके
अतिरिक्त फैक्ट्रियों के विकास के कारण श्रमिकों मे बेरोजगारी, मात्तिब>श्रमिकों में
संघ, तथा इनके पारस्परिक सम्बन्धो आदि से भो सामाजिक समस्याएँ पैदा हुए *
“ * गिलिन, डिट्रमर, कोलवर्ट और फंस्लर" के अनुगार परियर्तन
दिद्वाएँ होती है--() प्राथमिक विश्ञा--जिमका प्रत्यक्ष सम्बन्ध नये. ऐ.
हे 2
| (3॥॥9, 700ए67 बगठ एबशाल, ०#. ८, 353.
]8 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तत
सरोज की स्वीकृति से, जनसंस्या की आकस्मिक अदला-वदुली (अंग) से, तथा
साधनों के प्रयोग (०फ्रांण।॥४68 ० 5९४०प४००७) ते है। (2) द्विततौपषक दिशा--«
जिसका सम्बन्ध प्राथमिक दिश्ला में प्राप्त परिवर्तेत से उत्पन्न हुए कुसमायोजन से है ।
उदाहरण के लिए आधुनिक चिकित्सा की प्रगति को लीजिए । नये आविष्कार
स्वीकार कर हमने वीमारी और मृत्युदर को कम किया है। यह परिवर्तत का
प्राथमिक पहलू है जो चिकित्सा-आ्षास्त्र में प्रगति के कारण मिलता है । परन्तु इस
प्रयति का द्वितीयक पहलू यह है कि हजारों-लाखों व्यक्ति जो. आधुनिक जीवन की
बढती हुई आवश्यकताओं का सामना नहीं कर सकते वे भी जिन्दा रहते हैं और ये
व्यक्ति सामाजिक समस्याएँ उत्पन्न करते हैं ॥ इस प्रकार अन्य उदाहरण लेकर भी
यह बताया जा सकता है कि परिवर्तन से उत्पन्न कुसमायोजन ही सामाजिक समस्याओं
के लिए उत्तरदायी है ।
सामाजिक समस्वाएँ भोर समाजशास्त्र
समाजशास्त्र सामाजिक समस्या को किसी एक कारण द्वारा स्पष्ट न करके
उसे सम्पूर्ण समाज की विभिन्न दिशाओं की पृष्ठभूमि में स्पष्ट करता है। एक
साधारण व्यक्ति सामाजिक समस्याओ को ऐसे देखता है जैसे सभी समस्याएँ अलय-
अलग रहती हो और उनको सुलभाने के लिए अलग-अलग प्रयास करने हो । इसके'
विपरीत समाणश्यास्त्री हर समस्या की जड़ें सामाजिक व्यवस्था में दूँढ़ता है। वह
सभी सामाजिक समस्याओं को विस्तृत दुष्टिकोण से देखता है तथा सम्पूर्ण जीवन
को कुछ भागो में विभक्त करके तथा तदुपरान्त उनका अध्ययन करके उनके व्यापक
स्वरूप को प्रस्तुत करता है। समाजशास्त्री न केवल सामाजिक घटनाओं को समभते
का प्रयत्व करता है अपिबु उन कार्यक्रमों और नीतियों को भी ढूँढ निकालने का
प्रयास करता है जिनसे समाज की उन्नति हो सके । बह प्राप्त तथ्यों से जो सिद्धान्त
विकसित करता है थे हमें वह वैज्ञानिक ज्ञान प्रदान करते हैं जिनसे समायोजन के
लिए आवश्यक कार्यक्रम उपलब्ध किया जा सके जिससे सामाजिक समस्याओ को
भी रोका जाएं। परन्तु क्लीमैन्स तथा एवराडे का कहना है कि विश्विप्ट समत्याओं
की सुलभाने के लिए समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों के सफल अयोग के बहुत कम उदाहरण
मिलते हैं ॥# सामाजिक समस्याओं का समाजग्मास्त्रीय शोध उसके समाधान हैतु
नहीं होता परन्तु व्यक्ति के व्यवहार को स्पथ्ट रूप से व्यक्त करने के लिए होता है ।
उदाहरणत:, भपराध के समाजदास्त्रीय अध्ययन का प्रमुख सकारात्मक योगदान
यह दिखाता रहा है कि अपराधी व्यवहार की जैविकीय, सवोवेशानिक तथा
भौगोलिक आदि अनेक प्रचलित व्याख्याएँ अमान्य हैं । वारवरा बूटत ने भी कहा है
कि स्रामाजिक व्याधिकी के प्रश्नों पर सुनिश्चित अस्वेषणों का प्रमाव मुख्यतः सभी
₹६ (;८ग्रा॥०० 2850 [। 7 4 फ् 242
उन्लगग0, 72 बात, 2#द242भार कील फलकाओी अकाविं दशदादाए थीं
साम्राजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवततंन !9
नये विश्वासों की विश्वसनीयता को कम करज़ा रहा है। समस्या के कारणों के
विश्लेषण और उनको दूर करने के उपायों में भी इस बात को समाजद्यास्त्री महृत्त्त
देते हैं कि उनसे सामाजिक मूल्यों को हानि न पहुँचे । उदाहरण के लिए, समाज-
शास्त्री अपराधी व्यवहार के शोध में न केवल विभिन्न प्रकार के अपराधों में भ्रेद
स्थापित करते हैं तथा प्रत्येक प्रकार के लिए विशिष्ट कारणो की खोज फरते हैं
अपितु इस बात का भी विश्लेषण करते हैं कि अपराधियों के सुधार मे कौनसे तरीके
अपनाए जायें जिनसे समाज को भी सुरक्षा प्राप्त हो और साथ मे अपराधी के
व्यक्तित्व को भी बदला जा सके । इसी प्रकार तलाक सम्बन्धी अध्ययनों का उद्देश्य
भी उन कारकों की जानकारी प्राप्त करना है जो दाम्पत्य जीवन के संघर्ष को
समाप्त कर सकते हैं तथा जिनका प्रयोग विवाह सम्बन्धी परामर्श तथा अन्य प्रकार
से मिलती-जुलती समस्याओं की आवृत्ति कम करने के लिए तथा बिता परिवार को
छिन्न-भिन्न किये इत समस्याओं के समाधान को प्राप्त करने के लिए किया जाता है।
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि समाजशास्त्री यद्यपि यह् समभाने की स्थिति में नही
हैं कि कोई सामाजिक समस्या क्यों उत्पन्न हुई परन्तु वे सामाजिक समस्या के कारणों
के बारे में कुछ दोषपूर्ण किन्तु लोकप्रिय विश्वासो का निषेध अवश्य करते हैं। इसके
अतिरिक्त वे यह बतलाने की स्थिति में अवश्य हैं कि विभिश्न उपचार सम्बन्धी निर्णयों
के सीमित दायरे में कौन-सा निर्णय वांछनीय परिणाम उत्पन्न कर सकता है। यथपि वे
युद्ध को रोक नही सकते हैं परन्तु कम से कम यह समझाने में महत्वपूर्ण ढंग से सहायता
कर सकते हैं कि तनाव एवं संधपं की संकटकालीन स्थिति किस प्रकार उत्पन्त होती
है| वोटोमोर का भी यह कहना है कि समाजशास्त्रीय अध्ययन सामाजिक समस्याओं
के बारे में अधिक यथार्थवादी हृष्टिकोण को प्रोत्साहित कर सकता है तथा विशेषतया उन
अनुदार भत्सेनाओं को रोक सकता है जो कि प्रायः समस्याओं को बढा देती हैं।
अन्त मैं यह कहा जा सकता है कि सामाजिक सभस्याओं के समाजशास्त्रीय
विवेचत से हमारा अभिप्नाय है ह॒
() समाजशास्त्रीय विवरण कि सामाजिक समस्याएँ क्यो और फंसे उत्पप्
हीती हैं तथा समस्या के एक पंहलू का नहीं अपितु सभी पहलुओं का सामान्यता
के आधार पर अध्ययन करना.
(2) एक वह दृष्टिकोण जिससे समस्या को बिता वक़ता (80707) या
अतिशयोक्ति (७८४९४थ०४०) के अतीत व वतेमान समाज के सन्दर्भ में देखा जा सके ।
(3) सिद्धान्त और व्यवहार के अन्तर-सम्बन्ध का सही और निपुण शान:
- जिसमें सिद्धान्त की वास्तविक उपयोग द्वारा जाँच की जा सके,तथा सभी उपयोग
की जाने वाली नीतियों का कार्यक्रम वैज्ञानिक सिद्धान्त पर आधारित हो।
(4) सामाजिक समस्याओ का व्यक्तित्व, समूहों तथा संस्थाओं आदि पर
भ्रभाव का स्पष्टीकरण ।
. (5) समस्या:के निराकरण के लिए दिए गए सुझावों के परिणाम; आना
(6) वर्तमान सामाजिक समस्याओं के प्रति सचेतना उत्न्न करना ।
शा अपराध और अपराधी
(एक्ट 3१७ टक्छाशआा४37.5)
घर
अपराध का श्र्थ
कानुनी हृष्टिकोण से अपराध का अर्थ है वह व्यवहार जो कानून का उल्लंधत
है अथवा जो अपराध संहिता (४7४४४) ००००) द्वारा निषेधित है। माईकिल भौर
ऐडलर के अनुसार अपराध की यह कानूनी परिभाषा ने केवल यथार्थ और स्पष्ट है
परन्तु बही परिभाषा उचित एवं उपयुक्त है !! अपराय की इस परिभाषा के अमुसार
अपराधी वह है जिसको न्यायालय द्वारा दोषी प्रमाणित किया जाता है और इस
सिद्ध दोय के लिए दण्ड दिया जाता है। यदि किसी व्यक्ति में कोई अपराध किया
है परन्तु न्यायालय में वह अपराध सिद्ध न होने के कारण बरी हो जाता है तव वह
कानूनी हृष्टिकोण से अपराधी नहीं कहलायेगा ।
समाजश्मास्त्र मे अपराध और अपराधी की एक और ही दृष्टिकोण से अध्ययन
किया जाता है। अपराध को हम व्यावहारिक तियमो के उल्लंघन के हष्टिकोण से
और अपराधी को इन नियमों के उल्लंघन के कारण उसके व्यक्तित्व के विकास,
परिवार और समाज के ऊपर प्रभाव के हृष्टिकोण से अध्ययन करते हैं। यंयपि
अधिकांश सामाजिक नियमों के उल्लंघन के लिए कानून बना होता है प्ररन्तु ऐसे भी
नियम है जितके उल्लंघन के लिए कोई विधि विधान नही होता । इस कारण एक
व्यवहार सामाजिक हप्टिकीण से अपराध (अथवा नियमों का उल्संघत) तो हो सकता
है अपितु काबूती दृष्टिकोण से नहीं। समाजशास्त्रीय हम्टिकोण से वह व्यवह्र जो
आदर्शात्यक समूहों के व्यावहारिक नियमों के अनुरूप है वह 'सामास्याँ (07४)
व्यवहार है और जो इन तियमों का उल्लंघन करता है वह 'समाज-विरोधी' (मं
30०4) व्यवहार है और मह ही अपराध भी कहलाता है।
यहाँ हमें तोन शब्दों को सममता है : व्यवहार, व्यावहारिक मियम और
आदर्भात्मक समूह । व्यवहार व आत्यार छा भर्य है व्यक्ति की क्रिया (व०्धंशात) या
प्रतिक्रिया ((८3०४०॥६) और यह क्रियाएँ और प्रतिक्रियाएँ केवल कुछ परिस्थितरियों
में ही सम्भव हैं। व्यावहारिक नियम आदर्भभूलकू समूहों के वे नियम हैं जो विभिन्न
परित्यितियों थे व्यक्ति के ध्यवह्दार को निर्धारित करते हैं। क्योकि व्यक्तित्व एक
+ १८036, 3,, 35 #ैए]65, कै. 3., (976, उ-छ छवबें उतर 5द/श्रल सिंडाएएजा
82८८, 7२. ४०४8, 3933, ॥8.
अपराध और अपराधी पु नर
सामाजिक उपज (5०0ंथ ए7007०) है इसलिए व्यक्ति का व्यवहार समाज द्वारा
निर्धारित होता आवदयक है । इसी कारण समाज ने अपने सदस्यों के व्यवहार को
नियन्त्रित करने के लिए कुछ नियम बनाये हैं। समाज में बहुत से समूह हैं, जैसे
परिवार, स्कूल, पड़ोस आदि और हर व्यक्ति ययवि इन सभी समूहों का नही किन्तु
इनमें से अधिकांश समूहों का सदस्य होता है क्योंकि वे उसके शारीरिक, मनोवैज्ञानिक
तथा सामाजिक आदि आवश्यकताओ को पूरा करते हैं। अधिकतर समूह एक प्रकार
से आदश्शमूलक (707720४6) होते हैं क्योकि उनमें वह व्यावहारिक नियम पैदा होते
'हैं जो उन परिस्थितियों से सम्बन्धित हैं जो उन समूहो के विशेष कार्यों के कारण
उत्पन्न होती हैं। समूह के सदस्य होने के वाते व्यक्ति को उसके नियमों का पालन
करना पड़ता है ! समाज में जेसे यह अलग-अलग नियमों वाले समूह बढ़ते हैं, व्यक्ति
को विभिन्न तियमों और कार्यों का, सामना करना पड़ता है। अतएव, वह केवल उन
समूहों के नियमों का ही पालन करता है जिनसे वह अपने को घबरिष्टतापूर्वक
समीक्ृृत करता है और अन्य समूहों के नियमों के पालन से विचलित होता है ।
यहू विचलित व्यवहार ही अपराध कहलाता है। परन्तु तियमो का हर विचलन
या उल्लंघन अपराध नहीं होता । क्लिनार्ड ने तीन प्रकार का सामाजिक नियमों
का विचलन बतलाया है।--
]. वह विचलन जिसको सहन किया जाता है (णक्षशव्व हल्एंत्रांणा) ।
2. बह विचलन जो साधारण धृणा (7॥6 ०|52ए970ए4) व इनका विरोध
उत्पन्न करता है ।
3, वह विचलन जो अत्यधिक घृणा व प्रबल विरोध (88078 0/589/0५4॥)
पैदा करता है ।
इन तीनों में से क्लिना्ड तीसरे प्रकार के विचलन को ही अपराध मानता
है। उदाहरण के लिये भारत में जाति प्रथा को लीजिये। जाति प्रथा ने अद्ूतों से
सामाजिक दूरी रखने का एक नियम निर्धारित किया है। गाँधी जी ने न केवल इस
निग्रम का स्वयं उल्लंघन किया पर अन्य लोगों को भी इसके उल्लघन के लिए प्रेरित
किया; परन्तु फिर भी हम गाँधीजी को अपराधी नहीं मानते और न उनके कार्य को
अपराध कहते हैँ क्योंकि यह् उत्लंधन समाज के हित में था । वह विचलन जो
समाज के हितों के लिये हानिकारक है और वहुत-अधिक घृणा पैदा करता है, वह
“ही सामाजिक दृष्टिकोण: से अपराध माना जाता है। क्योंकि हर समाज के हित
ओर नियम अलग-अलग होते हैं इस कारण एक व्यवहार एक समाज में अपराध हो
सकता है, पर दूसरे में नही । फिर, क्योकि.समाज-के हिंत भी समय के साथ-साथ
बदलते रहते हैँ इस कारण एक ही समाज में एक व्यवहार एक समय में थपराध हो
सकता है किन्तु दुसरे मे मही । इसलिये समाजश्मास्त्रीय दृष्टिकोण से किलनाडड, ने
३ (2]0874, इचैबाउआा॥। छ., 509ल0०/०१७ ० 0शाकका अेलबाए० ०, स0९,
बण्व ए॥05०४ 47०., )४. ४०70, 4957, 22.
22 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवतेन
अपराध की एक व्यापक परिभाषा दी है कि अपराध सामाजिक नियमों का उल्लंघन
है? अतः जब अपराध का कानूनी हृष्टिकोण न््यायातय द्वारा दोप-प्रमाण और
झण्ड पर बल देता है, सामाजिक दृष्टिकोण इनको आवश्यक नहीं समझता ।
इसी आधार पर समाजमास्त्रियों द्वारा अपराध की विभिन्न परिभाषाएँ भी
दी गयी हैं। कात्डवैल के अनुसार अपराध उन गूल्यों के संग्रह का उल्लंघन है जो
विश्चित स्थान पर किसी एक ब्रिशेष समय में एक संगठित समाज को मास्य हैं ।*
रेडबिलफ ब्राउन के झब्दों में अपराध उस आचरण (४६०४८) का उल्लंपत है जिसके
लिए दण्ड देने की व्यवस्था की गयी है ।£ माऊरेर का कहना है कि अपराध एक
समाज-विरोधी कार्य है! अनुसन्धान-सम्बन्धी (्णफ्ांतं्ण) अध्ययनों के हष्टिकोण
से हथ अपराध की कानूनी परिभाया को अधिक मान्यता देते हैं। अपराधपास्त्र में
जितने भी अनुसन्धान होते हैं उन सवका आधार अपराध की कानूवी परिभाषा ही
होता है ।
हाल जेरोम ने अपराध के कुछ वैल्क्षण्य (70८एथ॥9) बताये हैं।” उसका कहना
है कि किसी भी व्यवहार को तब तक अपराध नहीं मानना चाहिए जब तक उसमें
हे सभी लक्षण न हों। इनमे से पाँच मुख्य लक्षण ये हैं--() हानिकारक कार्य;
(2) इच्छानुरूप या संकल्पित कार्य; (3) कानूनी प्रतिवस्ध। (4) अपराधी उद्देश्य;
(5) कातूम द्वारा निर्धारित दण्ड । इन्ही भेदक सक्षणों के आधार पर अपराध की
हम यह व्यापक परिभाषा दे सकते हैं: वह ऐच्छिक कार्य जो सामाजिक हितों के
लिये हानिकारक है, जिसमे अपराधी उद्देश्य है, जो कामूनी हृष्टि से प्रतिवन्धित है भौर
जिसके लिये कानून दण्ड निर्धारित करता है ।* हे
कुछ व्यक्ति अपराध, पाप, अनेतिकता और व्यक्तिगत क्षति (807॥) में अन्तर
नहीं मानते जबकि ये अलग-अलग शब्द हैं। अपराध कानून का उल्लंघन (कामूनी
इष्टिकोणप) या सामाजिक सियसों का विचलन (सामाजिक दृष्टिकोण) है; पाप वह
कार्य है जो धामिक आदेशों के विरुद्ध है अथवा जो दैवीय अधिकार का उत्लेधन है!
भूंठ बोलता, किसी अमीर व्यक्ति द्वारा किसी निर्धन की अत्यन्त आवश्यक समय में
उ88., 28.
+ *(परक्ता6 $$ 96 सजबर०च ता डा ता सड्ॉफ्टड 2००९ए०6 ॥0 ठाइ्टव95०९ इ्छंलछ
280 8 एटाएबवॉत रंदाट बताते चघ व ह्टव ज्रॉक्टट," (शॉ05६॥, ३००७३ 0,, (/#ा#ण०ग१
२0040 ८5३ (:0., ॥९, ४०३८, 2956, 4.
४ १8 ४६0०।2(४०४ ७६ ०३३४५ (कांसी 87४०5 ॥956 49 96 €एटाएं5८ 5 फएटपर्श 530700॥,
ए्जएटागल 87099, धृप्णाव्व 99 $४%्ल्त450, उतग्रेफ, #;0797 थी टाफ्राए्शंगए,
पै॥065 ०। ॥90॥3 ?:९55, 8090989, 965, 45.
१३]0०फ्रारए, 5. 7, 279 2व्रक्रंडध/(०00/--ट८:2काबर कब 37त्वों, 'जेएएं००-५ ९०७
#$॥806८फ४38, 3942.
3 झा उदाणपा* ठक्कदने न्तकर्टफ्रॉट्ल थी एकसेक्यों स्.्रड, 8-१8,
३ यू.८85॥9 #0970020 डग6 उत/चातंजाडी 8०७एत छंद 388 तगधापिं ग्एका ०
३०संत्री वपटा5ड5, कीं ॥33 साक्रांगओ क्श608 छ9ते फरीएं। ॥95 689 फ्ाध्य्शएट्प
#0फॉशीआध्य। छि ई.
अपराध और अपराधी 323
सहायता न करना तथा सन्तान हारा माता-पिता का अनादर करना पाप हो सकते
है किन्तु अपराध नहीं । एक कारये पाप हो सकता है पर अपराध नहीं, परन्तु एक ही
कार्य पाप व अपराध दोनों भी हो सकते हैं, जंसे विशवासघात करना।
अनैतिकता वह कार्य है जो अन्तरात्मा या विवेक के विरुद्ध है। यह बह
अनुचित कायें है जिसमें करने वाले को ही कप्ट सहन करना पड़ता है। कालेज से
घर जाते समय यदि कोई विद्यार्थी रास्ते में किसी मोटर द्वारा घायल व्यक्ति की
सहायता करने के बजाय सीटी बजाता घर चला जाये तो उसका कार्य अपराध नही
कहलायेगा यद्यपि उसकी आत्मा उसके लिए उसे कोसती रहेगी।
दुराचार (५०८) में जुआ, मदिरापान, वैश्यागमन आदि जैसे व्यवहार आते
हैं। यह अपराध हो भी सकते हैं अथवा नहीं भी । यदि कोई व्यक्ति अपने घर में
शराब पीता है और किसी प्रकार का जनोपद्रव पैदा नहीं करता तब घह अपराध
नही होगा चाहे वह दुराचार क्यों न हो; पर अगर यही व्यक्ति किसी सार्वेजनिक
स्थान में शराब पीकर उपद्रव पैदा करता हैं तब वह अपराध करता है। इसी प्रकार
किसी जुआधर में जुआ सेलना अपराध होगा परन्तु घर में ताश खेलना नहीं ।
बेयक्तिक अपकार ((०7/) व्यक्ति के हितों को हानि पहुँचाता है जवकि अपराध
समाज के हितों को नुकसान पहुँचाता है। दूसरे शब्दों में अपराध एक सार्वजनिक
अनुचित कार्य है और अपकार एक वैयक्तिक दोपपूर्ण कार्य है। चैयक्तिक अपकार
में जब तक क्षतिग्रस्त व्यक्ति हानि पहुँचाने वाले के विरुद्ध शिकायत नहीं करता,
राज्य उसके विरुद्ध कोई कानूनी कार्यवाही नहीं करता परन्तु अपराध मे किसी
अभियोग के बिता भी नुकसान पहुँचाने वाले के प्रति राज्य कार्यवाही करता है।
साधारण तोर पर अपराध और वेयक्तिक अपकार में कोई विशेष सीमा नहीं खीची
जा सकती । मान लीजिए एक व्यक्ति 'क' एक अन्य व्यक्ति 'ख' के घर में अनधिकार
घुस जाता है तब 'क' का कार्य 'ख! के विरुद्ध वैयक्तिक अपकार कहलायेगा। पर
यदि 'क' घोरी करने की इच्छा से 'ख' के घर घुसता है तब उसका कार्य अपराध
कहलायेगा । इस प्रकार अपराध और वेयक्तिक अपकार पारस्परिक रूप से भिन्न
नहीं हैं ।
अपराधों का वर्गोकरण
अपशणधो का वर्गकिरण विद्वानों ने अलग-अलग आधार पर किया है।
सदरलेण्ड ने गम्भीरता के आधार पर दो प्रकार के अपराध बताये हैं : जधन्य या
गम्भीर अपराध और साधारेण अपराध ।' जघन्य अपराध जैसे खून, डकती आदि
के लिए मृत्यु का दण्ड अथवा एक वर्द से अधिक कारावास दिया जाता है और
साधारण अप्राध जेंसे चोरी, मारपीट आदि के लिए चाप्फतऋच्द-जैसे कछ समय
१ 590९7870, 8, प्र., ४9. ८., 46
"24 सामाजिक समसस््याएँ और सामाजिक परिवर्तन
के लिये कारावास, जुर्माना आदि किया जाता है। परन्तु जेम्स स्टीफेन!" और कुछ
अन्य विचारकों के अनुसार यह वर्गीकरण अधिक उपयोगी नही है। इसका पहला
कारण यह है कि एक समाज में एक अपराध जघन्य हो सकता है परन्तु वही अपराध
दूसरे समाज में साधारण माना जा सकता है। इसी प्रकार एक ही समाज में एक
अपराध एक क्षेत्र में.जधन्य हो सकता है और दूसरे क्षेत्र में साघारण अथवा एक
काल भें साधारण और दुसरे काल में जघन्य । दूसरा कारण यह है कि एक अपराध
जिसे समाज ने साधारण माना है वह वास्तव मे जघन्य हो सकता है, उदाहरणतया
खाने में विष मिलाना इतना अधिक गम्भीर अपराध नही माना जाता जितना किसी
की हत्या करना यद्यपि विष मिले हुए खाने से बहुत से व्यक्तियों की मृत्यु हो सकती
है जबकि हत्या द्वारा एक ही व्यक्ति को मारा गया हो।
अपराधियो के सुधार के दृष्टिकोण से भी यह वर्गीकरण अधिक उपयोगी
नही माना जाता क्योंकि सुधार का आधार अपराध की ग्रम्भीरता नही है अपितु
अपराधी का व्यक्तित्व और परिस्थिति की प्रकृति है। परन्तु इन तकों के बाद भी
लगभग हर समाज में अपराध की गम्भीरता अपराधों के वर्गीकरण का सदेव एक
मुख्य आधार रही है।
बोंगर ने प्रेरक उद्देश्य (9०7५७) के आधार पर चार प्रकार के अपराध
बताये है--[क) आथिक अपराध, जिसमे धन-प्राप्ति अपराध का मुख्य उद्देश्य है।
(ख) यौन-सम्वन्धी अपराध, जिसमे यौन-सम्बन्धों की तृप्ति ही अपराध का मुख्य
कारण है । (ग) राजनीतिक अपराध, जिसमें राजनीतिक क्षेत्र मे लाभ के कारण
अपराध किया जाता है। (घ) विविध अपराध, जिसमें बदले की भावना व प्रतिशोध
अपराध का मुख्य आधार होती है ॥/
परन्तु यह वर्गीकरण भी अनुपयुक्त माना जाता है क्योकि यह आवश्यक नहीं
है कि कोई अपराध केवल एक ही उद्देश्य से किया जाये । किसी की ह॒त्या करने 'में
एक साथ आर्थिक, लिंगीय और राजनीतिक उद्देश्य तथा बदले की भावता भी हो
सकती है। ऐसे अपराधो को थोगर द्वारा दिये गये चार प्रकार के अपराधो में से
किसी एक में रखना सम्भव नही है ।
साख्यिकीय (४४४8४०७)) आधार पर अपराधों को निम्न चार समूहों में
रखा गया है--(क) व्यक्ति के विरुद्ध अपराध, जैसे हत्या, मारपीट आदि;
(ख) सम्पत्ति के विरुद्ध अपराघ, जैसे चोरी, डाका आदि; (ग) सार्वजनिक न्याय
. और सत्ता के विरुद्ध अपराध, जैसे गवन, घोखा आदि; तथा (घ) सार्वजनिक व्यवस्था,
शिष्टाचार (१०८८४०५) और सदाचार के विरुद्ध अपराघ, जैसे घराव पीकर जतोपद्रव
मचाना, अव्यवस्थित व्यवहार आदि । हा
+ +े
३९ डालर, जग्राव$ ए.,.- 4 मफाश> थक टीप॑कानिवों स-वाक थी दगहांविएर्, कै 8९-
प्र॥॥ 880 (०., [009097, 8883, 32॥.
2 एजाह८, १४. #.., (कंक्राह्या।02 खबें >2०7०क्रां2 (का्ीधिगाऊ, जी ऐेाएच्राप
803800, 96, 536-37. हु ि
अपराध और अपराधी 25
लेमर्ट ने दो प्रकार के अपराध बताये हैं?--() परिस्थिति सम्बन्धी अपराध
और (2) सुव्यवस्थित अपराध । परिस्थिति सम्बन्धी अपराध वह अपराध है
जो किसी परिस्थिति से बाध्य होकर तथा प्रतिकूलता के कारण किया जाता है।
सुव्यवस्थित अपराध वह अपराध है जिसका हर पहलू पहले ही से निश्चित होता.है,
जैसे किसकी हत्या करनी है, कव करनी है, कहाँ करनी है, कंसे करनी है,
इत्यादि । श
क्लिनार्ड और क्वीने (07870 & (एणा॥76५) ने अपराध के प्रकार पद्धति
के निर्मोण में अपराधी व्यवहार की पद्धतियों को आधार बताया है” पद्धति से
उनका अर्थ दिये गये प्रकार के लक्षणों में उस सम्बन्ध का पाया जाना है जिससे
पारस्परिक सम्बन्ध स्थिर (००॥७/आ॥) रहते हैं। इस आधार पर उन्होने आठ
प्रकार के अपराध माने है: हिंसात्मक व्यक्तिगत अपराध, सम्पत्ति सम्बन्धी
आकस्मिक अपराध, व्यावसायिक अपराध, राजनीतिक अपराध, सावंजनिक व्यवस्था
(ए7०॥० ००८7) सम्बन्धी अपराध, परम्परागत (०णाश्टव/०धथ) अपराध,
समठित अपराध, तथा पेशेवर अपराध ।
उपयुक्त वर्गीकरण के अतिरिक्त अपराधों के दो अन्य प्रकार भी दिये जा
सकते है--(4) संगठित और असंगछित अपराध, तथा (2) वैयक्तिक और सामूहिक
अपराध । संगठित अपराध वह अपराध है जिसमें भधिक अपराधियों का पारस्परिक
सहयोग पाया जाता है अर्थात् जिसमें अपराध-कार्य एक सामूहिक प्रयास है। इसमें
अपराध का मुख्य उद्देश्य आथिक लाभ होता है, अधिकार का केन्द्रीकरण होता है,
विभिन्न कार्यो के विशेषीकरण और कततेज्यों के विभागीकरण के लिए श्रम-विभाजन'
पाया जाता है, अपराधी उपक्रमों मे एकाधिकार प्राप्त करने के लिए व्यापक और
एकाधिकारात्मक प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं, सदस्यो के व्यवहार को नियन्त्रित करने
के लिए नियम और काय॑ करने सम्बन्धी तरीके निर्धारित किये जाते है, समूह के
अपराधी कार्यों के लिए मूल धन (०५०८४) जुटाने हेतु एक कोप स्थापित किया
जाता है, तथा संकट (778८) को कम करने के लिए और अपराधी उपक्रमों की
सफलता के लिए निश्चित योजना वनायी जाती है। काल्डवैल ने इस संगठित
अपराध के तीन मुख्य प्रकार बताये हैं।---
, संगठित (पपराधी) गिरोह--इस गिरोह द्वारा बड़े पैमाने पर चोरी,
डर्कृती, अपहरण, महसूली माल को चोरी से मंगाना जैसे अपराध किये जाते हैं।
यह गिरोह सर्देव हिसक तरीके ही प्रयोग मे लाते हैं ।
2, दस्युता थ छुटपाट (/२४८८४८८४४०४)--इसमे डरा धमका कर. अथवा
हिसात्मक तरीकों से संगठित अपराधी गिरोह द्वारा वैध या अवैध घन्दे बालो से
2 [.८घटाए, 52099 9, 59लंवां 72/०6/८४४४ 958, 9. 44.
ए एाधराबाव 6 (णं्राई१ "टापगं/ड॥] ऐटडशंण्पर 5चशव्याई 8 70029, सग:७
फतदयोजा। & १४0500 ॥82., 7४, ४००६ 967, 44-8.
मे (बात था, ०१ ८ा.. 74 रे
26 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तत
रुपया एँठा जाता है।
3. श्रपराधी भ्रभिषद् व सिडीकेट ($५70८४0)--इसमें संगठित अपराधी
गिरोह द्वारा अवैध माल या सेवाएँ उपलब्ध की जाती हैं। यह अपने उद्देश्यों को
प्राप्ति बिना हिंसा के प्राप्त करते हैं ।
असगठित अपराध संगठित अपराध के बिल्कुल विपरीत होता है। वैयक्तिक
अपराघ एक ही व्यक्ति द्वारा किया जाता है और सामूहिक अपराध एक से अधिक
व्यक्तियों अथवा समूह द्वारा किया जाता है ।
इन विभिन्न प्रकार के अपराधो में से समाजशास्त्र में अंपराधी के सुधार के
हृष्टिकोण से लेमर्ट द्वारा दिया गया वर्गीकरण अधिक उपयोगी पाया गया है ।
भारत मे कानूनी हृष्टिकोण से अपराध को तीन संमूहो में वाँटा गया है--
() बे अपराध जिनके लिए भारतीय दण्ड विधान ([709॥ एटा 0००४)
द्वारा दण्ड निर्धारित किया गया है; इनको फिर वहुत से उप-समुहों में बाँटा गया है,
जैसे जीवन-सम्बन्धी अपराध, सम्पत्ति-सम्बन्धी अपराध, राज्य के विरुद्ध अपराध,
सावंजनिक-शान्ति सम्बन्धी अपराध इत्यादि।
(2) वे अपराध जिनके लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता (एपराणंगभ 070006ए६
(0००९) द्वारा दए्ड निर्धारित किया गया है। इनको दो उप-समूहों मे वाँटा गया है---
(अ) शान्ति भंग करने सम्बन्धी अपराध, तथा (व) दुव्येबहार सम्बन्धी अपराध ।
(3) बे अपराध जिनके लिए विशेष और स्थानोय कानूनों द्वारा दण्ड
निर्धारित किया गया हैं।
यह वर्गीकरण अपराधी कानूनों को नियमवद्ध करने हेतु उपयोगी हो सकता
है परन्तु यह सैद्धान्तिक विश्लेषण के लिए अधिक सहायक नहीं है ।
अपराधियों का वर्गीकरण
समाजश्ञास्त्र मे अपराध का वर्गीकरण इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना
अपराधियों का, क्योकि समाजशास्त्रियों का अध्ययन-केन्द्र अपराध न होकर अपराधी
ही रहा है। अपराधों की तरह अपराधियों का वर्गीकरण भी कई विद्वान
समाजश्ञास्त्रियो द्वारा अलग-अलग किया गया है।
सदरलेण्ड--सदरलंण्ड ने दो प्रकार के अपराधी बताये हैं--() साधारण या
निम्न श्रेणी के अपराधी, तथा (2) सफेद-कालर या इवेतवस्त्रधारी अपराधी।
सदरलूण्ड के अनुसार इ्वेतवस्तघारी अपराधी (छांप्राल-०णाआ धांग्रगर््) वह
अपराधी है जो उच्च सामाजिक व आथिक श्रेणी का सदस्य है और जो अपने
व्यवसाय-सम्बन्धी कार्यों को करते हुए अपराध करता है ।# यहाँ 'उच्च सामाजिक
व आर्थिक स्तर' को केवल घन के आधार पर ही नही परन्तु समाज में प्रतिष्ठा के
38 5जाला370, छे, स , बर$ त्र6-00व87 धांप्राह टां76 7), 4काररटका डम्टगेग्डॉलिन
मष्यश०, छपी 945, 32-39. डे
अपराध और अपराधी 27
आधार पर भी परिभाषित किया गया है। इन अपराधियों का पता साधारण रूप से
नही लग पाता । बान्स और टीटसे के अनुसार इवेतवस्त्रधारी अपराधी वै हैं जो
सन्देहपूर्ण आचार द्वारा व्यापारिक कार्य करते हैं । किलवार्ड के अनुसार इवेत-
वस्त्रधारी अपराध उस कानून का उल्लंघन है जो व्यापारी, पेशेवर लोग और
राजनीतिज्ञों आदि जैसे समूहों द्वारा अपने व्यवसाय के सम्बन्ध में किया जाता
है ॥7 इवेतवस्त्रधारा अपराध के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं--सावंजनिक
पदाधिकारी द्वारा रिश्वत लेना, व्यापारिक लेन-देन में रिश्वत, गबन, प्रन्यास फण्ड
(धए५ ६५70) का दुरुपयोग, कपटी दिवालियापन (कडाण्राध४ केध्यांतए/००5),
तथा विज्ञापन अथवा बिक्री में असत्य तथ्य देना ।
सदरल्ैण्ड के अनुसार इवेतवस्त्रधारी अपराध से न केवल अन्य अपराधों की
अपेक्षा समाज को अधिक आशिक हानि होती है परन्तु इससे अविश्वास की भावना
बढ़ती है, सार्वजनिक नैतिकता समाप्त होती है तथा सामाजिक विघटन उत्पन्न
होता है ।
काल्डवैल, टैपन, जार्ज वोल्ड और कुछ अन्य विद्वानों ने सदरलैण्ड द्वारा दिये
गये श्वेतवस्त्रधारी अपराध की आलोचना की है। काल्डर्वल का मुख्य तक॑ यह है
कि सदरलैण्ड ने कोई निद्िचत लक्षण (णा/शा8) नही बताये हैं जिनके आधार पर
अपराधी के वर्ग को मालूम किया जा सके और न ही उसने निश्चित अपराधी-कार्य
बताये है जिनके करने वालों की इवेतवस्थ्रधारी अपराधी माना जा सके ।? जाजे
घोल्ड का कहना है कि इस (श्वेतवस्त्रधारी) अपराधी की धारणा इतनी अस्पष्ट है
कि किसी अनुसन्धान के लिए वह स्वेथा निरथेक है ।?* टैपन का विचार है कि जब
तक विद्वानों में इस घारणा के प्रति कोई सहमति पायी जाये, इसे कोई मान्यता ही
नही देनी चाहिए क्योकि अस्पप्ट धारणाएँ कानूनी व्यवस्था और उस समाजजश्षास्त्र के
लिए जो वैषयिक (०9]००४४८) होने का प्रयत्त कर रहा है यह एक कलक है ।*९
पलेबर्जण्डर झौर स्टाब--अलंवजण्डर और स्टाब ने दो प्रकार के अपराधी
बताये हैं??-.(अ) आकस्मिक, और (व) दीर्घ स्थायी (लाग०0०)। आकस्मिक
2«ुहलाश$, ये, 7९., 878 फ्रशग८5, में, छ.,, अर झठारगभऊ 4 (/्रा/००2),
शिव्णा।०5 प्रा, ।२, ४०7८, 959 (॥#70 ९४४७०४), 38-39.
3१48 शणेआता ० 89४ ०एणणांताल्वे छसंण्गा9 9५9 ए7/00ए5 5एशा 88. एचञे॥९55-
गाहक, 9॥05$०७च्बी घादा बच #>णॉएपंटीशड 8 ९0776९॥०० णाी पोल॑र ००८०ए०ब४०75,7
एाएशथ्थ३, )॥7592] 8., 2॥० 870८८ 3#77०॥, सिंगधाबा: ब0व ९०., ४, ४०7८, 955,
29-30.
29 (309शी, रि. 5., ०9, ४४., 67-69.
9 /09, 56एणाह०, उमेट्मरटांट्य (कगांगगग2, 0ग्रजव. एग्राफ्शिञआंए | ए८८४५,
उप, ४०7, 958, 250.
34 १९४३8४५९ 0०7०४७5$ 87० ए800 ७एछ/ लापीलट- ब स्(ल्डडवा $१४ाधाए 07 ह ३१डंधा
07 8०0०0089 एड 5धराएूड 9 9७९ 0ए|न्नात््ट. प्र8एए)30, 4कलाल्या उ०्लगगलव्दा
कीटापशश, 8८0०. 3947, 98. हु +.०*
2 #०5874८० एच्एर बाएं प्रिी08० 50506, १776 टसकाह्ाँ, सिर रखे?
डग्शार', ध्चए55... ठव्डणज़ 270०ण5, #ै4बस्ण्णा।डव 00., 7. ४०7६, 937, *
28 सामाजिक समस््याएँ और सामाजिक परिवर्तन
अपराधी वे है जो अलौकिक और अनोखी परिस्थितियों के कारण अपराध कर बैठते
हैं; दीघंकालिक अपराधी वे हैं जिनका अपराध करना एक रोग-सा वन जाता है। इन
दीघेस्थायी अपराधियों को तीन उप-सभूहों में विभाजित किया गया है--
(अ) सामान्य, (व) मानसिक दोप से पीड़ित तथा न्यूराटिक और (स) शारीरिक
दोष से पीड़ित तथा पैथालाजीकल | सामान्य अपराधी के अपूराध का कारण
सामाजिक है । इसका अपराध अपराधियों से घनिष्टता तथा परिस्थितियों के कारण
होता. है । न्यूराटिक अपराधी के अपराध का कारण मनोवेज्ञानिक है। यह अपराधी
भावनाओं और व्यक्तित्व-सम्बन्धी संघर्पों के कारण अपराध करता है। पैथालाजीकल
अपराधी के अपराध का कारण शारीरिक है। वह शारीरिक अंगों की दशा अथवा
शारीरिक दोप के कारण अपराध करता है।
लोम्प्रोज्ञो--लोम्ब्ोजो ने चार प्रकार के अपराधी बताये है””---(क) जन्मजात
अपराधी, (ख्) कामातुर (०५ 798५०) अपराधी, (ग) पागल अपराधी, और
(घ) आकस्मिक अपराधी । लोम्ब्ोज़ो के अनुसार जन्मजात अपराधी को कुछ विशेष
शारीरिक लक्षणों से पहचाना जा सकता है, जैसे लम्बे कान, सिर का असाधारण
आकार, चपटी नाक, उथला होंठ, बहुत बड़ी या छोटी और चौड़ी ठुड्डी, लम्बी
बाहें, अस्त-व्यस्त मूँहू आदि । जिस व्यक्ति में इनमे से पाँच गा अधिक शारीरिक
दोष होगे वह लोम्ब्रोज़ो के अनुसार अवश्य अपराधी होगा। आजकल के समाज-
द्ास्त्री जन्मजात अपराधी की धारणा को बिल्कुल नहीं मानते । उनका कहना है कि
कोई अपराधी केवल जन्म से वंशपरम्पराग्त पाये गये शारीरिक दोपो के कारण
अपराधी नही हो सकता क्योंकि पर्यावरण का भी अपराध में महत्त्व है ।
आकस्मिक अपराधी के लोम्ब्ोज़ो ने फिर तीन उपनप्रकार बताये हैं---
(क) मिथ्या (95०१०) अपराधी, - (ख) अभ्यस्त अपराधी, और (ग) क्रिमिनलायड
अपराधी । मिथ्या अपराधी का अपराघ किन्ही अनोखी परिस्थितियों, जैसे अपनी
प्रतिप्ठा बचाने आदि के कारण होता है। यह अपराधी खतरनाक नही होता ।
अभ्यस्त अपराधी यद्यपि प्रतिकूल पर्यावरण के कारण अपराध करने का अम्यस्त हो
जाता है, इसमे पैतृक अपराधी लक्षण नहीं होते। क्रिमिनलायड (व्यागागरश०7)
अपराधी में विघटन के चिह्न पाये जाते हैँ। इसमे कुछ ईमानदार व्यक्ति के और कुछ
जन्मजात अपराधी के लक्षण होते हैं । |
लिन्डस्सिथ--लिन्डस्मिथ के अनुसार अपराधी दो प्रकार के होते हैं
(4) सामाजिक, और (2) व्यक्तिवादीय (एक्शं4ए७॥६८०) । व्यक्तिवादीय अपराधी
अकेला ही अपराध करता है तथा वह अपराध से कोई श्रतिष्ठा श्राप्त नहीं करता।
इसका अपराध किसी शिक्षण विधि के कारण नही किन्तु परिस्थिति के कारण होता
ज5 [0050 06532, ८//76, ॥3 (2४5८३ कार्वे अउश्वाल्वाटड, (तीर प0चए बाणव॑
(० ७ 805000, 39]].. #50 5०८ (5००४० ४००१, ०7. ८॥/., 52.
बे १ 562$0079, ६९७ छे, 809 00छोगग7 १एद्राटए, से. उ०(व 407०५, ैैगण्क
4944, 307-74.
अपराध और अपराधी 29
है। सामाजिक अपराधी में निम्न लक्षण पाये जाते है--(क) उसका अपराधी
व्यवहार सामाजिक वातावरण के कारण होता है। (स) साहस, वीरता और चतुराई
से अपराध करने से उसे किसी अल्पसंख्यक समूह मे प्रतिष्ठा मिलती है।
(ग) अपराधियों के सम्पर्क से वह किसी शिक्षा-विधि द्वारा अपराध सीखता' है।
(घ) वह अन्य व्यक्तियों के साथ अपनी इच्छा से तथा जान-बुभकर अपराध करता है।
रूथ कंवन--कैवन ने छः प्रकार के अपराधी बताये है?'*---(4) पेशेवर
अपराधी; (2) वे अवराधी जो व्यवस्थित अपराध करते हैं; (3) वे अपराधी जो
अनपराधी समूहों में रहते हैं; (4) अभ्यस्त अपराधी; (5) वे अपराधी णो बुरा
चाहने वाले नहीं होते, ये बड़े समाज के नियमों का पालन तो करते हैं परन्तु कुछ
अंवसरों पर छोटे समूहों के नियमों का उल्लघन करते है; (6) मानसिक रूप से
विधेटित अपराधी । इन अपराधियों का अपराध उनकी किसी मानसिक आवश्यकता
की पूर्ति करता है।
ऊपर दिये हुए छः प्रकार के अपराधियो में से पेशेवर अपराधी का विस्तृत
विश्लेंपए आवश्यक है| किसी 'कार्य को पेशेवर बनाने के लिए तीन तत्त्व मुख्य होते
है--अ्रशिक्षण, अभ्यास और एक विज्येप धारणा । पेशेवर अपराधियों में यह तीनों
लक्षण पाये जाते है। वे अपराध को एक व्यवसाय समभते हैं और अपराध ही उनकी
आय का मुख्य साधन होता है। वे अपने आपको रूढ़िगत समाज का सदस्य कम
और अपराधी समाज का सदस्य अधिक मानते हैं। अपराध उनका एक रहने का
तरीका बन जाता है और इसी पर उनके जीवन के प्रति विभिन्न धारणाओं की
रचता होती है। सेंघ लगाने वाला चोर, लुटेरा, डाकू, पाकेटमार आदि जो इन
अपराधो को आजीविका का मुस्य साधन समभते है, पेशेवर अपराधियों के
उदाहरण है | इत सबके अपराध में एक शिक्षण-विधि पायी जाती है जिससे थे उन
समूहों से जो समाज के नियमीं का पालन करते हैं अपने आपको धीरे-धीरे प्रथक्
करके अपराधी समूहो के साथ एकीकृत करते हैं। रूढिवादी समूहों से “अलग होकर
अपराधी समूहों के सदस्य बन जाने की प्रक्रिया शरने: झनें. होती है और इसी प्रक्रिया
में वे जीवन के प्रति नये दाशं निक विचारों की रचना भी करते हैं; जैसे, मोटरकार
दो स्थानों की दूरी कम करने के लिए नहीं अपितु अपराध के बाद भाग मिकटाने के
लिए बनायी गयी है, मकान के दरवाजे-और खिड़कियाँ हवा के लिए नही परन्तु घर
में छुपकर घुसने के लिए है, बुआ इसलिए बनता है जिससे व्यक्ति सभी चीजें एक हो
जगह रखे ताकि पाकेटमार को उनके उड़ाने में आसानी हो । वान्स और टीटर्स ने
इन पेशेवर अपराधियों के दो प्रकार बताये हैं'*--एक वह जो परिस्थितियों के कारण
नही परन्तु अपने व्यक्तित्व के दोषो के कारण-पेशेवर अपराधी वन जाते हैं और दूसरे
की मर (एफ रिषाध 5, ८]क्ाग॑गढछ, प्रगी०ए३$, ४. 070ण8), ), ४0०7४, 948,
0-32,
25 छ8072३3 ब्रधत वृल्टाटाउ, ०2. ८. 53-55,
30 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवतंन
वह जो परिस्थितियों के कारण असामाजिक विचार और घारणाओं की रचना करके
अपराधी जीवन को अपनाते है ।
केवन ने उत अपराधियों को जो अनपराधी समूहों में रहते हैं, चार उप
समूहों मे विभाजित किया है”---(कु) सामयिक (८४४४४), (ख) आकस्मिक
(००८4अं०7४), (ग) प्रासंगिक (८७५००४०)- अपराधी जो भावनात्मक तनाव की
स्थिति में अधिकतर गम्भीर अपराध करते हैं और (घ) इवेतवस्त्रधारी अपराधी
(शा०-ण्णाक्ष लाए) ।
कंवन ने छ' प्रकार के अपराधियों के वर्गीकरण में तीन मापदण्डों को
सम्मिलित किया है--() किये गये अपराधों की संख्या, (2) किये गये अपराधों की
प्रकृति, और (3) अपराधी का व्यक्तित्व | इस वर्गोकरण में सबसे बड़ा दोष यह है कि
एक प्रकार के अपराधी को दूसरे प्रकार के अपराधी से अलग नही किया जा सकता।
उदाहरणाये, पेशेवर अपराधी और व्यवस्थित अपराधी के बीच इस कारण रेखा नहीं
खीची जा सकती क्योकि कभी-कभी पेशेवर अपराधी भी व्यवस्थित ,अपराध करते
हुए पाये जाते हैं । इसी प्रकार सामयिक और आकस्मिक अपराधियों को भी एकः
से अलग करना आसान नहीं है ।
डेविड श्रग्नाह्मतेन--अव्राह्मसेन ने अपराधियों के वर्गीकरण में तीन बातों को
आधार बनाया है--() अपराधी की पर्यावरण सम्बन्धी प्रृष्ठभूमि, (2) तत्कालीन
परिस्थिति, और (3) व्यक्तित्व । इस वर्गीकरण मे समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक
तत्त्वों पर बल दिया गया है। इन तर्तंवों को चित्रित करने वाले तीन कारक हैं--
(क) संख्या एवं बारम्बारता (०१४०॥०७) अर्थात् अपराधी ने पहला ,ही अपराध
किया है या वह अभ्यस्त अपराधी है। (ख) समय का विस्तार (प्गा-०४०7)
अर्थात् दो अपराधों के बीच का समय । (ग) अपराध की गम्भीरता ($९70057८85) ।
इस आधार पर अन्वाह्मसेन ने मुख्यतः दो प्रकार के अपराध्री बताये हे”-.-() क्षणिक
(770767(879) अपराधी जो असामाजिक मनोवेगों (॥700॥5८$) के कारण प्रलोभी
परिस्थितियों मे .एक या दो वार अपराध करता है, और (2) दीघं-स्थायी (०॥०7॥०)
अपराधी जो तीन या उससे अधिक बार अपराध करता है। क्षणिक अपराधी के
उसने फिर तीन उप-प्रकार बताये हैं--(क) परिस्थिति सम्बन्धी अपराधी, (ख) सम्पर्क
सम्बन्धी अपराधी, और (ग) आकस्मिक अपराधी | इसी, प्रकार दीघे-स्थायी
अपराधियों के भी उसने तीन उप-श्रकार बताये हैं--(क) नाडी रोग से पीडित
(7८ण०(०) अपराधी, (ख) मानसिक रोग से पीड़ित (959८0०४०) अपराधी, तथा
(ग) मनोविकृत (95४०7०%शमं०) अपराधी ।
विभिन्न विद्वानों द्वारा ऊपर दिये गये वर्गकिरणों को एकत्रित कर हम कह
सकते हैं कि मुख्यतः पाँच प्रकार के अपराधी होते हैं--() प्रथम अपराधी,
24 (३४७0, सेघणी, ०79 ८8/-, 27.
गा 0 एबी: मा 0 5008८
के: दम 375९0, 9433, 2#9ंगगर गण (फ्राक 3ण | सशाधफ 30:
अपराध और अपराधी 3
(2) आकस्मिक अपराधी, (3) पेशेवर अपराधी, (4) अभ्यस्त अपराधी और
(5) ह्वेतवस्त्रधारी अपराधी ।
झपराध के कारणों के सिद्धान्त
अपराध के कारणों को समझाने के लिए बहुत से विद्वानों ने विभिन्न
व्याख्याएँ और सिद्धान्त दिये हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के पहले चतुर्थ भाग के अन्त में
सर्वप्रथम लोम्ब्रोज़ो, फेरी और गारोफैला ने अपराध का वैज्ञानिक विवरण दिया था।
इससे पहले कुछ विचारको ने प्रेततादी और क्लासिकल सिंद्धान्तों के आधार पर
अपराध को समझाने क्य प्रयल्ल किया था। लोम्ब्रोज़ो के बाद ही जैविकीय,
मनोवैज्ञानिक, मनोविश्लेषणात्मक, भौगोलिक, समाजवादी, समाजश्ास्त्रीय तथा
वहुकारकवादी सिद्धान्तों की रचना हुई। इन सबका हम अलग-अलग विश्लेषण
करेंगे। *
प्रेतवादी सिद्धा्त ([29070]0ह09 फ्रे८०:४)--अपराधी व्यवहार को
समभाने का एक पुराना सिद्धान्त प्रेतवादी सिद्धान्त था। इस सिद्धान्त के अनुसार
अपराध का मुख्य कारण है--'शेतान द्वारा भड़काया जाना (गराभांडरक्षाणा
0०शा) तथा 'प्रेतात्माओं का प्रभाव! (705505807 ४५ €शं| 5775) । इस कारण
अपराध को रोकने व अपराधी के सुधार के लिए प्रेतात्माओ को प्रसन्न करना अथवा
ऐसा दण्ड देना जिससे अपराधी की प्रेतात्माओं से मुक्त किया जा सके, आवश्यक
है। यदि इन विधियों द्वारा अपराधी को सुघारा नही जा सकता त्व उसे मार देना
चाहिए जिससे उसके परिवार और समुदाय को उसके और अधिक अत्याचारों
(०७४३४८७) से रोका जा सके त्तथा उम्तकी पृत्यु से देवता और प्रेत्तात्मा को भी
सन्तुष्ट व शास्त किया जा सके । यद्यपि प्रेतवाद में बहुत से सांस्कृतिक समूह अब भी
विश्वास करते हैं परन्तु कोई भी अपराधझास्त्री इसे अपराध को समभाने का आधार
स्वीकार नही करता । वैज्ञानिक युग में इस अवैज्ञानिक मान्यता को (कि प्रेतात्माओं
के प्रभाव के कारण व्यक्ति अपराध करते हैं) कोई नहीं मान सकता। अठारहवी
घताब्दी में ही, जब अपराधी व्यवहार के क्लासिकल सिद्धान्त की रचना हुई, इस
प्रेतवादी सिद्धान्त की मान्यता समाप्त हो गयी ।
वलासिकल सिद्धान्त--[0]989०47 ॥007५)--इस सिद्धान्त की रचना इटली
के विद्वान् बैकेरिया ने 764 मे की थी। इस सिद्धान्त का आधार उस समय
प्रचलित 'स्वतन्त्र इच्छा' का विचार था जिसके अनुसार यह माना जाता था कि
यधपि मूल प्रवृत्तियाँ व्यक्ति की इच्छा को प्रभावित कर सकती हैं परन्तु उसके
असामान्य कार्यो में उसकी इच्छा स्वतन्त्र है और उसके व्यवहार को नियन्त्रित करने
का प्रमुख साधन “भय है--विश्वेषकर पीड़ा या दुःख का भय । इस कारण उसकी
इच्छा को प्रभावित करने तथा व्यवहार को नियन्त्रित करने के लिए “मय उत्पन्न!»
करने का तरीका स्वीकार किया गया ) बैकेरिया ने भी इस-विचार को म« कि
मनुष्य के व्यवहार का आधार 'सुख-दुःख की भावना' माना। उसके अनुसार
दि सनक
32 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवत्तत
अपने जीवन को अधिक से अधिक सुखी बताने हेतु किसी क्रिया को करने से पहले
ही उस क्रिया से भ्राप्त होने वाले सुख और दुःख को माप कर लेता है और वही
कार्य करता है जो उस्ते अधिक सुख देता है चाहे वह काये अपराध ही क्यों न हो+
वैकेरिया ने उस समय मान्यता प्राप्त रूसो (70०5४०४०) के समाज की उत्पत्ति और
विकास के 'सामाजिक समझौते” के सिद्धान्त को भी अपराध को समभाने का आधार
बनाया। उसका विचार था कि हर व्यक्ति को इस समभौते के विरुद्ध कार्य करने व
उसे खत्म करने की प्रवृत्ति या भुकाव होता है जिसके कारण वह सोमाजिक संविदा
के विरुद्ध कार्य करता है। इन्ही कार्यों को समाज 'अपराध' मानता है और इनकी
रोकने के लिए दण्ड की व्यवस्था करता है । इस तरह अपराधी व्यवहार के प्रति
बैकेरिया की मूल धारणा यह थी कि व्यक्ति तके द्वारा पथ-अ्रदर्शित होता है, उसकी
इच्छा स्वतन्त्र है और इसलिए वही अपने सभी कार्यों के लिए उत्तरदायी है। उसके
व्यवहार के नियन्त्रण के लिए दण्ड का भय आवश्यक है। वह यह भी मानता था
कि अपराधी काये के लिए निर्धारित दण्ड का “दुःख” उस कारें के 'सुख' से अधिक
होना चाहिए तथा दण्ड स्बेमान्य रीति से, शीघ्रता से व अपराध के अनुपात से देना
चाहिए। उसके अनुसार दण्ड देने का अधिकार केवल समाज को ही है। समाज
विधान-मण्डल के द्वारा अधिनियम वनाकर इस दण्ड को पहले से ही निर्धारित करता
है । न्यायालय का कतंव्य केवल इन कानूनों की व्यास्या केरना है और न कि नये
कानून बनाना ।/* दण्ड के माप का आधार जन-कल्याण को पहुँचायो गयी हानि होता
चाहिए अथवा दूसरे शब्दों में, दण्ड का आधार अपराध का उद्देश्य न होकर कार्य
(2०0) होता चाहिए । इस प्रकार वैकेरिया अपराधी को पीड़ा और प्राण-दण्ड देते कै
वित्कुल विरुद्ध था। इन सव विचारों को लेकर हम संलेप में यह कह सकते हैं कि
क्लासिकल सिद्धान्त के चार मुख्य तत्त्व थे--- कि हु
. व्यक्ति के अधिकार और स्वतन्त्रता की रक्षा करनी चाहिए ।
2. सब व्यक्ति क्योंकि समान हैं अतः एक ही प्रकार के अपराध करने वाले
हु अपराधियों के साथ समान व्यवहार करना चाहिए।
: 3. हर अपराध के लिए कुछ निश्चित निर्धारित दण्ड विना किसी भेद-भाव
के हर अपराधी को मिलना चाहिए।
4. दण्ड को प्रतिरोघात्मक प्रभाव के सामाजिक आवश्यकता के आधार
पर सीमित होना चाहिए । 3
निषोयलासिकल सिद्धान्त (४८०-८४५अत्य ॥607५/)--अनुमभव के आधार
पर बैकेरिया के विचारों को व्यावहारिक रूप देना सम्मव नहीं पाया गया। उसके
मिद्धास्त में कुछ कठिनाइयों थीं । है
() क्लासिकल सिद्धान्त प्रथम और अभ्यम्त अपराधियों में कोई अन्तर
का
3० [८प८७799. (-एडय6, टडातज उन. टन ब्ार्व कफ्रोडीफर्, जव्रव 00ण१;
४. ४०४६, १809, ॥-32.
अपराध और अपराधी 33
स्वीकार नहों करता था ।
(2) इसमें दण्ड का आधार अपराधी का व्यक्तित्व ने मानकर उसका
अपराधी-कार्य भाना गया था ।
(3) असहाय और असमर्थ व्यक्ति जैसे वच्चे, दुद्धोधोन और पागल को भी
अपराध करने के योग्य समझा गया ।
इन दोपों के कारण इस सिद्धान्त में परिवर्तत की आवश्यकता मानकर
नियोवलासिकल सम्प्रदाय की रचना की गयी । यद्यपि इस सम्प्रदाय के मूल विचार
बलासिकल सम्प्रदाय से भिन्न नहीं ये तथा दोनों स्वतन्त्र इच्छा, हेतुवाद, पूर्ण
उत्तरदायित्व और सुखवाद में विश्वास करते थे परन्तु फिर भी दोनों सम्प्रदायों में
कुछ अन्तर था। नियो-क्लासिकल सिद्धान्त के तीन मूल लक्षण थे---
(() ध्यक्ति की इच्छा उसके पांगलपन, कम आयु और शारीरिक, मानसिक
व परिस्थिति-सम्बन्धी व्यवस्था द्वारा प्रमावित हो सकती है जिससे वह अपनी स्वतन्त्र
इच्चा का प्रयोग नहीं करता ।
(2) न्यायालय को अपराधी को दण्ड देने से पहले उसकी मानसिक स्थिति
मासूम करनी चाहिए अर्थात् यह ज्ञात होता चाहिए कि बमा वह उचित और अनुचित
कार्यों में अन्तर मालूम करने के योग्य है अथवा नहीं !
(3) ऐसे असहाय और असमर्थ व्यक्तियों को दण्ड देने में दयावान होना चाहिए ।
परन्तु क्लासिकल की तरह नियो-कलासिकल सम्प्रदाय में भी कुछ दीप थे,
जैसे, (क) दोनों में अपराधी को नही अपितु अपराघ को केन्द्र-विन्दु माना गया है,
तथा (स्तर) व्यक्ति के व्यवहार में तक के कार्य को बहुत बढ़ाकर उसकी आदतों,
संवेगों और सामाजिक वत्त्वों को कम महत्त्व दिया गया है। इन दोपों के कारण इस
सिद्धान्त को भी विद्वानों द्वारा कोई मान्यता ने मिल सकी ।
जैविकोय सम्प्रदाय (छ00ट/०2 ३०४००)
लोम्बोजो का सिद्धान्त [.णर07050'5 घाध०णा9)--876 में इटली के
प्रोफेसर लोम्ब्रोज्ो ने अपनी पुस्तक टप्रंणांगर्श (४7 ' में जन्मजात अपराधी”
अथवा शारीरिक रूप से व्यक्त अपराधी प्रारूप” का सिद्धान्त दिया । इसको धारणा
यह थी कि एक लाक्षणिक अपरांधी को कुछ विश्वेष शारीरिक लक्षणों या दोपों से
पहचाना जा सकता है ! एक कुख्यात अपराधी विलेल!। के शव की परीक्षा से उसे
उसमें 'मानव विकास में पूर्व विकास की अवस्था (ाक्वशेआा) का प्रमाण मिला।
अन्य अपराधियों मे भी इसी प्रकार का प्रमाण मिलने पर उसने अपराध के कारण में
धुवे-विकास की ओर लौटने का सिद्धान्त दिया जिसके अनुसार उसने अपराध और
व्यक्तित्व के विघटन में घनिष्ठ सम्बन्ध बताया । दुसरे शब्दों में व्यक्ति के अपराधी
व्यवहार का कारण उसने उसके वंदानुक्रमण द्वारा प्राप्त शारीरिक और मानसिक
लक्षण बताये । उसका कहना था कि अपराधी लंगूर जैसे उद्विकामी पुरवेजसे
मिलता-जुलता है और उसके अपराधी व्यवहार के दोष इन्ही पहले की उद्विक्रासी
34 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
अवस्था के होते हैं । ऐसे कुछ जन्म द्वारा प्राप्त दोष जो अद्धं-विकमित व्यक्ति में (जो
अपराधी बन जाता है) पाये जाते है वे हैं--असाधारण आकार का सिर, अस्त-व्यस्त
मुंह या ललाट, लम्बे कान, चपटी नाक, उथला होंठ, बहुत बड़ी या छोटी गौर
लगूरों में पायी जाने वाली जैसे ठुड्डी, हाथों की बहुत अधिक लम्बाई आदि | इटली
में किये गये 383 अपराधियों के एक अध्ययन में उसने पाया कि 2 प्रतिशत
अपराधियों में उपर्युक्त शारीरिक दोषों में से केवल एक ही। दोष था तथा 43 प्रतिशत
में पाँच या उससे अधिक दोष थे । इसलिए उसने कम से कम पांच शारीरिक दोप
पाये जाने वाले व्यक्ति को 'जन्मजात' अपराधी माना ।? -
परन्तु कुछ विद्वानों ने अपराधियों और अनपराधियों का तुलनात्मक अध्ययन
करके लोम्ब्रोज़ो के सिद्धान्त को असत्त्य प्रमाणित किया । लोम्ब्रोज़ो ने भी स्वयं अपने
जीवन के अन्तिम वर्षो मे अपने सिद्धान्त में कुछ संशोधन करके यह बताया कि सभी
अपराधी नही परन्तु केवल कुछ ही व्यक्ति जन्म से अपराधी होते हैं। कुछ ऐसे भी |
(अपराधी) होते हैं जो मनोविकार या पागलपन के कारण अथवा कुछ अनोखी
परिस्थितियों के कारण अपराध करते है । इस तरह उसने वंशानुक्रमण के ख्तिरिक्त
भौगोलिक कारक (जैसे जलवायु, वर्षा आदि)) सामाजिक कारक (जैसे विवाह की
रीतियाँ, अपराधी कानून आदि)। आधिक कारक (जैसे अन्न मूल्य, वेक के नियम,
राष्ट्रीय-कर नीति आदि); तथा घामिक विचार आदि को भी अपराध के कारणो में
महत्त्व दिया | यद्यपि आज के समाजशास्त्री उसके जन्मजात अपराधी के सिद्धान्त
को नही मानते परन्तु यह सभी स्वीकार करते है कि लोम्ब्रोज़ो ने ही सर्वप्रथम
वैज्ञानिक आधार पर अपराध को समभाने का प्रयत्व किया था। इस कारण इसके
सिद्धान्त को अपराधझास्त्र का पॉजिटिव सम्प्रदाय (छ०आएए८ ध्णा००0
07ं॥॥0099) भी माना जाता है ।
इटली के विद्वानू फेरी और गारोफ॑लो ने भी लोम्ब्रोजो के सिद्धान्त के मूल
तत्त्वों का समर्थन किया था | क्योकि यह दोनो विद्वानु भो लोम्ब्रोज़ो की तरह इटली
के रहने वाले ये, इस सम्प्रदाय को 'इटालियन सम्प्रदाय! भो कहा जाता है ।
फेरी ने 884 में अपराध के चार कारणो--भोगोलिक, सामाजिक, आधिक
और मानवश्ञास्त्रीय--के पारस्परिक सम्बन्ध पर बल दिया था। भौगोलिक कारणों
के अन्तर्गत उसने जलवायु, तापक्रम, ऋतु-सम्बन्धी प्रभाव, भौगोलिक स्थान आदि
कारक; सामाजिक कारणों में जनसंख्या का घनत्व, रीति-रिवाज, धर्म और राज्य
का संगठन आदि कारक और मानवश्यास्त्रीय कारणों में प्रजाति, आयु, लिग,
शारीरिक और मनोवेज्ञानिक अवस्था आदि कारक बताये । उसके अनुसार सामाजिक
और आशिक सुधार जैसे मुक्त-व्यापार, एकाधिकार को समाप्त करना, परिवार
नियोजन, विवाह और तलाक की स्वतन्त्रता आदि के द्वारा ही राज्य उचित
वातावरण निर्मित करके अपराघ को रोक सकता है ।
पु
34003 33 (मी की टन अप
3० (५८०४८ ४०१०, ०. थ॥., 52.
अपराध और अपराधी 35
गारोफैलो द्वार 885 में दिये गये अपराध के कारणों में जँविकीय
अभिमुखता से अधिक मनोवैज्ञानिक अभिमुखता मिलती है। उसने अपराध को दया
और सत्यता के मनोभावों या नैतिक सच्चाई अयवा ईमानदारी का उल्लंघन बताया।
उसके अनुसार उसकी विचारधारा अपराधी-मानवश्यास्त्र का अंग तभी मानी जा
सकेगी जब अपराधी-मनोविज्ञान को अपराधी-मानवश्ञास्त्र का एक भाग समझा
ज़ाये । अपराध को रोकने के लिए उसने उन व्यक्तियों को खत्म करने था हठाने की
आवश्यकता बताई जिनका समाज में समायोजन नहीं हो पाता । अपराधी को ख़त्म
करने या हटाने के लिए उसने तीन तरीके बताये*”--- (अ) उन अपराधियों के लिए
उसने मृत्यु-दण्ड का सुकाव दिया जो हमेशा के लिए सामाजिक जीवन के लिए
अयोग्य हैं। (व) युवा और आश्याहीन अपराधियों के लिए उसये आशिक लोप जैसे
जीवन भर के लिए अथवा बहुत लम्बा कारावास तथा देश-निप्कासन का सुझाव
दिया । (स) उनके लिए जिन्होने अनोखी परिस्थितियों, (जिनके फिर से उत्पन्न होने
की सम्भावना कम है) के दवाव के कारण अपराघ किया है, उसने शक्ति द्वारा
हर्जाना प्राप्त करने का सुझाव दिया ।
। गारोफैलो द्वारा दिये गये इन सुझावों से यह सिद्ध होता है कि वह प्राण-दण्ड
के पक्ष में था। परन्तु उसके “नैतिक दोष जैसे मनोवैज्ञानिक विधटन” की उपकल्पना
को समाजशास्त्रियों ने स्वीकार नहीं किया है।
चास्स गोरिंग ने लीम्ब्रीज़ों.के 'शारीरिक रूप से व्यक्त अपराधी के प्रारूप!
(9४ंधथ धयायांग॥ ६9०) के सिद्धान्त की तीन्र आलोचना की है। !2 साल तक
3000 अपराधियो के अध्ययन के आधार पर 93 में उसने अपने निष्कर्ष प्रकाशित
किये जिनमें उसने बताया कि विभिन्न प्रकार के अपराधियों के आपस में तथा
अपराधियों के अनपराधियों के साथ तुलनात्मक अध्ययन से किसी भी प्रकार से इस
तथ्य की पुष्टि नही होती कि शारीरिक रूप से व्यक्त अपराधी के प्रारूप जैसी वस्तु
सम्भव हो सकती है!
शारीरिक बनावट का सम्प्रदाय या नियो-लोम्ब्रोज्यन सम्प्रदाय
लोम्ब्रीज़ो के जेविकीय सम्प्रदाय के वाद दयारीरिक बनावट के सम्प्रदाय का
विकास हुआ जिसके अनुसार व्यक्ति को अपराधी कार्य के लिए प्रोत्साहित करने
वाले कारक सामाजिक परिस्थितियो मे पाये जाने वाले विध्न-कारक नही हैं परन्तु
वंशानुक्रमण सम्बन्धी कारक हैं। हुट्टन, शेलडन आदि इस सम्प्रदाय को मानने वाले
विद्वान् हैं ।
हूट्टन का सिद्धान्त (०००5 ४6०9)--हूट्नन ने चाल्से ग्रौरिंग के
अध्ययन को अवेज्ञानिक और पक्षपाती बताया | उसने स्वयं !3,873 पुरुष अपराधी
3० (050, €रंग्र/ं7००६५१, कर. 2। , 370-408,
॥ (30ज9छ8, एड85, पक एग205 एजरशसंल), कल्व॑हण 277040०5, 06९. 955.
36 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
(कैदी) व 3,203 पुरुष अनपराधियों को 929 से 939 तक 0 वर्षों की अवधि
में अध्ययन किया । अनपराधियों में 976 स्वस्थ और निरोग व्यक्ति (विद्यार्थी,
आग बुभाने वाले व्यक्ति आदि) और 227 मानसिक रोग से पीड़ित व्यक्ति ये ।
इस अध्ययन के निष्कर्पों के आधार पर 939 में उसने यह बताया कि अपराध का
मुख्य कारण पैतृक शारोरिक-हीनता या निम्नता (90०हांप्थी ्रध्मिण्याज) है |
शारीरिक रूप से कमजोर ध्यक्ति अपने आपको प्रतियोगीय समाज में समायोजन में
असमर्थ पाते हैं जिसके परिणामस्वरूप वे असामाजिक कार्य अर्थात् अपराध कर
बैठते हैं। उसने यह भी पाया कि सभी अपराधियों की शारीरिक विशेषताएं, जो
शारीरिक-ही नता या निम्नता का एक निश्चित प्रतिमान वनाती है, अनपराधियों की
शारीरिक विद्येपताओ से भिन्न है। उसके अनुसार हर प्रजाति में कुछ प्रतिभाशाली
व्यक्ति, मध्यम श्रेणी के व्यक्तियों के भुण्ड (807068), दुरदंल बुद्धि वाले व्यक्तियों के ढेर
(700855७), तथा अपराधियों की पल्टन (7६87/०/(5) पायी जाती है। दुसरे शब्दों
में हर समाज में बहुत से अपराधी पाये जाते हैं और ये सभी झारीरिक रूप से हीत॑
व्यक्ति ही होते हैं। इन शारीरिक हीन व्यक्तियों के उसने तीन प्रकार बताये हैं--
(अ) भसंयोजनीय अंगों वाले व्यक्ति (०९27/०८०॥५ एा४099/80॥०), (व) मानसिक
एवं शारीरिक रूप से बोने व्यक्ति (गदर शत फामंण्शीए शण्जाबत), और
(स) सामाजिक रूप से बिकृत पुरुष (5०ल००हादक्षीए छद्यए०0 ० एशफशार्प्स) ।
अपराध को रोकने के लिए हूट्न ने इन शारीरिक, मानसिक और नैतिक
दोपपूर्ण व्यक्तियों के वन्ध्याकरण (आध्या$400०॥) करने का सुझाव दिया गिसके
परिणामस्वरूप एक अच्छी प्रजाति पंदा हो सके और अपराध को कम किया जा
सके । ही
अन्य जीवश्मास्त्र के विद्वानों की तरह हुद्दत के सिद्धान्त की भी सदरलैण्ड,
जाजें बोल्ड, रमूटर और मंकारमिक आदि अपराधशास्तरियों ने आसोचना की है।*
इसके विश्द उन्होंने निम्न तर्क दिये हैं---
() हुट्टन द्वारा अध्ययन किये गये अपराधियों व अनपराधियों का घुनावे
सभी अपराधियों और अनपराधियों का प्रतिनिधित्व नहीं था क्योकि अनपराधियों में
उसने पुतिम और मिलेट्रो के कमंथारी, आग बुमाने वाले व्यक्ति, तैराकी, तथा
विदावियों आदि को लिया जो अधिकतर स्वस्थ और शक्तिशाली स्यक्ति होते हैं।
इसी प्रकार बेवल केदी हो सभी अपराधियों का प्रतिनिधित्व नहीं फरते कयोक्ि जैठी
के पाहर भी अपराधी पाये जाते हैं जिनयो या तो परिवीक्षा (छ०0शॉा०णा) पर
४४ १(0200च-. >िरा5$ ै.. (006 0 हट उक्त, एऐउक्राफतंटडट, ववन्ा्ा५ (फॉर:
४५ ॥997.
7+ ९७७३ (८०१४० ०7. ८, 63-6$ ; रच्णावह, 2. 9... क्लन्हॉट्ल ऑन्फरवां था.
उजरा>/ कह, घातक 4793: 5ए्रैशस्उकड, उठ्हगर ण (फी्डक्यो (२ 2१ (५ नाजिलल्टी,
फिल्टर क्र 4992,. ग्रा-व4 ; $३४ए४८६८६; 7. ए. 4रवथत उज्टाॉगेल्ट/ट्स फिलारण,
व 4940.
अपराध और अपराधी 37
छोड़ा जाता है या जुर्माना आदि किया जाता है तथा इनका व्यक्तित्व, अपराध की
प्रकृति, आदि कंदियों से भिन्न होती है ।
(2) उसने यह नहीं समझाया कि शारीरिक और मानसिक दोष केसे हीतता
पैदा करते हैं। ।
(3) सामाजिक रूप से विक्वत व्यक्ति शारीरिक रूप से हौन नही होते ।
(4) उसने श्वेतवस्त्रधारी अपराधियों पर बिल्कुल घ्यान नही दिया जिनको
किसी प्रकार भी झारीरिक रूप से हीन नहीं माना जा सकता ।
(5) उसको अनुसन्धान-प्रणाली भी दोषपूर्ण थी ।
उसने अपराधियों से साक्षात्कार के समय के अपराध को आधार मानकर
बिना उनके पूर्व अपराधों के अध्ययन के अपराधियों की कुछ श्रेणियाँ (०४४८४०7६४)
विकसित की । उदाहरणार्थ, उसने लम्बे व दुरबंल व्यक्ति हत्यारे व लुटेरे, लम्बे और
भारी व्यक्ति जालसाज और चालवाज, छोटे कद के व दुबले व्यक्ति चोर और सेंघ
लगाने वाले, छोटे कद के व भारी व्यक्ति आक्रमणकारी व यौन अपराधी बताये तथा
मध्यम शरीर वालो के लिए उसने बताया कि वे कोई विज्येप अपराध नही करते |
यदि हूट्नन अपराधियों के पूर्व अभिलेस (76०००) का विश्लेषण करता--क्योकि
उसके प्रतिरूप में लगभग आधे अपराधियों के पूर्व-दण्ड का अभिलेख था--तो
सम्भवतया ये अपराधी श्रेणियाँ सत्य नही निकलती ।
जैविकोय सम्प्रदाय का सुल्यांकन---अन्त में जैविकीय सम्प्रदाय का, जिसके
अन्तर्गत लोम्ब्रोज्जो, चार््स गोरिग, हृट्दन, गाल, शेलडन आदि के सिद्धान्त आते हैं.
मूल्याकन' करते हुए हम जैविकीय कारकों और अपराध के सम्बन्ध मे निम्न तक दे
सकते है-- '
(2) हूट्टनन, शेलडन आदि विद्वान अपराधी-व्यवहार और शारीरिक लक्षणों
के सम्बन्ध को पूर्ण रूप से सिद्ध नहीं कर पाये है ।
(2) सभी विचारकों के सिद्धान्तो में सास्कृतिक पृष्ठभूमि की अवहेलना की
ग़यी है अथवा उसका महत्त्व बहुत कम माना गया है।
(3) यह सभी अध्ययन कुछ विश्लेष चुने हुए समूहों को लेकर किये ग्रये है
जो सम्पूर्ण जनसंख्या का प्रतिनिधित्व नहीं करते । » * . «५।+
इन तर्कों के आधार पर हम कह सकते है कि जेंविकीय सिद्धान्तों को
आजकल विद्या-सम्बन्धी (४०७०८४८) मूल्य से अधिक महत्त्व नहीं दिया जा सकता
यद्यपि इसका एक महत्त्व 'यह अवश्य है कि ' पहली बार वैज्ञानिक हप्टिकोण से
इन्होने यह सिद्ध करने का प्रयत्व किया कि अपराधी-व्यवहार को समभने फे लिए
अपरांधी व्यक्ति का अध्ययन करनों ही अत्यन्त आवश्यक है। इनके पहले इसकी
आवश्यकता नहीं समभी जाती थी । हे
मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त (?89०४०008/०८० प्रश७०7७)--गोडार्ड मनोवैज्ञानिक
सिद्धान्त का प्रतिपादक माना जाता है। 99 में दिये गये इस सिद्धान्त के
अनुसार कमजोर बुद्धि अथवा मानसिक दुर्वलता अपराध का प्रमुख कारंण हैं।
38 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
गोडा् ने भन्द-बुद्धि की सर्वोच्च सीमा निर्धारण के लिए 2 वर्ष की मानसिक आयु
ली तथा 75 से कम बुद्धि-लब्घ (-8) वाले व्यक्ति को बुद्धहीन बताया। गोडार्ड
ने इस सिद्धान्त की व्यास्या इस प्रकार की है+--
(।) लगभग सभी अपराधी मन्द-वुद्धि वाले ब्यक्ति होते हैं।
(2) मानसिक दुर्वलता आनुवंशिक होती है तथा यह संचरण मेन्डल के प्रबल
एवं भौण वाहकाणु के सिद्धान्त के अनुसार होता है।
(3) मानसिक रूप से दुर्वल व्यक्ति विशेष नियन्त्रण के अभाव में अपराध
करते हैं क्योकि एक तो उनकी पर्याप्त बुद्धि नही होती जिससे वे कानुन की आवश्यकता
को परख सके और दूसरे वे कानून के उल्लंघत-परिणाम को समझ नही सकते ।
(4) अपराध को रोकने और अपराधियों को सुधारने के लिए दो ही प्रभाव-
शालो तरीके हैँ---एक जीवाणुधात की नीति और दूसरा कमजोर बुद्धि वाले व्यक्तियों
का पृथक्करण ।
4928-29 में सदरलंण्ड ने विभिन्न वौद्धिक स्तर के माप के अध्ययनों का
विश्लेपण करके अपराध और दुर्वल बुद्धि के बीच सम्बन्ध का अध्ययन किया । उसने
350 प्रतिवेदनों की, जिनमे कुल पौने दो लाख अपराधियों और बाल-अपराधियों
का अध्ययन हुआ था, परीक्षा की । इस विद्लेषण से उसे ये निष्कर्ष मिले--
() 90-(4 के मध्य से अध्ययन किये गये अपराधियों में से 50
प्रतिशत मन्द बुद्धि के व्यक्ति पाये गये थे जबकि 925-28 के मध्य में किये गये
अपराधियों के अध्ययन में केवल दीस प्रतिशत ही क्रमजोर बुद्धि वाले मिले ।
(2) अपराधियो का बौद्धिक स्तर सामान्य व्यक्तियो के वौद्धिक स्तर जैसा ही
था। दूसरे शब्दों मे अपराधियों को उतना ही बुद्धिमान पाया गया जितता कानून
को मानने वाले व्यक्ति बुद्धिमान थे ।
(3) सम्राज मे दु्वेल व्यक्तियों को सामान्य जनसंख्या की तुलना मे अधिक
अपराधी नही पाया गया ।
(4) दुर्वेल बुद्धि वाले कंदियों में सामान्य बुद्धि वाले' कैदियों के समान
अनुशासन पाया गया।
(5) पैरोल (9०७) पर छोडे गये दुर्वंल बुद्धि वाले अपराधी उतने ही
सफल याये गये जितने परोल पर छोड़े गये सामान्य बुद्धि वाले अपराधी ।[#
इन अध्ययनों से यह सिद्ध होता है कि मन्द बुद्धि ही अपराध का प्रमुख
कारण नही हो सकती । भारत में ही बहुत से ऐसे अपराधी मिलते है जो सामान्य
व्यक्तियों को अपेक्षा अधिक बुद्धिमान पाये गये हे । मर्चीसन, रेक्लेस, हीले आदि ने
भी गोडार्ड के सिद्धान्त क्री आलोचना की है। रेक्लेस का कहना है कि अपराधी वर्गे
बहुत मागरिकों की तुलना मे अधिक बुद्धिमान होता है। हीले ने भी बास्टन और
५ (503630, पर. घ., मं#लवा ऊ.कीलंलादा बाबे 7.९हरत थी उक्ल[हशा८०, एत0८९००
प्रशार, छ६55, 920, 73-74.
# इपॉमलाबगएं, 22. 2६. 48.
अपराध और अपराधी 39
शिकागो में चार हजार अभ्यस्त अपराधियों के अध्ययन में पाया कि 72:5 प्रतिशत
अपराधी मानसिक रूप से सामान्य थे और केवल 3-5 प्रतिशत अपराधों ही मन्द
बुद्धि के थे । इस आधार पर उसने कहा कि हम यह नहीं मान सकते कि अपराध
कैवल दुबल बुद्धि वाले व्यक्तियों में ही पाया जाता है। अधिक से अधिक हम यह
कह सकते है कि मानसिक रूप से दु्बल व्यक्ति सामान्य व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक
गम्भीर अपराध करते है ॥१*
सनोविकार विश्लेषण का सिद्धात्त (?8/वंहांगापाट ए6०णा७)--गोडार्ड की
आलोचना करके हीले और ब्रानर ने स्वयं अपराध का एक दूसरा कारण बताया।
उनके अनुसार सवेगात्मक व्याकुलता और नैराश्य के कारण ही अपराध होता है ।
यद्यपि कुछ समाजशास्त्री भी अपराध का एक कारण नेराश्य मानते हैं परन्तु उनके
अनुसार व्यक्ति का नैराइय एक सामाजिक घटना' है जबकि हीले और ब्रानर आदि
मानसिक रोग विशेषज्ञों के अनुसार यह एक 'जेविकीय घटना' है| हीले का कहना है
कि व्यक्ति का नैराश्य संवेगात्मक व्याकुलता पैदा करता है। व्यक्तित्व का सामंजस्य
इस पीड़ा को दूर करना चाहता है और पीड़ा प्रतिस्थापन्न (57050॥7(०) व्यवहार
से दूर को जाती है। यह प्रतिस्थापन्न व्यवहार अपराध होता है ।*?
व्यक्तित्व का विकास तभी सम्भव है जब व्यक्ति किसी बाधा का सामना न
करे । यदि उसके साममे कई वाधाएं आ जाती हैं और वह उनको दूर नहीं कर
पाता तो बह निराश हो जाता है। यह नैराइय उसमे पीड़ा उत्पन्न करता है। इस
पीड़ा को हटाने के लिए वह किसी प्रतिस्थापन्न व्यवहार द्वारा प्रथत्व करता है. और
यह प्रतिस्थापन्न व्यवहार अपराध होता है।
व्यक्तित्व का विकास->रुका वर्टें->नै राश्य -> पीड़ा -+ प्रतिस्पापन्न ध्यवह्वार-> अपराध
मनोंविश्लेषणात्मक सिद्धान्त की मुस्य घारणा यह है कि किसी विशेष प्रकार
का व्यक्तित्व अवश्य या सम्भवतः अपराध करेगा चाहे उसकी सामाजिक परिस्थितियाँ
कैसी भी हों । अपराधी व्यवहार व्यक्तित्व का एक आवश्यक प्रकटन (०५७४९४४»०7) है।
हीले और ब्रानर के इस सिद्धान्त की भी सदरलंण्ड, रेक््लेस, केवन आदि ने
आलोचना की है। रेक्लेस का कहना है कि किसी भी व्यक्ति के लिए गैरकानूनी
अपराधी व्यवहार में कानूत-मान्य व्यवहार की तुलना में संवेगात्मक व्याकुलता और
अन्य दोष पाना आसान है ॥*
मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त (259080-थ०व५धं०्या ॥8079)--इस सिद्धान्त
के अनुसार व्यक्ति दलित इच्छाओं और वासनाओं का भण्डार है। इनको 'इड' (0)
३१ उुृल्याज, भशावंबाए, बछपए छात्याहा, 8. 6., अक्त 779#7 रत 702//पर्कट्ड बाय. (75
प्राह््ा/शिटाा, ४3९ ऐगार, शिच5७ फरेंटए घ3४८७, 936,
7 नवफ्राबपंत्प ती धर ॥कक््शंवएन स्व0४९३४ ध्याणंंणयश त5०एचराए8 २ फशइणाव-
गए व्यणाँनंएक कशगशातं3 हलाा०ध्ब) जी 5एणे फुंग ३ ४० कमा $ चएशाल्त 8५
&9फ5धाछ6 ऐलेजउशेत्य, 4, ९.५ पटोत405729." 70०7 , 54-55,
> [२९८०४८5५, १४३८८ पृष्णव्व 0७५ रण 60०56 49 उ##०८६४८०४ ८7(काण॑गए३,
०, ता,
40 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
कहते है । यह क्र र, परपीडक व विनाशक प्रवृत्तियाँ (इड) सीखी नहीं जाती पर वैसे
ही हर व्यक्ति मे पायी जाती हैं। इसका एकमात्र उद्देश्य काम-तृष्ति करना है और
यह उन्ही क्रियाओं के पक्ष में रहता है जो काम-तृप्ति की ओर ले जाती हैं। हम
जैसे-जैसे बडे होते जाते है समाजीकरण की प्रतिक्रिया द्वारा इन इड से उत्पन्न हुई
दलित इच्छाओ पर नियन्त्रण करना सीखते जाते हैं । यह नियन्त्रण 'इगो” (८४०) या
'अह' और 'सुपर-इगो' (४एए८-८४०) या “नैतिक मन कहलाते हैं। “इगो'
वास्तविकता को समझाने को एक झावक्ति है और सुपर-इगो हमारी “चेतना” अथवा
अन्तरात्मा की आवाज है । जब हम सामाजिक नियमों का पालन करते हैं तव यह
सिद्ध होता है कि हमारा अहं और नैतिक मन विकसित हो चुके है परन्तु इन नियमों
का उल्लंघन करना अहं और नैतिक मन का अविकसित या कमजोर होना प्रकट
करते हैं ।* जब इड, इगो और सुपर-इगो के वीच असाधित (ए४५०४८५) संघर्ष
बढ़ते जाते है तथा सुपर-इगो इड को नियन्त्रित नही कर पाता सच व्यक्ति अपराधी
व्यवहार करता है |
इस सिद्धान्त के प्रति समाजशास्त्रियों की यह् आलोचना है कि इसमें अपराध
करने की प्रवृत्ति को “दिया हुआ' माना गया है जबकि यह् एक 'सीखी हुई प्रवृत्ति/
है । मर्टन, सदरलैण्ड, कोहेन, कैवेन, क्लोवार्ड, क्लिनाड आदि समाजशास्त्री अपराध
को 'सीखा हुआ व्यवहार' मानते है।
भौगोलिक सिद्धान्त (96०0ह4फकआऑंप्श 0 (थाण्ड्राग्श० ॥609)--
क्रोपोट्किन, क्वीटले, मांटेस्क्यू, डेक्स्टर आदि इस सिद्धान्त के समर्थक हैं। इनका कहना
है कि जलवायु, तापमान, आद्रेत्ता अथवा हवा में पानी की मिलावट, स्थान' आदि
मनुष्य के व्यवहार पर बहुत प्रभाव डालते है। 93 में रूस के विद्वानु पीटर
क्रोपोट्किन मे कहा कि किसी भी समाज मे हम तापमापी व उन्दमान का प्रयोग
करके वहाँ के एक बर्ष के आँकड़ों के आधार पर आइचर्यजनक यथार्थता के साथ
उसके दूसरे वर्ष में अपराधो की संख्या की भविष्यवाणी कर सकते है। इस भविष्य-
वाणी के लिए जो उसने सूत्र प्रतिपादित किया, वह है : 2(7<+-») ॥४? यहाँ ४
तापमान है और (9 आद्रता अथवा हवा में पानी की मिलावट है। एक माह के'
औसत तापमान को प्राप्त कर उसको सात गुणा करके उसमे औसत आद्रेता जोड़कर
उसको फिर दो से ग्रुणा करने से हमें उस माह मे होने वाली नर-हत्याओं
(80णंशं(०४) की संख्या मिलेगी । परन्तु क्रोपोट्किन के विचार के विरुद्ध यह तर्क
दिया जाता है कि इस सूत्र (गए) द्वारा अपराध की संख्या माल्कुम करना
असम्भव है ।
जलवायु का अध्ययन करने वालो ने फिर मार्च-अप्रैल मे सबसे अधिक यौन
अपराधो को वसन्त-ऋतु मे बढने वाली काम-तृप्ति की इच्छा से सम्बन्धित किया
# 5प&क्राधाव क्फ्टप्रवं--48० झक्रां: 77235, प्र॥05. ब्यत ९५६, एच था, 8. #५७
वरप्रढ १०4८७ एंछाबा३, ऐरट्ण छा, 933.
++ [६४090%37, १००८१ 8५ छजए<5 शात॑ ६८5, ०7 28/., 43,
अपराध और अपराधी 4]
है। अमरीकी विद्वानु ढेवस्टर ने भी 904 में जलवायु व वायु का मनुष्य के
व्यवहार पर प्रभाव का अध्ययन किया और यह निष्कर्ष तिकाला कि अपराध एवं
भौगोलिक पर्यावरण का आपस में गहरा सम्बन्ध है ॥!
फ्रास के विद्वानु क्वीटले के अनुसार व्यक्ति के विरुद्ध अपराध दक्षिण में
अधिक प्राप्त होते हैं और गर्मियो में वढ़ जाते है तथा सम्पत्ति के विरुद्ध अपराध
उत्तर दिश्वा में अधिक मिलते हैं और सदियों मे बढ़ जाते हैं। इस प्रकार उसमे भी
अपराध और जलवायु का पारस्परिक सम्बन्ध बताया। इस उपकल्पना को स्मिथ
और चैम्पन्यूफ ने ।825 और 830 के मध्य फ्रांस में किये गये अध्ययन के आधार
पर प्रमाणित किया । इस अध्ययन में उनको फ्रास के उत्तरी भाग में व्यक्ति के विरुद्ध
किये गये हर 00 अपराध के पीछे सम्पत्ति के विरुद्ध 78'5 अपराध मिले जबकि
दक्षिण फ्रास में व्यक्ति के विरुद्ध किये गये हर 00 अपराध के पीछे उन्हे सम्पत्ति
के विरुद्ध 488 अपराध ही मिले । फ्रासीसी विद्वान् लेकासिन को भी 825 और
4880 के मध्य किये गये सम्पत्ति के विरुद्ध अपराधों के परीक्षण में सबसे अधिक
अपराध दिसम्बर के माह में मिले और तत्पश्चात् जनवरी, नवम्बर और फरवरी के
महीनो मे ।/ इस प्रकार इन सभी अध्ययनों द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया
गया था कि भौगोलिक कारक और अपराध का आपस में गहरा सम्बन्ध है। लेकिन
इन सभी अध्ययनों में अपराध की समस्या को बहुत ज्यादा सरल बनाया गया है।
यदि भौगोलिक कारक ही अपराध के प्रमुख कारण होते तो एक हो क्षेत्र में पाये जाने
वाले समान पर्यावरण में सदेव एक ही प्रकार का व एक ही मात्रा में अपराध मिलता
परन्तु हम जानते हैं कि ऐसा नही होता । बान्सं और टीटस ने भी कहा कि एक ही
भौगोलिक पर्यावरण में रहने वाले व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न प्रकार का व्यवहार पाया
जाता है, जिससे सिद्ध होता है कि भौगोलिक पर्यावरण का अपराध में कोई विद्येप
महत्त्व नही है ।
भ्राथिक सिद्धान्त (80970०7० धा००७)--इस सिद्धान्त में अपराध का
प्रमुख कारण निर्धनता बताया गया है । सबसे पहले 894 में इटली के विद्वागु
फोरनासारी ने अपराध और निर्धनता में सम्बन्ध बताया था | उसके अनुसार इटली
की कुल जनसंख्या में से 60 प्रतिशत लोग निर्धन है और इस देझ में पाये जाने वाले
विभिन्न अपराधियों में से:85 से 90 प्रतिद्चत अपराधी इन्ही 60 प्रतिशत निर्घन
जनसंस्या में से हैं। 96 में नीदरलंण्ड के अपराधझास्त्री बॉगर मे भी यह
बताया कि दरिद्रता और समाज का पूंजीवादी ढाँचा अपराध के प्रमुख आधार है।
निर्धनता से छुटकारा आयथिक उत्पादन और वितरण के साधनों के पुनर्गठन
अथवा एक बर्गहीन समाज की स्थापना से हो सकता है मौर इसी से ही अपराध को
ग छ9द, 895 59, मे €वफ्रैस 4एए८०६९०७, >ै३:का!]त (०., पट ४00.
4904.
4१ (०८॥०, (.030972ए[ ३50 [.3035535876, व००/८९ 0७५ फ्ायत्त 290 वल्टटः<
22. ९६. 843. $ अमरक
42 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
भी कम किया जा सकता है | 938 में इंग्लेण्ड के विद्वान्ु सिरिल बर्ट ने भो
बाल-अपराध और निर्धनता का सम्बन्ध अध्ययन करते हुए यह पाया कि 9 प्रतिशत
बाल-अपराधी अत्यन्त निर्धन परिवारों के सदरय थे और 37 प्रतिशत सामान्य
परिवारों के सदस्य थे । इस आधार पर उसने कहा कि यद्यपि अपराघ और निर्धनता
में पारस्परिक सम्बन्ध मिलता है किन्तु फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि सभी
अपराध केवल निर्धनता के कारण ही होते हैं ।/ 95 में वित्रियम हीले ओर
ब्रानर ने आर्थिक स्तर का एक पाँच अंक का नाप निर्धारित करते हुए 675
अपराधियो में से 5 प्रतिशत हीन वर्ग के सदस्य पाये, 22 प्रतिह्यत निर्धन वर्ग के, 35
प्रतिशत सामान्य वर्ग के, 34 प्रतिशत आरामदेह अथवा सुखी वर्ग के और 4 प्रतिशत
विलासी वर्ग के सदस्य पाये । अतः इस अध्ययन से यह सिद्ध होता है कि 73
प्रतिशत अपराधी आ्थिक रूप से सामान्य अथवा अच्छे परिवारों के सदस्य थे ।४१
भारत मे रटनशा द्वारा वम्बई में अध्ययन किये गये 225 अपराधियों में से
केवल 20 प्रतिशत ही उन निर्धन परिवारों के सदस्य पाये गये जिनकी मासिक आय
50 रुपये से कम थी, 58 प्रतिशत उन परिवारों के सदस्य थे जिनकी आय 50
और 500 रुपये के मध्य में थी, 72:33 प्रतिशत 500-2000 रुपये आय वाले
परिवारों के सदस्य, :78 प्रतिशत ]000-2000 रुपये आय वाले परिवारों के
सदस्य, और 2:66 प्रतिशत 2000 से अधिक आय वाले परिवारों के सदस्य
थे ।** उपयुक्त अध्ययनों के आधार पर हम अपराध मे आथिक स्तर को बहुत महत्त्व
नही दे सकते । सदरलैण्ड का भी कहना है कि निर्धन परिवारों मे अधिक अपराध
इस करण मिलते हैं क्योकि वे एक तो आसानी से ढूंढे जा सकते हैं, दूसरा अमीर
बर्गे के बहुत से अपराधी-प्रभाव व सिफारिश के कारण बच जाते है, और तीसरा
शासन-सम्वन्धी प्रतिक्रियाएँ ऊँचे स्तर वाले व्यक्तियों के लिए अधिक पक्षपाती
होती हैं ४?
समाजशास्त्रीय सिद्धान्त--इस सिद्धान्त के अनुसार अपराध का प्रमुख कारण
सामाजिक परिस्थितियाँ है तथा अपराध 'एक सीखा हुआ व्यवहार है” आनुवंशिक
व्यवहार नही । अपराध सीखने की प्रक्रिया अन्य सामाजिक व्यवहारों के सीखने की
प्रक्रिया जैसी ही होती है। रूथ कंवन का कहना है कि विभिन्न समूहो से सम्पर्क
द्वारा अपराध उसी प्रकार सीखा जाता है जिस प्रकार अन्य सम्पर्को द्वारा हम टेनिस
खेलना या तेरना आदि सीखते है ।*१ अपराध की दर में विभेद का कारण सामाजिक
3३ 80786; १/. 2.., (/#णकवा।(ए ब्यवब कलाकार टकाब्रोधाश5, 7/00० 87097,
फेठशणा, 396
48 (५! 877, जगह 0थफिव्कटाम, एज॑र, 9 [.000णा ए655, [.00, 944.
प30-37 'गंगि घरव्ग), उम्ट रखकाबनरम छशाववबबाा, 770॥2 87007, 03000, 494$
७ ए७७४00593, 0. .र., उ्डटकौट उ0लंफदुण्टाल्छ. क्रार्व. 90क्रक्लांश हि 20गाक
एलल्स्बए (०॥०8९८, 90002, 947, 57.
#7 छतक्ालाबच9, ०9, ८7/.. 494.
8 (३९४० ७७, ८: फ्रा/००९०, टोएचरी, घटछ ४०075, 955
अपराध और अपराधी 43
संगठन अथवा विभिन्न संस्थाओं में विक्रिघ्रता है। छुछ सामाज्कि कारक जिनके
कारण अपराध में विभेद मिलता है, धन का बेंटवारा, राजनीतिक, धामिक और
आधिक विचारधाराएँ, जनसंख्या का घनत्व, सांस्कृतिक संधर्ष, नौकरी के उपलब्ध
साधन आदि हैं। परन्तु विभेद के इस विचार को आजकल के कुछ अपराधघदास्त्री
मान्यता नही देते । उत समाजश्चास्त्रियों में जो समाजश्यास्त्रीय सम्प्रदाय के प्रमुख
प्रतिपादक है : सदरर्लण्ड, अलबर्ट कोहेन, किलोवाई और ओहलिन, मर्टंन, विलफोर्ड
शाहू, आलम, तथा वालटर रेकलेस उल्लेखनीय हैं। इन सबके सिद्धान्तों का हम
अलग-अलग विवेचन करेंगे।
सदरलेंण्ड का सिद्धान्त (5प्रशाशा&70'5 ॥००५)--939 में सदरलैण्ड
ने विभिन्न सम्पर्क! ()लिशा08] 85502०॑०४०॥) का सिद्धान्त दिया था। उसके
अनुसार अपराधी व्यवहार की दो व्यास्याएँ हो सकती हैं ! पहली परिस्थिति सम्बन्धी
व्याख्या और दूसरी जन्म सम्वन्धी अथवा ऐतिहासिक व्याख्या। पहली व्याख्या में
अपराध को उन प्रतिक्रियाओं द्वारा समझाया जाता है जो अपराध करने के समय
कार्य करते हुए पायी जाती हैं तथा दूसरी व्याख्या के अनुसार अपराध को उन
प्रतिक्रियाओ द्वारा समझाया जाता है जो अपराधों के विछले इतिहास अथवा
पृष्ठभूमि मे कार्य करते हुए पायी जाती है। इन दी व्याख्याओ मे से सदरर्लैण्ड जन्म
सम्बन्धी अथवा ऐतिहासिक व्याख्या को मानता है ।/ इसको एक 'उदाहरण द्वारा
समभाया जा सकता है। मान लीजिए, एक भूखा व्यक्ति रास्ते से जाते हुए किसी
खाने की दुकान पर दुकानदार को नही पाता है। उस समय परिस्थिति का लाभ
सठांकर वह रोटी चोरी करके अपनी भूख मिटाता है। चोरी का कारण क्या यहाँ
उसकी भूख और दूकानदार का न होना था ? यदि हाँ, तो हम कह सकते है कि
परिस्थिति के अनुबू ल होने के कारण उसने चोरी की । यह अपराध की परिस्थिति
सम्बन्धी व्याख्या होगी । परन्तु सदरलेण्ड के मतानुसार उसकी चोरी की यह व्याख्या
सही नही है । अपने जीवन की पृष्ठभूमि के आधार पर ही उसकी अपराध करने की
प्रवृत्ति विकसित होती है तथा यह प्रवृत्ति ही उसे यहां चोरी करने के लिए उत्साहित
करती है । यह अपराध की जन्म सम्बन्धी अथवा ऐतिहासिक व्याख्या हुई।
सदरलेण्ड का विचार था कि किसी परिस्थिति को अपराध के लिए प्रतिवूल या अनुवू ल
समभना व्यक्ति पर ही निर्भर करता है | अपराध मे मुख्य वात है व्यक्ति का पिछला
इतिहास अथवा उसका अन्य लोगों से सम्पर्क द्वारा अपराध सीखना । इस आधार
पर सदरलैण्ड ने 'विभिन्न सम्पर्क के सिद्धान्त की रचना की जिसमे उसने कहा कि
(क) अपराध सगीत, कला आदि जैसा 'सीखा हुआ व्यवहार' होता है, तथा (ख) यह्
अपराधी-ब्यवहार अपराधी प्रतिमानो द्वारा सीखा जाता है। उसने अपने सिद्धान्त
की अग्रलिखित उपकल्पनाएँ दी हैः"... हि
3० 56 घैबा6, ०. था, 76-80.
४० 8/4., 77-79.
44 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तत. *
() अपराधी-व्यवहार सीखा जाता है । इसका नकारात्मक अर्थ यह हुआ
कि यह आनुवशिक व्यवहार नही होता । वह व्यक्ति जो पहले से ही अपराध करने
के लिए प्रशिक्षित नही है अपराधी-व्यवहार का आविप्कार नहीं कर सकता। यह
उसी प्रकार है जिस प्रकार बिना यन्त्र-विज्ञान शिक्षा के कोई व्यक्ति यन्त्र सम्बन्धी
आविष्कार नही कर सकता ।
(2) यह विचारों के सचार की प्रतिक्रिया मे ट्रेसरे ज्ञोगों से बातचीत अथवा
अन्तःक्रिया द्वारा सीखा जाता है। विचारों का आदान-प्रदान अधिकतर मोखिक होता
है यद्यपि यह संकेतों द्वारा भी हो सकता है।
(3) अपराधी-व्यवहार का सीखना मुख्य रूप से घनिष्ठ प्राथमिक समूहों में
ही होता है। इसका यह अर्थ हुआ कि द्वितीयक समूहों जैसे चलचित्र, समाचार-पत्र
आदि का अपराध में कोई महत्त्व नही होता ।
(4) अपराधी व्यवहार को सीखने में दो बातें सम्मिलित हैं--(क) सरल
और जटिल अपराघ करने के तरीके सीखना । (ख) विशेष मनोवृत्तियों, प्रेरणाओं,
प्रेरक शक्तियों और त्ं-वितर्कों का सीखना ।
(5) विशेष प्रेरणाओं एव प्रेरक शक्तियों को कानून सहिताओं के अनुकूल
अथवा स्वीकृत और प्रतिवूल या तिरस्कृत परिभाषाओं द्वारा सीखा जाता है।
(6) व्यक्ति अपराधी इसलिए वनता है क्योकि वह् कानून के उल्लंघन के
अनुकूल परिभाषाओं को कानून के उल्लघन के प्रतिकूल परिभाषाओं की अपेक्षा अधिक
अपनाता है। यह ही सदरलेण्ड के अनुसार 'विभिन्न सम्पर्क” का. मूल-सिद्धान्त है।
दूसरे छाब्दो मे व्यक्ति “के अपराधी बनने का कारण उसका अपराधी प्रतिमानों के
सम्पर्क मे अधिक आना तथा अनपराधी प्रतिमानों से अलग रहना है।
(7) सम्पर्कों की विभिन्नता अवधि, तीक्रता, प्राथमिकता और पुनरावृत्ति के
अनुसार भिन्न-भिन्न होती है। दुसरे शब्दो मे व्यक्ति का अपराध-व्यवहार से प्रारम्भिक
जीवन में कितना पहले सम्पर्क हुआ, कितनी बार सम्पर्क हुआ, कितनी देर तक
सम्पर्क रहा और कितना अधिक या तीव्र सम्पर्क हुआ इन सब बातों का उसके
अपराध करने या न करने मे वहुत महत्त्व है।
(8) अपराधी प्रतिमानो के सम्पर्क मे अपराधी व्यवहार सीखने की विधियाँ
वही है जो किसी कानूनी मान्यता व्यवहार के सीखने मे पायी जाती है।
(9) यद्यत्रि अरराधी व्यवहार सामान्य आवश्यकताओं: और मूल्यों की
अभिव्यक्ति है, फिर भी इसको केवल इन्ही के आधार पर नही समझाया जा सकता
क्योकि अनपराधी व्यवहार भी इन्ही आवश्यकताओं और मूल्यों की अभिव्यक्ति है।
सदरलेण्ड के इस सिद्धान्त की हरवर्ट ब्लाच, काल्डवैल, क्रीसे, जाजें बोल्ड
आदि बहुत से समाजश्ञास्त्रियों ने आलोचना की है।# प्रमुख रूप से इसके विरुद्ध
3+ सलाएलाई छ00, कक एक्ट दा 5्टराथ, 0-5 ; 080ए८॥, ०४. टां।..
482 ; 0८0४८ १०१, ०9. दं४., 95-97 ; 055549, 00746, जत्हगकां ०/ (7क्ाकयों सबक
कब टा।#ा/०॑०2०, ऐ७३४५-१७४० 952, 5-52. न्
अपराध और अपराधी 45
दिये गये तक इस प्रकार हैं--
() अधिकांश प्रथम और आकस्मिक अपराधियों में अपराध सीखने की
प्रतिक्रिया नही पायी जाती जैसा कि सदरलंण्ड का अनुमान है।
(2) यह सिद्धान्त हर प्रकार के अपराध को नही परन्तु कैवल व्यवस्थित
अपराध को ही समझमाता है ।
(3) यह सिद्धान्त परिस्थिति सम्बन्धी तथा थ्ारीरिक और मनोवैज्ञानिक
कारणों का कोई महत्त्व नही देता ।
(4) अन्य लोगो के साथ अन्तःक्रिया में एक व्यक्ति क्योंकर कुछ नियमों
का अन्तरीकरण करता है और कुछ को अस्वीकार करता है, सदरसेण्ड ने नहीं
समझाया है।
(5) यह् मानव व्यवहार में 'स्वतन्त्र इच्छा” के तत्त्व, कामुकता, ग्राप्ति की
इच्छा, आक्रामकता आदि जैसी मूल प्रवृत्तियीं को भी स्वीकार नही करता जिसका
महत्त्व आजकल के किसी भी वैज्ञातिक ने अस्वीकार नही किया है ।
(6) यह सिद्धान्त व्यवस्यित अपराधी व्यवहार भर व्यवस्थित कामरनी-
मान्यता व्यवहार के बीच भेद पैदा करता है जबकि मानव व्यवहार को इस प्रकार
विभाजित नहीं किया जा सकता । मनुष्य के प्रत्येक व्यवहार में, चाहे वह अपराधी
व्यवहार ही क्यों न हो, क्रम पाये जाते है जो एक-दूसरे के साथ मिल जाते हैं।
(7) यह सिद्धान्त सीखने की प्रतिक्रिया को बहुत सरल करता है जबकि
सामाजिक मनोविज्ञान के विद्वानों के अनुसार सीखने की प्रतिक्रिया में जटिलता पायी
जाती है। फिर, केवल 'सीखने की भ्रक्रिया” को ही मानव व्यवहार का सम्पूर्ण
आधार नही माना जा सकता क्योंकि इससे प्रयोजन और प्रत्यक्षीकरण पर आधारित
सिद्धान्तों का कोई महत्त्व नहीं रह जायेगा ।
(8) स्दरलेण्ड ने व्यवस्थित अपराधी व्यवहार! और सामाजिक विघटन
जैसे मूल शब्दों को परिभाषित नही किया है।
इस सिद्धान्त के विरुद्ध सबसे अधिक हानिकारक वक्तव्य 952 में डोनाल्ड
क्रीसे ने दिया था। विश्वासघात सम्बन्धी (धग्र& शा०/४४075$) अपराधों के एक
अध्ययव के आधार पर उसने कहा कि वैज्ञानिक अनुसस्धान द्वारा यह सिद्ध करना
या गलत साबित करना शायद ही सम्भव हो कि संदरल॑ण्ड का सिद्धान्त वित्तीय
अमानत के उल्लंघन के अपराध या अत्य किसी भी प्रकार के अपराधों को स्पष्ट
करता है।* इस प्रकार इस सिद्धान्त का विद्या सम्बन्धी महत्त्व से अधिक कोई
मूल्य नही है। अधिक से अधिक हम यह कह सकते हैं कि (4) यह सिद्धान्त अपराध
में सामाजिक कारको को महत्त्व देता है, (2) अपराधी व्यवहार और कानूनी
व्यवहार के सीसने मे समानता बताता है, और (3) इस-बातं पर बल देता है कि
अपराध केवल ,व्यक्तित्त विघटन के आधार पर स्पष्ट नही किया जा सकता क्योंकि
४ (655८५, 0. 7२,, ०#. ला. 43.
46 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवतंन
बहुत से ऐसे अपराधी हैं जिन्होंने स्वयं का उसी प्रकार समायोजन किया है जिस
प्रकार बहुत से प्रतिभाशाली व्यक्ति अपना समायोजन करते हैं।
बलोवार्ड और झोहलिन का सिद्धान्त--क्लोवार्ड और ओहलिन का अपराध
और अवसरबवादिता' का सिद्धान्त सदरलण्ड के “विभिन्न सम्पर्क' और मर्टन के
“व्याधिकी' (॥707८) सिद्धान्त पर आधारित है। इस सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति
अपने लक्ष्यों तथा अभिलाषाओं की प्राप्ति के लिए वैध अथवा कानूनी साधनों के
उपलब्ध न होने के कारण अवैध अथवा गैर-कानूनी साधनों द्वारा उनको श्राप्त करने
का प्रयत्न करता है और यह अवैध प्रयत्न अपराध होता है ।* यद्यपि अभिलापाएँ
हर व्यक्ति मे पायी जाती हैं और सभी व्यक्ति उनको प्राप्त भी नहीं कर पाते पर
फिर भी वे सभी इस कारण मैर-कानूनी साधनों का प्रयोग अथवा अपराध नही करते
क्योकि यह अवैध साधन हर व्यक्ति को उपलब्ध नही होते । किसी व्यक्ति के लिए
अपने आपके उपलब्ध अवसर-ब्यवस्था मे समायोजन के लिए आयु, लिग, सामाजिक
और आशिक स्थिति आदि जैसे परिवर्त्य (४थां9065) भुख्य होते हैं।
, कलारेस जिराग ने क्लोवाडं और ओहलिन की मुख्य उपधारणाओं का व्यवस्थित
रूप से पुनर्गठन किया है। यह नयी उपधारणाएँ इस प्रकार हैं'---
() मध्य वर्ग के लक्ष्य, विशेषकर आशिक लक्ष्य, वहुत फैले हुए होते हैं।
निम्न चर्ग के सदस्य इन लक्ष्यों के आधार पर अपनी आशिक स्थिति सुधारना
चाहते है ।
(2) प्रत्येक संगठित समुदाय में इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए वैध और
नियन्त्रित अवसर पाये जाते है।
(3) भिन्न-भिन्न सामाजिक वर्गों के लिए यह प्राप्ति के अवसर अलग-अलग
रूप से प्राप्ति-योग्य (३०८०४४७०) होते हैं ।
(4) इन साध्यों की श्राप्ति के लिए गेर-कानूनी साधन किसी विद्येप समुदाय
व समूह को उपलब्ध हो भी सकते हैं और नही भी ।
शिराग के अनुसार उपर्युक्त उपधारणाएँ दो बातें: स्पष्ट नहीं करती है--
(।) निम्न वर्ग के सभी वालक अपराधी गिरोह के कार्यों को क्यों नहीं अपनाते ?
(2) हम उन निम्न वर्ग के सदस्यों की पहचान नही कर सकते जिन्हें अपने लक्ष्यों की
प्राप्ति के लिए गैर-कानूनी अवसर उपलब्ध हैं जिस कारण वे अपराधी गिरोहों के
कार्यों में भाग लेते हैं। इस कारण शिराग ने ऊपर दिए हुए चार उपधारणाओं के
अतिरिक्त त्तीन और भी उपधारणाएं दी हैं जो इस प्रकार हैं---
() निम्न वर्गों के उत सदस्यों मे अपराधी गिरोह के कार्यों को अपनाने की
४३ (05 8509 0, कशाकदुष्टएटछ बचे 07:70: 4 रण थी टोश[हन
इधश्य! 55725, 4८७ ४४०८, 3966, 44-52.
54 (7८0८९, 5्यावड, 50ठंगलए' कार्ब॑ डग्दंबा अऑडटबालट, भ०णे, 46, ॥967,
67-70. &७० 5८८ 0. २. [98आहुड्ा८, "ऐशए१व०८०९७ 30९ 07900ा७५ $ "॥609 0
पार ए०7१७ त उप्रधविरज्ञा०त्र, उन््तंगग्दडांट्य 272, ५०. 36, 559५. 967, 39-56.
अपराध और अपराधी 47
ग्रहण-क्षमता अधिक है जो (क) वैध व्यवस्था को स्वीकार वही करते और अपने को
उससे अलग समभते हैं; (स) जो अपने समायोजन की समस्या के लिए स्वयं के स्थान
पर सामाजिक व्यवस्था को दोपी बताते हैं; (ग) जो वैध साधनों को व्यावहारिक
निषुणता (फाम्डगाशां० शीक्षंध्ा०४) को अस्वीकार करते हैं।
(2) रूढ़िगत नियमों को अस्वीकार करने का कारण है औपचारिक और
व्यावहारिक अवसर में भेद । ऐसे लोग औपचारिक अवसर को परिस्थिति को तो
मानते हैं परन्तु उसकी वास्तविक उपयोगिता को अस्वीकार करते है। इस कारण
रूढ़िगत नियमों का न मानना सबसे अधिक उनमें मिलेगा जो सोचते हैं कि प्राप्ति के
औपचारिक अवसर के उपस्थिति के आधार पर वे अपने उद्देश्यों को प्राप्त तो कर
सकते हैं पर क्योकि वास्तव में उनको इन साधनों की उपलब्धि नहीं है इस कारण
वे उतको प्राप्त नहीं कर पाते ।
(3) इन रूढिगत नियमों की बैधता से स्वयं को अलग करना नियमों को न
मानने वाले व्यक्तियों मे अपराध की भावना को कम करता है तथा अपराधी उपसंस्कृति
(कश्षारवृषटण $78-०णाए7८) की रचना के लिए नीव भ्रस्तुत करता है ।
क्लीवार्ड के इस अपराध के सिंद्धान्त की यद्यपि अमरीका में कुछ अधिक
मान्यता है किन्तु इसके विरुद्ध भी दो तीन तक दिये जा सकते हैं--
“5 (]) यह सिद्धान्त सभी प्रकार के अपराधों के कारणो को स्पष्ट नही करता ।
(2) इस सिद्धान्त में प्रयोग किये गये कुछ सेद्धान्तिक शब्द जैसे अवसर-
व्यवस्था, अवसर की उपलब्धि, वैधता को अस्वीकार करना आदि की व्यावहारिक
परिभापा नही दी गयी है जिस कारण उनको अनुसन्धान के लिए अनुपयुक्त पाया
जाता है और इसके सम्पूर्ण सिद्धान्त का महत्त्व समाप्त हो जाता है ।
(3) कोहेन का कहना है कि क्लोवार्ड और ओहलिन द्वारा दिया गया बेंध
और अवैध अवसर का द्वि-भाजन (0000०079) इतना सरल ओर स्पष्ट नहीं है।
यद्यपि दोनों के बीच अन्तर यथार्थ (7९७) है परन्तु यह ठोस (००॥०७४) नही,
"केवल विश्लेषणात्मक (279५02४!) है। दुसरे शब्दों मे कोहेन के अनुसार यह नहीं
कहा जा सकता कि कुछ अवसर तो वैध होते है और कुछ अवैध । एक ही अवसर
वध भी हो सकता है तो अवैध भो ! जैसे एक वन्दूक हिरत को मारने के लिए वैध
साधन कहलायेगी किन्तु वह ही बन्दुक आदमी को मारते के लिए अवैध साधन मानी
जायेगी । अतः वैध और अवैध अवसर के मध्य स्पष्ट भेद के अभाव में क्लोवार्ड
और ओहलिन के ध्षिद्धान्त का महत्त्व बहुत कुछ कम हो जाता है। हि
(4) क्जोवार्ड-ओहलिन के अनुसार निम्न वर्ग का व्यक्ति अपना आर्थिक
स्तर तो ऊँचा करना चाहता है परन्तु मध्य वर्ग का सदस्य बनकर अपनी सामाजिक
स्थिति बदलना नहीं चाहता। दूसरे शब्दों में क्लोवार्डडजोहलिन जीवनस-स्तर
(॥०-॥9६ णांध्यभांणा) और आायिक-स्तर (०००7०फरांए णांध्रावाणा) को एक
दूसरे से पृथक् मानते हैं। गार्डन (504०४) का मत है कि जीवन * का क्षमा;
स्तर और आधिक स्तर अलग-अलग नहीं पाये जाते तथा जब व्यक्ति अपना ८
१8 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
स्तर ऊँचा करना चाहता है तो वह सामाजिक स्थिति में भो अवश्य परिवर्तन चाहता है।
शार्ट और कार्टराइट ने भी वलोवार्ड-ओहलिन के सिद्धान्त की आलोचना की
है। उनका कहना है कि उनके अध्ययन के आधार पर यह किसी तरह सिद्ध नहीं
होता कि निम्न वर्ग के किशोर जिनको अपने मध्य वर्ग के मूल्यों, उद्देश्यों व
विशेषताओं की प्राप्ति के लिए वैध तरीके उपलब्ध नही हैं अथवा प्राप्ति-योग्य नहीं
है उनके प्राप्ति के लिए अवैध तरीके प्रयोग करते हैं जिससे अपराधी उप-संस्कृति की
'रचता होती है ।४
भर्टन का सिद्धान्त (६०7४ ह6०५)--मर्टन ने 946 में व्याधिकी
सिद्धान्त (१॥००५ ० #आणाएं०) का प्रतिपादन किया । विभिन्न समाजशास्त्रीय और
मनोवज्ञानिक सिद्धान्तों ने अपराध के कारणों मे व्यक्तित्व और उद्देश्य पर वल दिया
है परन्तु मर्टन ने अपने सिद्धान्त मे सामाजिक व्यवस्था के कार्य सम्पादन और तत्त्वों
के आधार पर अपराधी व्यवहार को समभाया है। सर्वेप्रथम फ्रांसीसी विद्वानु इुर्खीम
ने एनोध्या '(४॥०7४७) शब्द का प्रयोग अपनी पुस्तकों पञफ्ंझ्रणा णी ॥.॥००ए
(893) बोर '8णंणं०१७ (897) मे 'किया था । उसने ऐनामी (7076) शब्द
को लेकर यद्यपि आत्महत्या की व्याख्या की थी परन्तु उसके आधार पर अपराध के
किसी व्यापक सिद्धान्त की रचना का प्रयत्त नहीं किया । यह प्रयत्न मेन ने ही
946 में अपने लेख *5008॥ 807८७ 8॥0 0०77 ०' में किया था ।४ मर्टन ने
अपने व्याधिकी सिद्धान्त में तीन परिवरत्यों (शशायं४०6) को लेकर अपराध
समभाया है।
([) संस्कृति लक्ष्य--वे लक्ष्य और अभिलापाएँ जो व्यक्ति अपनी संस्कृति के
कारण सीखते है।
(2) नियम--वे नियम जो व्यक्ति के लिए उसके लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए
वैध साधन सीमित करते हैं ।
(3) भ्रवसर---जो लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उपलब्ध है ।
मर्टेन के अनुसार प्रत्येक सामाजिक संरचना में सास्क्ृतिक लक्ष्य मिलते हैं
जिनकी प्राप्ति के लिए कुछ सस्थागत आदर्श व उपाय होते हैं। (उदाहरण के लिए
भारतीय संस्कृति में प्रत्येक व्यक्ति के लिए धर्म, अर्थ, काम्त और मोक्ष चार लक्ष्य
बताये गये है जिनको प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचय, गहस्थ, चानप्रस्थ तथा संन्यास
चार आदर्श व उपाय वताये गये हैं)। किसी भी सामाजिक संरघना में उसके
सांस्कृतिक लक्ष्यों तथा संस्थात्मक आदर्शझों व उपायों में एक सन्तुलन पाया जाता है।
इस सन्तुलन बिगड़ने की स्थिति को मर्टन 'ऐनामी' कहता है। दुसरे शब्दी में, सर्टत
के अनुसार ऐनामी की परिस्थिति लक्ष्यों और उनके प्राप्ति के लिए सुलभ वेध
२ 8065, 3. 98, जाएं एब्ाएशोए्वा।, 0. 5., 4#ाश्ंत्का उठ्ककगरदा थी 3म्तंगगह/
9०. 39, 5०9४, 963, 5.
8 जटा[००, 7२. :., १5००३ 5प्एलचार ड0ते शैप०ए्रांट', 4श्वष्व॑त्दा कगलेगेए्ांटर्या
कोशारश, 00, 4946, 62-82.
अपराध और अपराधी 49
साधनों के सम्बन्ध के टूटने के कारण उत्पन्न होती है ! अपराधी व्यवहार सांस्कृतिक
लक्ष्यो और उनकी प्राप्ति के लिए संस्थात्मक साधनों की विलगता (प्रंश्णा०/0०7)
का एक लक्षण है। सांस्कृतिक लक्ष्यों और संस्थात्मक साधनों को स्वीकार करने से
व्यक्ति का व्यवहार सामाजिक नियमों के अनुकूल पाया जाता है, परन्तु दोनों में से
एक को स्वीकार व अस्वीकार करने या दोनों को अस्वीकार करने से व्यवहार
“विचन्नित व्यवहार! कहलाता है। इस प्रकार मर्टन के अनुसार विचलित व्यवहार ही
समाज में ऐनामी की स्थिति उत्पन्न करता है तथा सामाजिक ढाँचा व्यक्ति पर
समाज-विशेधी व्यवहार करने के लिए एक निदिचत दवाव डालता है।श मर्टन
' अपराध के ब्विए व्यक्ति के जैविकीय स्वभाव को कोई महत्त्व नहीं देता जबकि दुर्खीम
ने आत्महत्या की व्यास्या में व्यक्ति के जेविकीय स्वभाव को एक मुख्य कारक माना
'था। जब दुर्खीम ने व्यक्ति के अपर्याप्त लक्ष्यों को प्राप्त करने के प्रयत्न का कारण
उसकी आन्तरिक अथवा स्वाभाविक इच्छा बताया था, मर्टन ने इसका कारण
सामाजिक ढाँचे द्वारा प्रोत्साहन मिलना बताया है।
मर्टन के सिद्धान्त की कोहेन, क्लिनार्ड, लेमटं, शार्टे आदि ने आलोचना की
है। प्रमुख आलोचनाएँ इस प्रकार हैं--(7) समाज द्वारा माननीय साधनों से
अभिलापाएँ प्राप्त न होने पर तनाव उत्पन्न होने से प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक नियमों
का उल्लधन नहीं करता, (7) मर्टन ने यह स्पप्ट वही किया है कि किस प्रकार का
व्यक्ति कक्ष्यो को या साधनो को या दोनों को अस्वीकार करता है, (77) विचलित
व्यवहार करने वाले व्यक्ति की स्थिति स्पप्ट करने के लिए सामाजिक नियन्त्रण की
भूमिका को आवश्यक महत्त्व नही दिया गया है, (५) ब्लिनाडे के अनुसार मर्टन का
सिद्धान्त पूर्णवः इस मान्यता पर आधारित है कि विचलित व्यवहार दोपपूर्ण अनुपात
में (त590906०79/29) निम्न वर्ग के लोगों में अधिक पाया जाता है। यह
मान्यता सही नही है । अनेक व्यवसाय के लोगों के अध्ययन से यह पता लगता है
कि अपराध समाज के उच्च वर्गों में अधिक पाया जाता है। इसी प्रकार वाल-
अपराध भी न केवल निम्न वर्ग के बच्चो मे किन्तु मध्य और उच्च वर्गो के बच्चों मे
भी काफी मिलता है, तथा (९) इस सिद्धान्त मे सामाजिक सरचना में व्यक्ति की
स्थिति को एक महत्त्वपूर्ण परिवर्त्य॑ (शथ्यांठ06) मान लिया गया है तथा उसके
व्यक्तित्व व आत्म-अवधारणा (था गपर2१०) आदि जैसे तत्त्वों को कोई महत्ता प्रदान
नही की गई है।
श्रत्राहमसेन का सिद्धान्त (02शर्त 8 छाथ्ाश्ा5८॥ ७ प॥००७)--अंब्राहमसेन
ने तीन निश्चित तरीके बताये हैं जिनके कारण व्यक्ति अपराध करता है---
- . ([) हर व्यक्ति में असामाजिक श्रवृत्तियाँ होती हैं। जीवन में कमी कोई ऐसी
भ कुशाए), "एग्राढ१३8 8 उल्कुणाउट १0 3 ड्ॉसचा ऑफयधगप, उ2लंग गाव
काबडण्लबा 5॥कटाकल्ड, 957, ! ३॥-94, &50 ३८८ &0८४६ ॥९. (0४८०5 0शपक्राहर बाव॑
(००7, 70फ्रत40 का 9 (००६१ इ०लं०० ३६५ 5०765, एशटाएव्ढ है 966, 75-77...
+९ 465:गध्ा5०० क्04४80, ६०5७८०४००१५३१ ० 0-८९, ०9, ०४ /., 33, हा
50 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवतंन
घटना घटती हैं जो उसकी समाज-विरोधी प्रवृत्ति को प्रेरणा देती है जिसके फलस्वरूप
वह अपराध करता है।
(2) कभी-कभी व्यक्ति कोई ऐसा अनुचित कार्य कर बैठता है कि वह स्वयं
को अपराधी समभता है और चाहता है कि उसका उसे दण्ड मिले। पर क्योकि
अन्य लोगों को उसके उस अनुचित कार्य का कोई ज्ञान नही होता इससे उसे दण्ड
नही मिलता । इसलिए अपराधी विचारों के जड़ पकड़ने और उसके दण्ड मिलने की
अचेतन इच्छा के कारण वह अपराध करता है जिससे उसे दण्ड मिले और उसका
पशचाताप हो सके ।
(3) जो व्यक्ति सावेगिक रूप से कमजोर या असुरंक्षित होता है उसमें एक
आक्रमणकारी सांवेगिक धारणा विकसित होती है। वह इस आक्रमणकारी धारणा
को प्रतिवाद और विद्रोह द्वारा प्रदर्शित करता है और इस प्रकार अपराध करता है।
अद्वाहमसेन ने अपराध के बारे में दो “नियम! भी दिये है--
(१) अपराध का कारण एक से अधिक कारक है।
(2) अपराध व्यक्ति की अपराधी मनोवृत्तियों, सम्पूर्ण परिस्थितियों और उसके
प्रलोभन के प्रति मानसिक और सावेगिक प्रतिरोध पर आधारित है। इससे सम्बन्धित
उसने एक अंकगणितीय सूत्र भी दिया है :४९
मनोवृत्तियाँ + परिस्थितियाँ
प्रतिरोध
अब्राहमसेन द्वारा अपराध के स्पप्टीकरण के लिए दिये गये दो 'नियम” तो
समभ में आते है परन्तु उसके तीन “निश्चित तरीको' में कोई बल नहीं मिलता।
यदि हम यह भी मान ले कि असामाजिक प्रवृत्तियों की प्रेरणा अपराध का एक
कारण है तो भी उसके दण्ड की अचेतन इच्छा और आक्रमणकारी सांवेगिक धारणा
का अपराध में कोई प्रमाण नहीं मिलता। लेकिन अब्राहमसेन के अपराध के
बहुकारकवादी सिद्धान्त को आजकल बहुत से समाजशास्त्री मानते हैं।॥ इसी प्रकार
उसके अकगणितीय सूत्र में व्यक्तित्व और परिस्थितियाँ दीनो पर बल देना भी बहुत
विद्वानों ने स्वीकार किया है ।
_बिलफोर्ड शा का सिद्धान्त (0800 80897 प्र॥००५)--शा के अपराधी
क्षेत्र! के सिद्धान्त के अनुसार अपराध का कारण व्यक्ति के ऊपर “इकालाजी'
(००००४५४) अथवा उसके आस-पास के वातावरण के स्वाध्याय का प्रभाव है“
इकालाजी व्यक्ति और उसके स्थान सम्बन्धी पर्यावरण के सम्बन्ध पर वल देती है।
शा के इस सिद्धान्त के पूर्व फ्रेड़क थिरेशर ओर रावरटे पार्क ने भी इसी प्रकार की
धारणा दी थी | इनके अनुसार व्यक्ति एक जेविकीय अथवा इन्द्रिय सम्बन्धी प्राणधारी
(०४००४० शध्क्षाए्र०) है और इस कारण उसका व्यवहार जैबिकीय संसार के
अपराध 5
2 हव ; ३37.
5 ५० 5039७, ९. 7२. 35व ४०६३५, प्र, 0., उसके 0शवकुप्रटाटज बाग ए/शक/ 27९25,
पंगर, ण॑ एप्आॉं292० ९7९55. टआ29४०, 942.
अपराध और अपराधी |
सामान्य नियमों द्वारा निर्धारित होता है। थिरैशर ने शिकागो में 733 अपराधी
मिरोहो का अध्ययन करके यह पाया कि 'ग्रिरोह का स्थान भौगोलिक और सामाजिक
परिवतंनीय क्षेत्र बताता है।” उसने यह भी कहा कि गाँवो मे पाये जाने वाले
अपराधी गिरोह कोई समस्या पेंदा नही करते परन्तु शहरो में पाये जाने वाले गिरोह
यद्यपि सभी अपराध नहीं करते परन्तु उनमें से अधिकाश न केवल स्वय अपराध करते
हैं परन्तु अन्य लोगों को भी अपराध की शिक्षा देते है। उसके इस कथन से यह सिद्ध
होता है कि कुछ विशेष प्रकार के इकालाजीकल पर्यावरण के कारण अपराध होता
है और यह विशेष इकालाजीकल पर्यावरण उन समुदायों में पाये जाते हैं जिनका
सामान्य पर्यावरण से अपूर्ण अथवा दोषपूर्ण समायोजन होता है । शा भी इस विचार
से सहमत है । उनके अनुसार उन अत्यधिक जनसख्या वाले स्थानों और विघटित
शहरी क्षेत्रों में अधिक अपराध मिलता है जो व्यापार के केन्द्रीय क्षेत्रों के समीपवर्ती
होते है तथा नगर के वाहरी भाग मे अपराध की दर कम मिलती है। उसने सात
स्थानों पर अधिक अपराध पाया?---() वह स्थान जो शहरो के मध्य में स्थित
है। (2) जहाँ मकानों का अभाव है अथवा जहाँ गन्दी बस्तियाँ पायी जाती है।
(3) जहाँ सामाजिक नियन्त्रण का अभाव है। (4) जहाँ व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं
होते। (5) जहाँ वेकारी और निर्घतता अधिक है। (6) जहाँ भौतिक अवनत्ति
मिलती है । (7) जहाँ विदेशी अधिक रहते हैं! इस तरह उसने यह कहा कि
अपराधी क्षेत्र! में अपराध का कारण वैयक्तिक नही परन्तु पर्यावरण ही प्रमुख है।
सदरलेण्ड ने शा के इस सिद्धान्त की आलोचना की है। उसने मुझ्य रूप से
दो तक॑ दिये है*---(क) 'अपराधी क्षेत्रों! मे पाये गये अपराधी पहले ही से विघटित
और असस्तुष्ट व तिराश्ावानु व्यक्ति होते है ओर सम्भव है इसी नेरादय के कारण वे
अपराध करते हो । इस कारण यह किसी प्रकार नहीं माना जा सकता कि 'अपराधी
क्षेत्र” में रहने के कारण ही वे अपराधी बनते हैं। (खत) “अपराधी क्षेत्र में अनपराधी
क्षेत्र! की अपेक्षा अपराधी दूँढना बहुत आसान है ।
थामस का सिद्धान्त (५४. 7. 7007795'$ 7॥००५)--थामस ने अपराध का
कारण 'चार इच्छाएँ' बतायी है / ये इच्छाएँ है--स्नेह की इच्छा, प्रतिप्ठा कौ
इच्छा, सुरक्षा की इच्छा और नये अनुभव की इच्छा । उसके अनुसार व्यक्ति अपनी
श्रेप्ठता ($एए०४०7/५) तो नही परन्तु अपनी समता अन्य लोगों को दिखाना चाहता
है। परन्तु अन्य लोगो द्वारा तिरस्कृत किये जाने पर एवं अपनी स्थिति को मान्यता
न मिलने के कारण व केवल निम्न स्थिति के सामाजिक प्रतिष्ठा से वंचित व्यक्तियों
द्वारा मान्यता मिलने के कारण वह अपराधी कार्यों को अपने साम्राजिक मान्यता
$ पृता३ह0०ा, ९, *05गाड्ीउ04 7९ए/टडशा।$ & इ००ट्ाय्ज्रांस्डा३ बहाव इ0०९०9१9
॥ड्ा॥राएाओ शाधच्व व9 2#6 (48 204 व्यधे०्ण, एंकर, ० (४९३४० ९7653, शारबह8०,
4936. हु
$र 599 ड0व क़ैल:8७, ०. 2
+१ 500ट740, ०7०. ८/६., 459-62.
52 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
और प्रतिष्ठा का साधन मानता है और इस कारण अपराध करता है। थामस का
यह सिद्धान्त कुछ अपराधों के लिए तो सद्दी हो सकता है पर सभी अपराधों को स्पष्ट
नहीं करता जिस कारण उसके सिद्धान्त को अधिक मान्यता प्राप्त नही हो सकी है।
बहुकारकवादी सिद्धान्त (४०४७७ 4०७० ॥॥609)--इस सिद्धान्त की
रचना सबसे पहले 925 मे इग्लेण्ड निवासी सिरिल बर्ट ने अपनी पुस्तक 'श०णाह़
70थाप्रतृप७१४' मे की थी । उसके अनुसार व्यक्ति के अपराध का कारण एक नहीं
अवितु अनेक हैं (४१ विभिन्न कारणों मे उसने आनुवंशिक कारक, पर्यावरण सम्बन्धी
कारक (घर के अन्दर और बाहर के पर्यावरण), शारीरिक कारक (शारीरिक विकास
सम्बन्धी व्यवस्था और विघटित शरीर सम्बन्धी व्यवस्था जैसे शारीरिक दोप, तीत्र
बीमारी, स्थायी रोग आदि), बुद्धि सम्बन्धी कारक (साधारण से कम या अधिक
बुद्धि), स्वभाव सम्बन्धी कारक (अथवा मन कौ संवेगात्मक स्थिति) और संवेग
आदि पर बल दिया है | वर्ट के अनुसार ऐमे चार प्रभावक हैँ जिनको किसी भी
अपराध में पहचाना जा सकता है) ये है---(3) वह प्रभावक जिसका बहुत स्पष्ट
प्रभाव है। (0) प्रमुख सहायक प्रभावक। (प) थोड़ा उत्तेजित करने वाला
प्रभावक । (५) वह प्रभावक जो उपस्थित तो है पर प्रत्यक्ष रूप से क्रियापश्यील नहीं
है। आज के युग में बहुत से समाजज्ञास्त्री और अपराधशास्त्री इस बहुकारकवादी
धारणा को मानते है । जाजें वोल्ड", अद्वाहमसेन, रेक्लेस, काल्डवैल, आदि इनमें
से मुख्य विद्वान है। एक तरह से 884 में इटली के विद्वाचू फेरी ने भी अपनी
पुस्तक '0प्रधांशक्ष $0००0०89' में अपराध के विभिन्न कारणों का विवेचन किया
था। उसके अनुसार अपराध के चार मुख्य कारण है--() मानवशारत्रीय; जँसे
प्रजाति, आयु, लिग, इन्द्रिय और मनोवैज्ञानिक व्यवस्था, (2) भौगोलिक; जैसे
जलवायु, तापमान, मौसम आदि, (3) सामाजिक; जैसे जनसंख्या की घनता, जनमत्त,
रीति-रिवाज, घामिक मान्यताएँं आदि, तथा (4) आधथिक; जैसे निर्घनता, आर्थिक
विकास, औद्योगिक सगठन आदि । डोनाल्ड टफ्ट का भी कहना है कि अपराध एक
सामाजिक घदना है जो व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक लक्षण तथा उसके
व्यक्तित्व के ऊपर पर्यावरण के प्रभाव के कारण पेदा होती है ॥(%
अलवर्ट कोहेन ने इस बहुकारकबादी सिद्धान्त की आलोचना की है । इनका
कहना है कि एक-कारकवादी सिद्धास्तों में यद्यपि एक “कारण” पर वल दिया गया है
पर उस कारण के लिए बहुत 'कारक' उत्तरदायी बताये गये हैं।? इस त्तरह वह
(706 ॥$ 858879036 ६0 00 अआंहड्डोट प्रशश्टा53] 5000९, 907 जद. ॥0 ६ए0 07
फार4 ६ 0 5एगा85 ॥#छत0 8 शोव्ट ऋयाटाज 800 ए४एज।/ एएए 8 ॥0णँ७फालिीक 6
डॉएड्राक्ण0४6 300 ९०0४० ट्टॉणड ्रीप्टालटड>. 0५परा छत, न्7म्वह 2लांवृबल्ा, ॥925,
599-600,
*० ९५०१ 560७९, ०9. ८॥ , 305.
5 छताडव 86, $>द्व००९०, 956, ट।9796८7 8.
#एटा६ टणारए, 0श/ब्वल्ल छावें (०४7०, (966), ०7, दा... 809 एशाकरृघ्रका।
०2% (3955),
अपराध और अपराधी 53
कारण” और “कारक में अन्तर मानता है। इसको समभने के लिए हम एक
उदाहरण ले सकते हैं। किसी भ्रुवक का परीक्षा में अनुत्तीणं होते का कारण उसका
अच्छी तरह ने पढना ही होगा परन्तु इस अच्छी तरह न पढने के कारक बहुत हो
सकते हैं जैसे पुस्तकों का न होना, पढ़ाई में अरुचि, बीमार पड़ जाना आदि । इसी तरह
शएक-कारकवादी मतोबविकार विश्लेषण के सिद्धान्त में यद्यपि निराजा अपराध का
एकमात्र कारण बताया ग्रया है पर यह निराशा क्यों उत्नन्न होती है इसके लिए
बहुत से कारक दिये गये हैं। अन्य एक-कारकवादी सिद्धान्तो मे भी यह ही चीज
मिलती है। इस कारण बहुकारकवादी सिद्धान्त एक-कारकवादी सिद्धान्त से
बहुत भिन्त नही है। दोनों मे यह समझाया जाता है कि एक तथ्य के एक पहलू
में आने वाले परिवर्त्य (शध्य/0॥०) दूसरे पहलुओ के परिवरत्यों से कंसे सम्बन्धित
हीते हैं
कोहेन की आलोचना के अलावा वहुकारकवादी सिद्धान्त की एक और
आलोचना भी दी जा सकती है। इसमे हम कोई कल्पना नहीं बना सकते जिसको
लेकर आवश्यक तथ्य इकद्ठा कश्के उसको प्रमाणित या अप्रमाणित किया जा सके ।
फिर बहुकारकों में हम हर कारक को उचित महत्त्व भी नहीं दे सकते । इसलिए
हाल ही मे काल्डवैल* द्वारा बहुकारकबादी सिद्धान्त का संशोधन, कि किन््हीं घुने
हुए सांख्यिकीय कारकों को लेकर अपराध समभाया जा सकता है, अधिक वैज्ञानिक
सुझाव लगता है।
अपराध के कारक
अपराध के कारकों को हम दो समूहों में रख सकते हैं : एक, प्रत्यक्ष कारक;
और दूसरे, अप्रत्यक्ष कारक । अप्रत्यक्ष कारक वह है जो सीधे रूप में अपराध पर
प्रभाव नही डालते । उनका अपराधी व्यवहार मे कार्य भोण व द्वितीयक (8९००॥०१४४५)
है। जलवायु, तापमान, भूमि आदि कुछ भौगोलिक कारक ऐसे है जिनको इस समूह
मे रखा जा सकता है। इसके विपरीत प्रत्यक्ष कारकी का अपराध के कृपर सीधा
प्रभाव होता है जिस कारण इनका वैज्ञानिक रूप से अध्ययन भी किया जा सकता
है। यह प्रत्यक्ष कारक तीन उप-समूहो में बाँटे जा सकते हैं--शारीरिक, मानसिक
और परिस्थिति सम्बन्धी कारक । शारीरिक कारको मे प्रतृकता, और शारीरिक दोष
जैसे शारीरिक अग्रोग्यता, पुरानी बीमारी, शारीरिक वल का अधिक होना आदि
आते है, मानसिक कारकी में मन्द बुद्धि, संवेगात्मक व्याकुलता, मानसिक संघर्ष, भय
और नैराश्य जाते हैं; और परिस्थिति संम्बन्धी कारको में पारिवारिक दक्षाएँ, बुरे
सम्पर्के, सिनेमा और कामुऊ उपन्यास, निर्धनता और वेकारो, सामाजिक रीति-
रिवाज आदि आते है इत सबका हम अलग-अलग उल्लेख करेंगे ।
६४ (०09४), एफशगेंअज॑ग2>, ००. 2४., 336-55, *
54 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
, शारीरिक कारक
(|) वंशानुकम ([8८7८००॥५७)--875 और 938 के बीच अपराध में
बंशानुक्रमण के कार्य को मालूम करने के लिए चार प्रकार के अध्यमन हुए थे--
(क) माता-पिता और उनकी सन््तान के बीच अपराधी सम्पर्क का अध्ययन ।
(स) अपराधियों का '5६४०४४० शियां!9 (766७' से तुलनात्मक अध्ययन । (ग) प्रसिद्ध
और पतित परिवारों का अध्ययन । (घ) समान और असमान लिग की जुडवा सन्तान
का तुलनात्मक अध्ययन । पहले वाले माता-पिता और उनकी स्नन््तान के अध्ययन में
चाल्स गोरिग ने 493 मे अपराधी मनोवृत्ति के विन्वागमम को समभाने का प्रयत्त
किया था । दूसरे अध्ययन में तोम्ब्रोजो ने अपराधी शारीरिक विश्लेपताओं व दीपो
को पैत्ुकता द्वारा निर्धारित होना बताया था। तीसरे प्रसिद्ध और पतित परिवारों
के अध्ययन में विन्शिप ने एडवर्ड वंश की 7394 सन्तानों का, इसाबूक में ड्यूक बश
की 200 सन््तानों का, गोडार्ड ने कललीकाक वंश की 480 सन््तानों के इतिहास के
अध्ययन द्वारा अपराध मे पैठृकता का महत्त्व स्पष्ट किया था। चौथे जुड़वा सन्तान
के अध्ययन में लागे, फीमेन, न््यूमेन और हालजिन्गर, तथा क्रान्ज आदि ने समाने
और असमान लिंग की जुड़वा सनन््तान का अध्यमन करके न केवल पैतृकता का
अपराध में विवेचन किया, परन्तु यह भी सिद्ध क्रिया कि समान लिग्र की जुड़वां
सन्तान में असमान लिंग की जुड़वा सन्तान की अपेक्षा अपराधी व्यवहार मे अधिक
एकरूपता होती है ।
इन सभी अध्ययनों का भुख्य दोष यह है कि इनमे सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और
परिस्थिति कारक को अवहेलना की गयी है | किसी भी व्यवहार को, चाहे वह
अपराध ही क्यों न हो, पैतृकता और पर्यावरण दोनों के सम्बन्ध के आधार पर ही
समझाया जा सकता है। ऐशले माटेगू का भी कहता है कि अपराध एक सामाजिक
घटना है, जैविकीय घटना नहीं क्योकि इस वात को मानने का कोई भी प्रमाण नहीं
है कि अपराध करने के लिए कोई मनोवृत्ति को पंतृकता द्वारा प्राप्त करता है ४
इसका यह अर्य भी नही है कि वंशानुक्रमण का अपराध मे कोई महत्त्व नहीं
है ).कुछ ऐसे आनुवंशिक लक्षण सम्भव हो सकते है जिनका अपराधी व्यवहार पर
अप्रत्यक्ष प्रभाव हो सकता है। आजकल जो विचारक वहुकारकवादी घिद्धान्त को
मानते हैं उनका भी यह कहना है कि उन विभिन्न कारणों में से, जिनके कारण
अपराध होता है, वंशानुक्रमण एक कारण है।
(2) शारीरिक प्रयोग्यता (77५आं०७॥ ०075807/9)--श्ारीरिक अयोग्यता
जैसे हृष्टिहीनता, वहरापन, लगड़ापन, गंजापन आदि के कारण जब व्यक्तियों को
तिरस्कृत किया जाता है या उनको चिढाया व छेड़ा जाता है तो वे अपना सन्तुलन
खो बैठते हैं अथवा सामान्य सम्पक्कों से किनारा कर लेते हैं। इसके कारण उनमें
पैदा हुई हीवता की भावना उनके व्यक्तित्व को ही बदल देती है। नये उत्पन्न विचारों
४ 85॥69 ०3३००, 7कह 4#707, ५०१. 7, 5:50 94.
अपराध और अपराधी 55
और घारणाओं के कारण वे समाज-विरोधी कार्ये करते लगते हैं।
(3) पम्भीर रोग (8०४४० ॥॥7655)--गम्भीर रोग के कारण व्यक्ति दिवा-
स्वप्त देखने लगता है जिसके कारण उसके व्यक्तित्व में मायावी और असत्य
कल्पनाओं का विकास होता है। दिवा-स्वप्न व्यक्ति को न केवल सुस्त बनाता है पर
उसे प्रतिहिसात्मक आदि कार्य करने के लिए भो बाध्य करता है ।
(4) शारीरिफ घल फा शधिक होना (0००७५ ० फाएअंत्य &धथाह॥)--
सिरिल वर्द के अनुसार अधिक शारीरिक बल होने के कारण व्यक्ति में धमण्ड और
श्रेप्ठठा की भावना उत्पन्न हो जाती है। यह भावना ही उसे मार-पीट जैसे अपराधों
की प्रेरणा देती है ।
2. सानसिक प्गरक
(१) मन्द बुद्धि--मन्द बुद्धि व्यक्ति की वह अवस्था है जिसमें मानसिक
विशास की कमी के कारण बहू समाज की आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर पाता ।
मन्द बुद्धि मानसिक आग के आधार पर तीन स्तर पर विभाजित की गयी है--
(क) इडयासी (0009)--वह व्यक्ति जो सर्देव तीत साल से कम आयु वाले बच्चे
की तरह व्यवहार करता है। (ख) इम्बेसि लटी (770४०॥॥५)--वह व्यक्ति जो स्देव
तीन साल से ऊपर और सात साल से कम आयु वाले बच्चों जेँसा व्यवहार करता
है। (मं) मोरोन्टी (707077/५)--वह् व्यक्ति जो सर्देव सात साल से ऊपर और
बारह साल से कम आयु वाले बच्चे जैसा व्यवहार करता है । इनमें से किसी भी स्तर
के मन्द बुद्धि होने के कारण व्यक्ति अपने कार्यों को समाज द्वारा मान्यता प्राप्त
तरीकों से नहीं कर पाता । वह अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए असामाजिक तरीकों
के प्रयोग मे कोई हानि नही समझता और यह अवेध तरीके ही उसके अपराध का
कारण हीते हैं। साइकोसिस ओर न्यूरासिस जेसे मानसिक रोगो के कारण अथवा
साइकोपेधिक व्यक्तित्व होने के कारण भी व्यक्ति अपशध करते हैँ। 932-35 के
बीच ब्राम्वर्ग और थाम्सन द्वारा न्यूयार्क मे 9658 केदियों के अध्ययन में ]7'7
प्रतिशत अपराधियों में मानसिक रोग पाया गया । इनमें से :5 प्रतिशत साइकोटिंक
थे, 6.9 प्रतिशत न्यूराटिक थे, 6:9 प्रतिशत साइकोपेथिक व्यक्तित्व बाते थे और
24 प्रतिशत मन्द बुद्धि वाले व्यक्ति थे ।?९
(2) संवेगात्मक घ्याकुलता प्लौर नेराश्य--कभी-कभी किसी घटना के
आकश्मिक घटने के कारण व्यक्ति संवेगात्मक रूप से व्याकुल हो जाता है और अपने
ऊपर नियन्त्रण खो बेठ्ता है जो उसे अच्छाई और चुटराई मे अन्तर मालूम होने नहीं
देता । ऐसी अवस्था में यदि वह कोई अपराधी कार्य कर बैठे ती आश्चर्य नहीं । एक
केंदी को उसके दण्ड की अवधि समाप्त होने पर भी जब जेल के अधिकारी उसे जेल
70 छाणग्रएटा३, 9४, क्राव फ्०च्नए४००, 0. छ., *+र कशंगांगा ता -
ग्रल्जाबो तेट[०८०६ बवाव॑ एडा500459' ,ल्(९3 ९० दागार', -ग्कादा रण टलाड्वा डक
७००2७ चं१४-7 णाढ 937, 70-89.
सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
से न छोडें और उनके आनाकानी के कारण वह कंदी सवेगात्मक व्याकुलता के कारण
भागने का प्रयत्न करे तो उसका कार्य जेल के तियमों के अनुसार अपराध ही
कहलायेगा ।
(3) भय--भय के कारण व्यक्ति डरपोक, पड्यन्त्र रचने वाला, असम्मत और
शर्मीला बन जाता है। डारबिन का भी कहना है कि 'भय से हृदय की गति बढ जाती
है, चर्म (धंधा) पीली हो जाती है, सिर के बाल खड़े हो जाते हूँ, दरीर कापने लगता
है और आतक की भावना बढ जाने के कारण व्यक्ति असामाजिक कार्य करता है।'
(4) पश्रनुकरण झौर सुझाव--कभी-कभी अन्य व्यक्ति द्वारा दिये गये सुझाव
के कारण अपने विवेक और तक के विरुद्ध कोई व्यक्ति चोरी, हत्या या मारपीट जंसे
अपराध वर बैठता है। इसी प्रकार अन्य व्यक्ति की नकल करना भी अपराधी
व्यवहार का कारण बन जाता है। परन्तु सुफाव और नकल के आधार पर व्यवहार
करने में व्यक्ति की आयु, लिग, बुद्धि आदि जैसे कारक महत्त्वपूर्ण होते है। एक
बालक मे सुझाव को मानने की क्षमता एक युवा पुरुष से अधिक ही होती है। इसी
तरह कम बुद्धि वाला व्यक्ति अधिक बुद्धि वाले व्यक्ति की तुलना में अन्य लोगो की
आसानी से नकल करता है। इसके अलावा सुझाव, थकावट, भूख, नोद की कमी
आदि जैसी आस्तरिक व्यवस्था से भी प्रभावित होता है। ,
(5) सानसिक संघर्ष--जब व्यक्ति किसी समस्या को सुलझाने के लिए दो
उपलब्ध हलो मे से किसी एक हल का चुनाव नही कर पाता तो उसके मस्तिष्क में
संघर्ष उत्पन्न हो जाता है और कभी-कभी यह सघप इतना तीब्र हो जाता है कि बाध्य
होकर वह ऐसा अपराधी व्यवहार कर बैठता है जो सामान्य स्थिति मेन करता ।
मान लीजिए एक व्यक्ति की पत्नी और उसकी माता में कलह है; व्यक्ति यह निश्चय
नहीं कर पाता कि माता का साथ दे या पत्नी का, ऐसी अवस्था मे कभी वह अपनी
पतली की ह॒त्या ही कर देता है यह अपराध उसके मानसिक संधप के कारण हुआ ।
3, परिस्थिति-सम्बन्धी कारक
परिवार--व्यक्ति का प्रारम्भिक समाजीकरण ही मौलिक एवं मूलभूत होता
है । समाजीकरण के विभिन्न साधनों मे परिवार सवसे महत्त्वपूर्ण है क्योकि व्यक्ति
अपने परिवार से जीवन के प्रथम चरण से लेकर अन्त तक बहुत अधिक सम्पक में
रहता है। वह् उसके मुल्यों व आदर्शों आदि को , निर्धारित कर उसके मानवोचित
विकास को सम्भव करता है । इसी कारण अपराध-शआ्ञास्त्रीय शोध मे वयस्क-अपराध
और वाल-अपराध के पारस्परिक सम्बन्ध अथवा बाल-अपराध और परिवार के
पर्यावरण व शिश्वु के पालन-पोषण की प्रक्रियाओं के सम्बन्ध में अध्ययन पर वल
दिया जाता है। पारिवारिक जीवन निम्न प्रकार विभिन्न तरीकों से अपराध उत्पन्न
कर सकता है--_,
() परिवार में वे घारणाएँ, मूल्य व व्यावहारिक प्रक्रियाएँ उपलब्ध हैं जो
अपराध सिखाने मे सहायक होती है। व्यक्ति उन प्रक्रियाओं को अपनाकर केवल इस
अपराध जौर अपराधी पा
कारण अपराधी बनता है क्योकि उसने परिवार मे अपराध करना सीखा है।
(2) परिवार व्यक्ति की समाज में सामाजिक बर्ग-स्थिति को निर्धारित करता
है। यह स्थिति ही उसके परिवार के वाहर प्राथमिक सम्बन्धों को निश्चित करती
है। यदि व्यक्ति एक निम्न आर्थिक व सामाजिक वर्ग का सदस्य है तो वह ऐसे
प्राथमिक समूहों के सम्पर्क मे आ सकता है जो समाज द्वारा मान्यता-प्प्त मूल्यो
को नही अपनाते । इन्ही के सम्पर्क में वह अपराध की ओर प्रवृत्त हो जाता है।
(3) परिवार व्यक्ति के कुछ प्रकार के सामाजिक सम्बन्धो के धृर्वाधिकारों
की भी प्रभावित करता है। परिवार से ही व्यक्ति अन्य व्यक्तियों की आवश्यकता व
अनावश्यकता का, भाषा, व्यवसाय, राष्ट्रीयता व लक्षणों के आधार पर उनका
मूल्यांकन करना सीखता है। कुछ प्रकार के लोगो के प्रति यह विशेष प्रकार की
प्रक्रिया करना सीखता है । यह ही पूर्व विचार उसके अपराधी बनने की राम्भावना
प्रभावित करते हैं। घर के बाहर जिन व्यक्तियों को ऊँची स्थिति प्रदान कर उनसे
प्राथमिक सम्बन्ध स्थापित करता है, यदि उनकी धारणाएँ और भूर्य असामाजिक
हैं, तब उसके स्वयं के अपराधी बनने की सम्भावना अधिक होती है।
(4) परिवार व्यक्ति के रहने के लिए सामान्यतः संगठित और सुसमी घर
प्रदान करने में असफल हो सकता है। यदि परिवार में सदस्यो के पारस्परिक घृणित
व अनिष्ठाकारी सम्बन्ध है, चाहे वह पत्नी के कारण हो या सनन््तान ये? कारण अथवा
माता-पिता के कारण, तो व्यक्ति घर छोड़कर जाना चाहेगा तथा घर में रहते हुए भी
अपने को सदस्यों से अलग रखेगा। ऐसी परिस्थिति में घर से बाहर किस प्रकार के
व्यक्तियों के संस में आता है, यह निर्धारित करेगा कि वह अपराधी बनेगा अथवा
नही ।
(5) परिवार व्यक्ति को नैतिक तथा आध्यात्मिक शिक्षा न देकर समाज का
सक्रिय सदस्य बनाने मे असहायक रहा हो | सही देस-भाल के अभाव में व
आवश्यकता से अधिक सुरक्षा होने के कारण अथवा तिररक्षत्त किये जाने के कारण
बह समाज के निममों को नही सीज सका हो । ऐसे “निष्पक्ष' व्यक्ति का क्षपराधी व
अनपराधी बनना उसके घर के बाहर प्राथमिक सम्बन्धों पर निर्भर करता है।
परिवार में बच्चों को 'निष्पक्ष' व्यक्ति नही परन्तु अनपराधी व्यक्ति बनने की शिक्षा
की आशा की जाती है। अपराधी प्रभावों के विरोध करने को शिक्षा के अभाष में
बह स्वयं अपराधी व्यवहार स्वीकार करता है। इरा प्रकार परिवार की दरिद्रता,
विच्छिन्न परिवार, कठोर नियन्त्रण, मनोवैज्ञानिक अथवा संवेगात्मक व्याकुलता
अपराधी बनने की परिस्थित्तियाँ पंदा करते हैं ।
ध्यक्तितत भर पर्यावरण सम्बन्धी कारकों का पारस्परिक सम्बन्ध
' व्यक्तिगत और पर्यावरण सम्बन्धी कारकों का उपर्युक्त उत्लेख यह
करता है कि केवल एक कारक अपराध उत्तपन्त नहीं करता परन्तु सभी , का
अलग महत्त्व है। प्रत्येक कारक की प्रकृति और उराके अन्य कारकों से
58 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवतंन
भिन्नता है। जिस कारण इन सभी का अपराध में महत्त्व अलग-अलग मिलता है।
रेकक््लेस भी इस विचार का समर्थन करता है।” व्यक्तिगत कारकों का अपराध में
इसलिए प्रभाव है कि वे व्यक्ति के समायोजन सम्बन्धी क्षमता को कम करते हैं और
पर्यावरण सम्बन्धी कारकी का प्रभाव इस कारण है कि वे उसकी आवश्यकताओं की
पूि मे बाधाएँ डालते है और इस प्रकार के मूल्य पेदा करते है जो उसकी सगठित
समाज के मूल्यों से सघर्ष में लाते है। इन सबसे यही निप्कर्प निकलता है कि मनुष्य
का अपराधी व्यवहार उसके व्यक्तिगत और पर्यावरण सम्बन्धी कारकों से विकसित
होता है, फिर चाहे किसी अपराध मे व्यक्तिगत कारक अधिक हों या पर्यावरण
सम्बन्धी कारक ।
अपराधियों की दण्ड-व्यवस्था
काल्डवैल के अनुसार 'दण्ड वह सजा है जो राज्य उस व्यक्ति को देता है जिसे
अपराधी घोषित किया गया हो ।/”* दण्ड देने की तीन विचारधाराएँ बताई गयी है-
() दण्डात्मक विचारधारा (?ए्रं/५० 4060०8५)--इसके अनुसार
अपराधी को दण्ड देना इसलिए आवश्यक है क्योकि (क) वह व्यक्ति की सम्पत्ति और
जीवन के लिए एक खतरा है और फिर वह सुधारा भी नही जा सकता है। (ख) वह
समाण के लिए एक खतरा है और समाज की सुरक्षा के लिए उसको दण्ड देना
आवश्यक है ।
(2) निरोधात्मक विचारधारा (27९४८७४४७ 0०००१५)--अपराधी को दण्ड
देना इस लिए आवश्यक है जिससे (क) उसे दोबारा अपराध करने से रोका जा सके और
(ख) अन्य व्यक्तियों को भी शिक्षा मिल सके कि वे अपराध की ओर प्रवृत्त न हो ।
(3) चिफित्सा-सम्बन्धी विचारधारा (॥#&०99८०४० 706००४५)--इसके
अनुसार अपराधी की तुलना एक रोगी से की जाती है! जिस प्रकार रोगी के रोग
को क्षणिक मानकर उसकी चिकित्सा की जाती है उसी प्रकार अपराधी के अपराध
को भी रोग मानकर उसका उपचार किया जाता है। है
होम्स के अनुसार “दण्ड का मुस्य उद्देश्य निरोधात्मक है।! नीमेसिस के
अनुसार “दण्ड का उद्देश्य है अपराधी को यह बताना कि अच्छे कार्य के लिए सर्देव
पुरस्कार मिलता है और बुरे कार्य के लिए उसे उसका फल भुगतना पड़ता है ॥*
इस तरह अपराधी को दण्ड देने की आवश्यकता के लिए भिन्न-भिन्न मत हैं ।
2२ १५८ ॥09397 #3४८ (0 बकजात00 6 इट३7९ं) (06 ९३७६३ ॥0 ऐट 20॥0टाॉए एम
28 5(039 ता (]८ (टाएणा३ दी ऋरगाड ॥00 6फ़बाध्माह छज 9्रताशंरफ॥)5 ऐटएणतार
दाक्रांग9$ व्यय 02058 (रह हं5६ 0 0०९००चाह दाग, ह८८६।८५5, शादा ९.५
टनाए्ं 20#9/०४४, 8.
२ ("89%६॥, ०४- ०६, 389.
3 व्यफ्रढ ठए.चटा ण॑ एएच्राशंगगरशा। $$ (9 एग॥8 076 0 पद 77वें ठा 06 #ाणाडन
एज्टा एप३९ $ इ००० 2 $$ ४१७३५३ ९ डर: ए८प 8५5 8 ७७७४ ७८ छा6९५ [8 छा शपद्ताल्व
गिल, >+रिटाग८978-
अपराध और अपराधी 59
एक मत के अनुसार अपराधियों को दण्ड देना एक धामिक उत्तरदायित्व है। दूसरे
मत के अनुसार अपराधी को दण्ड देना इसलिए आवश्यक है जिससे वह पश्चात्ताप
करे और पुनः ऐसा कार्य न करे । काण्ठ के अनुसार अपराधी को नैतिक तियमों के
उल्लधन के लिए दण्ड देना आवश्यक है | हीगल के अनुसार दण्ड इसलिए आवश्यक
है कि जिससे क्षति के प्रभाव को नप्ठ किया जा सके | वेकेरिया के अनुसार दण्ड
समाज की रक्षा के लिए आवश्यक है। गैरोफैलो के अनुसार अपराधी को दण्ड देने से
उसकी अपराधी प्रवृत्ति पर आघात लगता है।
इन्ही विभिन्न उद्देश्यों के आधार पर दण्ड के मुख्य रूप से चार सिद्धान्त
दिये गये है---
() प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त (र०४४0पध४०७ ॥॥००५)--इस सिद्धान्त का
आधार है 'दाँत का दाँत और आँख के लिए आँख” तथा “बदले की भावना
(7८एशा8०) जिससे अपराधी को अपने अपराध की भीपणता का आभास हो सके ।
बदला इसलिए भी आवश्यक समभा जाता है क्योंकि (क) व्यक्ति ने कानून का
इल्लघन किया है और किसी को हानि पहुँचाई है। (ख) क्योकि समाज के श्रति
अपने कर्तव्य का वह पालन नहीं कर सका है। (ग) यदि अपराधी को दण्ड नही
दिया जायेगा तो जो व्यक्ति अपराध का भिकार हुआ है वह स्वय या उसके सम्बन्धी
अथवा साथी अपराधी से बदला लेने के लिए स्वयं कानून तोड़ेगे या फिर समाज को
अपना सहयोग प्रदान नही करेंगे क्योकि समाज ने उनकी रक्षा नही की ।
इस सिद्धान्त की सिडविक, मंकेन्ज़ी आदि ने आलोचना की है। सिडविक
का कहना है कि “दण्ड का उद्देश्य बदले की भावना न होकर समाज की रक्षा करना
हीना चाहिए ॥! मकेन्ज्ी* का भी कहना है कि अपराधी को दण्ड बदले की भावना
से नही दिया जाता परन्तु इसलिए दिया जाता है कि उसे यह आभाम हो सके कि
वह दण्ड उसके स्वयं के कार्य का परिणाम है। इसी से वह पश्चात्ताप भी करेगा
और भविष्य में पुनः अपराध करने से भी रोका जा सकेगा ।
(2) निरोधात्मक सिद्धान्त (शा०्एथय४४० 7॥0०५)--इस सिद्धान्त के
अनुसार क्योंकि अपराधी सुधार के अयोग्य होने के कारण कभी नहीं सुधारा जा
सकता इसलिए उसे समाज से अलग करने के लिए भृत्यु-दण्ड अथवा जीवन भर के
लिए कारावास देना चाहिए। इन सिद्धान्तों के मुल मे यह भावना निहित मालूम
होती है कि 'व होगा बाँस न वजेगी वॉसुरी'। परन्तु चूँकि आजकल अपराधी के
विचलित व्यवहार के कारण कुछ सामाजिक व कुछ व्यक्तिगत माने जाते हैं इसलिए
यह कहा जाता है कि इन कारणों को दूर करने से ही अपराधी को सुधारा जा
सकता है। इसी मान्यता के कारण दण्ड का निरोधात्मक सिद्धान्त कोई नही मानता ।
(3) भ्रतिरोधात्मक सिद्धान्त (9लल्ापाधा परश०णा9)--इस सिद्धान्त का
उद्देश्य है न केवल अपराधी को दण्ड देकर पुनः अपराध करने से रोकमा परन्तु
88 द्यरांट, 377०० 2/ 520८5, 4933, [.00007, 366,
60 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
उसी दण्ड के भय द्वारा अन्य व्यक्तियों को भी अपराध की ओर प्रवृत्त होने से रोपना।
जान सासमण्ड ने भी इस विचार का शमर्थन किया है। उगका पहना है कि “दण्ड
का प्रमुस उद्देश्य है गलत कार्य करने वाले (८्शी-त०ट) को उद्यहरण बनाकर
अन्य व्यक्तियों को चेतावनी देता ।/ इसलिए इस शिद्धान्त को सानने बाले अपराधी
को सार्वजनिक स्थान में कठोर दष्ड देने के पक्ष में हैं। परन्तु पस सिद्धान्त को भी
अब अधिक नहीं माना जाता क्योंकि अधिकांश अपराध भावनात्मक होते हैं और
इन अपराधों में दण्ड प्रतिरोधक कार्य नहीं कर सफता है। अपराधी फो बहुत
गम्भीर अपराध के लिए मृत्यु-दण्ड देने कय उद्देश्य भी प्रतिरोधन है। परन्तु जिन
देशों में मृत्युल्षण्ड की प्रथा को समाप्त कर दिया गया वहाँ अपराध की दर में
कोई यृद्धि नही हुई है। उदाहरण के लिए इटलो में मृत्यु-दण्ड 890 में समाप्त
कर दिया गया था पर 933 में मुमोलिनी ने उगे फिर घुरू किया। 945 में
उसे फिर समाप्स कर दिया गया। इसके सत्म होने से गर-दृत्या की संख्या बढ़ने
की अपेक्षा कम हो गया। 945 में जब 237 हत्याएँ हुई थीं, 954 में
केवल 46 हत्याएँ ही हुईं । इसी प्रकार की चीज भारत में श्रावनकोर राज्य में
944 मे मृत्यु-दण्ड समाप्त करके 950 में किर से उसे शुरू करने पर मिली ।
इससे सिद्ध होता है कि मृत्यु-दण्ड अयबा किसी भी प्रकार के गम्भीर दण्ड का
प्रतिरोधक मूल्य अधिक नही होता ।
(4) सुधारात्मकफ सिद्धान्त (सिटणायग/४० प॥९0५)--अधिकांशतः दण्ड
अपराधी को अपराध करने से रोकने के वजाय उसे समाज का क्षत्रु बना देता है।
इसलिए बहुत से विद्वानु अपराधी को दण्ड देकर उससे बदता लेने की अपेक्षा उसको
सुधारने के पक्ष में है। इस सिद्धान्त की रचना आजकल माने हुए अपराध के
साभाजिक व व्यक्तिगत कारकों पर ही आधारित है। व्यक्ति के अपराध के कारणों
को वेज्ञानिक रूप से मालुम करके उन्हे वैज्ञानिक रूप से ही दूर करना चाहिए।
अपराधी के केवल दरीर और मन को कप्ट पहुँचाकर उसे सुधारा नहीं जा सकता ।
जेम्स सेठ का भी कहना है कि अपराधी का सही सुधार तभी सम्भव है जब वह
दण्ड को स्वर्य सही और आवश्यक समझे ।४
अपराध के प्रति दण्ड की प्रतिक्रिया अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग समय
मे बदलती रहती है | सदरलेण्ड ने इसको “सांस्कृतिक स्थायित्व के” तत्त्व के आधार
पर समभाया है । इसके अनुसार कानून के उल्लंघन के प्रति समाज की प्रतिक्रिया और
इस प्रतिक्रिया को,अभिव्यक्त करने की विधि अथवा दण्ड की प्रकृति समाज से मान्यता:
प्राप्त व्यवहार के योग्य होती है ।'" उदाहरण के लिए पन्द्रहवी और सोचहवी
२8 जप ७6 ढणिएशाता (रत था 9विटावंटा] ९००८३ ०79 ज्योंग [९ 8००:एशा]ए6 रण
एण्प्राह्नधाशाई 5५ गधात खाते वैदबा,.. वद्ाल ॥0क्डगध४ ० 502०७ छए०॥ शाह शाह
पा05६ 96९णाड 8 ॥७१870९7६ 0 ध6 शिक्षा एएग वगिड९।न व ॥ 750 0६ धीट्लीएड 85 था
बहा. ॥. 98. उर्टाएचाबा।णा-". उग्ा९$ ला, # उनकी थी डकार गीडारफाॉरड
&.379फ7४०, 39, 332.
28 इप्रंचिष्ा]304, ०9. ८7, 298-300.
लॉ
कै अपराध और अपराधी 6]
शताब्दियों में शारीरिक कप्ट व्यक्ति का स्वाभाविक अंध (00) समझा जाता था जिसके
कारण उस काल में अपराधियों को कठोर दण्ड दिया जाता था। आधुनिक काल मे
क्योकि हमारी प्रतिक्रिया भिन्न है इस कारण दण्ड की प्रकृति भी बदल गई है।
चार्त्स बर्ग तथा पाल रेवाल्ड ने इसको 'बलि के बकरे' के तत्त्व से सम्बन्धित
किया है । इसके अनुमार दण्डात्मक प्रतिक्रियाओं में भिन्नता का सम्बन्ध लिगीय
और आक्रमण की मूल प्रवृत्तियों की तृप्ति से है। जब समाज इन प्रवृत्तियों की
तृप्ति के लिए व्यक्तियों को साधन उपतब्ध नही करता तब वे उनकी पूर्ति के लिए
अपराधी को वलि का वकरा बनाते हैं और उसके लिए कठोर दण्ड निर्धारित करते
हैं; परन्तु जब घनके लिए पूरे साधन जुटाये जाते है तब अपराधी को दण्ड साधारण
दिया जाता है | परन्तु इस (दण्ड में भिन्नता पर आधारित) सिद्धान्त को आजकल
कोई नही मानता । कुछ अन्य लोगो ने फिर दण्ड की विभिन्नता को समाज की
आधिक दशा अथवा समाज मे निस््न मध्य वर्ग की प्रधानता तथा समाज में श्रम-
विभाजन में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर समझाया है।
भारत में दण्ड-ब्यवस्था
भारत में प्राचीन काल, मुस्लिम काल और ब्रिठिश काल में दण्ड की व्यवस्था
अलग-अलग थी । प्राचीन भारत में अपराधियो को दण्ड राजा ही दिया करते थे।
देण्ड अधिक गम्भीर नही होते थे । कोड़े मारता, यन्त्रणा देना, शरीर के अग काटना
आदि जैसे दण्ड नही दिये जाते थे, परन्तु कुछ अपराधों के लिए देश विष्कासन की
सजा दी जाती थी । चीजों में मिलावट और वेश्यादृत्ति इतने गम्भीर अपराध माने
जाते थे कि उनके लिए मृत्यु-दण्ड दिया जाता था। ब्राह्मण काल मे ब्राह्मणों को
दण्ड में कुछ रियायतें दी गयी थी | किसी भी गम्भीर अपराध के लिए उनको मृत्यु-
देष्ड नही मिलता था और न राज्य उनकी सम्पत्ति को जब्त करता था। बहुत
गम्भीर अपराध के लिए अधिक से अधिक उतका प्षिर गंजा कर दिया जाता था ।
इसरी ओर श्ुद्रों के छोटे-छोटे अपराधों के लिए गम्भीर दण्ड निर्धारित थे। मुस्लिम
काल में कुरान में दिये गये नियमों के आधार पर दण्ड निर्धारित था। यद्यवि
अकबर के समय में दण्ड गम्भीर नही था परन्तु औरमजैब के राज्य मे अपराधियों
को क्षेर या चीते से लड़वाना, जिन्दा दीवार में चुन देना, हाथी के पाँवों तले
कुचलवाना आदि दण्ड के तरोके भी प्रयोग में लाये जाते थे । ब्रिटिश काल में इन
यब्ञ्रणा देने वाले तरीकी को समाप्त कर दिया गया तथा कैद करने पर अधिक बले
दिया गया। जेलो में सुधार करके उनके द्वारा अपराधियों का सुधार किया जाने
लगा। इन सुधारात्मक तरीको का अब हम अलग उल्लेख करेंगे ।
अपराधियों का सुधार
आधुनिक काल में अपराधियों का सुधार इस घारणा पर आधारित है कि
कोई भी अपराधी सुधार के अयोग्य नही है तथा उसके व्यक्तित्व और पर्यावरण का
62 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
अध्ययन करके उसके अपराधी व्यवहार को रोका जा सकता है और उसे समाज का
नियम-पालक सदस्य वनाया जा सकता है । इस तरह अपराधियों के प्रति हमारा
आज का हृष्टिकोण घृणा, झजत्रुता, द्वे प, विरोध जैसी धारणाओं पर आधारित न
होकर दया और सहानुभूति जैसी भावनाओं पर आधारित हैं। इन्ही नयी घारणाओं
के आधार पर आज के बन्दी-गहो, परिवीक्षा (90090०7) तथा परोल (70०)
की सेवाओं और अन्य सुधारवादी सस्थाओं का सगठन किया गया है । यहाँ पर हम
अपराधियो के सुधार के लिए अपनाये यये दो प्रकार के प्रयत्नों का उल्लेख करेंगे---
(क) जैलो में सुधार, (ख) प्रोवेशन की सेवाएँ ।
जैल प्रणाली--ब्रिटिश कान से पहले अपराधियों को बन्दी-गहों में रखना
उनके सुधार का साधन नहीं परन्तु बन्दी बनाये रखने का तरीका माना जाता
था। इस कारण उस समय की जेलो की व्यवस्था जाज की व्यवस्था से बिल्कुल
भिन्न थी। जेलो में अपराधियों के वर्गीकरण पर तथा लिंग, आयु व अपराध की
प्रकृति के आधार पर पृथककरण पर कोई बल नही दिया जाता था। खाने, पहनने
व कार करने की व्यवस्था पर भी विशज्ञेप ध्यान नहीं दिया जाता था। सफाई और
स्वास्थ्य की दशाएँ भी अत्यन्त असन्तोपजनक थी । 838 में सारे भारत में केवल
286 जेल थी जिनमें लगभग 75,000 अपराधियों को रखने की व्ययस्था थी ।
जेलो में रखे गये कुल अपराधियों में से 85 प्रतिशत से अधिक अपराधियों से पत्थर
बूटने और सडके बनाने का ही कार्य लिया जाता था। परन््तु अंग्रेजों ने अपराधियों
के सुधार में जेलो को एक मुख्य साधन मानकर उनमें बहुत से सुघार किये । 836,
864, 877, 888 और 99 में विभिन्न जेल सुधार समितियों की नियुक्ति
कर जेलो में बहुत से सुधार किये गये । विभेषकर 99-20 के जेल कमेटी की
सिफारिशों के आधार पर साने, रहन-सहन, प्रशिक्षा, मनोरंजन आदि व्यवस्था में
परिवर्तन किये गये | इस कमेटी द्वारा दिये गये कुछ सुझाव इस प्रकार थे-८
([) वेड़ियो और कठोर कार्य पर भ्रतिबन्ध लगाये जाएँ। (2) रात को काल कोठरी में
यन््द रखना समाष्त किया जाये | (3) बीमारी के लिए जेल के अन्दर ही चिकित्सा का
प्रबन्ध किया जाये। (4) आयु, लिय आदि के आधार पर अपराधियों का पृथकरण
किया जाये । (5) दण्ड के काल में छूट की व्यवस्था घुरू की जाये ) (6) अपराधियों
यो अपने रिश्तेदारों से सम्बन्ध स्थापित रखने के लिए प्र लिसने तथा मिलने की
सु्िधाएँ दी जाएँ। (7) पच्चीस वर्ष से कम आयु वासे अपराधियों के लिए शिक्षा
गा प्रन्न्ध रिया जाये। (8) अच्छा सावा और कपड़ा देना चाहिए। (9) विचाटा-
घीग अवराधियों वी दच्दित अरशधियों से अलग रखा जाये | (0) प्रोवेशन और
पैगेस गेवाओं की स्थवमस्या वी हाये। (]) जेजो में बेतन बरी व्यवस्था बरनी
चाहिए । इनमे से लगझग समझो ग्रुमायों षो बाद में कार्मान्यित भी किया गया ।
आरदव में आयिरस तीत धर मे मेल मिलते ईैं--(7) नपित सूरझा बाले
पर हक, (२) मध्यम सुरक्षा वाते यरद जे अयवा आई्श बन्दी-य€, और (3) बहा
» एुरश्य बात के अदवा शुे इन्दीनुहे। संणगे अधि सुरक्षा बाले जेवों जन
अपराध और अपराधी 53
निम्न सक्षण पाये जाते है--दण्डित और विचाराधीन अपराधियों का पृथवकरण,
निवाड़ व दरी बनाने, वढई व चुहार का कार्य सिसाने तथा रंगाई आदि के प्रशिक्षण
के प्रबन्ध, रिश्तेदारों से मिलने की व्यवस्था, अच्छे खाने व सफाई का प्रबन्ध तथा
कुछ जेलों में वेतन व्यवस्था का प्रवन्ध ।
आदर्भ बन्दी-गृहों में साधारण जेलो को अपेक्षा स्वतस्त्र वातावरण व' आत्म-
निर्भरता के प्रयास मिलते हैं। यहाँ वेतन की व्यवस्था व. फ्चायत का संगठन भी
मिलता है। अपराधियों के नियस्त्रण का कार्य स्वयं अपराधियों द्वारा चुने हुए
प्रतिनिधियों तथा पंचायतों को देकर अपराधियों का सहयोग प्राप्त करने के लिए एक
भनोवज्ञानिक तरीका अपनाया गया है। लगभग हर राज्य मे एक आदर्श बन्दीशह
मिलता है। उत्तर प्रदेश में ऐसा जेत लखनऊ में, महाराष्ट्र में यरवदा में तथा
राजस्थान में अजमेर मे मिलते है (अजमेर आदर्श बन्दी-गृह दिसम्बर 956 भे
स्थापित किया गया था) । इन आदर्श वन्दी-यृहों में उन्ही अपराधियों को रखा जाता
है जिनका व्यवहार साधारण जेल में सन््तोषजनक पाया जाता है। यहाँ पुस्तकालय,
अस्पताल, पंचायत, कंप्टीन तथा पढ़ाई क्षादि की विश्लेप व्यवस्था मिलती है ।
अपराधियों से कृपि सम्बन्धी कार्य करवाने के अतिरिक्त उन्हें कुछ उद्योग-धन्धो में भी
प्रश्चिक्षण दिया जाता है। नेतिक और घामिक व्याख्यानों के लिए कभी-कभी वाहर
से कुछ व्यक्तियों को बुलाया जाता है। काम करने के लिए प्रतिदिन कुछ पैसे दिये
जाते है। अपराधियों की छटनी के लिए एक स्वागत सत्कार केन्र (००९७०
<था०) भी होता है।
खुले वन््दी-एृह् अधिक सुरक्षा वाले जेज्ो और आदर्श बन्दी-गहो से इस भ्रकार
भिन्न है कि (!) उनमें अपराधियों को भागने से रोकने के लिए लम्बी दीवारो, तारो
और चौडीदारों आदि डैसे कोई विशेष प्रवन्ध नहीं किये जाते । (2) जयराधी स्वय
वेतन कमाकर अपने खामे-पीने आदि का प्रबन्ध करते है। (3) अपराधी अपने
परिवार के सदस्यों को अपने साथ रख सकते है । (4) अपराधियों को समाज के
ताथ सम्पर्क स्थापित करने की पूर्ण स्वतन्त्रता दी जाती है। इन सब उपायों का
अपराधियी के सुधार पर एक भनोवेज्ञानिक्र प्रभाव पड़ता है। इन लक्षणों के कारण
जुने वन्दी-गहो में उन अपराधियों को ही रखा जाता है जो 2 वर्ष से ऊपर तथा
30 वर्ष से कम होते है, जिनका व्यवहार साधारण कारावास में असन्तोपजनक नहीं
पाया जाता, जो शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होते हैं, जो स्वय कार्य करके
वेतन कमाकर अपने खाने, कपड़े आदि का प्रबन्ध करना चाहते है तथा जिनकी सजा
की अवधि कम से कम नौ मास दोष रह गयी है । खुले बन्दी-ग्रहों को स्थापित करने
के मुख्य उद्देश्य ये बे--() अच्छे व्यवहार के लिए प्रतिफल देना, (2) आत्म-
निर्भरता और उत्तरदायित्व की शिक्षा देना, (3) ऐसा कृषि व व्यवसाय सम्बन्धी
अशिक्षण देना जो जेल से छूटने के बाद अपराधी को समाज में फिर से बसाने में
फहायता करें, तथा (4) सार्वजनिक योजनाओं 'के लिए भरोसे वाला श्रम
(पच्एल्ातबछ6 [89007) जुटाना ।
64 सामाजिक समस्याएं और सामाजिक परिवर्तत
इस प्रकार का सबसे पहला खुला जेल उत्तर प्रदेश में नवम्वर 952 में
बनारस जिले मे चन्द्रप्रभा नदी के ऊपर बाँध बनाने के लिए प्रारम्भ किया गयाथा |
इसका नाम 'सम्पूर्णावन््द शिविर रखा गया था। यह शिविर अब नैनीताल जिले में
स्थित है। इस प्रकार की जेल अब उत्तर प्रदेश के अलावा राजस्थान, विहार,
आन्भ्र प्रदेश और महाराष्ट्र मे भी पाये जाते हैं) राजस्थान में इस प्रकार के इस
समय तीन जेल है | पहला जयपुर जिले के दुर्गापुरा में सितम्बर, 955 में प्रारम्भ
किया गया था, दूसरा सागानेर में सितम्बर, 962 में और तीसरा अनूपगढ मे
फरवरी 964 में खोला गया था।
सागानेर मे इस समय लगभग पन्द्रह, दुर्गापुरा में दस, ओर अनूपगढ़ में
50 अपराधी रह रहे है ।* अनुपगढ़ मे रहने वाले अपराधियों से राजस्थान नहर
की खुदाई का कार्य लिया जाता है। सांगानेर मे रहने वालो को हस्तकला, कुटीर
उद्योग, बागवानी और कृषि की शिक्षा दी जाती है। राजस्थान में इस समय कुल
दो केन्द्रीय जेल (जयपुर व जोधपुर मे), पाँच जिला जेल (वीकानेर, कोटा, उदयपुर,
अलवर तथा श्रीगंगानगर में), एक भादर्श वन््दी-ग्ह (अजमेर मे), वाल' अपराधियों
के लिए रिफामेद्री (उदयपुर मे), स्त्रियों के लिए रिफामेट्री (जयपुर मे) और 74
उप-जेल है। 962 में राजस्थान के जेलों में सुधार के लिए एक राजस्थान जेल
रिफार्म कमीशन भी नियुक्त किया गया था जिसने 964 में अपने सुझाव दिये थे ।
अब्हुबर, 95] में भारत सरकार के आमल्त्रण पर सयुक्त राष्ट्र संघ ने
डा० वाल्टर रेक्लेस को यहाँ के अपराधियों के अध्ययन के लिए भेजा था जिसने
जैलों में कुछ सुधार सम्बन्धी सुझाव दिये थे | इनमे से मुख्य थे--बाल अपराधियों
को अलग रखना, परिवीक्षा सेवाओ का विकास, उत्तर रक्षा सेवाओ का विस्तार,
क्रेपि फार्म की व्यवस्था, जेल नियमावली (77200॥]) मे सुधार इत्यादि ।
परिबीक्षा या प्रोबेशन सेवाऐं--परिवीक्षा (छाण्/ककांणा इध्ाशं००0) बह
व्यवस्था है जिसमें अपराधी को दण्ड देना स्थगित करके उसे कुछ घर्तो पर मुक्त कर
दिया जाता है। मुक्ति के बाद उसे- अपने ही परिवार में रहते की अनुमति देने का
उद्देश्य यह है कि उसे जेल जाने के सामाजिक कलंक ($००४| ४धंष्टा78) से वचाया
जा सके जिसका उसके सुधार पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पडे | साथ में अपने ही
परिवार में रहने से वह न केवल समाज के सम्पर्क से रहकर अपना सुधार करेगा
अपितु परिवार के प्रति जो उसके घनोपाजन आदि कर्तव्य है उतका भी पालन करता
रहेगा । मुक्ति के बाद अपराधी को परीवीक्षा अधिकारी के निरीक्षण मे रखा जाता
है, जिससे वह (अपराधी) उसकी सहायता और सुझावों से अपने विचार और
धारणाएँ बदलकर अपनी अपराधी भनोवृत्तियों को दुर कर सके । इस उल्लेख के
आधार पर परिवीक्षा की परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है: वह व्यवस्था
जिसमें अपराधी को दण्ड देना स्थग्रित करके उसे कुछ शर्तों पर मुक्त करके उसका
# पु॥९३८ 8७765 एटा४9 00 #9वं! 8973.
अपराध और अपराधी 65
निरीक्षण किया जाए ।'
बास्स और टीटर्स के अनुसार परिवीक्षा वह व्यवस्था है जिससे अपराधियों
को जैल के अप्राकृतिक और अस्वस्थ वातावरण में भेजने के बजाय समाज में रखकर
उनका निरीक्षण द्वारा सुधार किया जाता है”?
परिवीक्षा में दण्ड को केवल स्थगित ही किया जाता है ताकि यदि अपराधी
निश्चित शर्तों पर उल्लंघन करे तो उसे वापस न्यायालय में बुलाकर दण्डित किया
जाए । इस तरह परिवीक्षा के चार मुस्य लक्षण है--() दण्ड को स्थेग्रित करना;
(2) समुदाय में रहने को अनुमति; (3) कुछ शर्त निर्धारित करना; तथा
(4) निरीक्षण की व्यवस्था ।
अधिकाश अपराधों में अपराधी को परिवीक्षा पर छोड़ने से पहले उसके
अपराध की परिवीक्षक अधिकारी द्वारा सामाजिक छानबीन (३8०्लंशे प्रप्ट्शी-
धशा०४) कराई जाती है। यह सामाजिक छानवीन पुलिस की छानवीन से इस
प्रकार भिन्न है कि इसमे अपराधी के व्यक्तित्व, पर्यावरण और उसके पिछले रिकार्ड
का अध्ययन करके अपराध करने के सही कारण को मालूम करने का प्रयत्न किया
जांता है जो कि पुलिस कीं छानवीन मे सही मिलता | परिवीक्षक अधिकारी की यही
छानबीन की रिपोर्ट कोर्ट के लिए अपराधी को परिवीक्षा पर छोडने या न छोड़ने
का आधार बनती है।
- सर्वप्रथम यह व्यवस्था अमरीका में 84 में गैर-सरकारी तौर पर जॉन
आगुस्टम द्वारा शुरू की गयी थी । उसने 7 साल में (858 तक) लगभग 900
श्रपराधियों को (00 पुरुष तथा 800 स्थ्रियो) कोर्ट द्वारा परिवीक्षा पर छुडवाकर
. उनको सुधारने का प्रयत्त किया था | सरकारी तौर पर यह व्यवस्था वहाँ 878 में
ही प्रारम्भ की गयी थी परन्तु विस्तृत रूप मे 7925 के बाद ही इसका अधिक
प्रयोग किया गया है। इंग्लेण्ड में यह व्यवस्था 887 में शुरू हुई थी ।
भारत में अपराधियीं को परिवीक्षा पर छोडने की व्यवस्था 888 (८.४,८.)
में की गयी थी पर उसमें न तो निरीक्षण आवश्यक था और न सामाजिक छानवीन |
फिर, उसके आधार पर केवल प्रथम अपराधियों को ही परिवीक्षा पर छोड़ने की
व्यवस्था थी। ]93] में भारत सरकार ने अपराधियों के लिए एक परिवीक्षण बिल
बना करके विभिन्न राज्यों को उनके विचार मालुम करने हेतु भेजा परन्तु प्रोत्साहित
उत्तर के अभाव में उसे पास नहीं किया गया । 934 मे केवल राज्यों को यह कहा
गया कि यदि वे चाहे तो अपने राज्य के लिए परिवीक्षा एक्ट पास कर सकते हैं।
इस पर 936 मे मद्रार्स और मध्य प्रदेश ने, 938 में वम्वई और उत्तर प्रदेश ने,
2953 भें हैदराबाद ने, और 954 में वगाल से परिवीक्षा एक्ट पास किए । परन्तु
इन अधिनियमों का क्षेत्र बहुत सीमित था । विस्तृत रूप मे 7958 भे भारत सरकार
ने केन्द्रीय परिवीक्षा एक्ट पास किया था जिसके आधार पर विभिन्न राज्यों ने अपने-
77 फ्वा॥६5 ॥ग0 प्६८(८८६, ०7. लं।., 553.
66 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
अपने राज्यो के लिए परिवीक्षा एक्ट पास किये । 959 में विहार ने, 960 में
केरल, मध्य प्रदेश, मंसूर और बंगाल ने, और 962 भे असम, मद्रास, उड़ीसा,
पंजाब और राजस्थान ने (958 के एक्ट के आधार पर) अपने-अपने राज्यो में
परिवीक्षा एक्ट पास किये।
उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और तमिलनाडु के अपने अलग कानून हैं।
958 एक्ट के मुख्य तत्त्व इस प्रकार हैं : () उने अपराधियों को परिवीक्षा पर
मुक्त करना जिनके अपराध के लिए दो वर्ष से कम का दण्ड निश्चित हो।
(2) निरीक्षण का आवश्यक होता । (3) अधिक से अधिक 3 बर्ष तक परिवीक्षा पर
छोड़ना । (4) आवश्यक केस (८७४८) में सामाजिक छानबीन करवाना । (5) इसमें
निश्चित अवधि से पहले छोड़ने, परिवीक्षा समाप्त करने, और अवधि को कम करने
की भी व्यवस्था की गयी है।
969 भे सारे भारत में निरीक्षण वाले परिवीक्षकों की संख्या 3782 थी
जिसमें से 9246 परिवीक्षक 958 केन्द्रीय एक्ट अथवा राज्य एक्ट के अन्तर्गत
छोड़े गए थे और शेप वाल अधिनियमों के अन्तगरंत ॥ 9246 «में से 259 केस
(अथवा 2-3 प्रतिश्नत) में परिवीक्षा की अवधि समय से पहले ही समाप्त की ययी थी।
परिवीक्षा के शासत-सम्वन्धी प्रवन्ध के लिए अलग-अल्नग राज्यो में परिवीक्षा
सेचाएँ अलग-अलग विभागों से सम्बन्धित की गयी हैं | राजस्थान, असम, उत्तर प्रदेश,
महाराष्ट्र, कश्मीर, दिल्ली और हिमाचल प्रदेश में परिवीक्षा सेवाएँ समाज कल्याण
विभाग से, बंगाल, केरल, तमिलनाडु, बिहार और आंध्र प्रदेश में जेल विभाग के
साथ और मध्य प्रदेश में कानून विभाग से सम्बन्धित है। केवल मैसूर में ही इसका
अलग विभाग है। यद्यपि परिवीक्षा का क्षेत्र बहुत बड़ा है परन्तु भारत में १रिवीक्षा
पर छोड़े जाने योग्य कुल अपराधियों में से केवल 8 प्रतिशत को ही परिवीक्षा पर
छोडा जाता है जबकि अमरीका में 60 प्रतिशत, इंग्ल॑ण्ड में 49 प्रतिशत, और
स्वीडन में 65 प्रतिशत को छोड़ा जाता है। भारत मे नौ राज्यों (आध्न प्रदेश,
विहार, गुजरात, केरल, तमिलनाडु, मंसूर, महाराष्ट्र, पंजाब और बंगाल) के उपलब्ध
आँकडों से यह ज्ञात होता है कि औसतन एक अपराधी का परिवीक्षा काल एक वर्ष
है। 70-4 प्रतिशत को एक वर्ष, 24 6 प्रतिशत को दो वर्ष तथा 5 प्रतिशत को
तीन बंप का परिवीक्षण था ।
राजस्थान में 962 भे सबसे पहले 9 परिवीक्षक अधिकारियों की नियुक्ति
की गयी थी जो 967 भे बढकर 26 तक पहुँच गयी, अर्थाद् हर जिले के लिए
अलग-अतग परिवीक्षक अधिकारी था। परन्तु 967 से परिवीक्षक अधिकारी और
समाज कल्याण अधिकारी के पदो को मिला दिया गया है । इस राज्य के 972-7
के आँकड़ों के अनुसार 962 से मार्च 4973 तक सारे राज्य में 29]8 अपराधियों
को परिवीक्षा पर छोड़ा गया या । अप्रैल 973 में 26 परिवीक्षक अधिकारी 3#
परिवीक्षको का निरीक्षण कर रहे थे; दूसरे शब्दों में प्रति परिवीक्षक अधिकारी 6
परिवीक्षकों का निरीक्षण कर रहा था। छानबीन वाले अपराधों की राख्या को लेकर
अपराध और अपराधी 67
हम कह सकते हैं कि एक परिवीक्षक अधिकारी एक महीने में औसतन दो-तीन
अपराधियों की छानबीन कर रहा था। नई व्यवस्था के कारण अब यह निरीक्षण
और छाम्बीन की सख्या बहुत कम हो गयी है। क्योंकि परिवीक्षक सेवाएँ जेल
व्यवस्था की तुलना मे अधिक सफल सिद्ध हुई हैं, अब यह आवश्यक है कि इन
सेवाओं को और अधिक विकसित किया जाय।
परिवीक्षक सेवाएँ तीन तरह से लाभदायक हैं--आधिक हृष्टिकोण से,
सामाजिक दृष्टिकोण से, और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से । इसका आ्थिक लाभ यह
है कि जब प्रति कैदी के लिए हम प्रति माह 40 से 60 रुपये व्यय कर रहे हैं, प्रति
परिवीक्षक के लिए केवल 20 से 30 रुपये ही खर्च होते है । यदि हम यह् माने कि
राजस्थान मे प्रतिवर्ष लगभग 2000 दण्डित अपराधियों मे से केवल 70 प्रतिशत
ही परिवीक्षा पर छोड़ने के योग्य हैँ तव प्रतिवर्ष अपराधियों को जेल में रसने की
बजाय परिवीक्षा पर छोड़ने से औसतत बीस लाख रुपये की बचत होगी । यदि सभी
राज्यो में परिवीक्षा का प्रयोग विस्तार से किया जाये तो करोड़ो रुपये बचाये
जा सकते हैं। सामाजिक रूप से परिवीक्षा इस प्रकार लाभदायक है कि अपराधी
के समाज में हो रहने से उसके देनिक कार्यों में परिवर्तन न आने के कारण उसे सुधार
का अधिक मौका मिलता है। फिर, वह अपने परिवार के सदस्यों की भी देखभाल
कर सकता है। परिवीक्षक को परिवीक्षा अधिकारी समय-समय पर अपने कार्यालय
बुलाकर और कभी-कभी स्वयं उसके धर जाकर उसे कानून तथा समय और कार्य
झीलता के प्रति आदर करने की शिक्षा देकर उसकी व्यक्तिगत देखभाल कर सकता
है जो जेल प्रणाली में सम्भव नहीं है। मनोवैज्ञानिक रूप से परिवीक्षा इस तरह
उपयोगी है कि अपराधी के जेल जाने से जो उसके जीवन पर सामाजिक धब्बा लग
जांता है, जिससे समाज उससे नफरत करता है, उससे वह् बच जाता है ।
कुछ लोग परिवीक्षा की हानियाँ भी वतलाते है। उनका कहना है कि जो
पर_ाविरण व्यक्ति को अपराधी बनाते है वही उसे कंसे सुधार सकते हैं॥ इसका उत्तर
यहूँ दिया जा सकता है कि क्योंकि परिवीक्षक का निरीक्षण होता है और उसे कुछ
शर्तों पर छीड़ा जाता है, उसके पर्यावरण नियन्त्रित होते हैं। दूसरा दोप यह बताया
जाता है कि अपराधी को कोई दण्ड न मिलने से उसे और अपराध करते की प्रेरणा
मिज्ञती है, परन्तु इसबे? लिए हम पहले ही कह चुके है कि आजकल समाजशास्त्री
सभी अपराधियो को दण्ड देना आवश्यक नही समभते । उनका तो यह विचार है कि
दण्ड सुधारने की अपेक्षा अपराधी को समाज का झत्रु बनाना है। फिर, अपराधी को
परिवीक्षा पर छोडना उसके प्रति उदारता दिखाना भी नही कहा जा सकता क्योंकि
उसे कम समय के लिए जेल मे रखकर गम्भीर अपराधी बनाने की तुलना मे परिवीक्षा -
पर छोड़ना अधिक उचित है। इन्ही तकों के आधार पर अब परिवीक्षा प्रणाली को
अपराधियों के सुधार के लिए अधिक विकसित रूप में प्रयोग करने का सुझाव दिया
जाता है।
अन््त में हम कह सकते है कि आधुनिक काल में अपराधियों को सुधारने का
68 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
तरीका अधिक वैज्ञानिक है|
उत्तर संरक्षण सेवाएँ
अपराधियों के लिए उत्तर सरक्षण सेवाओं (की टद्ा० 8थाशेप्थ) का
महत्त्व उतना ही माना जाता है जितना बीमार व पागल व्यक्तियों के संरक्षण का।
जिस प्रकार लम्बी अवधि के उपरान्त जब एक रोगी को अस्पताल से छोडा जाता है
तब डाक्टर उसके चिकित्सा एव स्वास्थ्य सुधार के लिए न केवल विभिन्न औषधियों के
प्रयोग के लिए उसे निर्देश देता है परन्तु बहुत कार्य न करने के लिए भी उस पर
प्रतिबन््ध लगाता है, अथवा जिस प्रकार एक पागल व्यक्ति को बहुत समय तक
पागलखाने में रखने के पश्चात् तुरन्त उसे मुक्त न करके घने: शनै: समाज मे व्यक्तियों
से सम्पर्क स्थापित करने दिया जाता है जिससे वह अपना अच्छी तरह समायोजन
कर सके तथा पुरानी वातों को दुहरा कर फिर मानसिक सन्तुलन न खो बैठे, उसी
प्रकार जो अपराधी एक लम्बी अवधि तक जेल में रहता है उसे रिहा होने पर बहुत
सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जेल मे रहने से उसके जीवनू पर जो
कलंक (8०७५४ घांह779) लग जाता है उसके कारण लोग उससे “किनारा “करते हैं.
तथा उसे सन्देह व अविश्वास की दृष्टि से देखते है। न केवल लम्बी अवधि वाला
बन्दी परन्तु थोड़े समय तक जेल में रहने वाला वन्दी भी इस कारण कुछ समस्याओं
का समता ऋश्ता है क्योकि वह अपने विरोधी तथा शत्रु के प्रति अपनी घुणा, हूं प
व झन्रुता भूल नही पाता । इस तरह हर प्रकार का अपराधी विभिन्न समस्याओं का
सामना करता है। इन समस्याओं का यदि शीघ्र ही निवारण न किया जाए तो
निश्चय ही वह व्यक्ति पुन: अपराध करेगा। इस कारण समस्याओं का सामनो करने
में सहायता करना ही उत्तर-सरक्षण सेवाओं का प्रमुख उद्देश्य होता है, अथवा हम
काह सकते हैं कि उत्तर-संरक्षण कार्यक्रम एक ऐसा कार्मक्रम है, जिसके द्वारा हम बन्दी
को क्रमशः जेल के वन्धनयुक्त वातावरण से स्वस्थ नागरिक जीवन की ओर ले जाते
हैं ताकि वह समाज में पुनः स्थापित हो जाये ।
मोटे तौर पर उत्तर-संरक्षण सेवाएँ वे सेवाएँ है जो मुक्त वन्दियों के पुनर्वास
के लिए व्यवस्थित की जाती हैं। परन्तु यह परिभाषा बहुत संकीर्ण है क्योकि इसके
अनुसार उत्तर-संरक्षण का कार्य जेल से छूटने के वाद ही आरम्भ होता है जबकि सही
शर्थ के अनुसार यह कार्य अपराधी के जेल मे प्रवेश से ही शुरू हो जाना चाहिए।
उदाहरगतवा, मान लीजिए कोई अपराधी जेस जाने से पहले कुछ रुपयों पर अपनी
जमीन गिरवो रसता है। यदि समय पर यह जमीन न छुड़वाई गई तो उसके परिवार
के सदस्यों के लिए आविक हानि उलसप्न हो सकती है । इस कर को चुकाने में सहायता
करके परिवार के सदस्यो को आयिक सुरक्षा प्रदान करना उत्तर-संरक्षण सेवाओं के
अन्तर्गत आना चाहिए। परन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं कि उत्तर-मरक्षण हर
अपराधी के रा प्रदान के लिए है। मुस्यतः उत्तर-संरक्षण सेवाएँ दो प्रकार के
जयपराधियों फे तिए हैं--() उनके लिए नो विसी सुधारात्मक संस्था में कुछ समय
अपराध और बपराधी 6
रह चुके हैं और वहाँ उनकी देशभाल हुई है तथा वे कोई शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं।
(2) उनके लिए जिनको वास्तव में किसी सामाजिक, मानसिक अथवा शारीरिक
असुविधा व कमी के कारण सरक्षण की आवश्यकता है। इस आधार पर हम कह
सकते हैं कि उत्तर-संरक्षण प्रोग्राम वाघाहित (!०४०१००४७८वे) व्यक्ति के उस पुनर्वाति
के कार्यक्रम की परिसमाप्ति है जो किसी सुघारवादी सस्था मे आरम्भ किया गया है ।
उर््देश्य--उत्तर-संरक्षण सेवाओ के मुख्यतः दो उद्देश्य है---(क) अपराधी की
सहायता । (स) परिवार और समुदाय का ऐसा निर्माण जिससे वे जेल व सुधारवादी
संस्था से छूटने के उपरान्त अपराधी के पुनर्वास मे सहायता कर सके। अपराधी को तीन
प्रकार से सहायता दी जा सकती है : (3) उसके व्यक्तिगत समायोजन में; (2) उसके
व्यवसाय सम्बन्धी पुनर्वास में; और (3) उसको समाज में फिर से बसाने में ।
व्यक्तिगत समायोजन बी आवश्यकता उन अपराधियों को होती है जिनका
कोई घर-बार नही होता है अथवा जिनका घर नप्ट-भ्रप्ट हो जाता है तथा जिनका
पड़ोस छात्र होता है। फिर, व्यक्तिगत समायोजन की आवश्यकता इस कारण भी
पडती है कि---() न्यायालय द्वारा दण्ड मिलने से पूर्व जो स्थान व्यक्ति प्राप्त किये
हुए था वह अन्य किसी के द्वारा भर दिया गया हो। (2) लम्बी अवधि तक
अनुपस्थिति के कारण उस व्यक्ति की अथवा उसकी सेवाओं की आवश्यकता ही
समाप्त हो गई हो ! (3) समाज उसके पुनर्वास के लिए तेयार मे हो। (4) छूदने के
पश्चात् वह् इस स्थिति में न हो कि अपने लिए सुरक्षा प्रदान कर सके ।
आधिक पुनर्वास में भी अपराधी को आजीविका के साधन छुटाने के लिए
विभिन्न प्रकार की सहायता की जा सकती है । उसे नौकरी दिलावायी जा सकती है,
किसी रोजगार के लिए सिफारिश-पत्र दिया जा सकता है, तथा किसी पन्धे के लिए
आवश्यक प्रशिक्षण दिया जा सकता है । सामाजिक थुनर्वास में पुलिस की परेशानी से
उसे बचाया जा सकता है, आवश्यकता पड़ने पर कानूनी सहायता दी जा सकती है तथा
घरबवार न होने पर उसे उत्तर-स रक्षण होल््टल में रसा जा सफता है। प्रो० काली प्रसाद
ने भी उत्तर-सरक्षण के उद्देश्यों पर बल देते हुए कहा है कि मुक्त बन्दी एक घाव
(#80४79) अथवा व्यक्तित्व के एक मनोवेज्ञामिक क्षति रो अपना जीवन आरम्भ करता
है। वह समाज द्वारा दुत्कारे जाने के प्रति सचेत रहता है। उत्तर-संरक्षण का कार्य है
कि उसके इस घाव को ठीक करे, उसमें विश्वास व साहस उत्पन्त करे और समाज कौ
उसे वापस स्वीकार करते के लिए तैयार करे 7४ इरा तरह क्योकि जेल से घूठमे के
बाद अपराधी आधिक, मनोवैशानिक और सामाजिक समस्याओं का सामना करता है
अतः हम कह सकते हैं कि उत्तर-संरक्षण प्रोग्राम के मुरय कार्य अग्रलिसित है :
70 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
(क) बन्दी को सहायता करना जिससे वह स्वयं अपनी सहायता कर
सके; तथा
(ख) देख-रेख व निरीक्षण द्वारा अपराधी अपने पुनर्वास सम्बन्धी कार्यक्रम
की योजना बनाएं, इस योजना को कार्यान्वित करे तथा कार्यान्वित योजना का कुछ
समय पश्चात् मूल्यांकन करे ।
उत्तर-संरक्षण सेवाह्रों को उत्पत्ति--भारत में उत्तर-संरक्षण कार्य की
आवदयकता का सर्वप्रथम इण्डियन जेल कास्फ्रेन्स ने 877 में अध्ययन किया था और
बह इस निष्कर्ष पर पहुँची कि भारत मे मुक्त बन्दी सहायता समितियों की आवश्यकता
नहीं है क्योकि जेलों से छूटने के उपरान्त यहाँ अपराधियों को समाज में खोई हुई
स्थिति प्राप्त करने में कोई कठिनाई नही होती। परन्तु इस विचार के उपरान्त भी
894 में उत्तर प्रदेश मे उस समय के जेलों के इन्सपेक्टर जनरल के व्यक्तिगत प्रयत्नों
से एक गैर-सरकारी मुक्त बन्दी सहायता समिति स्थापित की गयी। इसके वाद 907
में बंगाल में और 94 से वम्बई में भी ऐसी समितिियाँ प्रारम्म की गयी। परल्तु
सरकारी समर्थन और सार्थेजनिक सहानुभूति के अभाव मे इन तीनों समितियों का
कार्य सुचारु रूप से नही चल पाया जिस कारण 902 में उत्तर प्रदेश की बन््दी
सहायता समिति ने और बाद में अन्य दो समितियों ने भी कार्य करता वन्द कर दिया ।
इसके उपरान्त 99 भें इण्डियन जेल कमेटी ने इन समितियों की स्थापना पर बल
दिया। इस कमेटी की यह मान्यता थी कि अपराधी के जीवन मे सबसे कठिन वे
विकराल घी वह नहीं होती जब उमे जेल में वन्द किया जाता है परन्तु उसकी
बास्तविक चिकट समस्या तो तव आरम्भ होती है जब बहू बहुत वर्षों तक जेल में रहने
के याद वहाँ के फाटक के बाहर निकलता है । उसके सामने वह संसार होता है जिसमें
उसे चरित्रहीन व मर्यादा-भ्रप्ट सममा जाता है तथा जीवन के साधारण व्यय के
लिए भी उसके पास कोई पैसा नहीं होता | इस कमेटी का यह भी विचार था कि
घूटने के बाद 20 प्रतिभत अपराधी पुनः अपराध करते हैं जिमका एक मुख्य कारण
उनकी शिसी प्रकार की सहायता ने मिलता होता है । इस कमेटी के सुकाव के बाद
मुछ राज्य सरकारों ने अपने-अपने राज्यों में मुक्त वन््दी सहायता समितियाँ स्थापित
की | सबसे पहली समिति मद्रास में ।92] में ध्रारम्म की गयी और उसके उपदान्त
]925 में मध्य प्रदेश में, ।927 में पंजाब में तथा 928 में उत्तर प्रदेश में । यह
सब समितियाँ गैरल्सरकारी आधार पर ही कार्य कर रही थी यद्याति इनमें से गुछ को
राज्य मरफार द्वारा आविफ सहायता मित्ती थी।
शामायान में उत्तर-संरक्षण रोषाएं--राजम्थान में कोई सुक्त झन्दी सहायता
समिति नहों है। समाज कस्याथ विभाग की और से ]97] तक छदयपुर में एक उत्तर
रक्षा एह घवाया जाता था परन्तु आविफ पटौती के कारण इसे अब समाप्त जिया
धपा है। अ्थव 96] में शाजस्वान के चैयो के इस्सपस्टर जनराा में अपरापियों
को पाविर सहादता पहुँचाने हेसु एक बरदी वस्यात कोच स्थापित बरतने वी सरकार
3 शोजना प्रस्दुड़ की थो | इस योदना के अनुसार एए मैस्द्रत जैस हे काराधीदर
आजा
72 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
(2) नौकरियाँ दिलवाना; (3) मुक्त बन्दियो की नियुक्ति पर लगे प्रतिवनन््धो को दुर
करवाने का प्रयत्त करना; (4) छोटे कर्जे देना; (5) उत्पादक सहकारी संस्थाएँ
स्थापित करना; और (6) छोटे पैमाने के उद्योग शुरू करना ।
सामाजिक पुनर्वास से सम्बन्धित सुझाव इस प्रकार थे”--() उत्तर-संरक्षण
होस्टल खोलना; (2) प्रदर्शन, परामशं व रक्षा की सुविधाएँ पर्याप्त करना; और
(3) कानूनी सहायता जुटाने का प्रबन्ध करना । -
व्यवस्था सम्बन्धी ढाँचे (ण8कगांइबरधंणाओं इधप्रप्रा०) के प्रति यह कहा
गया कि केन्द्रीय स्तर पर एक केन्द्रीय परामर्श कमेटी स्थापित की जाये जो देझ्ष में
उत्तर-सरक्षण सेवाओं की योजना बनाये व उनकी व्यवस्था करे तथा विभिन्न राज्यों
मे संरक्षण सेवाओ मे समन्वय स्थापित करे। राज्य स्तर पर भी राज्य परामझ्
कमेटी होती चाहिए जिसका कार्य राज्य मे संरक्षण सेवाओं की व्यवस्था करना,
केन्द्रीय कमेटी की योजनाओं को अभिषपूर्ण करना व राज्य के विभिन्न जिलो मे पाये
जाने वाले संरक्षण समितियों मे समनन््दय स्थापित करना होगा । सबसे नीचे स्तर पर
प्रोजेक्ट कमेटी होगी जो स्थानीय स्तर पर सरक्षण सेवाओं की व्यवस्था करेगी ।
इसके अतिरिक्त गोरे कमेटी ने दो प्रकार की इकाइयो की स्थापना का भी
सुझाव दिया, एक “ए' श्रेणी की इकाई और दूसरी 'वी' श्रेणी को इकाई। 'ए' श्रेणी
के कार्य निम्न बताये गये--
() मुक्ति से पहले व उपरान्त उत्तर-संरक्षण सेवाओं का प्रवन्ध | (2) मुक्त
बन्दियों के लिए थोड़े समय के लिए आश्रय का उपाय करता । (3) हर इकाई को
5000 रुपए प्रतिवर्ष व्यय करने का अधिकार देना ।
'बी' श्रेणी इकाई के भी यही कार्ये बताये गये । केवल इनको “ए' श्रेणी
इकाई की सुलना में स्थायी आधार पर मुक्त वन्दियों के आश्रय का प्रवन्ध करने के
लिए होस्टल खोलनी थी । हर होस्टल में 300 व्यक्तियों तक रखने की सुविधाएँ
प्रदान करने का सुझाव था । आरम्भ में तो इन इकाइयों की संख्या सीमित बताई
गई थी परन्तु अन्त में हर जिले मे एक 'ए' श्रेणी की इकाई और एक “बी' श्रेणी की
इकाई का सुझाव था । वित्त व्यवस्था के प्रति गोरे कमेटी ने यह सुभाव दिया कि
रुपया केन्द्र और राज्य स्तरों पर गृह-मन्त्रालय, शिक्षा-मन्त्रालय तथा वाणिज्य-
भन्त्रालय देंगे । इसके अतिरिक्त केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड भी रुपया देगा। भोरे
कमेटी के इन सुझावों के आघार पर वहुत कम राज्यो ते संरक्षण की योजनाएँ बनाई
हैं। यद्यपि उत्तर-संरक्षण सेवाओं की आवश्यकता पर सभी बल देते हैं परन्तु फिर
भी इस सम्बन्ध में कोई अधिक कार्य नहीं किया गया हैं।
*। /202., 244-49,
/0॥
बाल-अपराध
(एशफाशा।: एडायाएएएणपट४)
हर
वाल-अपराध का श्र्थ
बाल-अपराध का अर्थ दो आधार पर बताया णा सकता है--एक आयु,
दूसरा व्यवहार की प्रकृति । आयु की दृष्टि से मुख्यतः सात और सोलह वर्ष के बीच
के अपराध करने वाले व्यक्ति को वाल-अपराधी माना जा सकता है। सात वर्ष से कम
वाले बच्चों को उनके किसी कार्ये के लिए उत्तरदायी नहीं माना जाता । यदि वें
अपराध भी करते है तो भी उन्हें कम बुद्धि के कारण सही और अनुचित कार्य मे भेद
ने समभने और कार्य के परिणाम को न सोचने की वजह से दण्ड नही दिया जाता।
निम्नतम' आयु सीमा यद्यपि भारत के विभिन्न राज्यो में निश्चित है परन्ठु यह अलग-
असग राज्यों में तथा भिन्न-भिन्न देशों में अलग-भलग पायी जाती है। अधिकतम
आपयु-सीमा भी इसी प्रकार निश्चित नहीं है । अमरीका के अधिकतर राज्यो में यह्
अद्ठारह वर्ष है, इंग्लैण्ड में सत्तरह वर्ष तथा जापान में वीस वर्ष है। भारत में भी
यद्यपि राजस्थान, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, बंगाल, मध्य प्रदेश, कर्माटक आदि शाज्यों मे
सोलह वर्ष है परन्तु पजाव भौर महाराष्ट्र जेसे कुछ राज्यो मे यह अटूठारह ब्ं है।
राज्य भे पाये जाने वाले वात-अधिनियम ही इस उच्चतम आयु सीमा को निर्धारित
करते हैँ। आयु में इस प्रकार के अन्तर के कारण “बाल-अपराधी” को वह अपराधी
व्यक्ति वताया जा सकता है जो देश अथवा राज्य की वैधानिक व्यवस्था द्वारा
निर्धारित आयु से कम हो ।
व्यवहार की दृष्टि से सिरिल वर्ट व मिलुक आदि के अनुसार वाल-अपराधी
न कैवल उनको माना जाता है जो कानून की अवहेलना करता है परल्तु उसे भी
जिसका आचरण समाज अस्वीकार करता है क्योकि उसका यह दुष्येवहार उसे
अपराध करने के लिए उत्तेजित कर सकता है अथवा उसके अपराधी बनने के
खतरे को उत्पन्न करता है उदाहरण के लिए ऐसे बच्चों को भी याल-अपराधी
मात्रा जाता है जो घर से भागकर आवारागर्दी करते हैं स्वूल से बिना किसी उचित
कारण के अनुपस्थित रहते है, माता-पिता अथवा संरक्षको की आज्ञा का पालन नहीं
१ (५ झछाई, २#6 अत्कछ 0सब्ब्टाा, ए0एटआए ० [.0000, पए.एत007, 955
हित रवाधरए४), 45, 5_०6१05 गाव 50९९८, एक सातड सैक्षारत/ 220/4४2०८)' सी
एछ05., )१६७४ ४००४, 950, 3.
4 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवतेन
करते, चरित्रहीन व निन््दनीय व्यक्तियों के सम्पर्क में पाये जाते हैं, अश्लील भाषा का
प्रयोग करते हैं, व जो अनेतिक तथा अस्वस्थ क्षेत्रो में घूमते मिलते है । इसी व्यवहार
के आधार पर वाल्टर रेक्लेस ने वाल-अपराध को इस प्रकार परिभाषित किया है--
“वाल-अपराध शब्द अपराधी विधि के उल्लंघन पर तथा उस व्यवहार पर लागू होता
है जिसे बच्चो व युवको में समाज द्वारा अच्छा नही समझा जाता ।” हैपन, स्युमेयर,
माऊरेर आदि ने भी बाल-अपराध की धारणा में बच्चों के इसी व्यक्तित्व निर्माण-
सम्बन्धी व्यवहार पर बल दिया है ।* परन्तु 960 में अपराध के नियस्त्रण-सम्बन्धी
द्वितीय संयुक्त राष्ट्र काग्रेस ते यह विचार प्रकट किया कि वाल-अपराघ शब्द केवल
कानून के उल्लंघन एवं दण्ड विधान की अबज्ञा तक सीमित चरना चाहिए। इसमें
ऐसे व्यवहार को सन्निहित नहीं करना चाहिए जो यदि एक वयस्क व्यक्ति करे तो
उसे अपराध नही माना जाये ॥। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि 'दुब्यंवहारी
वालक' और “बाल-अपराधी' में अन्तर स्पष्ट करना आवश्यक है। यद्यपि कानून की
हृष्टि से बाल-अपराध को “राज्य के कानून द्वारा निर्धारित आयु से कम वाले बालक
द्वारा कानून का उल्लंघन” बताया गया है परन्तु इसके सही और वेज्ञानिक परिभाषा
में बालक की आयु के अतिरिक्त उसके व्यवहार की गम्भीरता व उसके कार्य की
पुनरावृत्ति को भी आधार बनाना चाहिए । है
चाल-प्रपराध की दर और प्रकृति
समाज मे जितने भी वच्चों द्वारा अपराध होते हैं. वे सव पुलिस और
न्यायालयों तक नही पहुँच पाते । यह माना जाता है कि किये गये कुल बाल-अपराधो
में से दो प्रतिशन से भी कम अपराध ही पुलिस के सामने आते है। इस कारण भारत
मे वाल-अपराध की सही मात्रा को मालुम करना सम्भव नही है। परन्तु जो आँकड़े
सेन्ट्रल ब्यूरो आफ करेक्शनल सविसिज (एथ्आा० फग्मल्या ए एग्राव्दांणाबा
$07५०७७५) द्वारा समय-समय पर भ्रस्तुत किये जाते है उनके आधार पर यह कहा जा
सकता है कि प्रतिवर्ष भारत में 65 और 75 हजार के बीच वाल-अपराधियो को
पकडा जाता है जिनमें से लगभग 60 हजार को न्यायालयों मे भेजा जाता है।
965 के आँकड़ो के अनुसार न्यायालयों मे भेजे गये 60436 बाल-अपराधियों में
से 50-7 प्रतिज्ञत को निर्दोष मातकर बरी कर दिया गया, 3-3 प्रतिशत को उनके
3 "ुफलालाओ पश्टयॉल बशा।क47८7८७ 2965 00 धार शणेआंत्त ् ढंग 2006
ब00|0 एप्ाज्पा: वर ढलावव एगाहाग$ छ एडॉड्शठ्पा त$89970१९9 णी 7 ढंतालत बग6
अ0फाए 840८5०९७३." २८९४९५५, 'एबस्ल, मत्गव 87० ० #छट/ट्वां 322९३ /ल
बार प्रतश्वाक्राल्य थी /#कधेर क्र मा_श्तार 08छाब॑दरऊ, 009 ० 49493, 956, 3,
ह ६|०भ्यटा, 4008 कॉड्वम्क्--रीलडउ०्ड2रा खाती उलटाग; पगफएग5. रिक्त...
एएस्श०, उ॥हरटह कार्च (एतार८(०१,
4566 एलाएढ०७३॥ १०५ भा 3 ए3एचए था बएचटजील एटॉआवए्टकटए-रिणेंद थी प्रोढ
ए0:९९*९, उटवव 0 8 $दचधराव7 02305606 ७५ एटयवा छ9063प एवं वए८५४४824709, (0४.
# ]#979, एल, ३२०४. 4965, 2.
बाल-अपराध बे
संरक्षकों को सौंपा गया, 3-3 प्रतिशत को परिवीक्षा पर रखा गया, 48 प्रतिशत
को बारस्टल आदि सुधारवादी सस्थाओ मे भेजा गया, 5-2 प्रतिशत को कारावास
दिया गया और शेष 2-7 प्रतिशत केस न्यायालयों में विचाराधीन थे ।£ इससे सिद्ध
होगा है कि न्यायालयों द्वारा जो वाल-अपराधियों के लिए दण्ड की विधियाँ अपनायी
जत्ती हैं उनमें दण्ड पर कम और सुधार पर अधिक वल दिया जाता है। बोध किये
जाने वाले अपराधों (००६४290!० ०गींटा०६७) में स॒से अधिक वाल-अपराध भारत
में तमिलनाडु और महाराष्ट्र मे मिलते हैं (लगभग चार और पाँच हजार के बीच)
और सबसे वाम जम्मू-कश्मीर और केरल में मिलते हैं ([00 और 200 के बीच) ।९
अपराध की प्रकृति के दृष्टिकोण से यह कहा जा सकता है कि अधिकाधिक
अपराध चोरी के मिलते हैं (योग का लगभग 3/5 हिस्सा) और उसके बाद भगडे-
फसाद, हत्याएँ, राहुजनी, धोखाधड़ी आदि के ।7 968 के आँकड़ों के अनुसार
भारत के विभिन्न राज्यो की अदालतों में कुल औसतन 68000 वाल-अपराधियों
(63000 लड़के और 5000 लड़कियों) को भेजा गया। इनमे से 48 प्रतिशत
बाज्ञकों ने हत्याएँ, मारपीट जैसे व्यक्तियो के विरुद्ध अपराध किये थे, 20-3 प्रतिशत
ने चोरी, राहुजनी, सूटमार आदि जैसे सम्पत्ति के विरुद्ध अपराध किये थे तथा 89
प्रतिशत अपराध वाल-अधिनियम के विरुद्ध थे, 0-] प्रतिशत रेलवे अधिनियम के
विरुद्ध और 4:3 प्रतिशत मद्यनिपेंध अधिनियम के विरुद्ध थे | शेप अपराधों में 4"7
प्रतिशत जुए के अपराध के लिए और 39-9 प्रतिशत अन्य अपराधों के लिए गिरफ्तार
किये गये थे ।९ इन आँकड़ो मे यह नहीं कहा जा सकता कि वाल-अपराध का मुख्य
कारण निर्धनता है। अधिक से अधिक निर्धवेता को परिवार के विधष्छिन्न सम्बन्धो से
सम्बन्धित किया जा सकता है जिनका बच्चे के व्यवहार व व्यक्तित्व पर गहरा
प्रभाव पड़ता है ।
बाल-अ्रपराघ के लक्षण
भारत में बाल-अपराध के मुख्य लक्षण निम्न है--+
() लड़कियों में लड़को की अपेक्षा अपराध कम मिलता है । सम्भवतः इसका
कारण राडकियो पर विभिन्न प्रकार के प्रतिवन्ध हैं । इसके अतिरिक्त लड़कियों के कार्यो
का घर में सीमित होना तथा लडको मे अधिक शारीरिक शक्ति का होना (जो उनके
अपराधों मे कुछ सहायक सिद्ध होती है) भी इस अन्तर के कारण बताये जा सकते है।
(2) बाल-अपराध किश्लोरावस्था में अधिक मिलता है। यदि हम बाल
अपराधियों को आयु के आधार पर विभाजित करके उनको 7-!2, 2-4, 4-
१2८६ उस! ऐथीशिालल, ००७४| फ्रेपाध्यथए ० ए07००४ण्० उज़लव, एल,
रपा> 4967, 6. न् 5
3 64 , 4.
१ ॥64 , 5. +
+उ6व., ॥7, रे
76 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
6 और 6-8 आयुनसमूहो में रखें तो हमें ।4-6 वाले आयु-सम्रृह में अधिक
अपराध भिलेगा। 956 में वम्वई, पूता और अहमदावाद में हन्सा सेठ द्वारा
अध्ययन किये गये वाल-अपराधियो में में 40 5 प्रतिदत अपराधी ]4-6 आयु-
समूह के पाये गये जबकि 7-0 और ]-3 आयु-समुहों में केवल 6"5 प्रतिशत
और 358 प्रतिशत ही मिले ।" लखनऊ और कानपुर मे [959) वर्मा द्वारा
अध्ययन किये गये 200 बाल-अपराधियों में से 38:7:प्रतिशत बाल-अपराधियों को
4-6 आयु-ममूह में पाया गया 7९ गोयल द्वारा उत्तर प्रदेश के पाँच कावल
(8/ए४7,) बगरो में 500 बाल-अपराधियों मे से वहुत अधिक किशोरावस्था के
पाये गये ।/ रटनशा (र०७४०॥७॥०४) के वम्बई के अध्ययन में भी यही लक्षण पाया
गया ।* सम्भवतया इसका कारण इस, आयु के बच्चों पर कम नियन्त्रण का होना
है। किर इस आयु के वच्चो को कुछ स्वतन्त्रता भी अधिक ही मिलती है ।
(ी अपराध की प्रकृति का अपराधी की आयु से गहरा सम्बन्ध है। कुछ
अपराधों मे शारीरिक शक्ति की अधिक आवश्यकता होती है जिस कारण ऐसे अपराध
अधिक आयु वाले चच्चो भे ज्यादा ही मिलते है ।
(4) ग्रामीण क्षेत्रों में वाल-अपराध की समस्या इतनी भीषण नहीं जितनी
नगरीय क्षेत्रों में है । फिर, थड़े शहरों (जैसे मद्रास, दिल्ली, वम्बई, अहमदाबाद,
हैदराबाद, बैंगलोर, कलकत्ता, कानपुर आदि) मे वाल-अपराध की सीमा छोटे शहरो
की अपेक्षा कही अधिक है १ कि
(5) बाल-अपराध मुख्यतः निम्न आर्थिक और सामाजिक वर्गों में अधिक
मिलता है। हन्सा सेठ के अध्ययन में 667 प्रतिशत अपराधी निर्धन परिवारों के
सदरय पाये गये ।४ वर्मा के अध्ययन में 8:6 प्रतिशत बाल-अपराधियों की
पारिवारिक आय 00 स्पए माह से कम थी ।॥$ इसी प्रकार 4'6 प्रतिशत अपराधों
में बच्चों के पिता अशिक्षित पाये गये । रटनशा के अध्ययन से भी यही निष्कर्ष
मिलता है । अन्यथा यह कहा जा सकता है कि पारिवारिक वातावरण वाल-अपराध
मे मुख्य कारक है|
बाल-अपराध के कारणों के सिद्धान्त
अपराध के कारणों की सदरल॑ण्ड, मर्टेन, क्लोवार्डडओहलित, थामस, वॉगर,
3 पुक्ला$3 डट0,.. स्द्शॉट:. ऐलनबकलाट्ए गि.।. कक इाबोच्य <5लाए2। 00फ्पोगर
ए।डबच्चो॥0, 80004५, 496, 33.
३४ /लगा३, 5 0, प्रण्णगल्त ७७ 50959 (स्व, &०्ल॑गं॑गए थी 2छगाशर व
बहव6, 2०९१ एच्0॥50678, 890039, 967, 46.
4. 66092), 5०लंग #टछ्चिटट, एटा एच ते ए०तन्टत00वी.. 567रॉ0९5
छलका, &90 969, ५०. 3, 30 2, 8-22,
७ एए(0053, (3. १... /क्कश्काह 7शफ्लिवृषल्वद्र बाबे॑ कोटधरमयेशा 8 22णाक,
फ6ए०गा (6ा6ह6 527॥25, 70004, ॥947, 46.
॥० ६] 8श5३ 5209, ००. 27/., 243.
3५ /दाए३, 8. 0., ०७. ८7४., 53.
याल-अपराध 47
क्लिफो्ड था आदि विद्वानों द्वाया दी गयी संद्धान्तिक व्यास्या पहले ही दी जा चुकी है ।
ये स्रभी सिद्धान्त वाल-अपराध के कारण भी बताते है । यहाँ हम केवल कोहेन द्वारा
दिये गये सामाजिक सिद्धान्त का विश्लेषण करेंगे ।
फोहेन का सिद्धान्त (एमाला'$ धाध्णा॥ ण॑ स्श०० 0ांध्यांशाणा)---
आलवर्ट कोहेन के अनुसार बच्चों और वयस्कों की अपने प्रति मन मे घारणा बनाना
इस वात पर आधारित है कि अन्य लोग उनका किस प्रकार मुल्याकन करते हैं)
विभिन्न परिस्थितियों में, जिनमें उतका मूल्यांकन किया जाता है'और जिनमे से स्वू ल
एक प्रमुख परिस्थिति है, मध्य वर्ग के लोग छाये रहते हैं। इस कारण व्यक्ति के
व्यवहार का मूल्यांकन भी मध्य वर्ग के स्तर व मूल्यों अथवा आदर्शों के आधार पर
किया जाता है । परस्तु इस श्रमाण को एकमात्र मध्य वर्ग का स्तर व मूल्य अथवा
आदर नहीं माना जा सकता क्योंकि वास्तव में ये समाज के ही व्याप्त, प्रधान व
प्रवल्न आदर्श है। इस व्याप्त स्तर में सफाई व स्वच्छता, शुद्धता, व्यवहार-सम्बन्धी
विनम्रता, विद्वत्परिपद् सम्बन्धी ज्ञान, धारा-प्रवाह से बोलने की शक्ति, ऊँची
अभिलापाएँ, वैयक्तिक उत्तरदायित्व आदि आते है । फिर समाज में सभी वर्मों के
लोगों का इसी प्रवल स्तर के आधार पर मुत्यांकन किया जाता है, जिस कारण
विभिन्न वर्गों के सदस्यों को स्थिति-प्राप्ति के लिए एक-दूसरे का मुकाबला करना
' पड़ता है। परन्तु सभी वर्गों के लोग इस स्थिति-प्राष्ति के लिए अपने को अन्य लोगों
के बरावर योग्य नही पाते क्योंकि अलग-अलग वर्गी में समाजीकरण की प्रक्रिया अतग-
अलग पायी जाती है । इसी समाजीकरण की प्रक्रिया की भिन्नता के कारण निम्न वर्य
के लोग अपने को मध्य वर्ग का अपेक्षा कम योग्य पाते हैं। जब निम्न वर्ग के लोग
अपने में ऊपर की ओर गतिशील होने की प्रवृत्ति के कारण मध्य वर्ग के लोगो के
सांस्कृतिक अ|दि विशेषताओं को ग्रहण कर उनके वराबर की स्थिति प्राप्त नही कर
पाते तो उनमे पराजय व नैराश्य की भावना उत्पन्न हो जाती है। इस नेराश्य को
रोकने का यद्यपि एक तरीका है अपने को इस स्थिति-सूचक समूह से अलग करना
तथा स्थिति-प्राप्ति के लिए स्वय के नियम और सिद्धान्त बनाना परन्तु निम्न वर्य के
लोग मध्य वर्ग के मूल्यों का इतमा आन्तरीकरण कर लेते है कि मध्यम वर्ग की
विज्लेपताओं को ग्रहण करने की प्रतियोग्रिता में पीछे रहना नहीं चाहते और जब अच्छी
स्थिति प्राप्त नही कर पाते तो अपनी समरूपता स्थापित करने के लिए व्याप्त भुल्यों
को अस्वीकार कर ऐसे मूल्यों और व्यवहार को अपनाते है जिन्हें समाज बुरा मानता
है। उदोहरणार्थ, पुलिस वाले अधिकतर बिकृत चित्त वाले (०००६८४०) होते हैं,
रुपया केवल खर्च करने के लिए होता है, कानून हमेशा साधारण लोगों के विरुद्ध
होता है, नम्रता व शिप्टाचार केवल कन्याओ के लिए होता है, व्यक्ति को कठोर
परिश्रम तभी करना चाहिए जब इससे उसे लाभ हो, इत्यादि । इन्ही मूल्यों के कारण
ही वे अपराध भी करते है । अपराधी मुल्यों एवं व्यवहार को अपनाने का प्रमुख
कारण यह होता है कि वे अपने व अन्य लोगों के लिए व्याप्त मूल्यों के भ्रति अपनी
घृणा का प्रदर्शन कर सकें। इस नये मूल्यों को कोहेन ने वाल-अपराधी उप-संस्कृति
ट्रि
78 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
(96ए)०घ८७६ 5ध७०-०प्रा 6) माना है ॥5
इस प्रकार कोहेव के अनुसार निम्न वर्ग के सदस्यो की मध्य वर्ग के स्थिति-
सम्बन्धी समस्याओ के प्रति प्रतिक्रिया के कारण उत्पन्न हुई समायोजन की समस्या
ही अपराध का मुख्य कारण है ।* टैपन/”, जान मार्टन*, किजपैट्रिक आदि ने कोहेन
के सिद्धान्त की आलोचना की है | इन लोगों ने तीन मुस्य तर्क दिये हैं.
(!) इस सिद्धान्त की यह मान्यता कि मध्यम और निम्न वर्मो के मुल्य व
अभिलापाएँ अलग-अलग होती हैं एक गलत घारणा है।
(2) पराजय व नैराश्य के कारण यह आवश्यक नहीं है कि लोगों की प्रक्रिया
इतनी नकारात्मक हो कि वे अपराधी-व्यवहार को अपनाएँ । उनकी क्षति-पुति करने
वाला व्यवहार समाज द्वारा मान्यता प्राप्त भी हो सकता है|
(3) कोहेन की यह मान्यता कि व्याप्त व प्रवल मुल्यों को अस्वीकार कर
जो निम्न वर्ग के अपराधी नये मूल्यों को अपनाकर एक उप-संस्क्ृति समूह बनाते हैं
बिना किसी आधार के हैं क्योंकि इस प्रकार की फिर अनेक उप-संस्कृतियाँ हो
सकती हैं ।
बाल्टर रेक्लेस ने भी 96। में कोहेन के सिद्धान्त के विश्लेषण में यह पाया
कि उसका सिद्धान्त कुछ अपराधो को समभत्ता है परन्तु सभी को नहीं, अथवा उसका
सिद्धान्त कुछ अंज्ो मे सही है | रेक्लेस का विचार है कि यद्यपि अपराधी-व्यवहार
और स्थिति-सम्वन्धी तिराशाओ मे पारस्परिक सम्बन्ध है परंतु इतना गहरा नहीं
जितना कोड्ेन ने अपने सिद्धान्त मे संकेत किया है ॥*
बाल-अपराध के कारण हे
साधारणतः बाल-अपराध के कारणों का तीन समूहो में विभाजन करके
विश्लेषण किया जाता है---जविफीय, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक; परन्तु हम इनका
व्यक्तित्व-सम्बन्धी और पर्यावरण-सम्वन्धी कारणों के रूप मे उत्लेख करेगे । व्यक्तित्व-
सम्बन्धी कारकों मे शारीरिक अयोग्यता, पुराना रोग और शारीरिक वनावट जैसे
जैविकीय कारक; और मन्द-बुद्धि, संवेधात्मक व्याकुलता, अनुकरण, भय आदि जैसे
मानसिक कारक हम क्षपराध के कारणों वाले अध्याय में बता चुके हैं | यहाँ केवल
मर (जाला, #॥67॥ ६... 00स्/क्कटर ढव्व (0ह/गें,. जिएजाएडाणि #ैगवशा
8ए००08५४ 86९५, ए7८॥८९४ प्गा, फडछ 375९9, 966, 65-66.
34 (70॥000, #0967६ ॥९., /02॥0#९08 8075--7॥6 (४/॥77 ९/7#2 6#9, 7॥96 #7९९
29:९55, 0]९0९००, 55.
३३ुद्छए90, एव ए४., टक्कर, उएड०९ बकफबे (०2८०0, 282.
ऊ ह् गा, एटफवृकटाा। कीसीवाय०ात, 65.
3१ ुहठ्पट्टा प्राटा० 5 व 7टा3ध02 ऐटलजल्ला ठंटातिवृष्टा। ऐटड्शतछत शात एश्रोपट
कांव्व'कशांठ्त ऐप फह हशाव005गाए ॥5 छठ ता पीबा वाउ80॥एव6 ३55छ३०४ 99 एटा
कवि मिट कप शबाध्यार्या, ३२९८४६५5३, १४गारड उम्सगग्ए कब्र 57लंवा केशल्काती,
> 4963.
बाल-अपराध 79
पर्यावरण-सम्बन्धी कारणों का ही हम विश्लेषण करेंगे। इन कारणों को दो सतह
पर देखा जा सकता है--() घर के अन्दर पर्यावरण, तथा (2) घर के बाहर
पयविरण । घर के अन्दर वातावरण में छिल्न-भिन्न परिवार, अपराधी परिवार, दोप-
पूर्ण नियन्त्रण वाले परिवार, का्यात्मक अपर्याप्त परिवार और आधिक रूप से
असुरक्षित परिवारों का हम विवरण करेंगे । घर के बाहर पर्यावरण में 'हम खराब
सम्पर्क, पड़ोस और सिनेमा पर विचार करेंगे।
(।) परिवार--परिवार एक ऐसा स्थान है जहाँ व्यक्ति सामाजिक नियम
सीखता है और विभिन्न लक्षणों का विकास करके अपने व्यक्तित्व का विकास करता है।
यह विकास एक सामान्यत. संगठित परिवार में ही अधिक सम्भव है। कार (07) ने
सामान्य परिवार के ये लक्षण दिये है''---() संरचनात्मक सम्पूर्णता अर्थात् परिवार
में माता और पिता दोनों का होता । (आ) आशिक सुरक्षा अर्थात् आय में यथार्थ
स्थिरता का होना जिससे रहन-सहन का सामान्य स्तर बना रहे ! (३) सांस्कृतिक
सरूपता (८प्रा/धा॥! #००१०ाा>) अर्थात् पति-पत्नी दोनों की भाषा व रीति-
रिवाज का एक होता तथा विचारों का भी समान होना । यदि दोनों अलग-अलग
सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों वाले व्यक्ति है तो उतकी सन्तान के व्यक्तित्व की सन्तुलित रूप
से विकसित न होने की सम्भावना हो सकती है। (ई) नैतिक अनुसरण अर्थात माता-
पिता दोनों द्वारा समाज के नैतिक नियमों का पालन किया जाना। (3) शारीरिक
भौर मानसिक रूप से प्रकृत-अवस्था अर्थात् घर में किसी मानसिक तथा शारीरिक
अपूर्णता व हीनता को व्यक्ति न होना । (ऊ) कार्यात्मक पर्याप्तता अर्थाद् पति-पली
में व माता-पिता और सन्तान मे कोई संघ न होना और उनका निर्विध्नता से अपने-
अपने कार्य करते रहना।
यद्यपि इन सभी लक्षणों वाले परिवार कम ही मितते है परन्तु इसका यह
अये भी नही है कि अन्य सभी परिवार अपराध ही उत्तन्न यरते हैं। असामान्य
परिवार व्यक्ति की विभिन्न आवश्णकताओं की पृतति में बाधाएँ उत्पन्न करते है जिससे
बह विराश होकर सामाजिक नियमों का उल्लंघन करता है। छः प्रकार के असामान्य
परिवार अपराधी-व्यवहार को अधिक उत्पन्न करते हैं । ये है--(क) छिन्न-भिन्न परिवार,
(स) अपराधी परियार, (ग) दोपपूर्ण नियन्त्रण वाले परिवार, (घ) कार्यात्मक अपर्याप्त
परिवार, (च) आथिक रूप से असुरक्षित परिवार, और (छ) भी ह-भाड़ बाले परिवार ।
(क) छिन्न-भिन्न परियार-- यह वह परिवार है जिसमे मृत्यु, परित्याग, तलाक
या काराबास के कारण माता अथवा पिता परिवार में नहीं होते तथा मात्ता या पिता
फैंग एक से अधिक विवाह होने के कारण उसके दो या अधिक जीवन साथी होते हैं।
पहली परिश्यिति के कारण बच्चे को स्नेह नही मिल पाता और दूसरी के कारण
उसकी उपेक्षा होती है | व्यक्तित्व के विद्यस के लिए क्योकि माता का प्यार तथा
3930, किक ॥०ज"णी 3, ऐलशदश्टाट ८लवार्ण, तिडप्फुदा 200 705... ]ए८७छ भरा,
80 सामाजिक समसस््याएँ और सामाजिक परिवर्तन
पिता का नियस्त्रण दोनों ही आवश्यक है इस कारण मात्ता-पिता में से विसी एक का
परिवार मे न होता बच्चे के सस्तुलित और समाज में समायोजित व्यक्ति होने पर
प्रभाव डालता है । यह् गलत समाभोजन ही उसके अपराधी-ब्यवहार को प्रेरणा देता
है। सदरलैण्ड के अनुमार अमरीका में 30 से 60 प्रतिशत तक वाल-अपराधी इन
छिल्न-भिश्न परिवारों के सदस्य पाये जाते है ।! 948 में अमरीका में केलीफोनिया
में किये गये चार साल के अध्ययन में मी यह प्राया गया कि उस राज्य में 62
प्रतिशत बाल-अपराधी छिन्न-भिन्न परिवारों के सदस्य थे ।/ होले और ब्रानर ने भी
]924 में अम्तरीका में शिकागों और वोस्टन से किये गये 000 अपराधियों के
अध्ययन में 50 प्रतिशत अपराधियों को, श्लेलडन और कब्लूक ने 966 बाल-
अपराधियों के अध्ययत मे 48 प्रतिशत अपराधियों को**, हत्स। सेठ ने वम्बई, पुना
जओौर अहमदाबाद मे अध्ययत किये गये अपराधियों मे से 47-4 प्रतिशत को, रटनशा
ने बम्बई में किये गये 225 अपराधियों मे से 50 प्रतिशत को” ऐसे हो (छिन्न-भिन्न)
परिवारों की पृष्ठभूमि वाला पाया । इन छिन्न-भिन्न परिवारों के सभी सदस्य अपराधी
क्यो नही बनते इसका कारण देते हुए सइरलैण्ड ने कहा है कि अपराध में छिप्न-भिन्न
परिवारों का महत्त्व अब इतना अधिक नही माना जाता जितना पहले भाना जाता
था ।!* अब परिवार के सदस्यो के आपसी सम्बन्ध तथा किस प्रकार वे सभी परिवार
में उत्पन्न हुई घिभिन्न घटनाओं का सामना करते है अपराधी-ध्यवहार मे अधिक
महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं )
(ख) अ्रपराधी परिवार--अपराधी परिवार वह है जिसमें एक या अधिक
सदस्य, विशेषकर माता या पिता, अपराधी है। उतका अपराधी-्व्यवहार बच्चों के
विकास पर कृप्रभाव डालता है । अपराधी माता या पिता जान-वूमकर उन्हें अपराध
सिखाते है अथवा वच्चे स्वयं अनुकरण द्वारा उससे अपराध सीखते है। ग्लूक ने
]000 बाल-अपराधियों के अध्ययन मे पाया कि 80 प्रतिशत अपराधी ऐसे ही
अपराधी परिवारी के सदस्य थे ४? भारत से सासी, कजर, नट आदि अपराधी जन-
जातियों के परिवारों में भी ऐसे ही अपराधी पर्यावरण के कारण बच्चे अपराध सीजते
हैं। सिरिल बर्ट का भी कहता है कि अपराधी परिवार अनपराधी परिवारों की
अपेक्षा सात गुना अधिक अपराध करते हैं ।४ * न
3६ 500९7990, ए699, #फ/डटएटड ०7 (/#४02०७३, 765 98 ]व 2765४
छ0प्ा०७५, 3965, )75.
३27 (१७०८४ 69५ ए्ॉठ>लीा, हे०चला। 05., (फांमरांहरण०8७, दि०ाणवर्प ए76553 (०.
पब, ४०४४६, 2956, 232,
3३ "जाता, प्रट्वाए 996 छा0पाटा, ह. 7... 0शजिवृटआल दावे एपवाशयिि>-नीशेए
क्री 8 दा प्रधाशवईलि९, ३०४ग्रिजा (०० , १, ४००४, 926, ।2[-22.
ग $॥टव00 0 ठएच७८, 076 वहग्क्रक्मर्ध गदार्फॉल िशैएआदुपलांड, विबारब४ाव
एफरर्टाइातज ९7९55, ((३॥७708०, 934, 75-77.
33 एजालानी३, ० ला.
हब 59] श्वञॉड90, ०१, ८४., ]77.
37 5तटाॉव0ण 80४ उापल<४, ००. थः., 79-80,
3० (2३ ॥7 छएच्त, 6. ली | 60-93,
चाब-अपराध 8]
(ग) दोषपूर्ण नियन्त्रण वाले परिवार--जिस परिवार मे बच्चों के ऊपर
नियन्त्रण में बहुत कठोरता अथवा मृदुता होती है, ऐसा परिवार भी अपराधी
उतन्न करता है। अधिक कठोरता के कारण वालक अपनी सभी इच्छाओं को
स्वतस्त्रतापूर्वक पूरा नहीं कर पाता जिस कारण उसमे नैराश्य पैदा होता है था फिर
माता-पिता का विरोध करने लगता है ! यह विरोध आगे चलकर समाज के प्रति
विरोध में परिवर्तित हो जाता है । इसी प्रकार अधिक भृदुता के कारण बालक णो
भाँगता है वह उसे मित्र जाता है जिससे उसे परिवार के बाहर समाज भे अन्य लोगों
से सामना करने की शिक्षा नहीं मिल पाती । इस शिक्षा के अभाव में वह अपनी
इच्छित वस्तुओं व इच्छाओं को प्राप्त करने के लिए बैध और भान्यता प्राप्त तरीके
प्रयोग ने करके अवेध अथवा अपराधी तरीके ही अपनाता है । लखनऊ में रिफारमेट्री
स्कूल में किये गये एक अध्ययन में 07 वाल-अपराधियों में से 57 (53-2 प्रतिशत)
के परिवार में कठोरता पायी गयी । इन 57 में से 25 अपराधियों के पिता कठोर
पाये यये, १2 में साता, 8 में माता व पिता दोनों, 4 में भाई, 5 में माता व भाई
और 3 में पिता व भाई कठोर ये । किसी भी अपराधी की वहन कठोर स्वभाव वाली
नही मिली । इसी प्रकार बाल-कारावास, बरेली में अध्ययन किये गये 279 बाल-
अपराधियों में से 729 (46-5 प्रतिशत) अपराधियों के परिवारों मे नियन्त्रण में
कठोरता पायी गयी ।/? इनमें 88 अपराधियों के पिता कठोर थे, !8 में भाता, 3
में माता व पिता और शेष 0 में अन्य सदस्य कठोर थे ।
(ध) कार्यात्मक श्रपर्माप्त परिवार--यह वह परिवार है जिसके सदस्यों में
आपसी संधर्य अधिक मिलते है अथवा उनमे नैराश्य ज्यादा पाया जाता है। नैराश्य
माता-पिता द्वारा दुतकारे जाने के कारण अथवा प्रतिद्वन्द्रिता, संवेगात्मक असुरक्षा,
कठोर प्रभुत्व, पक्षपात्, ईर्प्या आदि जैसी भावताओं के कारण उत्पन्न होता है। यह
पराश्य सदस्यी के व्यक्तित्व को पंगु बना देता हैं । कार (027) के दब्दों में कार्यत्मक
अपर्याप्त परिवार सांवेगिक रूप से अस्वस्थ परिवार होता है ४" कार्ल सेजर, हीले
और ब्रानर, बर्ट, गिलूक आदि द्वारा किये गये अध्ययनों से भी इस प्रकार के परिवारों
का अपराध में बहुत महत्त्व मिलता है ।
(व) क्राथिक रूप से झसुरक्षित परिवार--यहू वह् परिवार है जिसमें आय
में यथार्थ स्थिरता नहीं होती अथवा आय अपर्याप्त होती है जिससे सदस्यों की
विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा नहीं किया जा सकता । निर्घुनता और अपराध के
सम्बन्ध में किये गये धोंगर, बर्ट, हीले और ब्रानर, हन्सा सेठ व रटनथा आदि के
विभिन्न अध्ययनों का उल्लेख पहले ही किया गया है ।
हु (2) सराब सम्पर्क (सेल-समूह् और गिरोह)--वच्चे सभी जगह सेल-समूहों
में भाग लेते है और यह आमने-सामने के घनिष्ठ सम्पर्क उद पर बहुत प्रभाव डालते
2 ६5, (२७0 जवह्क, उद्बाटगराह ऐलसयवुएलार) व #वींव-
मएगा, ०77 68६, 67.
82 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
है। यह उनकी वोलचाल, व्यावहारिक ढंग, उनके अपने और अन्य लोगों के प्रति
विचार और धारणाओं, आदर्श आदि को निश्चित करते हैं। एक प्रकार से यह पेल-
समूह परिवार से भी अधिक ज्िक्षा देने दाल्ले समूह का कार्य करते है| इसरी ओर
गिरोहो की सदस्यता खेल-समुहों की अपेक्षा अधिक स्थिर होती है। इन गिरोहों
में निश्चित सगठन भी पाया जाता है। यह बच्चों और युवा लोगों की उन विभिन्न
आवश्यकताओं और इच्छाओं की पूरति के लिए उत्पन्न होते है जिनको वे अन्य साधनों
द्वारा पूरा नही कर पाते । यह गिरोह सदस्यों को उत्तेजना व सनसनी, साहस,
प्रतिष्ठा, सुरक्षा आदि प्रदान करते हैं। परन्तु सभी खेल-समूह व गिरोह अपराध उत्पन्न
नहीं करते और न ही सभी वालक उनके सदस्य बनते है। रेक्लेस के अनुसार व्याकुल,
अधिक फुर्तीलि व साहमी और यूथशीलता (ट०847075 गक्षाप्रा०) वाले बच्चे ही
इनसे अधिक प्रभावित होते हैं ॥/ इसी तरह जो गिरोह या खेल-समूह अच्छी तरह
सग्रठित है वे समाज के लिए लाभदायक ही होते है, परन्तु जो असगठित, प्रमत्त व
उपेक्षित होते है वे ही समाज से संघर्ष मे आने के कारण समाज-विरोधी कार्य करते
है ) सपर्ष-समूह झोठे के कारण ये गिरोह अपने नियम आदि स्वयं ही बनाते है जो
सदस्यों के अपराधी कार्यो को भी नियन्त्रित करते हैं। वर्ट, क्लिफोर्ड शा, हीले आदि
के अनुसार ऐसे गिरोह और सेल-समूह “अपराधी क्षेत्रो' में अधिक पाये जाते हैं ।*
(3) पड़ोस---गाँवो की अपेक्षा यद्यपि शहरों में पड़ोस का एक नियन्त्रण वाले
समूह के रूप में महत्त्व कम होता जा रहा है फिर भी व्यक्ति पर, विशेषकर बच्ची
के विकास में, इसका अब भी अधिक महत्त्व है। बातक यही पर खेलता है और यही
पर नयी-तथी बात भी 'सीखता है। काल्डबैल के थनुसार पडोस अपराधी व्यवहार की
इस प्रकार उत्पन्न करता है कि वह व्यक्तित की भूल आवश्यकताओ में बाधाएँ
डालता है, सांस्कृतिक संघर्ष पैदा करता है तथा समाज-विरोधी मूल्यों का पोषण
करता है ।* अधिक भीड-भाड वाया पडोस, जहाँ मनोरंजन अपर्याप्त होता है, बच्चों
की स्वाभाविक सेल-प्रवृत्ति में बाधा उत्तन्न करता है और कभी-कभी अपराधी गिरोह
को भी रघना करता है। पड़ोस में सस्ते होटल, जुआ खेलने के अड्डे, वेश्यागह,
सिनेमा आदि के होने के कारण भी समाज-विरोधी कारक पदा होते है ।
(4) सिनेमा झौर दामुक उपस्यास--व्यक्ति के अवकाश सम्बन्धी कार्य भी
उसके विचारों और व्यवहार पर प्रभाव डालते है। अच्छी तरह नियौजित गौर
निरीक्षित मनोरंजन च्यक्तित्व के विकास में एक मुम्य तत्त्व है। अखबार, अच्छी
पर्चिकाएँ और पुस्तक व्यक्ति के विचारों और दृष्टिकोण को विकसित करते है परन्ठ
कामुक उपन्यास, सिनेमा आदि उसमें अनैतिक तथा अवैध भावनाझो को उत्पन्न करते
जग रशाल एत्ततटछ, चार एफ ण॑छचा।वपटता व टीशिंए
झल्लक्संगए, मक्तव००६ ०/ :४८ह०वां डफडछ0॥/9ा5 ..ै, ०7, ८7, 30
ह 3 (५ ऐप, ०9. ८7... ॥25 ; हउच्न क्षात कॉल, उतलंदां 22006 मि
जहिएलशाल शलाएदुब्टवट>, 79-99, शाबच्य>, उल़र रववीकरबबम, 2 शोरकृवशा। ड0077
95, 430.
3२ (308५८), ७#, €। , 240.
वाल-अपराध , _ 83
हैं। सिनेमा व्यक्तियों में अनेक उत्तेजनाएँ और कुविचार पैदा करते हैं जिनसे उनके,
अपराधी व्यवहार को प्रोत्साहन मिलता है। ब्लूमर ने अमरीका में अपराधियों के
एक अध्ययन में यह पाया कि अध्ययन किये गये अपराधियों में से 20 प्रतिशत पुरुष
और 25 प्रतिशत महिला अपराधियों ने सिनेमा के वुष्रभाव के कारंण ही अपराध -
किया था। उसका कहना है कि चलचित्र खतरा सोल लेने के गुण को विकसित करते
है, दिवा स्वप्न पैदा करते हैं, आसानी से रुपया फमाने की इच्छा को प्रोत्साहित करते
हैं, कामुक इच्छाएँ भड़काते हैं तथा अपराधित्व की शिक्षा देते है ।४ न्यूक्रोम्व का
विचार है कि चलचित्र व्यक्तियों को जीवन का क्षणिक दर्शन प्रदान करते है व अपराध
करने के तरीके सिखाते हैं क्योंकि बच्चे अभिनेताओ की भापा व आचरण का
अनुसरण करते है ।* सदरर्ण्ड ने भी चलचित्रों के कुप्रभाव पर वल दिया है। उसका
कहना है कि बहुत से वालक सिनेमा देखने से चोरी व राहजनी सीखते है, गिरीह
बनाते है तथा सिनेमाओं में दिसाये मये अपराध करने के तरीकों को अपनाते है ।*
कुछ वर्ष पहले भारत में भी एक अपराधी ते सिनेमा देखने के वाद एक म्यूजियम में
धुसने और एक लाख के मूल्य की वस्तुएँ चुराने भे वह तरीका अपनाया जो कुछ घण्टे
पूर्व उसने पिक्चर में देखा था। इसी प्रकार 'पिकपाकेट', आवारा” आदि पिक्चर
देखने के बाद घर से भागे हुए युवकों द्वारा अपराध करने पर उनका पकड़ा जाना
भी सिद्ध करता है कि सिनेमा का युवकों के मन पर कितना घनिष्ठ प्रभाव पड़ता है
और किस तरह यह अपराधी मनोवृत्तियाँ उत्पन्न करते है|
परन्तु हमें यह् अवश्य ध्याव में रखना चाहिए. कि चलचित्रों का क्रुप्रभाव
कमजोर य जन्यायपूर्ण पृष्ठभुमि वाले वच्चो पर ही अधिक पड़ता है। न्यूकोम्ब मे
भी कहा है कि चलचित्रों का प्रभाव व्यक्तियों की सामाजिक, धामिक व सास्क्ृतिक
पृष्ठभूमि पर निर्भर करता है ४
आवारागर्दी--आवारा वालक उस सात वर्ष से सोलह या अद्ठारह वर्ष की
आयु तक के बालक को कहा जाता है जो मावा-परिता की आज्ञा बिता धर से
4 [70780 पाल ता5छ4५ ० क्रांग्रा8 ्गरपुप्ट५ बाते साधनों >बटाहड 0
एशाउशे०० 0) दा00आंएड 8०४९5 ॥07 <85/ गा092५ था एज्चा> 2५6 9५ 508765/व8
चरषड$000496 ाध०05 007 पधए ब्रेक्कांटएट्कला, 99 4760९08 8 जात? ण॑ छा्रर३60,
(00टवी02८55 70 30एप्राधाए०॥ए५55, 0५ 8ए०पञ्माा8 |॥/€॥55 इज 6८७०5, 9) 43५0९-
08 03/-त7९ककग08 8० 07ग्रया ए065, फटा गराउ/ साटबाट बधएक्25 200 विगत
९सागवुए65 ए0०00फ9८४९ ६0. एल॥वएडफ 0 सांगाएश ऐलशीइ्शणाए,! प[एयठ्0, पिशफल:
चाव बढ, शिवा 'चै,, 07"7०5, 0लकदूबलाट्र- बगबें (77४० ७००)॥॥०० (00., 933,
498-99,
# 80५63, एा०शंत2 एट०फोट कद ।९फणाबा> एच050फा6३$ ० ॥6 बाएं छांगि
उि5णा5 व) 07९55 ३ पोहए एव) दाउाला ४०5 0 0४९-03पाड गाते एड।वां।
>धााावबी ॥स्एपवपठऊ,.. एस्हेटाथा. वराफृशाइणाबाह 4005. गे पहला वैशाइप्बट6 शा
0णाठफट- कट+९००००, प॥००४०7९ | , 30टाव! 2:3८2०27 7940७, ९२८ए७ ४०४,
4950, 97
3 उत्ोशोयाते, ०7. ८४. , 2!5.
मे उस (०77, ०7. 28 94
84 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
अनुपस्थित रहता है तथा आवारागर्दी (५३४7४7०४) करता फिरता है। इसमे
व्यक्तित्व के विधटन सम्बन्धी लक्षण भी दिखाई देते है। उदाहरणार्थ, अभिष्टता,
ढिठाई, असत्यता, यौन अनैतिकताओं मे फेंसे रहता, जुआ खेलना, सिगरेट थ शराब
पीने की आदत, अनैतिक व्यक्तियों के साथ उठता-बैठना, अश्लील भाषा का प्रयोग
करना, इत्यादि । इन आवारा बालको को मुख्यतः दो समूहो में विभाजित किया जा
सकता है--एक वे जो फुट्पाथ पर रहते हैं और दूसरे वे जो दित को तो सड़को पर
अकारण ही चक्कर लगाते फिरते है परन्तु रात्रि को अपने ही घर पर सोते है । कुछ
अध्ययनों के आधार पर यह पाया गया है कि इनकी आवारागर्दी मे परिवार, पड़ोस
च स्कूल मुख्य कारक है। लखनऊ और कानपुर में एक सर्वेक्षण में अध्ययन किये गये
300 बालकों (आवारा) में से 30:3 प्रतिशत 3-4 वर्ष की आयु के पाये गये,
24'0 प्रतिशत ]-2 बे के, और 20-7 प्रतिशत 5 बपं के; शेप 28:0 प्रतिशत
या तो वर्ष से कम थे अथवा 6 वर्ष से अधिक ।* इस आधार पर कहा जा
सकता है कि किशोर अवस्था मे बच्चों में आवारागर्दी अधिक मिलती है। इनके
परिवारों के अध्ययन में पाया ग्रया कि 57-3 प्रतिशत बच्चे सामान्य परिवारों के
सदस्य थे और 42-7 प्रतिशत विच्छिन्न परिवारों के, जिससे यह ज्ञात होता है कि
सामान्य परिवारों में माता-पिता का नियन्त्रण अथवा साता-पिता के आपसी सम्बन्ध
आवारागर्दी के प्रमुख कारक है । गिरफ्तार करने के उपरान्त आवारा बच्चों को या
तो बाल-जेलो में भेजा जाता है अथवा किसी मान्यता प्राप्त स्कूल व सुधारालय
भादि में
बिना झाज्ञा स्कूल से भ्रनुपस्यित होने वाले बंच्चे--वाल ट्र,एन्ट (7एथ॥)
घह 7 और 6 वर्ष के धीच की आयु का बालक है जो विना किसी उचित, सभ्य व
समर्थनीय कारण के स्कूल से अनुपस्थित रहता है । ये वालक हमेशा वे नही होते जो
परीक्षा में अनुरत्तीण ही होते रहते हैं, परन्तु वे भी होते है जिनको शैक्षणिक दृष्टिकोण
से अच्छा विद्यार्थी कहा जा सकता है। इसी प्रकार स्कूल से भागने पर सभी बच्चे
अन्य दर, एन्टसू के सम्पर्क में नहो पाये जाते । कुछ तो अकेते ही धूमते-फिरते हैं भौर
बुछ के मित्र सामान्य व अनपराधी होते हैं। अधिकतर बच्चों के लिए स्वृल से
भागने का कारण अध्यापक का व्यवहार तथा स्वूल का बातावरण द्ोता है । अध्यापक
का निष्ठुर शासक च॒ तीम्र स्वभाव वा होना, उसके द्वारा अश्लील भाषा का प्रयोग
करना, अच्छा में पढ़ाना आदि बच्चे को स्कूल से भागने पर विवश करता है।
कानपुर येः 485 ट्र,एन्टसू के एक अध्ययन के आधार पर उनको तीन समूद्रों
में बाँटा गया है?--() सामयिक, (2) अभ्यस्त और (3) बार-बार भागने वाले
बछ्चे । बिना आज्ञा स्कूल से अनुपस्थित रहने वाले सामथिक बच्चे वे बताये गये हैँ
जो एक वर्ष के कार्यकाल के कुल कार्य-दिनों में से 0 प्रतिशत से कम दिन तक रकूल
57४2१453., 5 5, धणए्ठाटव ऋ४ 505] (कहा, 5न्दंगेग्एर गा स्कस्वक्ांगि
4८७ एएक99६१3., ॥0॥939, 967, 4.
६. *१ कन्पजपत३, 77, 3 ५ 49०05 99 $5550॥ (फ४56473, ०5. ८8/., 0-4.
बाल-अपराध 85
से अनुपस्थित रहते है। यह वच्चे अधिकतर स्वूल के पर्यावरण व अध्यापकों के
व्यवहार के कारण ही कक्षाओं से भागते है। साथ में इसकी उल्लास व आमोद-प्रमोद
तथा साहसिक कार्य करने की भी इच्छा रहती है जो स्वूजल में पूर्ण नही हो पाती । ये
बच्चे क्योंकि संकेत व प्रलोभन से शीघ्र प्रभावित होते हैं इस कारण इनका सही प्रबन्ध
कर इनको सुधारना बहुत आसान है। अभ्यस्त ट्रू एन्टस वे बच्चे बताये गये हैं जो कुल
कार्य-दिनों में से 70 और 30 प्रतिशत के वीच कक्षाओं से अनुपस्थित रहते हैं ! यह
बच्चे न केवल अइलील भाषा का प्रयोग करते है अपितु सामान्य ट्रें एन्टसू पर भी
बहुत प्रभाव डालते हैं । तीसरे प्रकार के बार-बार अनुपस्थित रहने वाले बच्चे वे
बताये गये है जी 30 प्रतिशत से अधिक कार्य-दितों के लिए कक्षाओं से अनुपस्थित
रहते हैं। ये न केवज स्कूल से भागते है अपितु इन्हे घर से भी भागने की आदत
होती है। इनको अध्यापकों के प्रति कोई आदर व श्रद्धा नही होती तथा दण्ड मिलने
पर बदला लेने की इच्छा भी रखते है| ये उत्तेजित और आक्रमणकारी होते है तथा
इनमें नेतृत्व के लक्षण भी पाये जाते है ।
सन्ना द्वारा अध्ययन किये गये स्कूल से विना आज्ञा अनुपस्थित रहने वाले
485 बच्चों में से 35"! प्रतिशत सामग्रिक, 40 प्रतिग्मत अभ्यस्त और 23 प्रतिशत
वार-बार अनुपस्थित रहने वाले ट्रं.एन्टस् पाये गये ।४? इन तीनी प्रकार के बच्चों के
प्रमुख लक्षण इस प्रकार थे--() अधिकतर ट्र,एन्टस् 70 और 73 वर्ष के बीच के
अयवा कम आयु के थे । (2) अधिकाश 90 प्रतिशत बच्चे 50 रुपये प्रति भाह
से कम आय वाले परिवार अथवा निम्न आथिक समूहों के सदस्य थे । (3) अधिकतर
बच्चों के माता-पिता के आपसी सम्बन्धों में संघर्ष पाया गया। (4) लगभग आधे
बच्चे कोई नौकरी या व्यवसाय करते हुए पाए गए।
इन लक्षणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि क्योंकि परिवार और
स्कूल बच्ची के स्कूल से भागने में भूस्य कारक है, इसलिए उनके इस अपराध को
नियन्थित करने के लिए हमें इन समूहों के वातावरण को ही नियम्ध्रित करना होगा ।
बाल-न््यायालय
बीसवी शताब्दी मे अपराधियों के प्रति वैज्ञानिक उपचार सम्बन्धी विचारों में
परिवर्तव आने से यह् आवदयक माना गया कि बाल-अपराधियों पर अभियोग चलाने
(ए705९०४४०) के लिए अलग न्यायालय स्थापित किये जाने चाहिए । सदसे पहले
95 में बम्बई जेल प्रच्यासन रिपोर्ट 'मैं इसकी आवश्यकता पर दल दिया गया
परन्तु सवसे पहला बाक-न्यायालय (उप्रश्शायों० €०णा) 922 में कतकत्ता मे
खोज़ा गया, उसके बाद 927 में बम्बई मे तथा 930 में मद्रास में । 4930 के
उपरान्त धीरे-धीरे कुछ अन्य राज्यों में भी इस प्रकार के न्यायालय रथापित किए
गए । परन्तु अब भी सभी राज्यों में बाल-न्यायालय नहीं मिलते । अधिकांशतः यह
4१ (6.
86 सामाजिक समस्याएं और सामाजिक परिवर्तन
स्यायालय अलग मकानों मे होते है परन्तु जहाँ अलग भवन नहीं होते वहाँ वयस्क
अपराधियो के न्यायालय में ही एक लदग कमरे में लगाए जाते है। इसकी संरचना
भी साधारण न्यायालय से भिन्न हैं। इनमे अधिकतर महिला मजिस्ट्रेठ को नियुक्त
किया जाता है यद्यपि ऐसे भी न्यायालय हैं जहाँ पुरुष मजिस्ट्रेठ पाए जाते है जिनको
बाल-मनोविज्ञान और वाल-वल्याण का विश्वेष ज्ञान होता है। इन अदालतों में किसी
सरकारी अधिवक्ता को अपने अधिकारी वर्दी मे आने नही दिया जाता तथा सभी
सादे कपडो में ही रहते है । न्यायालय की कार्यवाही मे भी गोपनीयता रखी जाती
है। इस अदालत द्वारा दण्ड मिलने वाले वच्चे की स्थिति पर प्रभाव नही पड़ता
क्योंकि पुनः अपराध करने पर उसके पहले दण्ड को ध्यान नही दिया जाता जैसाकि
वयस्क अपराधियों में पाया जाता है। इस तरह बाल-न्यायालयो के मुख्य लक्षण इस
प्रकार दिए जा सकते हैं--() कार्यवाही की अनोपचारिकता, जैसे घर जैसा वातावरण,
जिरह न करके साधारण बातचीत द्वारा तथ्य एकन्रित करना आदि, (2) दण्ड का
उद्देश्य प्रतिशोधात्मक न होना, और (3) सुधार पर वल देना ।
यदि हम बाल-न्यायालय और वयस्क अपराधियों के न््यायातय की तुलना
करें तो हमें दोनो में यह अन्तर मितेगा :
() साधारण न्यायालय की कार्यवाही भे गोपनीयता नहीं मिलती परन्तु
वाल-न्यायालयीं मे मिलती है, अर्थात् जनता को मुकदमे की कार्यवाही शुनमे और
समाचार-पन्नो मे उसकी रिपोर्ट प्रकाशित करना निपेध है ।
(2) साधारण न्यायालय में हर अपराध के लिए पूर्व निश्चित दण्ड दिया
जाता है परन्तु वाल-न्यायालय में अलग-अलग अपराध के प्रकृति के आधार पर ही
दण्ड निह्िचित फिया जाता है ।
(3) वयस्क न्यायालयों मे केवल उन्ही को दण्डित किया जाता है जो कानून
का उल्लंघन करते है परन्तु बाल-न्याथालयों में कानूब के उल्लंघन के अतिरिक्त
उपेन्नाच्युत व्यवहार के लिए भी दण्ड मिलता है।
(4) बाल-त्यायालयों मे निर्णय का आधार परिवीक्षा अधिकारी की रिपोर्ट
होती है जिसमें अपराधी के व्यक्तित्व व परिवार, स्कूल तथा पडोस आदि परिस्थितियों
का विश्लेषण होता है परन्तु वयस्क अपराधो न्यायालय में ऐसी सामाजिक छाववीन
पर महत्व नहीं दिया जाता )
(5) वयस्क न्यायालयों द्वारा वयस्क अपराधी के दण्ड को उसके दुसरे
अपराधों मे महत्त्व दिया जाता है परन्तु वाल-न्यायालय के दण्ड को वालक के दुबारा
अपराध दारने पर अन्य न्यायात्रय में उसके विरुद्ध कोई कार्यवाही करने मे महत्त्व
नही दिया जाता । है
बाल-स्थायालयो के इन्ही लक्षणों के कारण यह कहा जाता है कि इनके
तरीकों को वयस्क अपराधी न्यायालयों पर भी लागू करमा चाहिए। लिडते का
कहना है कि बाल-न्यायालयों का मुख्य लाभ यह है कि ये पुरानी विधि-संहिता को
प करके न केवल बाल अपराधियों के लिए अपितु दयस्क अपराधियों के लिए
चबाय-अपरात्र 87
भी एक नयी पिधि संहिता स्थापित कर रहे हैं ॥/ हाल (०) के अनुसार यह
शाज्षा की जाती है कि शीघ्र ही घाल-न्यायालग्रों के त्तरीको का विस्तार करके वयस्क
अपराधी न्यायालयों में कुछ वयस्क अपराधियों के लिए भी ये उपयोग किए जायेंगे ।+#
जो मुस्य तरीके भारतीय वाल-न्यायालय अपराधियों को दण्ड देने मे प्रयोग
करते हैं वे हैँ--जुर्माना करना, चेतावनी देकर तथा अच्छे व्यवह्यर का वाण्ड मरवा-
कर माता-पिता अथवा सरक्षक को सौंप देना, परिवोक्षा पर छोड़ देना, मान्यता
प्राप्त स्वूल, परिवीक्षा-होस्टल आदि जैसे किसी सुधा रवादी सस्था में भेजना, इत्यादि।
बम्बई में रटनशा द्वारा अध्ययन किये गए विभिन्न वाल-न्यायालयो द्वारा! स्यथ. किए
गए 4049 अपराधियों के मुकदमों में से 4 प्रतिशत मुकदमे अध्ययन के समय वाल
न्यायालयों में विचाराधीन थे तथा शेप 96 प्रतिशत अपराधियों के केस समाप्त किए
गए थे। इन 96 प्रतिशत में से 2.5 प्रतिशत अपराधों में बच्यो को अनपराधी
मानकर मुक्त कर दिया गया था और 87.5 प्रतिश्नत को अपराधी पाया गया था ।
इन 87.5 प्रतिशत (लगभग 33700) अपराधियो में से 37.6 प्रतिशत बाल-
अपराधियों को जुर्माना किया गया, 2.5 प्रतिशत को चेतावनी देकर छीड़ दिया
गया, 2.9 प्रतिशत को जेल भेजा गया, 0. प्रतिशत को परिवीक्षण पर रखा
गया, 8.3 प्रतिशत को सुधारात्मक संस्थाओं में भेजा गया और शेप 8.6 प्रतिशत
को कोई अन्य दण्ड दिया गया ।* इन आकड़ीं से यह ज्ञात होता है कि किस प्रकार
वाल-न््यायालयों का मुख्य उद्देशय दण्ड देने की अपेक्षा सुधार करना है। इस
सुधारात्मक तरीकी के उपयोग के कारण कुछ व्यक्ति बाल-न्यायालयों को बहुत
उपयोगी मानते हैं परन्तु कुछ ऐसे भी व्यक्ति हैं जो इनको व्यर्थ समभते है । एक
तरफ टेफ्ट४ और लिंडसे* जैसे विद्वानों का कहना है कि अपराध को रोकने में
जी कार्य साधारण न्यायालय 0 वर्षो में भी नहीं कर पाये है वह ही कार्य बाल
न्यायालय एक बर्ष मे कर रहे है, दूसरी ओर वेकर और हीले जैसे विद्वानों की मान्यता
है कि क्योंकि वाल न्यायालय को एक सामान्य व्यक्ति सन्देह को हृष्टि से देखता है,
प्रशासक घृणा से और न्यायाधीश शक्तिहीनता की हृ॒प्टि से, इस कारण इन अदालतों
को सुरक्षित रसना आवश्यक नहों है। कुछ प्रयतिवादी वाल न्यायालयो के विरुद्ध
इसलिए है क्योंकि सिद्धान्त में तो ये अपराधियों के सुधार पर बल्न देते है परन्तु
वास्तव में दण्ड पर अधिक बल है। कुछ रूढिवादी फिर वात्न न्यायालयों के विरुद्ध
इस कारण है कि यह वहुत महंगे है तथा ये अपराधियों को कढोर दण्ड न देकर
समाज को उनसे सुरक्षा प्रदान नही करते और ने ही सामाजिक छानवीन पर महद्दृत्त्व
4 [ां3९५, 9. 8., 7796 8/65# 00प६९४३३, 7४, ४०7८, 90, 449,
# चुदवा! उद्धाणार, 7#2, ख्यार बे ०तंटा), ॥ग्पक्षा49075, 9:2, 24,
# ए0/0॥5॥9, 0. 7, ०2. ८४४ , 8.
5 पक्षी, 200026 8., (#ा्रघ०/282)% )३८)॥॥३7 ९१०,, 8, ४८१६, 950
4 प0पं5९५, 8... *परग्भ० उप्रलाएं० 00एा ि०+श५८९ 7:०7 4 [>कश्र।
एणं0७७0 0 4ैंकबांउ-
कल
88 सामाजिक समस्याएँ और साम्राजिक परिवर्तन
देते है। लेकिन जैसाकि देखा गया है, ये सभी तक॑ सही नही हैं। यदि हम यह मानते
हैं कि बच्चों के व्यवहार और वयस्कों के व्यवहार मे अन्तर है तो उस व्यवहार को
नियन्त्रित करने के तरीके भी अलग-अलग अपनाने होगे । इस हृष्टि से घाल-न्यायालयों
की उपयोगिता की उपेक्षा करता गलत होगा )
अवलोकन-ग्रृह या सुधारालय (छल्याथ्ाव प्लणाण)
जिन बच्चों के अपराध न्यायालय में लाये,जाते है उतको मुकदमे समाप्त होने
तक कहाँ रखा जाए यह समाज के लिए एक समस्या रहती है। जिम अपराधियों के
परिवार हर प्रकार से संग्रठित व सामान्य पाए जाते है उनको तो उनके घरों में
रखना हानिकारक नहीं होता परन्तु कुछ अपराधों मे क्योकि बालक या तो बिना
धरवार के होता है या परिवार का अपराध में मुख्य कार्य पाया जाता है या फिर
किसी कारण अपराधी को अभियोग काल में परिधार और समाज से दूर रखना
आवश्यक होता है इस कारण बच्चे को किसी अन्य सुरक्षित स्थान में रखता अनिवार्य
समझा जाता है। फिर इस काल में उसके व्यक्तित्व व व्यवहार का अवलोकन तथा
परिवार व पड़ोस आदि के वातावरण का अध्ययद भी आवश्यक है। इस अवलौकन
हेतु भारत मे कुछ सदन खोले गए है जिनको अवलोकन-शह् या सुधारालय (एथाशावे
॥006) कहा जाता है। यह सुधार-एह इस तरह बच्चों को बन्दी करने अथवा
हिरासत के स्थान बही होते परन्तु उनके व्यवहार के निरीक्षण के स्थान होते है ।
किल्फोर्ड मेनझ्वार्ड मे अच्छे सुधार-गहों को कुछ आवश्यकताएँ वताई है--
जैसे, लिंग के आधार पर बच्चों का पृथककरण, शैक्षिक प्रशिक्षण और मनोरंजन की
सुविधाएँ, छ्वारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के अध्ययन की सुग्रमता, प्रभावकारी
निरीक्षण, सीमित अनुशासन, वाल न्यायालयों का इन पर नियन्त्रण, इत्यादि)
मैनशार्ड की मान्यता है कि सुधार-मृह में रखा जाना वच्चे का कानून से पहता
संसर्ग होता है। इस कारण सुधार-श्ह में सुधार के तरीके ही बच्चे की वाल
न्यायालय के प्रति धारणा को निर्धारित करेंगे । यदि वालक वाल न्यायालय के प्रति
सन्देहशील और अविज्ञापूर्ण है तो वह कभी भी मजिस्ट्रेट को अपने बारे मे सही और
सम्पूर्ण सूचना नही देगा जिसके अभाव में बाल न्यायालय उसके सुधारने के यथार्थ
तरीके को निर्धारित नहों कर पायेगा । इसलिए आवश्यक हैं कि सुधार-४ह में
उल्लंघनीय व कठोर वातावरण नही होना चाहिए ।
भारत मे कुछ राज्यों मे जो सुधार-एह पाए जाते हैं उनकी व्यवस्था वे
कार्य-प्रणाली भी क्लिफोई मनझाई के सुझावों से मिलती है। 970 के आँकडों
के अनुसार वारह राज्यों और तीन केन्द्र-प्रशासित क्षेत्र मे सुधार-गृह स्थापित थे ।
इनमें से सबसे अधिक महाराष्ट्र भ (33), उसके उपरान्त भुजरात और मेंसूर में
(प्रत्येक में 9), और फिर तमिलनाडु में (), केरल व उत्तर प्रदेश (प्रत्येक में
+ (विग जक्माआ्रजावा, 2#९ ला|जकूबलाई (/7/4, ०9, 6 ४., 93-94.
वाल-अपराध 89
ल्
43), बिहार में (7) तथा आन्श्र श्रदेश व दिल्ली (प्रत्येक में तीन) मे मिलते है ।
बंगाल में केवल दो ही सुधार-ग्ृह है। इन कुल 24 सुधार-इहों में से 659 सरकारी
शृह है और 55 निजी हैं ।? लड़को और लड़कियों के लिए प्ृथक् सुधार-गृह है।
भारत के सुधार-गहों में जो मुख्य बात पायी जाती है वह यह है कि ये बाल अपराधियों
के अतिरिक्त निराश्रय व अवाथ और उपेक्षित आदि बच्चो के लिए भी उपयोग किए
जाते है । इन शहो में रखे गए कुछ बालको भे से केवल 5 से 20 प्रतिशत के लगभग
ही बाल अपराधी होते है जबकि शेष वच्चे अनाथ तथा उपेक्षित आदि होते है ।
आयु की हृ्टि से सुधार-गहों में रखे यए बच्चों का दो-तिहाई हिस्सा 7-4 आयु
समूह में पाया जाता है और एक-तिहाई बच्चे या तो 7 साल से कम या 4 और
8 सात के बीच के आयु के पाए जाते है । 965 के आकडो के अनुसार भारत में
दिल्ली और नौ अन्य राज्यों के विभिन्न सुधार-गृहों मे पाये जाने वाले 2656[
निवासियों में से 8 प्रतिशत सात वर्ष से कम थे, 33 प्रतिशत 7 से 2 वर्ष के, 33
प्रतिशत 2 से 4 वर्ष के, 20 प्रतिशंत 4 से 6 वर्ष के और 6 प्रतिशत 06 से
]8 वर्ष के थे ।॥ इस आधार पर पहले बताया गया भारत मे बाल अपराध का यह
लक्षण कि किशोरावस्था में बाल अपराध सबसे अधिक पाया जाता है सिद्ध नही
होता । सम्भवतः: इसका कारण यह् है कि सुधार-गहों में अपराधियों की अपेक्षा
निराश्रय और उपेक्षित आदि वच्चों की संख्या अधिक है।
रहने की अवधि की दृष्टि से देखा गया है कि सुधार-शहों में लगभग 50
प्रतिशत वच्चे 6 सप्ताह से कम रखे जाते है, 35 प्रतिशत के लगभग 6 सप्ताह भौर
6 महीने के बीच और शेप 5 प्रतिशत के करीब 6 माह से अधिक समय के लिए ।४१
इसका कारण एक यह है कि तीन-चार माह में वच्चे के व्यवहार का अवलोकन करके
उसके ध्यक्तित्व का अध्ययन पूरा किया जाता है और साथ में परिवीक्षा अधिकारी
भी बच्चे के परिवार, स्कूल आदि बाग अध्ययन पूरा कर अपनी रिपोर्ट तैयार बार लेता
है । फिर, 5-6 महीने मे न््यायालय द्वारा भी केस समाप्त कर दिया जाता है।
गुजरात, महाराष्ट्र, तमिल्लनादु और दिल्ली के सुधार-शहो मे बच्चो के मानसिक
अध्ययन के लिये मानसिक रोग चिकित्सक भी पाए जाते है। इसी प्रकार बिहार,
केरल और तमिलनाडु के अलावा शेप सात राज्यों के सुधार-ए्दों मे परिवीक्षा अधिकारी
भी पाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त डाक्टर और शिक्षक भी इन गृहों में आंशिक समय
या पूरे समय के लिए नियुक्त किए जाते हैं। एक बच्चे पर औसतन 60 रुपये प्रति
माह इस गहों में व्यय किया जाता है जो एक साधारण जेल में रहने वाले एक वयस्क
अपराधी पर किये जाने वाले व्यय से कहों अधिक है। इससे ज्ञात होता है कि
साधारण जेलो मे सुधार पर रखे जाने वाले वयस्क अपराधियों के विपरीत मुधार-
37 568 3004! 0८/€#०८ वंब 4॥4/०, 808- 970, 2.
७१ !024., 22.
# 64, 23,
90 सामाजिक समस्याएं और सामाविए परिवर्तन
रही मे रसे जाने बाले खाल अपराधियों गो साली रखने के बजाय गोौई कार्य दरवाछर
आरम्म से ही उनके सुधारने के प्रथत्त किए जाति है ।
बाल श्रपराधियों वा गुधार झौर संस्थात्मक उपभार
बाल अपराधियों फे सुधार के लिए बुद्ध सुधारवादी संग्याएँ स्माषित की
गयी हैं, जैगे मान्यता प्राप्त स्कूल, बारदंस स्कूल, परियोधषण होस्टस इत्यादि मद्यपि
जेल भी अपराधियों को सुधारने की गर्याएँ हैं. परन्तु णेस थौर अन्य सुघारात्मक
सरधाओं में अन्तर है। कारावास में रगने फे गारण बालयः को एफ घरया लग पाता
है यो उसके लिए जैस मे गूटने केः बाद पुनर्वाग में बाघाएँ उत्पन्न करता है। दुसरा,
ज्लेल में अपराधी की व्यक्तिगत देश-भारा गम्भव नही है पर बात संस्था में यह सम्भव
है। तीसरे, जेल में रहने से अपराधी या सगाज ये सम्पर्क जिल्युल ममाष्य हो जाता
है परन्तु राभ्था भे रहने मे उसका यह सम्बन्ध बना रहता है। इन्ही सुधारात्मक
सस्वाधों वग सब हम विस्वारणपुर्वेक विघवेषण करेगे ।
वास्टेंत रक्गूत (90050॥ 50॥00)--चार्म्टंत स्फूल घाल अपराधियों येः लिए
नही अपितु किघोर-अपराधियों के लिए होते हैं, अथवा इनमे पेयल उन्ही अपराधियों
को रसा जाता है जो 5 और 2] धर्ष के वीच में होते हैं। यह स्फूल राज्य में
बास््टेल रकूल एक्ट के आधार पर गोले जाते हैं। 970 के ऑफड़ो के अनुसार
भारत में इस समय नी राज्यों मे बास्टंल स्कूल पाये जाते है ये राज्य हैं आन्य्म
प्रदेश (926), केरल, मंगूर (943), मद्रास (926), महाराष्ट्र (929), वगाल
(2938), विहार, प्रजाव (926) और मध्य प्रदेश (928) | इनके अतिरिक्त
उत्तर प्रदेश (938) में बरेली का याले-जेल भी इन्ही बार्स्टल स्कूल के आधार पर
कार्य कर रहा है। यद्यपि ये राज्य के जैलो के इन्सपेय्टर जनरल के स्वाधीन कार्य
करते हैं पर अधिक अधिकार एक कमेटी (शांज्ञांतह एणाणा।००) को सौपे जाते
हैं जिनमें समस्यायालय का न्यायाधीश, जिला मजिस्ट्रेट तथा जिले के शिक्षा
अधिकारियों के अतिरिक्त चार गर-सरकारी रादस्य भी होते हैं। यही कमेटी हर नये
प्रवेश करने वाले अपराधी का साक्षात्कार कर यह निर्धारित करती है कि उसे किस
प्रदार का प्रशिक्षण दिया जाए अथवा कब उसे ऊँची श्रेणी मे पदोष्नत किया जाए
सा उसे कब छोड़ा जाए। स्वूल में किसी निवासी को दो वर्ष से कम समय के लिए
सही रखा जाता और न पाँच वर्ष से अधिक समय के लिए। इस कारण बास्ट॑ल
स्कूलों में केवल उन्हीं किशोर अपराधियों को भेजा जाता है जिनको तीन बसे
अधिक समय के लिए दण्ड मिलता है। जिन निवासियों को सुधार के अमोग्य समभा
जाता है उन्हे पुनः जेल भेज दिया जाता है ।
हर स्कूल गृहों (0005८8) में विभाजित किया जाता है और गृह का काबे-
वाहक एक शगृह-प्रधान होता है। झंह के तिवासियो का सामान्य व्यवहार, उनका
४०8६७ 50ठ०््वों 2थिल्ट, #एपा 497, 9०), 3, १२०, 2, 52.
बात-अपराध 9
प्रश्ििक्षग और उनके साने आदि कौ व्यवस्था का सादा कार्य इन्ही गहन्ग्रपानों की
देस-रेस में रहता है। हर गृह फिर समूहो में विभाजित्र होता है और हर समुह का
कार्यवाहुक एक मानोटर (7्रणा।॥०) होता है। यह मानीटर यृहन्प्रधान द्वारा स्कूल
के निवासियों में से ही चुना जाता है। स्वृत में श्रेगी-प्रथा भी पायी जाती है। कुल
तीन श्रेणियां होती हैं : () साधारण श्रेणी (2) स्टार श्रेणी और (3) विश्लेप श्रेणी ।
स्पूल भे जाने पर हर अपराधी को पहले साधारण श्रेणी मे रखा जाता है जहाँ कम
से कम तीन महीने तक उसके व्यवहार, स्वभाव, मानसिक लक्षण तथा वगये करने
की क्षमत्रा आदि का अवलोकत किया दाता है। इस श्रेणी मे रहने वाले बातक से
केवत बागवानी भादि जैसा छोटा मोटा कार्य लिया जाता है। उसे व्यवसाय सम्बन्धी
शिक्षा आदि नही मिलती ! अच्छे व्यवहार के उपरान्त उसकी स्टार श्षेणी मे पदोन्नति
कर दी जाती है जहाँ. फिर उसकी विद्येप स्टार श्रेणी मे पदोक्षति होती है। घ्स
श्रेणी बालों के कपड़े भी अलग ही होते हैं तथा उनको शहर में स्वतत्त्रतापुवेंक पाने
की सुविधा दी जाती है। स्फूल से रिहाई केवल उसी बालफ़ की मिलती है जो
विश्वेप स्टार श्रेणी तक पहुँच चुका होता है। इन तीन श्रेणियों के अलावा एक
दण्डनीय श्रेणी भी पायी जाती है जहाँ उन बच्चों को रखा जाता है जिनको स्कूल
के नियमों के उल्लंघन के कारण कोई दण्ड दिया जाता है। एक स्कूल में औसतन
700 से 650 बच्चों के रहने की व्यवस्था होतो है। 974 में सबसे कम अपराधियों
की संस्या केरल के वास्टंल स्कूल मे थी जहाँ दैनिक औसत केवल 83 ही था और
सबसे अधिक पंजाब के वार्स्टल में जहाँ दैनिक औसत 478 था ।/ इन स्कूलों में
पाए जाने वापे अपराधियों में से अधिक 28 से 2। वर्ष आयु के मिलते है, उसके
बाद 6-8 वर्ष के आयु के और सबसे कम 5-6 वर्ष आयु के। 965 में
में विभिन्न राज्यों के नौ वास्टंल स्कूलों मे रसे गए 492 अपराधियों मे से 60
प्रतिशत 8-28 वर्ष के आयु-समूह के थे, 30 प्रतिद्यत 6-8 बे के आयु समृह
के, और 0 प्रतिशत 5-6 वर्य के आयु-समूह के थे।/ एक अपराधी पर
औसतन 60 रुपये प्रत्ति माह व्यय किया जाता हे जो सापारण जेल मे रहने वलि
अपराधी से लगभग ढेढ गुना है। इन स्वूलों में दो धण्टे की शिक्षा के अतिरिक्त 5-6
धण्ठे के लिए कोई व्यवसाय सम्बन्धी प्रशिक्षण भी दिया जाता है। अपराधी को
बएं में 25 दिन की घर जाने की छुट्टी भी दी जाती है। इसके अतिरिक्त रिश्तेदारों
आदि से सम्पर्क स्थापित रसने के लिए उसको पत्र लिखने व महीने में एक बार
माता-पिता अयवा रिदतेदारों आदि को स्कूल के अन्दर मिलने की भी सुविधा रहती
है। स्कूल से छूटने से कुछ महीने पूर्व अधीक्षक को मुक्त बन्दी सहायता समिति को
सूचित करना पड़ता है जिससे वह अपराधी के पुनर्वास की पूरी व्यवस्था कर सके ।
रिफारमेटरी पौर मान्यता-प्राप्त विशेष विद्यालय--इन स्कूलों मे 7 और 6
४ 04., 53. कै
57 /#ं८ै,, 54. गा
92 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
वर्ष के वीच के आयु के बच्चों को रखा जाता है। इनमें भी वच्चों के अनुशासन पर
बल देने के अतिरिक्त शिक्षा व उपयोगी दस्तकारी तथा औद्योगिक प्रश्चिक्षण की
व्यवस्था मिलती है । ये स्कूल कुछ सरकारी और कुछ निजी पाए जाते हैं परन्तु निजी
स्कूली को सरकार द्वारा आथिक सहायता दी जाती है । पहले इस स्कूलों की स्थापना
भारत सरकार द्वारा 876 में नियमित और आयु सीमा बढाने हेतु [897 में
संशोधित सुधारालय स्वूल अधिनियम (7४णिप्ाथा०१५ इता०ण ४०) के अस्तर्गत
की जानी थी परन्तु 4920 के बाद विभिन्न राज्यों में वाल अधिनियम पास कर
अपराधी बच्चों को इन रिफारमेटरी स्वूली मे रखने की व्यवस्था की गयी है। मद्रास
ने वाल अधिनियम 92। में पास किया था जिसके बाद बंगाल (922), वम्बई
(924 और फिर 948), उडीसा, पंजाब, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों तथा दिल्ली
(94) आदि केन्ध प्रद्यासित क्षेत्रों ने भी ऐसे विधेयक प्रास किये) राजस्थान
में भी 969 में विधान सभा में इससे सम्बन्धित विल रखा जा चुका है, जिसके
97[-72 के पूर्व पारित होने की आशा है ।
परिवीक्षा होस्टल (?70090४00 80५०(६)--जिन वाल अपराधियों को
न्यायालय परिवीक्षण पर रिहा करते है और जिनके माता-पिता नहीं होते या जिनके
लिए उनके परिवार का वातावरण रहने योग्य नही समझा जाता उनकी इन परिवीक्षा
होम्टल में रखा जाता है। इन होस्टलों में रहने वाले निवासियों को नौकरी अथवा
व्यवसाय करने की तथा घूमने-फिरने की पूर्ण स्वत्तत्त्रता होती है। केवल रात के
समय उनके लिए होस्टल में रहना अनिवाय होता है। परन्तु इसका यह अर्य भी
नहीं कि उत पर कोई नियम्त्रण ही नही होता । उनके व्यवहार आदि के लिए होस्टल
का कार्यवाहक ही हर तरह से उत्तरदायी होता है [
इस पूरे विश्लेषण के आधार पर अन्त में यह कहा जा सकता है कि बाल-
अपराध में परिवार, पडीस, स्कूल आदि समूहो के महत्त्व को देसते हुए इसका सम्पूर्ण
निवारण असम्भव सा ही तगता है| साथ में जो वाल अपराधियों के सुधार के लिए
प्रयाश्त किये जा रहे है वे भी अपर्याप्त है । अपराध उत्पन्न करने वाले पारिवारिक
पर्यावरण को नियन्त्रित करने के लिए बाल पथ-प्रदर्शव विल्लनिक थे परिवार परामशे
सस्थाओं की स्थापना, तथा माता-पिता द्वारा सन््ताव को यौन-शिक्षा देना अत्यन्त
आवश्यक है। वाल-क्लिनिक माता-पिता को बच्चों के पालन-पोषण आदि की सही
शिक्षा प्रदान करेंगे जिससे उतके सन््तान के प्रति निर्देयता, उपेक्षा व दुव्पेबहार को
रोका जा सके तथा परिवार-परामर्श संस्थाएँ पति-परत्वि के गलतफहमी आदि को
दूर कर उनके सम्बन्धों को नियन्त्रित करेंगे जिससे उनके सघपंमय सम्बन्धी का
बच्चों पर स्राव प्रभाव रोका जा सके | स्कूच के वातावरण को प्रगुण व सर्वसाधक
अध्यापको के वियुक्ति पर बल देकर, मनोरंजन के सही साधन उपलब्ध कर व शिक्षा
प्रणाली के दोप दूर कर, नियन्त्रित किया जा सकता है। पडोस में बच्चो का
अपराधी गिरोहों से सम्पर्क रोकने के लिए मनोरंजन के साधन उपलब्ध करना
हे आवश्यक है। इसके लिए वम्बई, पटना, हैदराबाद तथा मद्रास जैसे पुलिस द्वारा
वाल अपराध 93
प्रवन्धित वाल-नलव सभी बड़े नगरों में स्थापित किये जा सकते है। इसी प्रकार
जैसे बम्वई मे वाल अपराधियों के प्रबन्ध के लिए विशेष वाच-सहायक-पुलिस यूनिद
स्थापित किये गये हैं बसे ही ग्ूनिट सभी राज्यों के लिए आवश्यक है । विद्यमान
न्यायिक प्रणाली के दोपो को भी सामाजिक जाँच पर अधिक महत्त्व देने तथा थोड़े
समय के लिए काशवास के बजाय परिवीक्षण पर रखने पर वल देने आदि जैसे प्रयत्नों
द्वारा तथा निःशुल्क कानूनी सहायता प्रदान करने से दूर किया जा सकता है। अन्त
में यह कहा जा सकता है कि पर्यावरण का नियन्त्रण, भावी बाल अपराधियों को
दूँढ निकालना तथा बार-यार अपराध करने वालों के लिए दण्ड की व्यवस्था करना
हो बास-अपराधी समस्या को नियन्त्रित करने में सहायक हो सकते है ।
रथ मिक्षावृत्त
(8६26087२7]
भिक्षावृत्ति विचलित व्यवहार का एक रूप है परन्तु यह अपराध से भिन्न है।
अपराध हानि पहुंचने वाले व्यक्तियों की सूचता के वर्गर किया जाता है और यदि
उनदो ज्ञान भी होता है तो भी उनकी इच्छा के व्रिद्ध एवं उनके विरोध करने पर
भी किया जाता है । दूसरी ओर, मिक्षातत्ति समाज के सदक्यों की मौत सहमति से
ही सम्भव है ! हर समाज में कुछ ऐसे ब्यक्ति पाये जाते हूँ जो अपनी आवश्यकतवाओी
की पूति नही कर सकते जिसके कारण वे अन्य लोगो पर आशित रहते हैं ! ऐसे कुछ
बच्चे, बूढ़े, बीमार आदि पराधीन व्यक्तियों की आवश्यकताएँ परिवार आदि ज॑से
सस्थात्मक ढाँचे द्वारा पूरी की जाती हैं । परन्तु कुछ ऐसे भी अधीन व निर्भर व्यक्ति
है जिनके लिए समाज ने किसी सस्थात्मक व्यवस्था का प्रावधान नहीं किया है।
इनमे से कुछ 'मौग' कर अपती आवश्यकताएँ पूरी करते हैं। इस मायने” का एक रूप
पभिक्षा' है ।
मिक्षातृत्ति में तीव कार्य पाये जाते हैं---
(4) माँगने का कार्य--सहायता धन अथवा वस्तुओं के रूप में व्यक्तिगत
आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उन व्यक्तियों से मांगी जाती है जिनको विधिवत्
कानून अथवा व्यक्तिगत सम्वन्धों के कारण देने के लिए बाध्य नहीं किया णा सकेता |
(2) देने का कार्य --सहायता घन अथवा क्स््तुओं के रूप में बिता किसी
तात्कालिक मौलिक लाभ की आशा के उन व्यक्तियों को दी जाती है, जो उसको पाने
के लिए कानून अथवा व्यक्तिगत सम्बन्धों के कारण विवश्य नही कर सकते ।
(3) लेने का कार्य--सहायता धन अथवा वस्तुओं के रूप में बिना वापस
करने के विचार से अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने वे! लिए उन व्यक्तियों से सी
जाती है जिसते कानून व व्यक्तिगत सम्बन्धों के आधार पर विधिवत् बलपुर्वक प्राप्त
नहीं कर सऊते ।
भिक्षावृत्ति मे इन मॉँगने, देने और लेने के तीनों कार्यों मे पारस्परिक सम्बन्ध
पाया द्वाता है ! परन्तु गोरे द्वारा किये गये अध्ययन के अतिरिक्त अन्य जितने भी
भिश्चादृत्ति पर अध्ययन हुए हैं उनमें केवल 'माँगने के कार्य” पर ही बल दिया गया
३७09०, कै, 3., 76 झटए2रत 2776टक हर ै(लकक्रदवबा 226, लए इ्टोएग
ग३०शय! १४०४, ए॥रग5ा३ ए॑ 02०॥7, 959, 7+-75.
भिक्षावृत्ति 95
है, देने के कार्य! पर नही, जिस कारण विभिन्न विचारक भिक्षातृत्ति की समस्या को
वैज्ञानिक दृष्टि से समझा नहीं पाये हैं। यहाँ हम माँयने और लेने के कार्यों के अलावा
देने का कार्य! भी अध्ययन करेंगे।
देने वाले का कार्य
भिक्षात्ृत्ति की समस्या को व्यवहार की एक श्रक्रिया के रूप में भीख माँगने'
और देने वाले व्यक्तियों के आपसी सम्बन्धों व अन्तःक्रिया के आधार पर ही अच्छी
तरह समझा जा सकता है। भिक्षावृत्ति में देने का कार्य! एक सस्थागत व्यावहारिक
प्रतिमान के रूप में एफ मुस्य उद्देश्य की पूति करता है। यह उद्देश्य है उन
व्यक्तियों फी आवश्यकताएँ पूरी करना जो स्वयं उनको पुरा नही कर सकते । गोरे
ने भी दान देने को एक सामाजिक कार्य बताया है ।। इस दान देने की क्रिया को न
केवल प्रथाओं और रूढ़ियों ने प्रोत्साहन दिया है, परन्तु धर्म ने भी इसे एक नैतिक
कार्य माना है, तथा अपने पापों के प्रायश्वित का एक साधन बताया है।
भारत में दान देने का एक बतिरिक्त घामिक महत्त्व भी है। सहायता देना
जाति-प्रथा की अ्थंब्यवस्था का एक मुल्य अंग माना गया है। वर्ण-व्यवस्था द्वारा
भी भिक्षा देने को एक प्रेरणा प्रदान की गयी है। आचीन काल में ब्राह्मण, धामिक
भिक्षुक, अपने भ्राताओं के दिये हुए दान से अपना पोषण करते थे। यहाँ देने के
कार्य! से अभिष्राय 'दक्षिणा' से नही है पर 'भिक्षा' से है। दक्षिणा ब्राह्मण की एक
विशेष कार्य करने के लिए फीस अथवा शुल्क के रूप में दी जाती है, जबकि भिक्षा
दान के रूप में एक उपहार है। शास्त्रो में ब्राह्मण को भिक्षा द्वारा अपने पोषण की
व्यवस्था करने की अनुमति इस कारण से दी गयी है जिससे वह आजीविका कमाने
के सांसारिक कार्य से मुक्त होकर अपना पूरा समय घामिक व आध्यात्मिक लक्ष्यो की
प्राप्ति मैं व्यतीत कर सकें । मनुस्मृति मै ब्राह्मण के अतिरिक्त अन्य 'दुविजा' के लिए
भी “भिक्षामों को अपने व गुरू के लिए आजीविका के साधम जुटाने के जिए दस
मान्यता प्राप्त विधियों मे से एक बताया गया है। इस प्रकार हिन्दू समाज में दान
देने को न केवल प्रोत्साहित किया गया है परन्तु उसको जीवन का एक आवश्यक अंग
व लक्ष्य भी माना गया है ।
यद्यपि दान देना एक गुण व नैतिक कार्य है परन्तु अविवेकी (॥7056-
शांगधां6) दान देता खराब व हानिकारक है। गीता में तीन प्रकार के दान बताये गये
3... (क) बह दान जो कततेंव्य की भाववा पर आधारित है तथा जो किसी प्रतिफल
की प्रत्याश्ा के बिना दिया जाता है ! (ख) वह दान जो किसी लाभ की आशा पर
आधारित है। (ग) वह दान जो लेने वालों को क्षति पहुँचाने के उद्देश्य से दिया जावा
है। इनमें से पहले दाव को 'सात्विक' बताया गया है। दान देने का यह सात्विक
3 264, 72.
+ 5 4687, 78.
96 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवतेन
लक्षण न केवल देने वाले के संकल्प व लक्ष्य पर निर्धारित है परन्तु लेने वाले व्यक्ति
के आशय पर तथा देने के स्थात व समय पर भी । भ्रश्त यह है कि व्यक्ति, स्थान
और समय का उचित होना किस प्रकार मालूम किया जाये । शास्त्रों के अनुसार सबसे
योग्य व्यक्ति जिसकी दान दिया जाय वह ब्राह्मण है जो वेव और जास्त्रों का पण्डित
हो; देने का सर्वोचित स्थान तीर्थ-स्थान है; और देने का उचित समय सूर्य-ग्रहण है ।
यदि क्लिफोर्ड मैनशार्ड द्वारा भीख देने के छः कारणों के आधार पर दान
देने की स्वीकृति तथा अनुमोदनीय कार्य को देखें तव ही वह दान साल्विक होगा जो
धामिक उद्देश्य से दिया जाता है। मेनशाई ने भीय देने के छः कारण इस प्रकार
बताये हैः--
() घामसिक कारण--धर्म द्वारा भिक्षा देने को एक पुष्य का कार्य बताया
गया है | इस कारण कुछ लोग मोक्ष की प्राप्ति के लिए भीख देते है ।
(2) प्रथा की अ्भिमतति व निर्देश के कारण--कुछ स्थितियों मे भीख इस
कारण दी जाती है क्योंकि उन अवसरो पर भोख देना एक प्रथा मानी गयी है ।
(3) व्यक्तिगत कारण--कुछ लोग मानसिक प्रसन्नता पाते, व्यक्तिगत लाभ
उठाने व् शिखारी की दुआ पाकर अपनी इच्छा को पूरा करने जैसे व्यक्तिगत कारणों
के कारण भिक्षानदान करते है ।
(4) भय के कारण--मभिखारी के कोसने से क्षति पहुँचने का भय भी कुछ
लोगों को भीख देने के लिए वाध्य करता है।
(5) तारक्षणिक करुणा व सहानुभूति के कारण--किसी अन्धे, अंगहीन, कोढ़ी
व विकृत व्यक्ति को देखकर एकदम दया आने के कारण उसको भीख दी जाती है।
(6) अपनी अ्रमीरी दिखाने के कारण--करुछ धनी लोग केवल अपनी अभीरी
दिखाने के कारण हो भीख देते हैं ।
परन्तु दान देने के काये के उचित व सात्विक होने का यह अथेनि्णय बतेमान
समय के सामाजिक सन्दर्भ में अनुरूप नही है। अब केवल 'दान देने का कार्य” नहीं
परन्तु बहू 'अविवेको दान देने का कार्य! जो आलस्थ को प्रोत्साहित करता है, व्याख्या
के तिए अधिक अनुरूप माना जाता है । इस कारण भिक्षावृत्ति की समस्या का
विश्लेषण दान देने के कार्य के अध्ययन ब्रिना आजकर व्यर्थ व अनुपयोगी होगा ।
यद्यपि दान देता हम-भावगा व आतूृभाव की वढाता है परन्तु भिक्षाबरत्ति
सामाजिक अह्तित्व के आशिक वाधार के लिए हानिकारक है। भिखारी देने वाले
की सहानुभूति व संवेदना प्राप्त करता है पर आदर वे मान नहीं | इस प्रकार यद्यपि
दैने का कार्य अथवा दान भव भी सदाचार व नेतिक कार्य है परन्तु अविवेकी दान
को नियन्त्रित करके उसका संस्थात्मक निर्माण करना होगा ।
समाजपास्त्रीय दृष्दि से इस प्रकार हम भिक्षादत्ति में निम्न बातों का
$ (ीताव 59395, 4733 ००११ ० शोगाोडन्हांशंहएी', व्णर्त 99 उग्र
83 00303% [ज मं बापएार टड्ाजत्धणा व०शजाए ६0. पल्शडवाओा गे 0५ 97846 ॥06%
ईशा सपे,. एचकता३99३, 3, कै, एबछैताव ७०॥६७७०॥ 8.0., 3 00039, 943, 65.
भिक्षावृत्ति £8॥
अध्ययन करते हैं--() दान माँगने, देने और लेने के कार्यों के आधार का अध्ययन ।
(2) समाज के उस परिव्यक्त व निराश्रय समूह का अध्ययन जो मलितता व नैराश्य
का जीवन व्यतीत कर रहा है । (3) भिखारियो की सन्तान के व्यक्तित्व के बिकास
की समस्या का अध्ययन | (4) भिक्षावृत्ति के कारण समाज के लिए मानवीय साधन
(#ए॥)8॥ 72500702$) की अनुपयोगिता की समस्या तथा समाज में विद्यमाव साधन
पर भार की समस्या का अध्ययन । (5) भिक्षादेच्ति के कारण अपराध आदि जेसी
सामाजिक समस्याओ के उत्पन्न होने की समस्या का अध्ययन ।
इन्ही समस्याओं के अध्ययन हेतु हम दान लेने और देने वाले व्यक्तियों के
पारस्परिक सम्बन्ध तथा इन व्यक्तियों और समाज के आपसी सम्बन्धों के अध्ययन
की पृष्ठभूमि में भिक्षावृत्ति का समाजश्ञास्त्रीय विश्लेषण करते है ।
भिक्षावृत्ति की घारणा
कानूनी दृष्टि से भिक्षावृत्ति को किसी व्यक्ति द्वारा साबंजनिक तथा निर्जन
स्थान में भीख माँगना बताया गया है। 960 के केन्द्रीय बाल-अधिनियम में भी
इसी लक्षण पर बल दिया गया है ।* कानून उस व्यक्ति को भिखारी मानता है---
(क) जिसकी आजीविका का साधन भीख माँगना हो । (ख) जिसके निर्वाह के साधन
का पता स्वच्छन्द रूप से न लगता हो। (ग) जो भीख माँगने के लिए घर-घर अथवा
सार्वजनिक स्थानों पर घूमता-फिरता हो ।
इस परिभाषा के आधार पर 93! की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार
भारत में लगभग 4 लाख भिखारी थे जबकि 95 के आँकडो के अनुसार इनको
संख्या केवल 5 लाख थी। 96] में यह 86793 थी और 97] में यह
घटकर 747397 हो गयी ।* कुछ विद्वानों की यह मान्यता है कि पूरे भारत में
इनकी संख्या 5 और 20 लाख के मध्य में है। कुछ क्षेत्रों और शहरों में सर्वेक्षण
करके वहाँ पाये जाने वाले भिखारियों की सही सख्या मालूम करने के भी प्रयत्ल
किये गये हैं ) यह सर्वेक्षण न केवल उनकी संखुया परन्तु उनके सामाजिक लक्षण,
भीस मौँगने के कारण, तथा व्यावसायिक सस्थाओं आदि का भी वर्णन करते है।
मुख्य सर्वेक्षण उत्तर प्रदेश, बम्वई, दिल्ली और हैदरावाद में हुए हैं। उत्तर प्रदेश मे
49889 में समाज-कत्याण विभाग ने (4५५३, तगरो में एक सर्वेक्षण करवाया था
&
#*50ध्राधराइ 07 7९९शराेग्रड बँताड की 8 फ़्वणांल फॉउलट 0. सालाएड़ 05 279
पषोरण८ छाधाएंउ6३ 4070 9एक7०5०5 0 500लंएफड 07 उचटटाीयाड बधाई, एाशगीरर प्रवर्तलत
प्राह ए/च९॥९९ 0 अंगहाए8,- एंवल॑ंवड, लि।फरार-थफिड, >ल/गिफराड पगि:5 ०7 थाई
ग्रापलेल5 07 0फ्ैशजाइट €॒)०ञतट छा स्गणाताह, ऋाति धराढ ठछुलट। 0 00वग्रंग३ 07
बच्यॉणाएगगड ॥)॥75$, बह 508, ७०एावे, छंपार, 2 0 05९४०, ४ तार 0 धातवा-
इषी! 07 0 था३ 0प्ल फलाइणा 08 ० 89 बरवांप23] ; बी9जएढ ठमटइलॉ 70 9६ प्रः८० 85 बा
ब्पंणा 0 पढ़ एप्चर०३० ठी 5०ाटंधाड 00 7९एथंशंपड बाप,
3566 उएटॉंवा 0टटिवलल्श साफ फ्ेफल्वप ण एगाव्याजतां 507शंव्टड, ८
एचाम॑, 0०. 4965, एज. 4, 3२०. 2, 48 शा0 ध/वकंप्रआब्व 77/2०3, 5 #फ्ा, 973.
98 सामाजिक समस्याएँ और सामा्िक परिवर्तन
जिससे ज्ञात हुआ कि इन पाँच शहरों में कुल 2272 भिखारी हैं जो इन शहरों की
कुल जनसंरया का केवल 0-4 प्रतिशत है ।? दिल्ली में एम० एस० गोरे ने 959
में भिश्नारियों का अध्ययन किया और यह पाया कि वहाँ कुल लगभग 2454
भिसारी हैं बम्बई में ऐसा सर्वेक्षण मूर्थीर द्वारा 4959 में और हैदराबाद में
आयंगर' द्वारा 959 में किया गया था । इन्ही दिल्ली, बम्बई और लखनऊ के
सर्वेक्षणों के आधार पर हम अब भिसारियों के कुछ मुस्य सामाजिक स्क्षणों का
विश्लेषण करेंगे
सामाजिक लक्षण
() पूरे देश में महिला भिखारियों की अपेक्षा पुरुष भिखारियों की संख्या
बहुत अधिक है। मारत में जब पुरुष भौर महिला भिसारियों का अनुपात 7* से
2'9 है,म गोरे द्वारा किये गये दिल्ली के अध्ययन में 600 में से 74 भ्रतिशत पुरुष
और 26 प्रतिशत महिला भिखारी पाये गये ।/ बम्बई में भूर्थी द्वारा किये गये'
सर्वेक्षण में 80 प्रतिशत पुरुष और 20 प्रतिदयत महिलाएँ पायी गयी।” लखनऊ में
सुशीत चद्धा के 400 भिख्रारियो के अध्ययन में 795 प्रतिशत पुरुष और 205
प्रतिशत महिलाएँ पायी गयीं ।/! पुरुष और महिला भिखारियों के इस अनुपात से
ने केवल भिखारियों की लिगीय कार्य-सम्वन्धी संरचना ज्ञात होती है पर यह भी
मालूम होता है कि औरतो की आर्थिक भूमिका (706) पुरुषों की अपेक्षा निष्क्रिय
(94$»५०) रहती है। इसके अतिरिक्त इस अनुपात के आघार पर हम तीन अन्य
व्याख्याएँ (४797०/80075) भी दे सकते हैं--(क) भिखारियों मे भी अन्य
व्यावक्षायिक समूहों की तरह प्रुरुप की व्यावक्राग्िक स्थिति ही परिवार फ्री आय का
प्रमुख साधन है। (ख) परित्यक्त व निराभ्य महिलाओ को पुरुषों की तुलना में उनके
सम्बन्धियों और परिचितों द्वारा अथवा किसी सामाजिक संस्था से अधिक सहारा व
संरक्षण मिल जाता है। (ग) सम्मवतः अधिकांश परित्यक्त स्त्रियाँ आजीविका कमाने
के लिए वेश्यावृत्ति आदि जैसे धन्धें अपनाती हैं।
१ कशछ०7 णी पा एसडॉएथाता 00छत्राएव्ढड 09 3502 शल्रद्विल, 0०0. रण
एफ, ए., 960, के
3006, )ं, 8., ०४. ०/-
+ (०0779, ज, २., ऊच्डश्क 7#०ॉलि। गरि. फर्श अग्काशव>, िर्ीबरा
(एजाडिशा४४ 67 5009 ५४0, 959.
30 ५९०8९०, 8. (८५३५०, कक गा व ठी2टॉ०-एटमाणाल दावे मय 54९9 व
5एश मेच्टड्वाज लि ऑीकलद्रशवर्व 5०८क्रार्वगतवरहबर्व॑ (02 ##2०, एविधा वार रण
छ९०70गरांप5, छं॥0९ए४0७३7, 9359.
586 0906, ७. $., ०0. शा 49.
फ उह्ध्व,
० ००99, |/. ९., ०. ८६, 5.
35 500 (ग्रह, $7ठर्जगह> गण 9वगाक्राएह के बाग, करत एपजजशाऊ
# आणणा०१७, 967, 740.
भिक्षावृत्ति 99
(2) अधिकांश भिखारी जवान और अधेड़ अवस्था के होते हैं | कुल भिखारियों
में से लगभग आये 20 और 40 वर्ष के चीच की आयु के और लगभग तीन-चौथाई 45
और 55 वर्ष के बीच की आयु के पाये गये है । लखनऊ के सर्वेक्षण में भिखारियों की
ओऔद्धत आयु 36-37 च्षं पायी गयी,* तथा यह दिल्ली और बम्बई सर्वेक्षणों में भी लग-
भग इतनी ही थी |! इसी प्रकार लिंग के आधार पर पुरुष और महिला भिखारियों की
औसत आयु में भी अधिक अन्तर नही मिलता । तीनों सर्वेक्षणों में पुरुष भिखारियों
के 36-37 औसत आयु की तुलना में महिला भिखारियो की 35-44 औसत आयु
पायी गयी । भिखारियों का आयु सम्बन्धी यह लक्षण एक मुख्य समाजशास्त्रीय
आलेस्य प्रस्तुत करता है। 20-40 आयु-समृह में व्यक्ति मे व केवल काम करने की
अधिक शक्ति व योग्यता होती है परन्तु इस आयु में युवा होने के कारण भिखारी एक
अभिनेता का कार्य भी अच्छा कर सकता है, जो जैसा कि आगे स्पष्ट किया गया है,
भिक्षा-प्रार्यगा अथवा भीख माँगने की अपील मे महत्त्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त
भिक्षावृत्ति विधिबत् उस झशव काल अथवा बुढापे में अधिक मिलनी चाहिए जब
व्यक्ति दूसरों पर अधिक आश्रित होता 'है और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के
अभाव में भिक्षावृत्ति जैसे साधन अपनाता है। परन्तु यौवन और अधेड़ अवस्था मे
भिक्षावृत्ति का अधिक मिलना यह सिद्ध करता है कि पराधीनता अथवा शक्तिहीनता
भीख भाँगने के कारण नही हो सकते ।
«जा इडजा (प्रतिशत मे)
लखनऊ सर्वेक्षण िलली सर्वेक्षण बम्बई सर्वेक्षण
करा सना कक हिल कलह. पर जनसंख्या का ः कुल जनसद्या का (हट हिं। कुल जनसब्या का दिट |
संख्या प्रतिशत दि ममूह-सख्या प्रतिशत| समूहू-संध्या प्रतिशत |
. हिन्दू 58 66 407 प33 845 7604 83:68
2, मुसतमान 34 03 290 ह3 305 446] वक्टा
3. ईसाई 43| 03 55 50 235 शव
(3) यद्यपि अधिकांश भिसादी निम्म जातियों के हिन्दू मिलते हैं परम्तु
मुसलमान, ईसाई आदि भिखारियों की संस्या भी उनको अपनी कुत जनसंख्या की
तुलना में कम नही है । इससे यह ज्ञात होता है कि यह घारणा कि मुसलमानों और
और ईसाई आदि में भिक्षावृत्ति इसलिए कम मिलती है क्योंकि उन धर्मों में इसकी
मान्यता नहीं है गलत है । लखनऊ, दिल्ली और वम्बई के सर्वेक्षण भी इस तथ्य की
पुष्टि करते है!” जैसा कि उपयूक्त सारणी से स्पष्ट है ।
२ 4887., 42,
35 (308, ७६. 8., ००. ८॥., 27.
मै? 5एचश (एबाता3, कक. हां. 44-45; 56, 2४. $., ०. 28., 26, १00789,
कै, ५., ०2. ८/., 8.
]00 सामाजिक समस्याएँ और सामाशिक परिवर्तन
(4) अधिकांश भिसारी न केवल विवाहित हैं परन्तु उनके परिवार का
आकार भी बड़ा है। हर दस भियारियों में से पाँच विवाहित, तीन विधवा, विधुर,
अथवा परित्यक्त और दो अविवाहित पाये गये । परिवार में औसतन 5-6 सदस्य
मिलते है । इसका अर्थ यह हुआ कि भिसारियों का स्वयं का व्यक्तित्त तो विघटित
होता हो है परन्तु विवाह और सन्तान द्वारा समाज के लिए और अधिक समस्याएं व
विघटित व्यक्तित्व वाले व्यक्ति पैदा करते हैं। इस सन्दर्भ में वया भिसारियों के लिए
समाज मे सन्तानोत्पत्ति सम्बन्ध यूजिनेक (८४९८४८०) प्रोग्राम सहायक हो सकता है
अथवा नही यह एक मुख्य समाजश्ञास्त्रीय प्रश्न है। इसके अतिरिक्त परित्यामित
भिखारियों की सस्या भी यह बताती है कि वहुत भियारी जीवन के विधदटित
वातावरण में रह रहे है ।
(5) एक राज्य में एक स्थान पर पाये जाने वाले भिखारी उसी क्षेत्र के
निवासी कम और बाहर से आने वाले प्रदासी अधिक होते हैं ॥ उदाहरणतया दिल्ली
में गोरे द्वारा अध्ययन किये गये भिखारियों में से 4 प्रतिशत तमिलवाडु और उत्तर
प्रदेश के रहने वाले थे, 5 प्रतिशत दिल्ली के, 2 प्रतिशत पंजाब के, 8 प्रतिशत
मध्य प्रदेश और विहार के, तथा शेप 24 प्रतिशत राजस्थान, बंगाल, गुजरात व
अन्य राज्यो के थे //* भिखारियों की इस रचना का उनके पारस्परिक सम्बन्धों पर
बहुत प्रभाव पड़ता है जो समाजश्यास्त्रीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है
(6) सभी भिखारी पूरे समय के लिए भीस नही माँग्ते अपितु कुछ कभी
कभी भीख माँगने का कार्य करते है। जँसे कुछ भिखारी केवल मंगलवार अथवा
शनिवार को ही भीख मॉँगते हैं और कुछ फिर केवल सूर्य-ग्रहण आदि जेंसे अवसरों
पर | इसी प्रकार सभी भिखारी अकेले ही भीख नही माँगते | कुछ आपस मे मिलकर
व समूह बनाकर भीख माँगते हैं। परन्तु कभी-कभी भीख माँगने वाले और समूह
बनाकर मॉँगने वाले भिस्तारियों की संख्या अधिक नही है। दिल्ली के सर्वेक्षण मे कुल .
अध्ययन किये गये भिखारियो मे से केवल 0 प्रतिशत कभी-कभी माँगने वाले भिखारी
पाये गये 2 प्रतिशत वे भिखारी थे जो समूहो मे भीख माँगते थे ॥*
भिक्षा-अपील
भिखारियों के व्यक्तित्व के अध्ययन का एक मुख्य आधार उनके भीख माँगने
के तरीके हैं। भीख माँयने मे भिखारी मानव-स्वमभाव मे पायी जाने वालो भावनाओं
तथा देने वाले के व्यक्तित्व के झीघ्रतः प्रभावित होने वाले लक्षणों की अपील करता
है । कभी वह सीधे रूप में व्यक्ति के दया, भाव और सहानुभूति की भावताओं को
अयील करता है, कभी घामिक चेतना को, कभी संरक्षण की इच्छा को, कभी अविनोम
की प्रवल आकाक्षाओं को, तो कभी पंतुक स्नेह की प्रवृत्ति को । इसी तरह कभी वह
25 (5७55, हर, 8 , ०9, €४.. 25-22.
3९ इ७7., 30-3.
भिक्षावृत्ति १07
अपने लिए अथवा अपने क्षुधा-पीडित परिवार के सदस्यों के लिए रक्षा-प्राप्ति करने
का प्रयतल्त करता है, तो कभी अपनी बीमारी, भाग्यहीवता, सम्बन्धी की मृत्यु अथवा
निर्धनता व निराश्यता के आधार पर दया चाहता है। दुसरे शब्दों मे, भोख माँगने की
प्रार्थना के तरीके, आध्यात्मिक विचारों, श्रेष्ठ व्यक्ति की हीन व्यक्ति के प्रति विरस्कार-
पूर्ण करणा, पारलौकिक व भौतिक सुख की इच्छा तथा सनन््तान के लिए स्नेह आदि
जैसी विभिन्न मानवीय भावनाओं की अपील करते हैं। इस आधार पर हम कह सकते
है कि भिखारियों की अपील में तीन मुख्य लक्षण मिलते है--(क) अपील ध्यान
आकपित करती है। (स) अपील आन्तरिक भावनाओं को जगाती है। (ग) अपील देने
वाले के हुदय में भिखारी की आवश्यकताओं के प्रति सहानुभूति उत्पन्न करती है।
सुशील चन्द्रा ने भी अबने 400 भिखारियों के अध्ययर्न में भीख माँगने की
अपील में निम्न तरीके पाये :*" (अ) भिक्षादान से सम्बन्धी भावनाओं की अपीक्षू--
4%; (आ) धर्म और ईइवर के नाम पर अपील--24%; (इ) विरूपता, घाव व
शारीरिक वबाघा का प्रदर्शन--26%; (ई) असहायता व नैराइय आदि जताकर दया
प्राप्त करता-- 8%; और, (उ) किसी अपील बिना भीख माँगना--28% ।
सेन गुप्ता का भी कहना है कि भिखारी के भीख माँगने की अपील में एक
मनोवैज्ञानिक तरीका मिलता है। उसमे भीख माँगने की प्रार्थना के दो मुस्य तरीके
बताये है?--
(क) परिवर्ततशील विधि--मिसारी अपनी वाणी, भाषा, बोलने के ढंग,
गामन में सुर लगाने की क्रिया और मुंह बनाने के तरीके आदि को बदलता रहता है
जिससे वह जो अपील द्वारा अथ्थे प्रकट करना चाहता है वह कर सके । एक सफल
भिखारी एक अच्छा अभिनेता होता है । जिस प्रकार एक अच्छा अभिनेता श्रोतागण
के हर सदस्य को एक व्यक्तिगत सन्देश पहुँचाता दिखाई देता है, इसी तरह एक
सफल भिखारी हर समीप से जाने वाले व्यक्ति को लक्ष्य करके व्यक्तिगत अपील
करता मिलता है। अपनी भाग्यहीनता की कहानी को सिसक-सिसक कर, रोकर
अधिक प्रभावश्चाली बनाता है । कण्ठ की ध्वनि के उतार-चढ़ाव से, बैठने के तरीके
बदलने से तथा आँखें नचाने आदि से वह अलग-अलग प्रभाव उत्पन्न करता है।
(खत) परिस्थिति--भीख माँगने की अपीय परिस्थिति के आधार पर भी
बदलती रहती है। शिव के मन्दिर के बाहर शिव की आराधना करता है तो विष्णु
के देवालय के बाहर बेप्णव बन जाता है। होटल के आगे अपने को अकाल से पीड़ित
बताता है तो घर के आगे बीमारी से पीड़ित । घामिक अवसर पर धर्म और ईश्वर
के नाम अपील करता है तो अन्य अवसरों पर मनोवँज्ञानिक और अन्य भावनाओं की
अपील करता है।
30 80 एफ्गाप३, ०, थे, )62.
॥ (0969, 7. र,, 'फॉलाड प्रोद्ोड 5 ऐ८8205, 04 #धह9०/ ०५ ५
कुणाहका3 999 3. ै,, ०7 ८४, 29.
802 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
भिखारी व्यक्तित्व
उपर्युक्त चिश्लेषण से हमे न केवल भिखारी के च्यक्तिव (#व्ट8क॥
ए०४०४४१५) का आभास होता है परन्तु इस विवरण के आधार पर हम “पाँच
प्रकार वे भिखारो-व्यक्तित्व भी देख सकते हैं---
(!) नैष्ठिक व धामिक टाइप--इस प्रकार के भिखारी भिक्षा देने के धामिक
कर्तेब्य पर बल देते है । ये भिखारी यह प्रदर्शित करते है कि वे हमें कर्तव्यन्पालन का
अवसर देकर हमारे ऊपर उपकार करते हैं तथा हम उन्हें धन देकर कोई अहसान
नहीं करते । उनके व्यक्तित्व मे एक अधीवता का लक्षण मिलता है जो सम्भवत:
बचपन के दोपपूर्ण परलन-पोषण के कारण पैदा होता है। ऐसे व्यक्तित्व वाले भिखारी
यदि भीख भाँगना छोड़ देंगे तो सही देख-रेख के अभाव में शाशवत (एथए«०४)
निर्भरता के लक्षण के कारण चोरी जैसे अपराध करेंगे ।
(2) चतुर दाइप--ये भिसारी दान देने के बदले में सासारिक लाभ व सुलल
देने का विश्वास दिलाते है। इन भिसारियों के व्यक्तित्व में चतुराई, बुद्धि,
समभदारी निपुणता आदि णैसे तक्षण अधिक मिलते हैं।
(3) करुणामय टाइप--ये दया और करुणा जैसी आस्तरिक प्रेरणा को
जगाकर हमारी सहानुभूति और रक्षण प्राप्त करने का प्रयत्न करते है। ये विभिन्न
प्रकार की भाववाओं व प्रवृत्तियों को उत्पन्न कर व्यक्तियों से दान लेते हैं ।
(4) ऋूर टाइप---ये अपने को असहाय, भाग्यहीन व दयनीय प्रदर्शित कर
भीख माँगते है। इस प्रकार के भिखारियो के व्यक्तित्व मे क्र व्यवहार द्वारा प्रसन्नता
पैदा करने का सक्षण (7950८ांध्ा) मिलता है। यह वह लक्षण है जो व्यक्ति को
शारीरिक पीड़ा वे ग्राचता सहन करने को आनन््ददायकः बनाता है।
(5) बाधित टाइप--ये भिखारी वास्तव में अन्धापन, कोढ आदि वाघाओं के
कारण कमाने के अयोग्य होते की वजह से भीख माँगते हैं। ऐसे लोगो की अपील मे
कभी-कभी केवल भुननुनाहट मिलती हें । इनके व्यक्तित्व का एक लक्षण यह भी होता
हैं कि इनका मस्तिष्क हमेशा शैशव स्तर पर कार्य करता मिलता है जिस कारण
उनकी अपील में बच्चो जैसी भाषा व तोतवापन (#89708) मिलता है।
डा० सुशील चस्दा ने भी भिखारियों के व्यक्तित्व-साम्बन्धी लक्षणों का अध्ययन
किया भरा । उसने पाया कि 69 प्रतिशत भिखारी यूथवासी (हाध्ट्रशांण४), 522
प्रतिशत फुर्तीलि और 54:8 प्रतिशत साहसी है । इसके विपरीत उसने 6-8 प्रतिशत
गम्भीर, 608 प्रतिशत विनम्र, 5-8 प्रतिशत अन्तर्मुखी (#70ए८:८), 678
प्रतिशत दयालु और 60 प्रतिशत स्वार्थी पाये ॥?
रहने के स्थान के आस-पास का स्वाध्याय
अधिकांध भिसारी गन्दी बस्तियों अथवा मन्दिर, मस्जिद, नदी-धाद आदि
४ ७७5७॥ (४508॥3, ०४. ०॥॥., 58.
सिक्षावृत्ति 703
जैसे सार्वजनिक स्थानों में रहते हैं । भहर की परिधि या खुलो जगहों में रहने वाले
भिखारियों को संख्या बहुत कम होती है। व्यक्ति के आस-पास के पर्यावरण उसके
व्यक्तित्त और जीवन को बहुत प्रभावित करते हैं। जिन स्थानों में भिसारी रहते हैं
थे उनके सामाजिक सम्बन्धो, मूल्यों और जीवन के लक्ष्यों को निर्धारित करते है । हर
स्थान की अपनी ही उप-संस्कृति होती है । यही कारण है कि विघटित उप-संस्कृति
वाले स्थान पर रहने वाला व्यक्ति जब एक वार भिक्षावृत्ति को अपनाता हैं तो उसका
धीरे-धीरे विघटन होता जाता है। गन्दी बस्तियों में रहमे वाले भिखारियों की संख्या
लसनऊ और दिल्ली के सर्वेक्षणों मे क्रमशः 33 8 प्रतिशत जौर 43-4 प्रतिशत पायी
गयी, जबकि सार्वजनिक स्थानों में रहने वालों की संख्या क्रमशः 40 प्रतिशत और
245 प्रतिशत थी । खुले स्थानों में रहने वालो को संख्या 62 प्रतिशत और 422
प्रतिशत थी, तथा दाहर की परिधि मे रहने वालों की संस्या 20"0 प्रतिशत और
8-2 प्रतिशत थी ।१* भिसारियों की गन्दी कोपड़ियों व टीन के छायादार स्थानों को
देखते हुए हम कह सकते हैँ कि वे अवभानस (५४०-।घ४७॥) परिस्थितियों भें रहते
हैं । सार्वजनिक स्थानों और खुली जगहों में रहने के कारण भिसारियो के उपयोग की
वस्तुएं अधम और तुच्छ ही होती हैं । ऐसे अवमानस जीवन का उनके व्यक्तित्व पर
चुरा प्रभाव पड़ना निश्चित ही है ।
झाधिक स्थिति
भिखारियों के अवमानस स्तर से उनकी आय फा भी आभास होता है।
अधिकाश भिखारी एक रुपया प्रतिदिंन से कम ही पाते हैं, यद्यपि ऐसे भी भिखारी
मिले हैं जो मरने के उपरान्त हजारो और तसाखों की सम्पत्ति अपने पीछे छोड़ गये
है। भिखारी की आय वास्तव मे उसके व्यक्तित्व और माँगने के तरीके पर निर्भेर
करती है । शारीरिक रूप से बाधित भिखारी स्वस्थ (४06-०0०००) भिखारियो की
तुलना में अधिक ही कमाते हैं । दिल्ली और लखनऊ के अध्ययन भी इसी बात की
पुष्टि करते हैं। एक स्वस्थ भिखारी की श्रतिदिनत की आय लखनऊ में 0:6] रुपए
तथा दिल्ली में 0:75 रुपए पायी गयी जबकि एक शारीरिक रूप से बाधित सिखारी
की आय *4 तथा 0:85 रुपए पायी गयी ॥+
औसतन एक मिखारी की प्रतिदिन की आय एक रुपए से कुछ कम पायी
गयी । इन सर्वेक्षणों से यह भी ज्ञात होता है कि एक औसत भिखारी, एक औसत
कृषक श्रमिक की अपेक्षा अधिक ही कमाता है (954 में एक किसान की औसत
देमिक आय :09 रुपए थी) 8
नकदी के अतिरिक्त भिखारियों को अपक्च (१29) खाना, पका हुआ भोजन,
ऊकारा 50; ठग, का 3., ०. २/.. 09,
3५ 505 एशाश्याव/5, ०9, ८४. 57; "८, #ै. 9., ०. ८॥., 57.
38 8॥] ]0073 68पंएएंत्ताडई। [.80०प्रा ६&70घा३ एणणा[|€०८, 954,
१04 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
तथा कपड़े क्षादि भी भिक्षा में मिलते हैं परन्तु यह चीजें घरों में माँगने वालों को
अधिक मिलती है और ऐसे भिखारियों की संख्या कम ही होती है । अधिकांश भिखारी
सार्वजनिक स्थानों और बाजारों में ही मांगते फिरते हैं। गोरे के दिल्ली के सर्वेक्षण में
पाया गया कि 56 प्रतिशत भिखारी बाजारों मे भीख माँगते है, 5'5 प्रतिशव
मन्दिरों, रेलवे स्टेशनों और बस स्टापों आदि जैसे सार्वजनिक स्थानों में, तथा कैवल
3 प्रतिशत घरों में //* फिर भी भोरे का विचार है कि लगभग आधे भिखारियो की
खाने-सम्बन्धी आवश्यकताएँ लोगों द्वारा हो पूरी होती हैं।
फिर ऐसे भी भिखारी है जो समूह बनाकर भीख माँगते हैँ यद्यपि अकेले भीख
माँगने वालों की संस्या अधिक है। दिल्ली के सर्वेक्षण के अनुसार 776 प्रतिशत
भिखारी व्यक्तिगत रूप से भीख माँग रहे थे और 2*2 प्रतिशत समूहों में ।!” समूहों
में माँगने चालों की आय व्यक्तिगत रूप से माँगने वालों की तुलना में अधिक ही
होती है।
यहाँ मुछ्य चात यह है कि यदि हम यह मानें कि भिखारी की औसत आय
75 पैसे और । रुपए के बीच है तब प्रतिदिन लाखी रुपए हमारे देश में दान के रूप
में दिया जाता है। इस धन को अगर हम देश की अर्थव्यवस्था (708007089) के
सन्दर्भ में देखें तो शात होगा कि किस प्रकार हमारी राष्ट्रीय आय का काफी अंश
व्यर्थ हो रहा है। यदि इसी को एक संगठित रूप में व्यय किया जाये तो उससे न
केवल भिक्षावृत्ति जैसी सामाजिक समस्याएँ हो हल होंगी परन्तु देश भी उन्नति
करेगा । गोरे का भी कहना है कि इस धन को सही विनियोग नहीं माना जा सकता
क्योकि इसका समुदाय के उत्पादन-सम्बन्धी प्रयत्नों में कुछ भी अंशदान नहीं है #*
भिक्षावृत्ति के कारण
भिक्षाद्रत्ति को वेयक्तिक विधटन का एक रूप बताया जा सकता है क्योंकि
व्यक्ति अपने को सामाजिक पर्यावरण के समायोजन में असफल पाता है। परन्तु यदि
हम समाज को सस्पुर्णता के दृष्टिकोण से देख तो भिक्षवृत्ति की समस्या की दो ओर
की प्रकृति (जा ॥/ए7८) मिलेगी । एक ओर व्यक्ति का व्यक्तित्व है तो दूसरी
ओर समाज की संरचना । दोनों की जटिल अन्त.क्रिया (॥0धा0॥४ ग7/000007) के
कारण ही समाज में समसयाएँ उत्पन्न होती हैं। जो शक्तियाँ सामाजिक विघटन
उत्पन्न करती हैं वे ही वैयक्तिक विघदन के भी कारण होती हैँ । इस कारण वैयक्तिक
विघटन के विश्लेषण मे समाजशास्त्री व्यक्ति को कम भह॒त्त्व देकर समाज व समूहों
3९ (3076, ६. 9., ०7 4॥/., 59.
जयक्षव,
बढ बपुप्ांड दडएटाए/पराढ गरात५ 9९ 00६०0 - चकृुणा 35 3 €०गाएंटाट 98४6 ०
गबत07वी इलडठपा०2३$, 0204७5६ 30 00८5 ॥00 890 ब्लाएशग]॥ह ५0 [तट उल्डणॉ5 ० घो6
छाण्ठफलार चीठच्तड णी प्रोट ८०म्राश्ाप्रणाज,. ६ एशाएता 02 ८297520 85 था ए९१ वादा
संपाल-.... प्रहताटाएाद फ्ैटार ६०पाँवे ॥ण ऐड 8 5ध०0तए८7 ९१5८ छा 0हग0विष्द लीबावाज-ँ
भिक्षावृत्ति 05
को अधिक महत्त्व देते हैं। वे वेयक्तिक विघटन के विभिन्न रूपी को सामूहिक प्रघटना
(87079 छथाणाणाणा) के सन्दर्भ में ही देखते है और इसी सन्दर्भ में वे
सामाजिक पर्यावरण का भी अध्ययन करते है जिससे उनसे पायो जाने वाली उन
सामाजिक शक्तियों को बता सके जो सामाजिक और वेयक्तिक विघटन पैदा करती
हैं। भिक्षावृत्ति को भी एक सामाजिक श्रघटना के रूप-में अध्ययन करने में हमें सम्पूर्ण
सांस्कृतिक रूपरेखाग्रों (८णा/पात्व ००शी४ए०४४०॥) का अन्वेषण करना होगा अथवा
विभिन्न सामाजिक समस्याओं की तरह भिक्षावृत्ति के कारणो के अध्ययन में भी हमें
बहु-कारक सिद्धान्त (गाणाएफध्न४७४०४ 9997०४७)) जपनाना होगा । भिक्षावृत्ति के
कारण अशतः सामाजिक तथा अंद्तः आ्िक, शारीरिक, धार्मिक, मनोवैज्ञानिक व
प्राकृतिक बताये जाते है ॥ अधिकाशत: भीख के कारणों के विहलेपण में यह कहा
जाता है कि व्यक्ति गरीबी, विच्छिन्न परिवार, निराश्रयता, शारीरिक व मानसिक
* बाघा, बचपन में समुचित मार्गे-दर्शन के अभाव, रोग आदि के कारण भीख माँगते
हैं। परन्तु इस प्रकार का विश्लेषण सही नहीं है। दिये गये विभिन्न कारण आपस
में अलग-अलग नही होते अथवा उनका पारस्परिक सम्बन्ध होता है। जो भिखारी
नेत्रहीन है वह निराश्रय भी हो सकता है तथा जो निराभ्रय है वह शारीरिक बाधा
से भी पीड़ित हो सकता है। यदि यह भी माना जाये कि विभिन्न कारणी का अल्वर-
सम्बन्ध नही है तथा यह कारक अलग-अलग कार्य करते है तब भी यह दहाना
असंम्भव है कि इन कारकों में से कौनसा एक कारक भिक्षावृत्ति में प्रमुख व पर्वात
है। वैज्ञानिक रूप से भिक्षावृत्ति के कारण मालूम करने के लिए यह तरीछाय अधिक
.उचित होगा कि कुछ लक्षणों का चमन किया जाये और फ़िर यह मादूस डिय्रा जाये
कि इनमें से दी हुई जनसंख्या में कौन-कौन से लक्षण उपलब्ध हैं। स्टाहरद्वया यह
माल्दुभ किया जा सकता है कि कितने भिखारियों के परिवार वदिब्छिन्न परिवार थे,
कितवे शारीरिक रूप से बाधित थे, कितने फ़िस्ी सेद् मे पीड़ित | कोटि । इस तरह
स्रेणीवद्ध करने से यह पता लग सकता है कि विदेयट: इट-डीन में कारक सिक्षा-
वृत्ति में अमुख हैं। परन्तु इस विधि में भी एड दोप हैं । झात कोजिए हम यह वाले
हैं कि अधिकांश भिखारी शारीरिक झुप से दाबिट हैँ; दद बढ़ कढ़ता बिल्कुल अनुचित
होगा कि शारीरिक वाघा ही भिक्षावत्ति का नत्य कादर ई दर्वोकि मनी बारी
06 सामाजिक समस्याएँ और सामाशिक परिवर्तन
विवरण किया गया है । गोरे ने अपने अध्ययन में भिक्षावृत्ति फे निम्न कारण पाये--
कारण | शास्पा | प्रतिशत
के के कारण पनोपाजन पी क्षमता पो बैठना पल प्रा:
ध्यापार में नुकसान
परिवार के आजीविका फरमाने याले सदस्य भी बल) 92 34
अभिभावक द्वारा परित्याय 78 300
छुप्ठ रोग 70 4]:66
धामिक आदेश 33 उठा
दूमरे व्यक्तियों द्वारा प्रलोभन 27 450
माता-पिता या अभिषावको की मृत्यु 27 4350
परिवार से हस्ताम्तरित भिक्षावृत्ति 25 4726
प्राकृतिक राकट 4 | 350
अपयप्ति आय ॥7 2583
अन्य उत्तर 63 4733
अजशात फारण 38 634
योग | 600 | 400 00
८7
___._. /ऋफऋ$फऋफऊऋऊऋऊऋऊऋ_औ_>_/औ _र_ _॑ि॑ि््॒# [ चअकआऔ्न्जि--5
सुशील घद्दा ने भिक्षादृत्ति को अपनाने से पहले भिखारियों के ब्यवसायों का
अध्ययन किया था जिसमें उसने पाया कि 400 भिखारियों के व्यदसाय इस प्रकार
थे*"--..भिक्षावृत्ति में पालन-पोपण--32'2%; खेती--8'8%; स्वतन्भ व्यापार
था व्यवसाय--3.2%; मजबूर व नौकर का कार्य--0 8%; इक्का तांगा वे
रिक्शा चलाना--0:8%; कोई व्यवसाय नहीं (विधवा, अनाथ आदि)--7'.0%;
भूतपूर्व सैनिक---4:0%; ग्रायक और नतेक--:2%; तथा साधु और जोगी--
20% ]
इससे ज्ञात होता है कि हर तीसरे भिखारी का भिक्षावृत्ति मे ही पालन-
पोषण हुआ था। इन व्यक्तियों को माता-पिता द्वारा ही भीख माँगने की शिक्षा
मिलती है। सुशील चन्द्रा ने अपने अध्ययन मे यह पाया कि 35 प्रतिशत भिखारी
किसी बाधा से पीड़ित थे (जैसे अन्धे, बहरे, गूंगे और मावसिक रूप से रोगी और
शारीरिक रूप से दुर्वेल व्यक्ति) ।४ मूर्थी ने 62 अतिक्षत को मानसिक रूप से बाधित
पाया ।* इनमे से अधिकाश भिखारियों की बाधाएं पेतृकता द्वारा प्राप्त नहीों अपितु
पर्यावरण ह्वारा पर्याप्त थी । इन बाघाओ के कारण वे खेती आदि करने के अयोग्य
हो जाते हैं और निर्धतता तथा दीन-अवस्था के कारण किसी संस्थात्मक देखभाल
और पुनर्वास के साधनों के अभाव मे भिक्षावृत्ति को अपनाते हैं।
इन अध्ययनों के आधार पर बब यदि हम साम्राजिक, आथिक, घामिक,
२० 0:4., 46.
3० 599च॥ (एफ्बावा३, कर. ला। + 54.
*९ 84., 59.
# की0०709, ४. ए., ००9. ८8 7
भिक्षावृत्ति 07
शारीरिक, मनोवैज्ञानिक तथा प्राकृतिक कारको को देखें जिनके संग्रह (००॥87-
ग्शांणा) से भिक्षावृत्ति की समस्या उत्पन्न होती है तो हम यह कह सकते है कि
सामाजिक कारकों में परम्परागत व्यवक्षाय, विधटित परिवार, विधवापन था विधुरता,
अभिभावक द्वारा परित्याग आदि प्रमुख है। इसी तरह शारीरिक कारणों मे बुढ़ापा
और दुर्बलता; दयारीरिक व मानसिक बाधा, असाध्य रोग, आकस्मिक दुर्घटना आदि
जैसे कारक, मनोवैज्ञानिक कारणों में मैराश्य व पराजय, आलस्य और कार्य करने
की अनिच्छा, समाज से अलग रहने की इच्छा आदि जैसे कारक; आर्थिक कारणों में
निर्धनता व दरिद्रता, बेरोजगारी, सामाजिक सुरक्षा का अभाव, कृषपि-भूमि पर
आधिक दवाव, व्यवसाय मे असफतता आदि जैसे कारक; धाभिक कारणों में दान देने
की घार्मिक स्वीकृति, लोगो की सर्वंजनोपकारी घारणा, कर्म के सिद्धान्त मे विश्वास,
दान देकर पापों का प्रायश्चित करने की मान्यता, करुणा की भावना आदि जैसे
कारक; और प्राकृतिक प्रलयो मे अकाल, जल-प्रलय, भूकम्प, संक्रामक रोग जैसे कारक
प्रमुख हैं। इन ,कारको के संग्रह से ही वे विचार, धारणाएँ, आदते व तात्कालिक
परिस्थितियाँ उत्पन्न होती है जो व्यक्ति को भिक्षावृत्ति की ओर अग्रसर करती है।
भिखारियों के प्रकार
भिस्तारियों का आयु, भीख माँगने के कारणों, भिक्षा साँगने की विधियों व
शरीर की योग्यता आदि के भिन्न-भिन्न आधारों पर वर्गीकरण विया जा सकता है।
आयु के आधार पर उनका किशोर और वयस्क भिखारियों में वर्मीकरण इस कारण
आवद्यक है क्योकि इस आधार पर उनके पुनर्वास के अलग-अलग तरीके निश्चित
किसे जा सकते हैं। दोनों को फिर उनकी शारीरिक योग्यता के आधार पर चार
उप-्समूह्दों मे विभाजित किया जा सकता है--शारीरिक रूप से बाधित, मानसिक
रूप से दुरवेल, संक्रामक रोग से पीड़ित, व स्वस्थ भियारी । स्वस्थ भिस्रारियों के फिर
चार प्रकार दिये जा सकते हैँ--धामिक भिक्षुक, भ्रमणकारी भिक्षुक, परम्पशागत
भिक्षुक और निरृव्यापार व आलसी भिक्षुक ।
कामा ने बिना किसी विश्येष कारक को आधार मानफर तथा सभी कारन
को इकट्ठा करके पदन्वह प्रकार के भिसारी बताये हूँ जिनमें कुछ प्रमुख हैं---शारीरिक
रूप से वाधित भिखारी, मानसिक रूप से दुर्बल भिखारी, धामिक भिसारी, स्वस्थ
भिसारी, रोग से पीड़ित भिखारी, सेवायुक्त भिखारी तथा सोलह वर्ष से कम का
बाल-भिसारी आदि ।े
जॉत टकर (770८7) मे रहने के स्थाव के आधार पर तीत प्रकार के भिखारी
बताये हैं'--() स्थान परिवर्तित करके एक क्षेत्र छोड़कर दूसरे क्षेत्र में आकर रहने
११ (३09, ऋब्धाज्णा ह., च्रा॒ए७ ण एटडड्गार, 06 डद्धहदा 7०4८०, ९6,
अऋष्यावाबाप्, 7. है, ००. त॑४ , 2. ऐ
2 पृश्चंटा, वात, 50, 30509 #गाव उक्कग्शः००, 4923, (००१६४ 8५ (0३709,
79«९६.,2.
08 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
कार्य करने वाले मजदुर । इनको टकर ने 'होवो” (४०8००) का माम दिया है।
(2) वे व्यक्ति जो अमण करते रहते हैं और कोई कार्य नहीं करते । इनको उसने
द्रेग्प/ (7४गा05) बताया हैं। (3) वे व्यक्ति जो रहने का स्थान तो नही बदलते
परन्तु बिना किसी उद्देश्य के इधर-उधर धूमते रहते है और कोई कार्य नही करते
हैं । इनको उसने 'बम्स” (७घा)$) बताया है।
एंडरसन ने फिर पांच प्रकार के भिसारी बताये हैं*--मौसमी मजदूर,
प्रवासी सामयिक मजदूर, प्रवासी काम न करने वाले व्यक्ति, एक ही स्थान पर रहने
व कभी-कभी काम करने वाले मजदूर तथा एक ही स्थान पर रहने काम न करने '
वाले व्यक्ति
गोरे ने दिल्ली में 600 भिखारियों के अध्ययन में मिम्न प्रकार का विभाजन
(प्रतिशत मे) पाया*--.. हु
() धामिक मिक्षुक
(क) स्वस्थ 6:5
(ख) शारीरिक रूप से बाधित 25
(2) प्रधामिक स्वस्थ मिल्लुक 445
(3) श्रधासिक शारीरिक रूप से बाधित सिक्षुक
(क) मानसिक रूप से बाधित 40
(ख) शारीरिक रूप से बाधित 67 7
(ग) कृष्ठ रोग से पीड़ित 8-8
योग 00:0
भिक्षावृत्ति, पारिवारिक सम्बन्ध और सामाजिक पृथकत्व
किसी भी मानवी घटना में पारिवारिक सम्वन्धो का मूल्य कम ऑकना
अनुचित होगा । भिक्षादृत्ति में भी परिवार का महत्त्व अधिक है। यहाँ परिवार से
अभिप्राय माता-विता के परिवार तथा विवाह से उत्तन्न परिवार दोनो से है। परल्तु
क्योकि अधिकाश भिखारी जवान और अधेड़-अवस्था के तया विवाहित मिलते हैं,
इस कारण हम भिक्षाप्रत्ति की समस्या के विश्लेषण से विवाह से उत्पन्न परिवार पर
अधिक वेल देंगे । लखनऊ में सुशील चन्द्रा द्वारा किये गये अध्ययन में 400 में से
33 प्रतिशव भिखारी अविवाहित पाये गये, 40-5 प्रतिशत विवाहित, 205 प्रतिद्यत
विधवा-विधुर और 60 प्रतिशत जीवन-साथी से पृथक् ।*
परिवार का औसत आकार यद्यत्रि 4-8 सदस्य पाया गया परच्धु 35'
प्रतिशत परिवारों मे त्तीन से कम सदस्य ये, 4-8 प्रतिशत में 4 और ० के बीच,
४+ #०99९7509, धृषपए/८१ ४५ (53, ०#, ल/.
3० (507९, 0. 8. ००. ८7. 28:
जा $0चच। (१३96578, ०7 ८॥#+ 45.
भिक्षावृत्ति 09
20-2 प्रतिश्मत में 7 और 0 के वीच और 25 प्रतिशत में 4] और उससे ऊपर ॥*
. इसके अतिरिक्त सुशील चन्द्रा ने भिखारी परिवारों के निम्न लक्षण भी पाये--
() परिवार अधिकांशत: एकांकी है जिसमे पति-पत्नी और उनकी अविवाहित
सस्तान पायी जाती है। (2) परिवार के लगभग सभी सदस्य अपनी आजीविका भीख
से प्राप्त करते है। (3) पति-पत्नी और उसकी सन्तान एक-दूसरे पर आश्रित नहीं
होते क्योकि सभी सदस्य स्वयं कमाते है। इस आर्थिक स्वाधीनता के कारण परिवार
के भुद्धिया का सदस्यों पर कोई नियन्त्रण नही होता ।*
साधारणतया यह कहा जा सकता है कि जो एक भिखारी परिवार के सगठन
और काये करने का आलेख्य मिलता है वह एक प्रृथक् (०शंभं॥००) ओर विधटित
परिवार का ही है जो अन्य रक्त सम्बन्धी आदि समुहो से सामाजिक हृष्टि से पृथक्
(४००ंथा9 4508(०0) है. और एक समभाव इकाई (॥#ण7०8थ॥९०७४ एश) की
तरह कार्य नही करता है। इस सामाजिक प्रथक्करण के कारण भिखारी अपने को
एकाकी (500॥60) अनुभव करता है जिसका उसके सामाजिक नियमों को अपनाने
तथा व्यक्तित्व के विकास पर विपरीत प्रभाव पड़ता है जिसके कारण कुछ व्यक्ति
विचल व्यवहार को भी अपनाते है । गोरे ने 600 भिखारियों के अध्ययन में पाया
कि 3 प्रतिशत भिखारी ऐसे है जो बिल्कुल प्ृथक् है तथा जितका परिवार आदि से
कोई सम्पर्क नही है, 7 प्रतिशत ऐसे हैं जो सामाजिक सम्बन्धों के प्रति लापरवाह
है तथा जिनके बहुत कम लोगों से सम्बन्ध हैं (7धथ]०७०५ 7075) और 22
प्रतिश्चत ऐसे है जिनके यद्यपि व्यक्तिगत मित्र भादि हैं परन्तु परिवार के सदस्यों और
अन्य रक्त सम्बन्धियों से सम्बन्ध नही हैं ।४०
सुशील चर्द्रा ने भिखारियों के उनके माता-पिता, पति-पत्नी, सन््तान और
भाई-वहन से सम्बन्धों के अध्ययत में पाया कि अधिकाश भिखारियों के इन व्यक्तियों
से सावन्ध है ही नही ! सबिस्तार वर्णन इस प्रकार था४---
(प्रविशत में)
सम्बन्ध सामंजस्य असामजस्य | सम्बन्धो का
५; सम्बन्ध सम्बन्ध अभाव योग
(]) माता-पिता से सम्बन्ध 28 48 54 00
(2) पवि-पत्ली से सम्बन्ध 26 शव 50 400
(3) सन््तान से सम्बन्ध 48 52 ३0 १00
(4) भाई-बहन से सम्बन्ध शा 29 44 00
लक ल+तततनतनन नीम न नननन- नमन न -+नन+-न-न---ल----जनन--मन समन न-न-पीननन-मतनन नमन 4५००» नमन वन-नन-न «मन.
हा 4 , ]46,
ऊ उ््व,
+$१596, १, 5., ०7, ०॥., 98.
४ $फञ्ी (फ्श्तता३, 0/- ८., 448,
4|0 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
मूर्थी ने भी अपने अध्ययन मे यह पाया कि बम्बई में अधिकांश शिखारियों
के अपने माता-पिता से सम्पर्या नही है तथा आवश्यकता पड़ने पर भिखारी को अपने
रक्त-सम्बन्धियों से कोई सहायता नहीं मिलती है; यहाँ तक कि 80 प्रतिशत
मिखारियो ने यह कहा कि वे न तो रक्त-सम्बन्धियों से किसी सहायता की आशा
करते है और न स्वयं उनको कोई सहायता देना चाहते हैं ४?
सामाजिक सम्बन्धी के अभाव में बहुत से भिखारी भावनात्मक निर्धनता
अनुभव करते हैं और सामाजिक दृष्टि से अज्ञात जीवन व्यतीत कर रहे हैं। यह
सामाजिक पृथकत्व भिखारी को भिक्षुक समाज के नियमों का पालन करने के लिए
बाध्य नही करता ।
प्रइन यह है कि व्यक्ति परिवार से सम्बन्ध खत्म होने के बाद भिक्षावृत्ति को
अपनाता है तथा इन सम्बन्धों के समाप्ति के पहले ही वह भीस माँगने का कार्य कर
रहा होता है। तथ्य यह है कि कुछ व्यक्ति भिक्षातृत्ति को व्यवसाय अपनाने के कारण
परिवार से सम्बन्ध त्तोड देते है तो कुछ परिवार से सम्बन्ध खत्म होने के कारण ही
भिक्षावृत्ति को अपनाते है। ह
गोरे के अध्ययन से ज्ञात होता है कि लगभग एक-तिहाई (3] प्रतिशत)
भिखारियों ने परिवार से सम्बन्ध हटने के बाद ही भिक्षावृत्ति को अपनाया ।** परन्तु
इसका यह् अथं भी नही है कि परिवार से पृथक होने के कारण ही व्यक्ति भिक्षावृत्ति
को अपनाते है। हम केवल इतना कह सकते हैं कि परिवार से पृथक्करण भिक्षावृत्ति
को अपनाने का एक मुख्य कारण है। भिखारियों के परिवार से सम्बन्ध हटने के
कारक प्राकृतिक विपत्ति, दी्घकालीन बेरोजगारी, पर्याप्त कोढ रोग, व्यापार में
नुकसान, अभिभावक की मृत्यु, पति-पत्नी द्वारा परित्याग आदि हो सकते हैं।
गोरे ने परिवार से पृथक् होते के कारण और प्रृथक् होने के उपरान्त भिक्षा-
सृत्ति को अपनाने के निम्न तथ्य दिये हैं+-- (विद मे)
| शधावृत्ति को | चिक्षाबृत्ति को
कारण संख्या | स्वार से | अपनाने से पहले | अपनाने के बाद
दृषक्त्व अलग होना अलग होना
(]) प्राकृतिक विर्षत्त £4 40 5 25
(2) दीघेंकालीन बे गेजगारी ॥ 42 शव 42
(3) पर्याष्व कुष्ड रोग 720 | 50 29 डड
(4) अभिभावक की मृत्यु थ्य 66 | [4
(5) ध्यापार में नुकसान 92 | 73 40 १
(6) पति/पलनी द्वारा परित्याग है] 86 50 3
5 कनु०009, चि. ९., ०9. ८६, 53.
४ 507९, ०, 5., ०2. ८४., 99.
5९ ।8व., 02-03.
भिक्षावृत्ति
परिवार से पृथक्करण का कारण कुछ भी हो यह चिश्चित है कि रक्त-
सम्बन्धियों से सम्बन्ध न होना तथा सामाजिक प्रथकत्व भिखारियों के सामाजिक
जीवन का एक मुख्य लक्षण है। परन्तु यह स्मरण रसना चाहिये कि भिखारियों का
गह पृथक्क्रण अपने रक्त-सम्बन्धियों से ही पाया जाता है। जहाँ तक भिजारियों के
आपसी सम्बस्धों का प्रइन है उनमें हम भावना व सामुदायिक भावना (०णाशाएगरोल
इधा तप!) अधिक मिलती है। जो भिखारी गन्दी बस्तियों मे रहते है अथवा समूह
बनाकर भीख माँगते हैं उनमे आपसी हम-भावना ज्यादा पायी जाती है। उनके अपने
ही नियम व मूल्य होते हैं जो उनको न केवल जन-समाज से प्रथक् करते हैं परन्तु
उनके अपने सीमित समुदाय में एक स्वार्थता, समेव्य व एकता उत्पन्न करते हैं ।
अधिकतर यह भी देखा गया है कि जो भिखारी एक ही झारीरिक वाधिता से पीड़ित
होते है वे एक ही साथ रहना भी पसन्द करते हैं। इसी प्रकार घामिका भिक्षुकों का
भी अपना ही एक सामाजिक मण्डल (5०० ०४:०७) होता है। इनकी आपस भें
हम भावना ही इनके व्यावसायिक संगठनों (छ70६४अंणा/[ 0897754॥075) के
सदस्यों को एक सूत्र मे बाँधने का कार्य करती है।
व्यावसायिक संगठन
,... भिखारी आतृभाव (एल 0०/१९/०0००) की भावना के कारण भिखारियों
में कुछ व्यावसायिक संस्थायें मिलती हैं जो न केवल भिखारियों का शोषण व
अनुचित उपयोग करती है परन्तु निर्दोष व्यक्तियों की भी भिक्षाद्वत्ति व्यवसाभ् अपनाने
के लिए फोसाने का कार्य करती है। भिखारी संस्थाओं के मुस्य उद्देश्य सामूहिक
प्रयास द्वारा भीख माँगना, व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप से भीख माँग कर प्राप्त धन
को सामान्य निधि में जमा करता, अथवा सामान्य ग्रुरु व देवता का संयुक्त रूप से
पूजन करना आदि होते है । इसके अतिरिक्त यह संस्थायें देश के एफ विशेष भाग व
राज्य के रहने वाले मिखाश्यो में आतृभाव के सम्बन्ध स्थापित करने का भी प्रयास
करती हैँ जिससे सदस्य सरकार की कानूनी शक्तियों के विस्द एक सामूहिक ब संयुक्त
यबाव जुटा सके। संस्था के सदस्यों की व्यक्तिगत कठिनाइयों को सुलमाने तथा
भिक्षावृत्ति के व्यवसाय से झत्रुभाव बाते व्यक्तियों को हटाना भी इन संस्थाओं के
मुख्य कार्य होते हैं। यह संस्थाये कुछ अव्यवस्थित और सामयरिक व अविधिवंतु
होती है जो जल्दी टूट भी जाती हैं और कुछ समय पद्चात पुनः बन भी जाती हैं
भोर कुछ शक्तिशाली, व्यवस्यित, प्रादेशिक तथा साम्प्रदायिक होती हैं जो आसानी
से हूटती नहींहै। अधिकाश ये शक्तिशाली भिखारी संस्थायें वम्बई, दिल्ली,
मद्रास, कलकत्ता आदि बड़े झहरो में मिलती है। अव्यवस्यित सेस्थाये भेलीं
और त्यौहारों आदि के अवसरों पर झहरों में मिलती हैं जिसमें भिखारी व्यवस्यित
समूह बनाकर शहरों मे प्रवेश करते हैं। कुछ संस्यायें तो चोरी, राहुजनी, अपहरण
बादि जैसे अपराध भी करती हैं। इन संस्थाओं के अपने ही नियम व सूल्य होते हैं ।
नये रंगहटो को अपने जाल में फंसाकर उनको भीस मांगने आदि के तरीके सिसा
]42 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
कर उनको पेशेवर भिखारी वनने की शिक्षा दी जाती है। रंगरूट भरती करने का
काये पेशेवर भिखारियों द्वारा स्वयं वच्चों का अपहरण करके अथवा अन्य पेशेवर
अपराधियों द्वारा मोल करके किया जाता है। नये रंगरूट बच्चों का भीख माँगने मे
समाजीकरण उनके झरीर के अंग काटकर व आकृति विगाड़ कर अथवा गाने आदि
सिखा कर फिया जाता है। सदस्यों के व्यवहार को नियन्त्रित करने के लिए कठोर
अनुशासन के तरीके व दण्ड के नियम बनाये जाते है। किसी समारोह अथवा सफलता
को उत्सव के रूप में मनाने के लिए शराव आदि के जश्न किये जाते है। यद्यपि एक
ही भिखारी सस्था के सदस्य एक ही स्थान पर रहते हैं परन्तु ऐसी भी संस्थायें हैं
जिनके सदस्य सुरक्षा की दृष्टि से अलग-अलग रहते है और निश्चित् स्थान व समय
पर एकत्रित होकर दैनिक कार्य करते है। संस्था का मुखिया एक जवान ब अधेड़
आयु का स्वस्थ और सथक्त व्यक्ति ही होता है। यह मुखिया ही लुट आदि के माल
को बॉटने व नियम भंग करने वाले सदस्यों को दण्ड देने का कार्य करता है। इसकी
सहायता के लिए एक छोटा सा उप-समूह बनाया जाता है जो सदस्यो के व्यवहार
को नियन्त्रित करने के लिए मुखिया के आँख व कान' का कार्य करता है । मुलिया
और उसके सलाहकार संस्था के लिए 'मस्तिप्क' और “मांसल' (0080७) का कार्म
करते है। सम्था के सम्पर्क व्यापारियों आदि जैसे व्यक्तियो से भी होते हैं जिससे सदस्य
उनके द्वारा चोरी से प्राप्त माल बेच सकें। पुलिस आदि जैसे अधिकारियों से भी इस
कारण सस्था रिव्वत आदि देकर सम्पर्क स्थापित रखती है जिससे सदस्यों को आव-
श्यकता पडने पर बचाव व सुरक्षा प्रदान की जा सके । कुछ संस्थायें निश्चित लैतो
में ही कार्य करती है यद्यपि समय-समय पर इस क्षेत्र को विस्तृत करने का प्रयास भी
करती रहती हैं। उपर्युक्त लक्षणों के अतिरिक्त भिखारियों की व्यवसायिक संस्थाओं
के अन्य लक्षण इस प्रकार है--अधिकारो का केन्द्रीकरण, श्रम-विभाजतन, सहयोग
पर आधारित प्रयास और सावधानी से बनायी गयी योजनाये दि
इन लक्षणों के आधार पर भिखारियों की पेशेवर सस्थाओं और अपराधियों
के व्यवध्यित गिरोह मे अधिक अन्तर नही मिलता। दोनों ग्रुप्व रूप से काये करते
हैं, दोनो की सरचना पदसीवान (फ्रांदाशाण्याध्थो) आधार पर होती है, . दोनो में
नियन्त्रण का एकाधिपत्य पाया जाता है तथा दोनों झक्ति और हिंसा का प्रयोग
करते है। दोनो में अन्तर केवल इतना है कि भिखारियो की संस्थाओ का प्रत्यक्ष
व्यवसाय भीख माँगना है जो उनको अपनी सुरक्षा के लिए एक अच्छा साधन
उपलब्ध करता है जबकि सभी अपराधी पेशेवर गिरोहों को ऐसा बचाव सदा प्राप्त
नहीं होता ।
भिक्षावृत्ति सम्बन्धी कानून
सिक्षातृत्ति के उन्मूलव के लिए समय-समय पर कानून पास किये गये हैं।
इस कानूनों का तीव स्तरों पर विश्लेषण किया जा सकता है--केस्द्रीय स्तर पर,
राज्य स्तर पर, नथा स्थानीय स्तर पर |
भिक्षावृत्ति 443
केद्वोय स्तर पर कातून--क्रिमिनल प्रोसीजर कोड (एपणांगरश शि0०००प्र७
(०१४) में आवारागर्दी की रोकथाम की व्यवस्था है परन्तु आवारा झब्द यहाँ
दुश्चरित्र व्यक्तियों (0५0 ०ा४३०/०४४) के ऊपर लागू होता है, भिखारियों पर नही।
इस कारण यह कानून भिक्षा के रोकथाम के लिए विज्ेप सहायक नहीं है। इसी
प्रकार यूरोपियन आवारा व्यक्तियों के लिए 874 में एक यूरोपियन वैग्रेनसी
एक्ट (छण7्कृष्या एबड़ाक्वाए/ 8०) पास किया गया था। यहाँ आवारा! शब्द
भीख मागने वाले ग्रूरोपियन पर लागू होता है। इस तरह हम कह सकते हैं कि
केन्रीय स्तर पर भिक्षावृत्ति से सम्बन्धित सर्वप्रथम कानून 874 में पास हुआ,
यद्यपि यह केवल समाज के एक वर्ग पर ही लागू होता था। 898 में कुष्ठ
पीड़ित व्यक्तियों के लिए एक एक्ट (7.9८75 8०) पास किया गया। इस कानून
में सार्वजनिक स्थानों में भीख माँगने तथा घाव, विरूपता, पीड़ा अथवा रोग का
प्रदर्शन कर भीख प्राप्ति करने वाले कुप्ठ पीडित व्यक्तियों को पकड़ने की व्यवस्था
है। 94] में भारतीय रेलवे अधिनियम भी पास किया गया जिसके अमुसार
रैलवे की सीमा व गाड़ी में भीख माँगना निषेध ठहराया गया । )959 में भारतीय
, दण्ड सहिता (संशोधन) अधिनियम पास किया गया जिसके अनुसार भिक्षावृत्ति के
लिए बच्चों को भगाने और उनका अंग्र-भंग करने वाले व्यक्तियों और दलों को
दण्ड देने की व्यवस्था की गयी है।
राज्य स्तर पर--राज्य स्तर पर भिक्षवृत्ति निवारण कानून महाराष्ट्र
(945), आंध्र (945), विहार (952), ग्रुजरात (959), मद्रास (945),
मैसूर (944), बंगाल (943), केरल आदि में बनाये गये है । उत्तर प्रदेश, जम्मू-
काश्मीर, राजस्थान में ऐसे कानून वनाने पर विचार किया जा रहा है इनके अति-
रिक्त कुछ केन्द्रीय प्रशासित क्षेत्रों में भी भिक्षादृत्ति कानून बनाये गये हैं, उदाहरणतः
दिल्ली (960) तथा पाडेचेरी में ऐसे कानून मिलते हैं।
इन राज्य कानूनों के आधार पर किसी सार्वजनिक स्थान में जनता को दाने
देने के लिए किसी बहाने उकसाना या दान प्राप्त करते के लिए किसी निजी मकान
में प्रवेश करता अपराध घोषित किया गया है, जिसके लिए 50 से 00 रुपयों
तक जुर्माना तथा एक माह से तीन वर्षों तक कारावास का दण्ड दिया जा सकता
है वयस्क शिखाएरियों के पुनर्दास के किए इन उपनूतों मे कर्य करने योप्प भित्तारिमों
को कुछ वर्षों तक कार्य गहों (४०7८ ॥005०5) में रखते फी भी व्यवस्था की गयी
है। वाल भिखारियों को मान्यता प्राप्त स्वूलों मे रसने की भी व्यवस्था है ।
स्थानीय स्तर पर--स्थानीय स्तर पर भोपाल (947), कलकत्ता (!866)
भद्वास (833), उत्तर प्रदेश नगरपालिका अधिनियम (96), पंजाब नगरपालिका
अधिनियम (9व), अजमेर और मारवाड़ नगरपालिका अधिनियम (923) आदि
मिलते हैं। इनमें भी राज्य कानूनों की तरह जुर्माना करने तथा जेल य विद्येष गहों
में भेजने की व्यवस्था है । फ
उपर्युक्त विवरण के आधार पर यह कहा जा स्रकृता है कि पिछले 30 वर्षों
[4 सामाजिक समस्याएं और सामाजिक परिवर्तन
में भिक्षावृत्ति सम्बन्धी कानूनों में जो एक मुख्य परिवर्तन दिखायो देता है वह यह है
कि पहले जब भिक्षादृत्ति को जनोपद्रव (?४७॥० गए5७॥००) के जिए एक कानून और
व्यवस्था की समस्या समझा जाता था तथा जन-स्वास्थ्य के लिए एक विभीषिका
(#एश्रा806) के रूप मे देखा जाता था जिस कारण क्रिमिनल प्रोसीजर कोड, पुलिस
कानूनों, कुप्ट पीडित व्यक्तियों के लिए कानून और नगरपालिका कामूनों के अन्तर्गत
उनकी रोकथाम की व्यवस्था की गयी थी, अब भिक्षावृत्ति को एक अलग अपराध
सानकर उसके लिए अलग कानून बनाये जा रहे हैं। कानूतो के नाम ही (जैसे 945
का मद्गास भिक्षादृत्ति के रोकथाम के लिए अधिनियम, 952 का विहार भिक्षावृत्ति
अधिनियम आदि) बताते हैं कि भिक्षावृत्ति को रोकने के लिए पृथक प्रयास किये जा
रहे हैँ। दूसरा जो हमे कानूनों में परिवर्तन दिखाई देता है वह यह है कि भिक्षुकों के
प्रति इृष्टिकोण उनको दण्ड देने के वजाय सुधारने के प्रयत्व अपनाने पर बल देता है ।
परन्तु इसका यह अर्थ भी नही कि दण्ड का सिद्धान्त बिल्कुल समाप्त हो रहा है।
भिखारियों को दण्ड देकर उनको अन्य व्यक्तियों के लिए उदाहरण के रूप मे रखना
अब भी स्वीकार किया जा रहा है । कुछ भिखारियों को तो दण्ड पहले ,की अपेक्षा
और कठोर दिया जाता है ) तीसरा परिवर्तन काबूबो मे यह मिलता है कि अब से
केवल भिखारियों के लिए दण्ड की व्यवस्था मिलती है परन्तु व्यक्तियों को भीख
माँगने के लिए उकसाने वालों को भी । ट
सुधार व पुनर्वास
भिखारियो के पुनर्वास तथा भिक्षावृत्ति के निवारण के लिए कुछ राज्यों मे
विशेष योजवायें आरम्भ की गयी है ) कही पर भिखारियो को सरकारी तथा गैर-
सरकारी कल्याण सेवाओं के सरक्षण में सौप दिया गया है तो कही पर उनके सुरक्षा
*ब प्रशिक्षण के लिए भिक्षुक गृह स्थापित किये गये हैं। बम्बई जैसे राज्यों मे महिता
भिखारियों के लिए अलग महिला भिक्षुक सदन भी स्थापित किये गये है। महाराष्ट्र,
तमिलनाडु, मैसूर आदि राज्यों में उनके देखभाल के लिए अगवानो केन्द्र (7९०८ए४ंगा
८०॥॥25) भी खोले गये हैं| शारोरिक व मानसिक वाधा से पीड़ित भिखारियों के
लिकित्सा के लिए सदन तथा स्वस्थ भिखारियो के लिए कार्य-शिविर बनाये गये हैं ।
इन शिविरों में उन्हे शिल्प प्रशिक्षण देकर उपयोगी धन्धों में लगाने के प्रथत्त किये
जाते है। वम्बई में अगवानी केन्द्रों के साथ प्रशिक्षित पुलिस दस्ते भी सम्बद्ध किये
गये है जो द्ाहर में घुमकर सावेजनिक स्थानों से भिखारियों को पकड़कर केन्द्रो से
लाते हैं।
मिक्षुक गृह--महाराष्ट्र, मैसूर, तमिलनाडु, राजस्थान आदि राज्यों में जो
भिक्षुक गृह स्थापित किये गये हैं उनका उद्देश्य है कि भिखारियों को जैले न भेजकर
इन गूहों में रखने से उदको एक मनोवैज्ञानिक चिकित्सा मिल्रे॥ साथ में यह भी
माना छाता है कि भिक्षावृत्ति अन्य अपराधों से भिन्न है जिस कारण इसके राज्थात
के लिए तथा भिखारियों के सुधार के लिए भी विद्येप प्रयास किये जाने चाहिएँ जो
सिक्षवृत्ति 845
केवल विशेष रूप से स्थापित भिक्षुक गृहों में ही सम्भव हो सकते हैं। फिर जेल के
विपरीत भिक्षुक गृहों में व्यक्ति को निश्चित समय के लिए नही रखा जाता । जब भी
यह देखा जाता है कि भिखारी को आवश्यक शिक्षा व अ्रशिक्षण मिल चुका है उसे
गृह से छोड़ दिया जाता है । परल्तु राव जैसे कुछ व्यक्तियो* ने भिश्ुक गृहों के भलग
स्थापना के सिद्धान्त की आलोचना फी हैं। उनका एक तक है कि यह. जनसाधारण
के लिए आधिक बोभ है वयोकि जो रहन-सहन का स्तर गृहो के निवासियों के लिए
मिलता है वह जनता पर एक कर है और कानून को मानने वाले व्यक्तियों के निम्न
स्तर से कही ऊँचा है। दूसरा, यदि भिक्षावृत्ति को विशेष अपराध मानकर अलग
संस्थाओं की स्थापना का समर्थन करेंगे तो हर अपराध विश्येपष अपराध है जिस कारण
हर अपराध के लिए अलग सुधारात्मक संस्था होनी चाहिए जो सम्भव नही है!
तीसरा, भिखारियों को जेल में रखें अथवा भिक्षुक गृहो मे, उनके लिए दोनो स्थान
अनिवायं नजरबन्दी के स्थान है। चौथा, यह मान्यता कि जेल दण्ड देने के लिए
बनाये गये हैं और भिक्षुक गृह सुधारात्मक संस्थाएँ हैं केवल सँद्धान्तिक रूप में सही
है, वास्तविक रूप में नही । आलोचना के तके कसे भी हों परन्तु यह वास्तविकता
है कि जेलों की अपेक्षा यह भिक्षुक गृह भिखारियों के सुधार के लिए अधिक उपयोगी
सिद्ध हुए है ।
गोरे अ्रध्ययन टीम के सुझाव
4959 में योजना कमीझन के अनुसंघान प्रोग्राम कमेटी द्वारा निर्धारित
एक प्रोग्राम के अन्तर्गत गोरे अध्ययन टीम ने दिल्ली मे 600 भिसारियों का अध्ययन
कर भिखारियो के संस्थात्मक देख-भाल, प्रशिक्षण व पुनर्वास के लिए कुछ सुझाव
दिये थे जो इस प्रकार धे* :
() कुष्ठ रोग से पीडित, शारीरिक रूप मे वाधित, मानसिक रूप से दुर्वल,
बूढ़े तथा स्वस्थ किशोर व वयस्क भिखारियों के लिए अलग-मलग सुधारात्मक संस्थाएँ
स्थापित करनी चाहिएँ ।
(2) इन संस्थाओ में रहने वाले अधिकांश भिखारी सामान्य व्यवसाय करने
के थोग्य नही होंगे, इस वमरण ऐसे भिखारियों के लिए संस्था द्वारा स्थायी आधार
पर व्यवस्था करनी होगी | जो भिखारी कोई कला सीखने का कार्य कर राफ़ते हैं
उनके लिए सुघारात्मक प्रयत्तों के अतिरिक्त प्रशिक्षण की युविधाएँ भी उपलब्ध फरनो
होगी । शेप भिखारियों से खाना बनाने, चंपरासो का कार्य करने, रोगियो को देख-
भाल करने आदि का कार्य लेकर व्यय को कम किया जा सकता है।
(3) एक अग॒वानी केन्द्र (ल्०संघाड़ व्याए८) सोला जाये जहाँ गिरफ्तार
$ ए9०, 7, ॥२003753 304 8. 7२80, #वशवज ९. ५8८8847) 2700 ॥08 उय्ातातवीव-
(007 गा उम्लंग #लुक्रर का ववरदीग, ऐं3व7रए8 00फरग्ाडडरणा, 00980, 54709, _
9, 955, 307.
*» ४५ (0० $[. $ , ००. ८77., 27-9.
ब
]6 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
किये गये भिखारियों को रखा जा सके जिससे उनकी मानसिक और चिकित्सा सम्बन्धी
अध्ययन की व्यवस्था की जा सके ।
समस्या का समाघान >
भिक्षायृत्ति समाप्त करने के प्रयास कानूनों को उपयुक्त तरीके से लागू करने,
सामाजिक सुरक्षा व सामाजिक सहायता सम्बन्धी योजवाओ को आरम्भ करने,
व्यक्तियों के दान देने के घामिक व व्यक्तिगत विचारों में परिवर्तन करने आदि के
अतिरिक्त भिश्लारियों के स्वयं के इन धारणाओं पर अधिक निभेर करते हैं कि वे
भिक्षावृत्ति को छोडने के लिए इच्छुक हैं अथवा नही, तथा अपने सन्तान के भिक्षावृत्ति
अपनाने के प्रति उनके क्या विचार हैं। इसलिए सामाजिक, आ्िक आदि अयल्नों
(76887765$) के विश्लेषण से पूर्व हम भिखारियों के विचार समभने का प्रयास
करेंगे। गोरे ने अपने अध्ययन में इन विचारों को मालूम करने का प्रयत्न किया था ।
अध्ययन किये गये 600 भिखारियों में से ] प्रतिशत भिखारियों के भिक्षावृत्ति के
प्रति विचारों की स्थिति इस कारण मालुम न हो सकी क्योंकि इन्होंने प्रश्नों के उत्तर
ही नही दिये ) शेष 89 प्रतिशत (532 भिखारियो) ने निम्न विचार बताये४--
भिखावृत्ति पसन्द नहीं परन्तु अन्य कोई विकल्प व उपाय नहीं हैः+37% ;
भीख माँगता पसन्द है न्ः20% ;
भीख माँगना आदत वन गयी है ब_2% 5
माँगने व न माँगने के प्रति उदासीनता व लापरवाही म्+20%।
भिखावृत्ति को छोडने की इच्छा व अनिच्छा के प्रति विचार इस प्रकार पाये
गये हैं*--शिक्षादृत्ति को छोड़ने के लिए इच्छुकः-8:5%; छोड़ने की सशत -
(०००४४४०घ)) इच्छा (जैसे अन्य भिखारी भिक्षावृत्ति छोड दें अथवा कोई कार्य
उपलब्ध हो)--23:0% ; यदि किसी भिक्षुक-गृह अथवा संस्था आदि में रखा गयातो _
नहीं छोडेंगेे>0':5% ; बुढ़ापे और शारीरिक व मानसिक बाधा के कारण छोड़ने
में असमर्थन+7'0% ; छोडने की कोई इच्छा नही (इस मान्ण्ता के आधार पर कि
घामिक भिक्षुको को माँगना ही चाहिए तथा इस धारणा के कारण कि माँगना कमाने
का आसान तरीका है आदि)->27'0 % ; कोई उत्तर नहीं"+4'0 %।
यह पूछे जाने पर कि उनके अपने सन्तान के भीख माँगने के प्रति क्यो विचार
है, गोरे ने पाया कि 402 भिखारियों की कोई सब्तान नहीं थी और 57 ने कोई
उत्तर नहीं दिया; शेष 4 ने निम्न उत्तर दिये :४* *
सस्तान द्वारा भीख माँगने के पक्ष में अथवा लापरवाह _+23% ;
सन्तान द्वारा भीख माँगने के विपक्ष से न्650:0% ;
कुछ निश्चित नही किया न्त87%:
#7 [577., 86.
«० (&इ4., 88-89.
न्उहा०,
भिक्षावृत्ति 47
भिक्षावृत्ति को छोड़ने की इच्छा व अनिच्छा का भिखारियों के व्यक्तित्व
(७7०८) से निम्न सम्बन्ध पाया गया :
हों धामिक स्वस्प | शारोरिक व मानसिक रूप मे बाधित
न्ठा/अनिच्छा [भिश्षुक मिखारी | भिखारी
आल] 4 (-९%) 27 (0%) । 70 (34%)
अनिच्छुक 75 (75%) 352(20%) ! 39 (6%)
हृच्छुक 22 (22%) 3] (49%) 40 (48%)
ईउत्तरमही. | 3(3%) | ९2% | २2( 90
है
इस विवरण से यह ज्ञात होता है कि लगभग आधे भिखारियों से भिक्षावृत्ति
बिना किसी कठिनाई से छुड़वायी जा सकती है और शेष आधे से छुड़वाने के लिए
सुरक्षा आदि जैसे उपाय उपलब्ध करने होंगे । इस सन्दर्भ में भिक्षावृत्ति के समाधान
के लिए कुछ कमेटियों ने भी सुकाव दिये है जिनमे से कुछ का विश्लेपण आवश्यक है।
959 में उत्तर प्रदेश राज्य के समाज-कल्याण विभाग मे समाज-कल्याण
पर एक मूल्यांकन कमेटी (8५0ए4४०० (०णाणा/66) नियुक्त की थी जिसने
96। में अपने सुझाव दिये ये । भिक्षावृत्ति को रोकने से सम्बन्धित कुछ मुख्य सुझाव
इस प्रकार थे--
() स्थानीय नगरपालिकाओ को आवश्यक कानून बनाने चाहिए ।
(2) राज्य सरकार को स्थानीय नगरपालिकाओं को उदार रूप से अनुदान
देना चाहिए ।
(3) 898 के कुछ पीड़ित व्यक्तियों के लिए एक्ट और विभिन्न बाल
अधिनियमों को कार्य साधन रीति से (४ी००४४०५) लागू करना चाहिए।
(4) भिक्षुक गहो के निवासियों की व्यापक शिक्षा और व्यवसाय सम्बन्धी
प्रश्चिक्षण के लिए विशिष्ट अध्ययन के कोर्स बनाने चाहिए ।
(5) भअनुगामी भ्रोग्राम आरम्म करने चाहिए ।
(6) जनमत पैदा करने के लिए गहन प्रचार शुरू करना चाहिए ।
959 में गोरे अध्ययन टीम ने नये कानूत बनाकर भिखारी को तीन वर्ष
तक सुघारात्मक सस्था मे रखने की व्यवस्था करने तथा दान देने को अपराध
घोषित करने के सुझाव दिये थे ।
अप्रैल 965 में योजना कमीशन ने श्रीमती चन्द्ग्ेखर (सामाजिक सुरक्षा
» “उपमन्त्री) की अध्यक्षता में भिक्षावृत्ति, आवाराग्र्दी, और वाल-अपराध की समस्याओं
के अध्ययन के लिए 2 सदस्यो का एक अध्ययन समूह नियुक्त किया । (
3० /522,, 90.
53 5059 (0773५ ०2. 2४/., 47].
2
]8 सामाजिक समस्याएं और सामाजिक परिवर्तन
के निवारण के लिए इस समूह ने निम्न सुझाव विये*-...
(4) सभी भियारियों के सुधार के लिए एक ही जैसा दण्डनीय तरीका
अपनाना चाहिए जिसमे पुलिस द्वारा गिरफ्तारी, मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत करना,
और फिर जेल आदि सस्यथा में वन्दी रखना अनुचित और हानिकारक है। इसके
बजाय दो उद्देश्यों वाला प्रोग्राम (4000०न०८ 5५४९४) घुरू करना चाहिए जो
सुधारात्मक सिद्धान्त और सामाजिक सहायता के सिद्धान्त का मिश्रण हो जिससे
भिन्न-भिन्न तरह के भिसारियों के लिए अलग-अलग नीति का प्रयोग किया जा सके ।
दूसरे शब्दों में दण्ड देने वाले सिद्धान्त को बिल्कुल समाप्त करना गलत होगा। जो
व्यक्ति अपनी इच्छा से अथवा पेशे के रूप में या कभी-कभी भीस माँगते हैं उनके
लिए दण्ड उनका भीर माँगते से रोकने का बग्य करेगा।
(2) सामाजिक सहायता की योजना में सहायता केवल आवश्यकता पर
आधारित होनी चाहिए, भिक्षावृत्ति जैसे प्रकट कार्य पर नहीं। दूसरे शब्दों मे जब
तक व्यक्ति भीस माँगने जैसा अपराध न करे तव तक सहायता को रोके रसना बुद्धि
हीन कार्य होगा । फिर, भीख माँगने के अपराध करने के बाद केवल शारीरिक
अवस्था व आयु के आधार पर अपराधियों में भेद करना भी अनुचित होगा । सामाजिक
सहायता की योजना भेदभाव अथवा उपविभागीकरण (०एगएथपाथाक्षा$80070)
के बिना सभी के लिए समान रूप से होदी चाहिए ।
(3) सामाजिक सहायता की योजना को अर्थव्यवस्था का स्थायी लक्षण
बनाने के लिए उसके उद्देश्य, वित्त-व्यवस्था और शासन नीतियों से सम्बन्धित
विधि सम्बन्धी प्रावधान (४.४॥०४०७ एा०शं#आं०॥$) तरीके अपनाने चाहिए | आरम्भ
में तो सामाजिक सहायता की योजना कुछ चुने हुए क्षेत्रों मे पू्ंगामी योजना के रूप
मे शुरू की जा सकती है परन्तु चौथी योजना के काल में ही योजना को राष्ट्रीय
सहायता के रूप मे विस्तार करने के लिए आवश्यक कानून पास करना होगा !
(4) भिखारियो के एक राज्य से दूसरे राज्य में प्रवास (ां्टाथांणव) को
रोकने के लिए इच्छुक भिखारियों को उनके अपने ही राज्य मे (जहाँ उनको जल्म
हुआ था) वापिस भेजने की व्यवस्था आवश्यक है यद्यपि राष्ट्रीय एकता की हृष्टि से
अनिवार्य स्वदेश वापिस भेजने (००णफ्एं5०7७ उ7०0472007) की योजना अनुचित
होगी क्योकि बड़े शहर, तीर्थयात्रा के स्थान अथवा पहाड़ी शहर अधिक भिखारियों
को थाकपित करते हैं इस कारण ऐसी जगहों मे भिक्षावृत्ति को रोकने का उत्तर-
दायित्व केन्द्रीय भरकार को लेना चाहिए ।
वित्त व्यवरथा के बारे मे अध्ययन समूह ने यह सुझाव दिया कि व्यय का
60 प्रतिशत केन्द्रीय सरकार को खर्च करना चाहिए । योजना क्षेत्र (97४८६ 47९७) *
स्तर पर मंसूर राज्य मे पायी जाने वाली स्थानीय चुँंगी की योजता भी अपनायी जा
83 82टांव 9शएटल (श्णाथे ऐप्रार्थप ण॑ एलाब्दांगाशे न्संटट७ ऐश, 00:
965, [8-22.
भिक्षावृत्ति ]9
सकती है । इसके अतिरिक्त राज्य सलाहकार वोर्ड भी चन्दा इकट्ठा कर सकता है।
शासकीय व्यवस्था के लिए अध्ययन समूह ने प्रोग्राम को लागू करने का
उत्तरदायित्व राज्य सरकार का बताया । राज्य सरकार समाज-कल्याण विभाग के
हार इस प्रोग्रम को आरम्भ कर सकती है । सपमाजिक सहायता की योग्यता के
लिए एक राज्य सलाहकार समिति भी नियुक्त करनी चाहिए । प्रोग्राम को स्थानीय
योजनाओं के रूप में आरम्भ करना चाहिए। लगभग पाँच लाख जनसस्या के लिए
एक स्थानीय योजना होगी । हर स्थानीय योजना के लिए एक स्थानीय अधिकारी
तथा एक समन्वय कमेटी होगी जिसमें सरकारी और गेर-सरकारी समूहों के प्रतिनिधि
होगे। समाज-कल्याण विभाग का संचालक इस कमेटी का अध्यक्ष होगा। हर
स्थानीय स्तर पर एक सतर्कता एकक (शंट्टा07८० धर) होगा। हर क्षेत्र में
20000 व्यक्तियों के लिए 25 रुपये प्रति माह दिये जायेंगे। केद्लीय स्तर पर
केन्द्रीय सलाहकार बोर्ड होगा ।
उपर्युक्त विवरण से जो भिक्षावृत्ति समस्या का आभास होता है उसके आधार
पर कहा जा सकता है कि विचलित व्यवहार के इस रूप को समभने के लिए वैज्ञानिक
हृष्टिकोण की आवश्यकता हैं। सामाजिक पृथकत्व के कारण अथवा जीवन मे प्रति-
इन्द्विता का सामना करने की असमर्थता के कारण भिखारी सामाजिक नियमों से
विचलित होते हैं और यह विचतन फिर आत्मसम्मान के खत्म हो जाने के कारण
सन््तान तक हस्तान्तरित होता है। यह तो निश्चित है कि वर्तमान संस्थात्मक
सुविधाएँ उनकी देख-भाल और पुनर्वास के लिये वहुत कम हैं दथा सामाजिक सुरक्षा
सम्बन्धी प्रयास भी अपर्याप्त है। इन सुविधाओं और प्रयासों के अतिरिक्त जो अन्य
प्रयास हमें अपनाने चाहिए वह् यह कि भिखारियों के व्यक्तिगत आधार पर सुधारने
के प्रयत्नो के अतिरिक्त उनके पेशेवर संह्थाओ को भी समाप्त करना आवश्यक है जी
न कैवल भिखारियों का शोषण करते है परन्तु कठोर तरीके अपनाकर व अपहरण
करके सरल व्यक्तियों को भी भिक्षावृत्ति अपनाने के लिये बाध्य व उत्तेजित करते हैं।
नये प्रोग्राम शुरू करके उनके आधार पर स्वस्थ भिखारियो से जबरदस्ती श्रम कार्य
कराया जा सकता है। बाल भिखारियो के लिए भी विशेष उपचार की आवश्यकता
है। यदि उनकी रामुचित ढंग से देस-भाल की जाए तो उनसे भिक्षावृत्ति छुटाने और
उन्हें सम्मानपूर्वक जीवन बिताने का ढंग सिखाना आसान होगा । इस प्रकार भिक्षा-
वृत्ति को समाप्त करने के लिए जो हमारी सामाजिक व्यवस्था में मनुष्यों द्वारा
चनायी हुईं दरारें मिलती हैं वे समाज के सम्भावित साधनों, द्क्तियो व पदार्थों दो
उपलब्ध करके भरी जा सकती हैं जिससे समस्या का समाधान हो सके ।
हर हि +“ब्रेकारी
(एडशए,050एए)
व्यक्ति को समाज में बहुत से कार्य (:0/८5) करने पडते हैं जिनमें से पुरुष के
लिये एक महत्त्वपूर्ण कार्य घनोपाजंन का कार्य है । इस कार्य करने से न केवल उसे
अपने समय और शक्ति को व्यस्त करने के लिए एक क्रिया मिलती है परन्तु इससे
उसे सामाजिक स्थिति भी प्राप्त होती है। जो व्यक्ति काम करने के योग्य व इच्छा
होते हुए भी कार्य प्राप्त नही कर पाता वह एक ओर स्थिति व प्रतिष्ठा पाने से
वंचित हो जाता है, दूसरी ओर आधिक समस्या के अलावा कुछ भावनात्मक व
सामाजिक समस्याओं को भी सामवा करता है, जो उसके व्यक्तित्व के विकास पर
नकारात्मक प्रभाव डालती हैं तया उसके असमायोजित्त व्यक्तित्व की उत्पत्ति के
कारण परिवार व समाज को भी प्रभावित करती हैं। इसी प्रभाव हेतु बेरोजगारी
को समाजशास्त्रीय अध्ययन में महत्त्व दिया गया है ।
भारत में बेरोजगारी की समस्या केवल औद्योगीकरण के - परिणामस्वरूप ही
उत्पन्न नहीं हुई परन्तु अद्ठारहवी व उन्नोसवी शताब्दियों से पूर्व ही बहुत से व्यक्ति
आजीविका कमाने में अपने को असमर्थ पाते थे । अन्तर केवल इतना है कि पहले यह
ब्रेकारी ऋषि क्षेत्र मे अधिक थी, अब शिक्षा व उद्योग के क्षेत्रों में अधिक मिलती है ।
बेकारी का भ्रर्थ
किसी व्यक्ति को बेरोजगार माना जाये ? क्या ऐसे व्यक्तियों को जो स्तातक
होते हुए «भी बस-कन्डक्टर या क्लकों आदि जेसे कार्य करते है अथवा क्या ऐसे प्रवीण
श्रेम्रिको को जो अदक्ष व अप्रवीण मजदूरों का कार्य करते है । ये सब व्यक्ति 'वेरोजगार'
नही परन्तु 'अद्धं-बेकार' (णण००-०॥ए७!०५००) कहे जा सकते हैं। बेरोजगार व्यक्ति
बह है जो काम करते के समर्थ होते हुए भी किसी भो श्रकार का जाजीविका का
समाज द्वारा मान्यताओआप्त साधन ढूँढ नही पाता। इस प्रकार वेरोजगारी की
घारणा के तीन भुख्य तत्त्व हैं: () व्यक्ति कार्य करने के योग्य हो, (2) व्यक्ति में
कार्य करमे की इच्छा हो, (3) व्यक्ति कार्य ढूंढने का कोई प्रयत्त कर रहा हो । इस
आधार पर बेरोजगारी को एक वह स्थिति बताया जा सकता है जिसमें बहुत से
कार्य करने के योग्य व्यक्ति कार्य करने के इच्छुक होते हुए भी प्रचलित बेतन-दरों
पर कार्य प्राप्त मे कर पाते के कारण काफी समय तक आजीविका का स्ाघन आप्त
3 कर पाते )
बेकारी 424
फैयरचाइल्ड ने वेरोजगारी की इस प्रकार परिभाषा दी है : सामान्य दशाओ
तथा सामान्य वेतन दर पर व्यक्ति को वलपूर्वक और अर्नैच्छिक रूप से वेतन के काम
से अलग कर देने की स्थिति ।” नावा गोपास दास ने वेरोजगारी को अनैच्छिक
निष्कियता की स्थिति (०्णाठांधणा रण पंग्ररणणाण्र> उतार) बताया है।*
डिमेलो ने बेरोजगार थ्यक्ति उसे माना है जी अपनी इच्छा होते हुए भी वेतन का
काम प्राप्त नहीं कर सकता ।ऐं
इन परिभाषाओं के जाधार पर अभी तक ऐसे क्षीण व रोगी व्यक्तियों को
जो झारीरिक और मानसिक असमर्थता के कारण काम करने के अयोग्य थे बेकारों
की श्रेणी मे नही रखा जाता था। परन्तु क्योकि अब इन अपाहिज व्यक्तियों के लिए
भी काये करने के तरीके ढूंढ निकाले गये है, इस कारण यदि इनकी वाधाएं दूर की
जा सकती है और ये कार्य करने के इच्छुक है पर कार्य ढूँढ नही पाते तो इन्हे भी
बेरोजगार माना जाएगा । इसी प्रकार पहले भिखारियो को भी वेरोजगारो की श्रेणी
में नही रखा जाता था परन्तु अब उन भिक्षुको को भी बेरोजगार मानना होगा जो
काम करना चाहते है, परन्तु उन्हें काम मिल नही पाता दूसरे शब्दों मे, आज के
युग में बेरोजगारी की पुरानी परिभाषा मे परिवर्तन करना आवश्यक है।
किसी समाज में पूर्ण रोजगार की स्थिति उसको माना जायेगा जिसमे बल-
पूर्वक व अनैच्छिक निष्क्रिता (0०८० क्0]2॥९55) की अवधि कम से कम होती
है । पूर्ण रोजगारी के चार प्रमुख तत्त्व हैं: () व्यक्ति को रोजगार ढूँढ़ने के लिये
बहुत कम समय लगता है। (2) उसे नौकरी प्राप्त करने का पूरा विश्वास होता
है। (3) समाज में खाली नौकरियाँ सदा बेरोजगार व्यक्तियों से अधिक हो ।
(4) नौकरी उचित वेतन दर पर प्राप्त हो जिससे व्यक्ति उसे यथार्थ रूप से स्वीकार
कर सके ।
बेकारी का विस्तार
भारत में बेरोजगारी की मात्रा मालुम करने मे बहुत-सी सास्यिकीय बाधाएँ
! मिलती हैं जिस कारण सही आँकड़े उपलब्ध नहीं हो पाते । अभी तक रोजगार के
दफ्तरों (थागए0,॥पथा६ रणाध्ा865) में वेकार व्यक्तियों की रजिस्ट्री को आधार
मानकर ही देश में वेरोजगार व्यक्तियों की संख्या को आँका जाता है। पर यह सभी
जानते हैं कि प्रत्येक बेकार व्यक्ति अपने को रजिस्टर नही करवाता । फिर 'बेरोजगार
व्यक्ति! की परिभाषा भी सही आँकड़ों को आँकने मे वाघ्य है। योजना कमीशन ने
३ +निताव्ल्द थात॑ ॒ण॑प्रा(शज/ इच्फबाबीजणा हिणा ख्यापवदाभांएड छण] 0०
बगटाग्रेषा एी फ6 ग्रणणत्वे ४०हपए ९8 तंप्ाए8 गतायड] छ०ाताह एल 2 ए0यां
४४६९३ ब्रापं चाएंटा 7074] ८०960055.--सब्वाएध0.
0 ३ [933, ३७३ 009थ॑, खक्रांशुफटवा, एंब्रशकडफ्रंमृक्राल्या बाप #! हज?/7फारवा
बा माधव
++ैत प्रापीध१घ३ 70 छलेए४ 40 #& 5806 ० 7९0 प्शटाउ(४९ 6०८०एक कह -
कह एल्थओड ३० 96 50.7 "५४00, उ८क्रांह# ०, 220, &०४ 969, 24. 220 ८0020%
३
22 सामानिक समस्याएं और सामाजिक परिवर्तन
अपने सेम्पत सर्वेक्षणों में व्यक्तियों के सप्ताह में एक रोज भी कार्यतत्पर रहने को
आधार मानकर सेवायुक्त और वेरोजगार व्यक्तियों का वर्गीकरण किया है। अन्तर-
राष्ट्रीय श्रमिक संगठन (7..,.0.) ने फिर सप्ताह मे 5 घण्टे काम करने बालों को
सेवायुक्त व्यक्ति माना हैं। परन्तु इस प्रकार की बेरोगगार व्यक्तियों की परिमापा
विकसित अर्थव्यवस्था वाले देशो में उपयुक्त हों सऊती है जहां बेरोजगार व्यक्तियों
को राज्य द्वारा कुछ आशिक सहायता दी जाती है, परन्तु भारत जैसे अर्द्धवकसित
देद में नही | यहाँ सरल परिभाषा में वेरोजगार व्यक्ति उसे माना जायेगा जो इच्छा
होते हुए भी वेतन का कायें प्राप्त नहीं कर पाता । $
सरकारी आऑफजड़ों के अनुसार भारत में इस समय एक करोड़ के लगभग
व्यक्ति बेरोजगार हैं ।* दूसरे झब्दों में कुल जनसंख्या का लगभग दो प्रतिशत भाग
बैरोजगार हैं। परन्तु कुछ लोगों का विचार है कि यह आँकडे सही नहीं हैं और देश
में इस समय |*7 और 2"] करोड के बीच व्यक्ति बेरोजगार हैं।* 970 में
बेरोजगार व्यक्तियों की संस्या में जद 8"8 प्रतिशत वृद्धि हुई, 97व में यह 253
प्रतिशत और 972 में 352 प्रतिशत वृद्धि हुई ।१ अब यह भी आजा की जाती है
कि यद्यपि चौथी पचवर्षीय योजना ने 85 से [90 लाज़ व्यक्तियों के लिए नयी
नौकरियाँ उपलब्ध की हैं, फिर भी 60-70 लास व्यक्तियों की संख्या पहले से
बेरोजगार पाए जाने वाले व्यक्तियों को संख्या मे"वढ गयी है अयवा अवशेष
(०००८४०४) को लेकर 974 तक हमारे देश मे लगभग 2:8 करोड़ ब्यक्ति
बेरोजगार होंगे ।! योजना कमीशन के एक सदस्य के अनुसार भी यदि 968-69
में बेरोजगार व्यक्तियों के अवशेष को :3 करोड़ आँका जाए तव॑ 979 के अन्त
में इनकी संए्या 6 करोड़ हो जायेगी।१ विछली चार पंचवर्षीय योजनाओं में
विनियोग व रोजगार के अनुपात (#९७आशशा-थाएर०शधा 7००) में भी
अवनति मिलती है। पहली और दूसरी योजनाओ मे जब 0:49] करोड़ रु० के
विनियोग से :9 करोड़ नौकरियाँ उपलब्ध की गयी थी (70 लाख कृषि क्षेत्र में
और 20 लाख अक्षपि क्षेत्र मे) तीसरी योजना मे 0:400 करोड के विनियोग से
केवल 45 लाख नौकरियाँ ही उपलब्ध की जा सकी (40 लाख कृषि क्षेत्र मे और
05 लाख थक्कपि में) ९ यह सव आँकड़े बताते हैं कि भारत मे बेरोजगारी की
समस्या कितनी ग्रम्भीर है तथा प्रयत्नों के उपरान्त भी हम कितनी नयी नौकरियाँ
उपलब्ध करके वेरोजगारी के निवारण भे सफत हो रहे हैं ।
4 छाच्ए0ा४6 ठजल्लथ्गे ० छच्यज़ेक्ञाग्रधाप 200. पृक्षेमे0७, एहफए)फटशा
कछ्यंल्४, 96, ढाव॑ १050७ ठ,490ण% एपए)09णाथ्या ब्रणत [९॥४४४७ा॥8007, 967.
5 एछ'शल्ाए, एेपठ0णा/ ठ5॒ग्या गा गीड बंसल या छड5090385६55567 7 डश्काशरश। ५
730. 20, &ए8०६६ ]969, 25.
4 प्रकर्रपडाबात 27925, 9 8970), 4973.
7 गाव
3 |#9., 26.
3 उक्षव,
बेकारी 423
बेरोजगार जनसंस्या की रचना
सर्वाधिकार बेरोजगार व्यक्ति 20 से 24 वर्ष के जायु-ममूह में मिलते है।
इन्हें मुख्यतः अनुभव के अभाव के कारण कोई नौकरी नहीं मिल पाती | इस आयु-
समूह के बाद अधिक बेरोजगार व्यक्ति 25 से 40 वर्ष के आयु-समूह में न मिलकर
40 और 50 के भआयु-समूह में मिलते है। इनमें फिर वेरोजगारी का कारण उनकी
कार्य करने की झक्तिहीतता तथा उनकी असमायोजन की स्थिति है। व्यवसाय को
हृष्टि से फिर अधिक वेरोजगारी- क्लक की नौकरियों, माल बेचने बालो (59[०5-
87), कृपको, कारखानों के श्रमिको, अप्रवीण मजदूरों और बतंमान समय में
इन्जीनियरों में मिलती है। इनमें वेरोजगारी का मुख्य कारण यम्त्रीकरण है जिसने
श्रमिकों की आवश्यकता पर नकारात्मक प्रभाव डाला है] इन्जी नियरों के अतिरिक्त
अन्य व्यावसायिक व्यक्तियों में बेरोजगारी इस कारण कम मिलती है क्योकि उनकी
सख्या कम होती है और माँग अधिक । आय की हृप्टि से फिर आधे से अधिक
बेरोजगार 500 रुपए महीने से कम आय-समूह वाले परिवारों के सदस्य मिलते है,
एक तिहाई 500 और 800 रुपए मासिक आय-समूह वाले परिवारों के और शेप
800 रुपए से अधिक आय वाले परिवारो के । अतः यह कहा जा सकता है कि मिम्न
आशिक ब व्यावसायिक समूहो में वेकारी अधिक मिलती है जिसका भुर्य कारण है
इन समूहों के सदस्यों की शिक्षा-सम्वन्धी पृष्ठभूमि, व्यावसायिक व तकनीकी प्रशिक्षण
का अभाव तथा श्रम की गतिहीनता इत्यादि |
बैकारी के प्रकार
बेकारी को पूर्ण तथा अद्धं, स्थायी तथा अस्थायी, व मौसमी तथा चक्रीय
बताया गया है। अद्ध-बेरोजगारी की स्थिति में यद्यपि व्यक्ति काम करते हुए मिलते
है परन्तु सही रूप से उनके श्रम व योग्यता का उपयोग नही क्रिया जाता है । उदाहरण
के लिए इस्जीनियरों द्वारा क््लके बाग कार्य करना, अधिक शिक्षित व्यक्तियों द्वारा
टाइपिस्ट का कार्य करना आदि । इसी प्रकार इस समय हमारे देश में जो 68
प्रतिशत कृपक भूमि पर सेती कर रहे हैं, उनमें अधिकांश जबरदस्ती कृषि उद्योग में
लगे हुए हैं तथा ये अर्द्ध-वेरोजगारी को स्थिति में हैं। अन्य व्यवसायों व सेवाओं में
भी इसी प्रकार की अर्दध-बेरोजगारी मिलती है । चक्रीय (०»णाट्य) बेरोजगारी फिर
व्यापार के उतारूचढ़व के कारण उत्पन्न होती है। व्यापार में लाभ होने के
परिणामस्वरूप पूँजीपति अधिक घन व्यापार मे लगाते हैं जिससे श्रम की माँग व
रोजगार बदता है। परन्तु ध्यापार में निरन्तर हानि होने के कारण पूँजीपति अधिक
धन लगाने से डरते हे जिससे श्रम की माँग कम होती है और बेरोजगारों फैउती है ।
इसी प्रकार अधिक उत्तादन (०थ-एण्तए८/००) के कारण वह्ठुओं के मूल्यों में
गरिद्वावट बाती है जिससे उत्पादन कम करना पड़ता है तथा श्रमिकों को चुनता पड़ता
है जो किर वेरोजगारी को बढ़ाती हैं । मौसमी ($८३६०३०) वेरोजगारों उद्योग *
]24 सामाजिक समसस््याएँ और सामाजिक परिवर्तेन *
प्रकृति के कारण पैदा होती है। उदाहरण के लिए चीनी व बर्फ के कारखाने वर्ष
में केवल कुछ महीने ही उत्पादन का कार्य करते हैं तथा जश्षेप समय बन्द रहते हैं।
इनके बन्द होने से त्था उद्योग की प्रकृति के कारण ही मजदुरो को वेरोजगार रहना
पड़ता है। भारत मे मुख्य रूप से गाँवों में कृपि-सम्बन्धी बेकारी और शहरो मे
प्रौद्योगिक और शिक्षितों की बेरोजगारी पायी जाती है। इन तीनों का हम अलग-
अलग-विश्लेषण करेंगे ।
गाँवों में क्पि-सम्बन्धी बेरोजधारी (रए७ पयायण00)॥०7)--गाँवो
कृषि-वेरोजगारी कृषि की प्रकृति के कारण ही उत्पन्न होती है। जेतिहर को वर्ष
चार महीने खाली व वेरोजगार रहना पड़ता है। वैसे प्रत्येक कृषि-सम्बन्धित क्षेत्र मे
पूर्ण बेकारी व निष्क्रियता की अवधि फसल और कठाईं आदि की प्रकृति और प्रकार
पर निर्भर करती है ] मौटे तौर पर एक औसत भारतीय कृपक 4 से 6 महीने तक
चेरोजगार रहता है, केवल उन स्थानों के अतिरिक्त जहाँ वह तर (७७) फसल बोता
है अथवा जहां वह एक वर्ष में एक ही भूमि से दो से अधिक फसल उत्पन्न करता है ।
बेसे अलग-अलग विचारको के क्ृषि-सम्बन्धी वेरोजगारी की अवधि के प्रति अलग
अलग विचार हैं। पी० जे० थामस व सी० के० रामाकृप्णन का विचार है कि एक
औसत भारतीय खेतिहर पाँच महीने तक बेरोजगार रहता है जिसमें से कम से कम
तीन महीने तो वह अविरल रूप में वेकार रहता है 0० बंगाल में भूमि-आयकर कमीशन
का विचार है कि बंगाल से एक औसत कृपक 6 महीने तक बेरोजगार रहता है और
उन क्षेत्रों मे तो वह वर्ष में 3-4 महीने से अधिक कार्ययुक्त नही रहता, जहाँ धान
के अलावा और कोई फसल पैदा नहीं की जाती ॥ कीटिज के अनुसार वम्बई में
किसान 80 से 90 दिन तक कार्य करता है ॥ कलवर्ट के अनुसार पंजाब मे एक
किसान 50 दिन से अधिक काये नहीं करता ॥४ डा» मुकर्जी के अनुसार उत्तर
भारत में एक किसान 200 दिन से अधिक व्यस्त नहीं रहता है ॥ डा० स्वेटर के
अनुसार दक्षिण भारत में कृषिकार केवेल 53 महीने व्यस्त रहते है ४* जैंके के अनुसार
जुद पैदा करने वाले वर्ष मे 9 महीने और चावल वोने वाले 73 महीने बेरोजगार
रहते हैं ।/* इस मौसमी बेरोजगारी के अतिरिक्त फिर बहुत से कृपकों के पास
पर्याप्त व उपजाऊ भूमि नहीं होती जिस कारण अधिकाश किसान बेकार वे बदें-
बेकार रहते हैं। इसके अलावा कृषि में नये यान्त्रिक तरीकों के प्रयोग के कारण भी
बहुत से कृषिकार बेकार हो गये हैं ।
गाँवों में लगभग 45 लाख व्यक्ति प्रतिवर्ष बढ रहे हैं। वयोकि इन सभी के
में
हि
ऋतरृक्ण्प्राव5 ९. 3., 20व एशा। िप्रशफशा 0.., उत्ताक वी (लीगिहंड : 4र्डीया०"
गम कहकर ० छेलाएवा [859 २८ए८०७८ट (077ग्रंड४०७, 9.
358 [(८३४७०8९, कपाबं £27700 गा 200० 0९९९80.
३3 0.35 ८00, क92/व॑ ण[ हटग्वशकॉट किलदका३, 20790 एफ।॥व्बा00, ०.7 डा |.
34 (०६८६३ ६०९, एे. ॥९., #॥/व 72०० रै 7०.
४४ 567, 0. 5 , 50८ उठे उन्वीका #म्रावडटड-
ए+ उन्नलेद, &तर2०लांर 2.6 ०/६ 278४ 20002, 38-39.
बेकारी 425
लिए गाँव काम उपलब्ध नहीं कर पाते इस कारण इन लोगों को भी खेती पर ही
निर्भर होना पड़ता है। परन्तु क्योकि भूमि की मात्रा स्थिर रहती है इसलिए लेती इतने
व्यक्तियों को काम नही दे सकती जिससे अधिकांश व्यक्ति वेरोजगार व अर्द्ध-बेरोजगार
रहते हैं। गांवों में कुल जनसंख्या में से केवल 29-4 प्रतिशत ब्यक्ति आत्म-निर्भर
(इशा-577णधं।ए) हैं, 59 प्रतिशत न कमाने वाले आश्रित (#ण-887778
0७७०४०९॥५) और ॥-6 प्रतिश्यत कमाने वाले आाथित (६क्षाया।ट (०७००० ८7॥७) हैं।
दूसरे शब्दों मे 29*4 प्रतिशत लोग न केवल अपने लिए परन्तु क्षेप 70 6 प्रतिशत के
लिए भी धनोपार्जन का कार्य करते है॥ अब इनमे से जब काफी लोग बेरोजगार हो
जायें तो उसका कितने लोगों पर प्रभाव पडेगा यह आसानी से सोचा जा सकता है।
मगरीय बेरोजगारी (7७27 प्याष्ण9/०/॥०४)--शहरों मे पायी जाने
वाली औद्योगिक और शैक्षणिक बेरोजगारी का हम अलग-अलग वर्णन करेंगे।
(7) प्रौद्योगिफ बेरोजगारो--यह बेरोजगारी किसी उद्योग के हास, विदेशी
प्रतिस्पर्दा, अनियोजित औद्योगीकरण, उद्योग-घन्धों के अनियोजित भोगोलिक
वितरण, दोपपूर्ण औद्योगिक नीतियों तथा पुरानो मशीनों के स्थान पर नयी मशीनों
के प्रयोग अथवा अभिनवीकरण (8079548०॥) से उत्पन्न होती है। प्रतिस्पर्दा
के कारण एक उद्योग में बनी वस्तुओ की मांग बाजार में कम हो जाती है जिसके
फलस्वरूप कारखानो से मजदूरों की निकालना आवश्यक हो जाता है जो बेरोगगारी
को विकसित करता है। फिर यन्त्रीकरण के बढ़ते से जैसे-जैसे मनुष्यों का स्थान यन्त्र
लेते जाते हैं बैसे ही वेकारी बढती जाती है | इसके अतिरिक्त मिल-भाल्निकों के श्रम-
झोषण की नीतियों व मजदूरों की अनुचित माँगों के कारण भी आये दिन हड़तानें व
तालेवन्दी की घटनाएँ मिलती हैं, जिससे यान्त्रिक बेकारी फो वैढावा मिलना £ |
परन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं है कि क्योकि औद्योगीकर्ण से छोटे उ्योगो पर.
विपरीत प्रभाव पड़ता है, इस कारण इसे बढ़ावा ही न दिया जाओ हवा इसको गति
ही भन्द कर दी जाये। यह सही है कि कुटीर व सु उदयोद-न्तों के विकाग मा
अधिक लोगों को रोजगार अ्रदान किया जा सकता हू, परत्ट क्री उत्योगी की
स्थापना भी न केवल बेरोजगारी दूर करने के लिए पसटू देश ह ऋषिक विकाग के
लिए भी आवश्यक है। हमे केवल क्षेत्रीय असलुतन की की दकन करना है ॥; १
& रे बदलना है जिमये हे है, हू क्या
दोपपूर्ण औद्योगिक नीतियों को बदलना है जिससे औद्धीटिक दिदाय सलवित ऋूप से
हो सके व उत्पादन क्षमता बढ़ सके | यह परिवर्दट है 23४7 कोनी कक कक |
शिक्षित & ःम करेग
(2) शिक्षितों की बेकारो--झिश्चित दह)7लटर ऋट दीनिई? हमे देश के
जहाँ 70 प्रतिशत जनसंख्या अधिक्षिव हो, हर कह ७४ >। 9.० ०७ ++-> ३
अपने को शिक्षित समझता है। पर्लदू विकटी
हद ही वि पढ़े सकठः हैं
शशि कर 7 # देफरत की समस्या की हि रे
शिक्षित बेरोजगार केवल उसे ही मादा 3757 #: #&> कप 2+4#2% की इ न्
प्रकार शिक्षितों में वेरोजगारी समस्थ: # %« व्र्ज्क क्श् ्र |; ( 7 लक के दो
व्यक्ति नहीं आते जिन्हें ग्रावमिद् #7 #५>००७ लक दी ) है हट मे.
वेरीजगार है। (2) इसमें वे २ट:कढ ४4५ २ 4 3५ पक्ात+- उललि रा भी
७६२... कलर ही कै
हर आफ ही स्तालड ही हए हर
]26 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
आदि का कार्य करते हैं, क्योकि इनको बेरोजगार नहीं परल्तु गलत स्थान पर काम
करने वाला व्यक्ति कहा जा सकता है।
शिक्षितों मे वेकारी की समस्या मथी आयी है । उदाहरण के लिए बंगाल में
यह समस्या 924 में ही उत्पन्न हो गयी थी और 935 तक शर्नें: शने: यह इतनी
गम्भीर होती गयी कि सपरू कमेटी ने इसे पूरे देश में फँली हुई समस्या माना।
पिछले तीस वर्षो मे इस समस्या ने एक उग्र रूप घारण किया है । इस युग में क्योकि
उस ब्यक्ति को प्रतिप्ठित व आदरणीय नहीं माना जाता जो ऊँची जाति का सदस्य
है अथवा परिथ्रमी और ईमानदार व मिप्कपट है परन्तु उसे अधिक मान व सत्कार
दिया जाता है जो ऊँची शिक्षा प्राप्त है, इस कारण बहुत से व्यक्ति ऊँची शिक्षा
प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। यह शिक्षा का फँलाव इस वात से स्पष्ट है कि शिक्षा
के माध्यमिक और स्नातक स्तरो पर शैक्षणिक संस्थाओं मे भरती में वहुत ज्यादा
वृद्धि मिलती है। 965-66 में 4950-5[ की तुलना में माध्यमिक, स्नातक
और तकनीकी स्तरों पर विद्यार्थियों में दृद्धि की दर 328:9, 266'7 और 7457
प्रतिशत मिलता है। इसी प्रकार तीन पंचवर्षीय योजनाओं की अवधि भें इल्जीनियरी
शिक्षा की सुविधाएँ डिग्री स्तर पर छ. ग्रुवा व डिप्लोमा स्तर पर आठ ग्रुना बढ़े गयी
है तथा चिकित्सा सम्बन्धी शिक्षा मे चार गुना और कृषि-सम्बन्धी शिक्षा में जाठ
गुना बढी है ।?
एक ओर शिक्षा की सुविधाएँ बढ गयी है परन्तु दुसरी ओर उपलब्ध नौकरियाँ
इतनी नहीं वढ़ी | फिर आज की शिक्षा नौकरी भाष्ति मे भी सहायक नहीं है। इस
पर प्रवरण और नियुक्तियों में इतना पक्षषात चलता है कि एक- ईमानदार शिक्षित
व्यक्ति के लिए नोकरी दूँढ़ना आसान नहीं है। अब शिक्षित व्यक्तियों में ऐसी
मान्यताएँ अधिक प्रचलित है कि चयन समितियाँ ($क९०७णा ०0ठ्राणय(९०७) के'
अधिकाश सदस्य भ्रप्ट व घूसखोर हैं, नियुक्तियों में जातीयवा व प्रान्तीयता अधिक
पायी जाती है तथा अच्छी नौकरियाँ केवल उनके लिए ही उपलब्ध है जिनके
मिनिस्टरों, ऊँचे पदाधिकारियों तथा सत्तारूढी व्यक्तियों से घनिष्ठ सम्बन्ध है ।
इसके अतिरिक्त शिक्षित व्यक्तियों के लिए मार्केट मे एक प्रकार का नया
'समायोजन' पाया जाता है | उदाहरण के लिए, आज से तीस चालीस वर्ष पूर्व उस
व्यक्ति को प्राथमिक स्तर के मास्टर के लिए पूर्ण योग्य भाना जाता था जो माध्यमिक
शिक्षा प्राप्त होता था परन्तु अब उसके लिए भी कम से कम योग्यता मैट्रिक है यद्यपि
अधिमान्य दावा स्नातकों का ही होता है । इस प्रकार की स्थिति और योग्यता के
समायोजन प्रक्रिया से शिक्षित व्यक्तियों के लिए समय-समय पर मार्केट का लक्षण
बदलता रहता है जिससे शिक्षितों में बेरोजगारी की समस्या हर वर्ष उम्र रूप धारण
कर रही है। जून 968 मे देश के विश्निश्न रोजगार के दफ्तरों में 97 लाख व्यक्ति
प छ्काउफ्0छत भाप॑ एक्श८३च ए80 0 3. छकएटा. था. प्रद्ञणांगन्ीडगांणा
#फाएण्बके) 40 काच्-एप्राध्लाआज एकारशाणा 0 तचताह कच्वत जे ७ 5द0गवा एजहुआाउच्व॑ं
+ + फिचाएाओ। (७फा्ां ७ एपपकाणाओ। रिव्व्वाटा घगते पाबाएगढ, 4६एछ एल, 7.
बेकारी 427
नौकरी प्राप्ति के लिए रजिस्टर थे जिनकी संख्या बढ़ कर 972 में 33 लाख हो
गयी तथा वृद्धि प्रतिशत 2972 तक 43 था। 972 में कुल बेरोजगार शिक्षितो
में से 53-3 प्रतिशत मैट्रिक थौर 8 प्रतिशत स्नातक व स्नातकोत्तर थे | यह भी
कहा जाता है कि 972-73 में देश में लगभग 74 प्रतिशत शिक्षित व्यक्ति
बेरोजगार थे ।
963 में आठ लाख शिक्षित वेकारो में से एक लाख को, तथा 972 में
33 लाख में से (:5 लाख की नौकरियाँ उपलब्ध की जा सकी । शिक्षित व्यक्तियों
में बेरोजगारी किस प्रकार बढ़ रही है इसका एक ताजा उदाहरण देखने को मिला
जब एक सैल के इन्जिन के निर्माण करने वाली कम्पनी के विज्ञप्ति में 25 प्रवन्धक
शिक्षार्थियों के स्थानों के लिए 000 प्रार्थवापत्र मिले। पिछले दो-तीन वर्षो
में फिर इन्जीनियरों मे बेरोजगारी की एक नयी समस्या मिलती है जिससे वहुत
से दीक्षात भाषणों में 'हमे नौकरी चाहिए भाषण नही' जैसे नारे सुनने मे आते हैं ।
शिक्षा कमीशन कर तो यह् विचार है कि यदि माध्यमिक भ्ौर ऊँची शिक्षा के विस्तार
बा वर्तमान भुकाव रहा तो 986 तक लगभग 60 लाख मेट्रिक पास ग्रुवक और
20 लाख स्नातक बेरोजगार रहेगे !
बेकारी के कारक
प्रश्व है कि ऐसी स्थिति उत्पन्न ही क्यो होती है जिसमें व्यक्ति को काफी
समय तक अनिच्छा से निष्क्रिय रहना पडता है तथा बेरोजगारी के कारण क्या हैं ?
कुछ अर्थज्ञास्त्रियों ने इसे पूँजी के अभाव, अधिक उत्पादन तथा विनियोजन की कमी
आदि के आधार पर समभाया है। क्लेसिकल सम्प्रदाय (०३5अंव्य ४था००) के
प्रतिपादक, एडम स्मिथ ने बेकारी को 'मजदुरी कोप सिद्धान्त! (886 एग76 ॥60०79)
के आधार पर समभाया है। इसके अनुसार श्रमिको को दी जाने वाली मजदूरी पहले
ही से निश्चित होती है। उत्पादकों के पास पूँजी न हीने के कारण वे कम मजदूरों
को काम पर लगाते है जिससे पूंजी का अभाव वेकारी का प्रमुप कारण बन जाता
है । नियो-क्लेसिकल सम्प्रदाय ()१९८०-०७४५४०७) ५०४००) के प्रतिपादकों ने बेरोजगारी
को 'झधिक उत्पादन! (0४८६-७८००प्र८४००) का परिणाम माना है । अधिक उत्पादन
के कारण वस्तुओं की कीमतें गिर जाती है, तथा श्रमिक कम किए जाते हैं जिससे
बेकारी में वृद्धि होती है। कीन्स (०,८७४) ने फिर वेकारी को बचत और विनियोग
के सिद्धान्त द्वारा समझाने का प्रयलल किया है। उसके अनुसार व्यक्ति अधिक बचत
करने हेतु उद्योग में पूंजी कम लगाते हैं जिससे उत्पादन में कमी व कम व्यक्तियों को
रोजगार के अवसर प्राप्त होते है ॥ दूसरे शब्दों में सम्पूर्ण आय का उद्योग व व्यापार
में विभिमोजन न करने के कारण वेकारी अधिक बढ़ती है। कुछ अर्थंश्ास्त्री फिर
बेकारी को माँग और पूर्ति के बीच असन्तुलन (पथ 0॥००) के कारण बताते हैं।
38 52#मंहव/ 0०९, 4969, 0 386 कऑक्रव.ाकत गगकरटड, 9 59तो, 4973.
६28 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
उनके अनुसार कृषि, उद्योग व शैक्षणिक क्षेत्रों मे माँग की कमी व सम्भरण की वृद्धि
के कारण ही वेकारी वढती है। माँग की कमी के तीन कारक प्रमुख हैं : (क) पिछले
सालो में आथिक विकास की गति वहुत मन्द रही हो | (ख) व्यापार मे मन्द गति के
कारण नयी विनियोजित योजनाएँ स्थगित की गयी हो। (ग) औद्योगिक क्षेत्र से कृषि
क्षेत्र मे परिवर्तत (आर) के कारण माँग मे कमी हो गयी हो ।
लाइनेल एडी का विचार है कि बेरोजगारी का मुस्य कारण आथिक संरचना
का विधटन तथा उद्योग मे स्थानान्तरण है (2? इल्यट और मेरिल का भी कहना है
कि अस्थिर रोजगार के प्रमुख कारक तकनीकी परिवर्तत और व्यापारिक परिस्थितियों
की चक्रीय प्रकृति हैं।” परन्तु इन सव आ्थिक विचारों को इस कारण अभ्रधिक
मान्यता प्रदान नही की जा सकती क्योंकि अब यह समझा जाने लगा है कि बेरोजगारी
केवल आध्िक परिस्थितियों का हो परिणाम नहीं अपितु सामाजिक तथा व्यक्तिगत
कारको से प्रभावित होती है।
समाजशास्त्रीय दृष्टि से बेकारी को हम नौकरी की प्रतिप्ठा, भौगोलिक
गतिहीनता, जनसस्या मे वृद्धि, कुटीर उद्योग-घन्धों के नाश होने तथा शिक्षा के दोप-
पूर्ण होने के आधार पर समझा सकते है )
() नौकरी की प्रतिष्ठा (7200-84005)--कुछ नौकरियों के प्रति ऊँची.
प्रतिष्ठा की भूढी घारणा भी वेकारी को बढाने मे योग देती है । उदाहरण के लिए
आ्रई० एु० एस० व पी० ए० एस० की नौकरियाँ हमारे युवकों से बहुत अधिक
सम्मानित व आदरित होती है । इसी प्रकार बहुत से व्यक्ति अब भी सरकारी बोकरी को
सर्वोच्च पद मानते है। फिर वंश का सम्मान इतनी बडी चीज माना जाता है कि
व्यक्ति कोई छोटा कार्य करमे अथवा शारीरिक श्रम करने के स्थान पर वेरोजगार
रहता अधिक पसन्द करते हैं। दो वर्ष पूर्व चार बड़े शहरों में कालेज के विद्यार्थियों
के एक जनमत के सर्वेक्षण मे 52 प्रतिशत विद्यार्थियों ने कालेज प्राध्यापक अथवा
सरकारी पदाधिकारी बनने की अभिलापा बतायी ।/ ऊँची अभिलापायें व श्राकांक्षाये
अच्छी हैं परन्तु अभिलापाओं से चिपके रहना, यहाँ तक कि उनको बदल कर कोई अन्य
आजीविका का साधन ढूँढ़ने को अपनी वेइज्जती समभना, एक हास्थास्पद गुण ह्दीहै।
(2) भौगोलिक गतिहोनता (06०हश/॥०0 ॥एण०आ॥9)--भौगोलिक
गंतिशीलता के अभाव के कारण भी एक स्थान व क्षेत्र में अतिरिक्त श्रम (505
20०77) मिलता है जबकि दूसरे ख्ेत्र में वैसे ही श्रमिकों की कमी रहती है। यह
अन्य स्थानों में श्रम मार्केड अवसरों के प्रति सूचना के अभाव के कारण तथा भाषा
की बाघा के कारण होता है। भाषा के आधार पर राज्यो का पुनगंठन भी इस गति-
प्रह्ताब, प्रगाल, 9... हालात : कीाएदडल- दाहवी ि7०6विकाओ है 00प35 १2]
(7०एटी। ८० , ४९७ ४७४४८, 926, 422.
# डाफ00, १, ै. 279 0८७0), ए.. ए + 3०लवं 292कडबयग, वीेशिफटए शा
छा०७$.. ८७ ४0०7४, 3950 (378 स्वाघणा), 606
3० एछछ०_ 0एफॉणा, 5ए ८४४ टक्ररल अफ्रगामा३ पक्रेट (०थीडा कवाडी
कीव्वीकात्क, रण हार, १४०. ॥, 0०६. 3968, 44-5.
बेकारी ]29
हीनता का एक कारक है। फ़िर भारतोय श्रमिक अपने गाँव व घर को भी छोड़ना
नही चाहते । इन्ही सव कारको की वजह से काम के कम अवसर व उद्योगों के अभाव
में एक स्थात पर अधिक वैकारी मिलती है, तो दूसरे में अधिक मजदूरी देने पर भी
श्रमिक उपलब्ध नही होते ।
(3) जनसंख्या में वृद्धि (र्वफ्ंप तार ० एक्णबणा)--हमारे देश
में जनसंख्या इतनी तेजी से वढ रही है कि जितने भी विभिन्न योजनाओं द्वारा आधथिक
विकास के प्रयत्व किए जा रहें हैं सव विफल हो रहे हैं। जब 96] मे मनीपुर,
नागालेंड व सिक्किम की जनसख्या को मिलाकर भारत की कुल जनसख्या 438
करोड़ थी, 973 में यह लगभग 55 करोड़ माती गयी है। दूसरे शब्दों में जब
]90] से 93] तक जनसंख्या लगभग 4 करोड़ बढ़ी, 93] से 96॥ तक यह
6 करोड़ बढ़ी तथा 96 से 973 तक ] करोड़ | सम्पूर्ण विश्व में जनसंख्या
की हृष्टि से भारतवर्ष का दूसरा स्थान है। इसी बढ़ती हुई जनसख्या के कारण
पिछली चार पचवर्षाय योजनाओं में वेकारी का अवश्ेप (०4०/८-08) वराबर बढ़ता
जा रहा है ।
(4) कुदीर व लघु उद्योग-पन््धों का नाश (फ्राध्योप्ते०पए ण॑ 0००8९
700597०७)--पिछले 40-50 वर्षों में औद्योगीकरण के विकास से कुटीर व लघु
उद्योग-धन्धो का नाश होता जा रहा है। इन उद्योगों में अधिकाश निम्न आधिक वे
सामाजिक समूहों के सदस्य कार्य कर रहे थे । पहले और दूसरे महागुद्धों के उपरान्त
बहुत से मध्य वर्ग के व्यक्तियों ने भी इन उद्योगो को अपनाया था । परन््तु यन्द्रीकरण
व ब्रिटिश! तथा भारतीय सरकार की दोषपूर्ण श्राथिक नीतियों के कारण इन उद्योगों
का ह्वास हुआ है जिनके फलस्वरूप इनमें लगे लाखों व्यक्ति बेरोजगार व भ्रद्धं-वे री जगा र
हो गए है।
(5) शिक्षा प्रधाली का दोषपुर्ण होना (7८व्णांएट हतपरत्थांगाय 898-
थ॥)--शिक्षा का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति को भ्रनुशासनशील बनाने व उसके चरित्र
निर्माण के अतिरिक्त उसे एक प्रवीण कार्य करने के लिए संवारना भी है। परल्तु
जैसाकि पहले बताया जा चुका है हमारी शिक्षा प्रणाती इतनी दोषधपू्ण व अ्सन्तुलित
है कि वह मुबकों की नौकरी को प्राप्ति में कोई सहायता नहीं करती। शिक्षा में
किसी स्तर पर न व्यवसाम सम्बन्धी प्रशिक्षण पर बल दिया जाता है और ने किसी
विशिष्टीकरण पर जिसके कारण शिक्षा-समाप्ति के बहुत समय उपरान्त भी भ्रुवको
को वेरीजगार रहना पड़ता है। आधुनिकीकरण व नंए रोजगार के अवसरों के
आवश्यकता की हृष्टि से वर्तमान पाठ्यक्रम में परिवर्तत आवश्यक है परन्तु हमारे
पराद्यक्रम अब भी पुराने तरीकों पर निर्धारित है । उदाहरण के लिए शहरो में सचिव
जैसे (+८७८६४एंथ!) नौकरियों के उपलब्ध होते हुए भी माध्यमिक व स्मात्तक स्तरों
थे चाहा ०गांपवंटाए, १7#४ 20/<कश्व ८4७ | उफ्रट छत्मामकांट क्रादे
€छावाध०छ, म्|ग१ उ70805, 80ण7049, 4947.
30 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिबवतेन
पर वाणिज्य सम्बन्धी ऐड्छिक विपयो पर कोई बल नहीं दिया जाता । श्रावश्यक
विशिष्टीकरण भव भी पुराने स्थापित औपचारिक स्वूल व्यवस्था के वाहर दिया जाता
है। इसी दोषपूर्ण शिक्षा-प्रणाली का बेकारी पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है ।
वेरोजगारी के परिणाम
कुछ व्यक्तियों ने बेकारी के हानिकारक परिणाम स्वीकार करते हुए इसके
लाभ भी बताए हैं। ये लाभ हैं--(क) वेरोजगारी से वे शक्तियाँ उत्पन्न होंती हैं
जो समाज में निष्पक्षता, न््यायपरता, सत्यता व समानता के अनुकूल व पक्ष में
सामाजिक परिवर्तन लाती हैं। (ख) इससे शिक्षा की पुरानी व्यवस्था व कृषि और
ओऔद्योगीकरण की पुरानी प्रक्रिया में आवश्यक परिवर्तन आते हैं। (ग) बेरोजगारी
व्यक्ति के अहृहयमान (860७0 7?००४७७॥०5) को जगाती है जो उस्ते अपनी
आकांक्षाओं की प्राप्ति में प्रेरणा देता है। परन्तु लाभ की तुलना मे वेकारी के हानि-
कारक परिणाम व्यक्तित्व के विकास तथा सामाजिक व्यवस्था की हष्टि से अधिक
गम्भीर होते हैं । मुख्य रूप से यह विरोधी परिणाम चार प्रकार के बताएं जा सकते
हैं : आर्थिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक तथा राजनीतिक
- आ्रारथिक परिणाम--बेरोजगारी के प्रतिकूल आर्थिक परिणाम इस प्रकार हैं---
(क) श्राय सें हानि--वेरोजगारी के कारण फैक्ट्री के मुताफे, श्रमिक वेतन
व देश के राष्ट्रीय भ्राय में घाटा होता है । भजदूरों के हड़ताल तथा कारयानीं के
मालिकों द्वारा सालाबन्दी से उत्पादन की कमी के कारण जो आर्थिक हानि
हीती है, उसे अधिक थण्टे कार्य करके पूरा किया जा सकता है परन्तु थो श्रमिकी के
बेकारी के कारण आधिक घाटा होता है वह किसी भी समय में पूरा नहीं किया
जा सकता ।
(ख) निम्न जीवन स्तर--वैकार व्यक्ति का यद्यपि राष्ट्रीय आय में योगदान
शून्य रहता है परन्तु वह अपने निर्वाह के लिए उत्पादन का कुछ अंश अवश्य उपभोग
करता है। शिक्षित बेकार व्यक्ति का अशिक्षित बेकार व्यक्ति को अपेक्षा रुढ़िंगत
जीविका का स्तर ऊँचा रहता है जिससे वह उत्पादन का उपभोग भी अधिक करता
है । इस कारण जितने श्रधिक अशिक्षित व शिक्षित लोग वेकार होंगे उतना ही
उत्पादन का मार्थान्तरण (09७आ००) उत्पादन करने वाले व्यक्तियो से उपभोग करने
बाले व्यक्तियों वक अधिक होगा । इसका अभाव ने केवल वस्तुएँ उपभोग करते बाले
परन्तु उससे अधिक उत्पादन करने वाले लोगो के जीवन स्तर पर होता है ।
(ग) उत्पादन में बाघा--रोजगार के बढ़ते हुए अवसर उत्पादन व उत्पत्ति
को प्रेरणा देते हैं परन्तु बढ़तो हुई वेकारी इसमें वाघाएँ उत्तन्न करती है। कम
उत्पादन का फिर देश की प्रगति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है ।
(घ) ब्यप हानि--वेकासी के कारण झाथिक क्षति तव अधिक बढ जाती है
जय बेकार व्यक्ति शिक्षित व्यक्ति होते हैं। व्यक्ति को आवश्यक प्रशिक्षण व शिक्षा
देने पर कुछ व्यय होता है; परन्तु जब व्यक्ति शिक्षा प्राप्ति के बाद भी बेकार रहवा
बकारा 404
है तो उस पर किया गया यह व्यय बेकार हो जाता है । 96-62 में विश्वविद्यालय
और व्यावसायिक स्तर पर एक विद्यार्थी को शिक्षा देने का व्यय एक माध्यमिक स्तर
पर शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थी की तुलना में दस गुना अधिक था ।” बेरोजगार
रहने के कारण यह सब व्यय बेकार हो जाने पर देश को आधिक हानि ही होती है ।
मनोवैज्ञानिक परिणाम--बेकारी के कारण व्यक्ति से निराशा, हीन-भावता
व आत्म-विश्वास की कमी उत्पन्न होती है तथा मानसिफ सघर्ष के कारण कभी-कभी
बेकार व्यक्ति के व्यक्तित्व के विधटन की समस्या भी उत्पन्न होती है । बचपन मे
व्यक्ति को उमके विद्या-सम्वन्धी खेल-कूद आदि योग्यताओ व गुणों के कारण पुरस्कार
दिया जाता है परन्तु आगे चलकर उसे ज्ञात होता है कि पुरस्कार परिश्रम व व्यक्ति-
गत योग्यता से सम्बन्धित नहीं है अपितु परिवार की सामाजिक स्थिति, जाति और
राजनीतिक सिफारिश पर निर्धारित है। इन सब सहायता करने (वालो के अभाव के
कारण जब व्यक्ति को अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति व सामाजिक अकाक्षाओं का दमत
करना पड़ता है तो उसमें आक्रमण व संघर्ष (००घा०॥7८॥०5५) के लक्षण विकसित
हो जाते हैं जो उसके व्यक्तित्व को ही बदल देते है। ऐसा व्यक्ति बेरोजगारी को
अपने सामाजिक कत्तंव्यों को पूरा करने के अवसर से वचित किए जाने का कारण
समभता है । बहुत समय तक बेरोजगार रहने से उसकी युयुत्सा, नियशा व असुरक्षा
एक छोटे बारूद के गोले के रूप में विकसित होती है जो थोड़ी चियारी मिलने पर
कभी भी फट सकता है। लेस्कोहीर का भी कहना है कि वेरीजगारी व्यक्ति के
स्वास्थ्य के स्तर को गियाती है, उसके मानसिक संघर्षों में वृद्धि - उत्पन्न करती है,
लालसा थ अभिलापा को कमजोर बनाती है, लगातार चेप्टा व प्रयास करने की शक्ति
का नाश करती है, साहस, धृष्टता, आत्म-सम्मान व उत्तरदायित्व की भावना को जड़
से उस्ाइ़ती है, वथा अपनी असफलता का दोष दूसरो पर डालने की प्रवृत्ति को
* उत्पन्न करती है 7?
() व्यक्तित्व का विधदम--उपर्युक्त वर्णन से ज्ञात होता है कि बेकारी से
जो व्यक्तित्व के विधटन की समस्या उत्पन्न होती है वह एक गम्भीर समस्या है।
विघटित व्यक्तित्व से अभिप्राय उस स्थिति से है जिसमें आन्तरिक एकीकरण तथा
धारणाओं और व्यावहारिक प्रतिमानों में समन्वय के अभाव के कारण व्यक्ति समाज
में वास्तविक क्षमता से कार्य नहीं कर सकता । कार्य साधन रीति से कार्य न कर
सकने के कारण उसका व्यवहार सामाजिक निम्मों के अनुरूप नही होता । इलियट
ओर मेरिल ने वैयक्तिक विघटन के दृष्टिकोण से बेरोजगार व्यक्तियों को चार समूहों *
में बाँठा है+--.
जरा एज ५४ ता ग रैशापा+, ६७३७ 70७, वि
3१ 905. 0. 7.25०९६, 7#6 7.667%- 3/474८/, 99, 707. .
# 2|॥॥05६ 64 #&१४], ०9. ८॥., 63-4.
332 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
(क) थे घुवक जिनको कमी रोजगार मिला हो नहीं है---इन युवकों के शिक्षित
होते हुए व उनमे कार्ये करने की योग्यता पाये जाने पर भी जब उनको नौकरी नही
मिलती तो वे निराश हो जाते हैं तथा उनमें हृदयहोनता व क्रुण्ठित बुद्धि पैदा हो
जाती है। अपने निर्माण करने की शक्ति को मार्ग न मिलने के कारण वे सिन्नचित्त
(4६७7०४५८०) रहते हैं । फिर ऐसे अनुश्याप्तित व अ्डियल् व्यक्ति कभी-कभी यहजनी,
चोरी, डक॑ती आदि जैसे अपराध करते हैं क्योकि इतको विद्यमान सामाजिक
व्यवस्था में केवल यह ही आजीविका कमाने का असामाजिक साधन दिखाई देता है ।
धनोपाजन में इन असामाजिक तरीकों को प्रयोग करने वालों में से कुछ व्यक्ति तो
वे होते है जिन्होंने वचपन में कोई अपराध किया हुआ होता है और कुछ विद्रोही
युवक फिर यह सोच करके ऐसी भ्रसामाजिक विधियों को अपनाते है कि उनकी शिक्षा
व प्रशिक्षण ही उनके रोजगार मिलने में वाधा है क्योकि यदि उनको ऊँची शिक्षा न
मिली होती तो सम्भवतः उन्हे किसी छोटे कारें को अपनाने मे आद्यनी होती तथा
वे बेरोजगार न होते । जिनको फिर शिक्षा और प्रशिक्षण नहीं मित्रा हुआ होता वे
सोचते हैं कि इन्ही के अभाव के कारण उन्हें रोजयार नही मिल पाता। वे अपने
परिवार व ममाज को अपने भ्रशिक्षित रहने का उत्तरदायी मान कर व उनके प्रेति
प्रतिशोध की भावना भर कर आजीविका के अ्रसामाजिक तरीके अपनाते है ।
(ख) वे भ्राजीविका कमाने वाले जो भ्रपनी नौकरियाँ खो चुके हैं--जो व्यक्ति
कुछ समय नौकरी करने के उपरास्त बेरोजगार हो जाते हैं उनकी दुर्दशा भी दुर्भाग्य-
पूर्ण है। जब वे वेतन कमा रहे थे उन्होने रहने का एक स्तर स्थापित कर लिया था।
अब जब बेरोजगारी के कारण वे अपने को उस स्तर का बनाएं रखने में प्रसमर्थ
याते है तथा उन्हें दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है तो उसका उनके स्वास्थ्य पर
तथा तिरस्कार व दर्पदमन के कारण दिमाग पर अभाव पडता है। कभी-क्री तो
यह व्यक्ति भी बच्चों के पालन-पोषण की समस्या का साभना न कर सकने के कारण
अवैध व्यवस्ताय अपनाते हैं।.._ हि
(ग) बुढ़ापे के कारण बेरोजगार--भारत मे अधिक आयु वाले ध्यक्तियों के
लिए सुरक्षा की योजनाएँ केवल कारखानों मे तथा सरकारी व अद्धे-सरकारी दफ्तरो
में काम करने वालों व कुछ बडे अलोक-व्यापार संस्थाओं में श्रमिको के लिए मिलती
हैं। जब भुरक्षा के अभाव में अधिक आयु वाले व्यक्ति कोई कार्य करना चाहते हैं
और उन्हे प्रायु के प्रतिबन्धो तथा शारीरिक थक्ति के वास और स्वास्थ्य के गिर
जाने के कारण कोई कार्य मिल नही पाता तो उनमें एक पराजय की भावना पैदा
हो जाती है ! भावात्मक अपसमायोजन के कारण इनमे से कुछ झात्महत्या भी करते
हैं । सम्भवतः ऊँचे आग्रु-समूहो में आत्महत्या की अधिक भात्रा मिलने का एक यह
-भी कारण हो सकता है | हि
(ध) बर्-बेसेजयार--योग्यता होते हुए भी जव व्यक्ति को प्रचलित वेतन
नही मिल प्राता त्तो यह सोच कर कि उसके श्रम का उपयोग पूरा नहीं हो पा रहा
है उसका नैतिक पतन प्रारम्भ हो जाता है। अपर्याप्त आय के कारण व्यक्ति अपनी
बेकारी 33
आकांक्षा्रों को प्राप्त नहीं कर पाता, ऊँचा जीवन स्तर रख नहीं सकता, बच्चों को
इच्छा के अनुसार शिक्षा नही दे प्रातः जिससे ऐसी स्थिति में वह आपने को विवश्ञ
पाता है वे मानसिक सन््ताप का सामना करता है ।
(2) बेरोजगारी व पराधीनता--वेरोजगार व्यक्तियों की अपने माता-पिता
के ऊपर निर्भरता और किसी आयु के बाद माता-पिता द्वारा सन््तान का भार सहन
करने की अनिच्छा (#0०४४००) बच्चो के लिए व्यक्तित्व सम्बन्धी ब्याकुलता
(55०74७४७) उत्पन्न करती है। सम्बन्धियों, भिन्रों झ्रादि पर पराधीनता और उनकी
विमुखता व अ्रनिच्छा बेरोजगार व्यक्ति के लिए न केवल आधिक परन्तु सामाजिक
समस्याएँ भी पैदा करती है । पाश्चात्य समाज में तो ऐसे आशितो को सहायता देने
का कार्य सरकार ने अपने हाथ में लिया है परन्तु भारत मे कोई विशेष सामाजिक
सहायता की योजनाएँ नही पायी जाती । माता-पिता भी अब बच्चों को शिक्षा देवा
ही अपना कत्तंव्य समभते है। शिक्षा के उपरान्त वे यह आशा करते है कि बच्चा
शीघ्र कोई आजीविका का साधन ढूंढ़ कर उनको उसके उत्तरदायित्व से मुक्ति
दिलाएगा । परन्तु जब वहुत समय तक बच्चा बेरोजगार रहता है और माता-पिता
को सहायता देने के बजाय उनसे सहायता माँगता रहता है तब माता-पिता निराश
हो जाते हैं, यहाँ तक कि बे बच्चे को छोटी-छोटी बात पर भिड़कते रहते हैं ! यह
भिड़कना भ्रौर दोष मिकालना बच्चे के लिए फिर मानसिक व सामाजिक समस्याएँ
उत्पन्न करता है। पराधीनता की समस्या न कैवल आश्रित युवकों के लिए परन्तु उन
आश्चित बेरोजगार बृद्ध व्यक्तियों के लिए भी होती है जो अधिक आयु के होते हुए
भी कार्य तो करना चाहते हैं पर उन्हें कार्य मिल नहीं पावा | ऐसे वृद्ध व्यक्तियों में
पराजय जैसी भावनाएँ उत्तन्न हो जाती है । गिलिन मे भी कहा है कि पराधीनता वे
निर्भरता से पराजय की भावना उत्तन्न होती है। जब व्यक्ति को अनिच्छुक व
विमुख रुम्बन्धियों के साथ रहना पड़ता है तो उनको आत्म-ग्लानि होती है तथा उन्हे
भार का विचार सलमे लगता है। श्रतिष्ठा की हानि, सुरक्षा की इच्छा तथा पुराने
सम्बर्धों से प्रथकत्व यविं उनको विघटित नहीं करता पर उनमें सवेगात्मक झ्पसमा-
योजन' अवश्य उत्पन्न करता है । राब ने भी कहा है कि वृद्ध व्यक्तियों की नौकरी
प्राप्त करने की असम्यंता उनके लिए पराधीनता की स्थिति व विभिन्न समस्याएँ
उत्पन्न करती है ॥7%
# 3069 7... 08॥9, 4०८४ 2१4६१४०/०४०५ 7932, 348-50.
2१ गृग्ल वेबजीव ७ घोल गृठदा फष्फरोर 50 इत्टपाल ध्याफात्जाक्षा। दाल्व'६5 8
9फण्ब ०णावा।ठ0 छा 9०ए:062:00५ 2०0 0फटा ध8॥ ९९०॥0गरा: काएफाट्श 07 पद:
[07 फक्षाव, ही 7ण6 6 ए८उव-जांवच्रव्त फिबव एचशए पीलॉ7 #005 फलवस॑घडीयों 706 पा
इ०्ल०९५, छ0फ्ऐभाड क्४0६ 0णा5 फ्रचर परभर्ण छबांता ॥9 $एलंड) अदाएड 99॥ 250 ॥96
डांस फ30 ०९०७ए़ंस्व गाए ते पधेए शफर सात टादाहांद5.,.. ऐर०च कायारांगड 0ल्00कघ९
"याश्ला॥03 ०१% फिर एव क्0. लहर फशेटड5, एगाहाफणत॥॥/, टाड:्च्ात८त, (0090९ बह व
वगारीए, हैंड वि सलागडइ ३5 २८६एचशटपे, इ 7९३प्रोफ क्9 ]05$ ० $९-८5८८६३ 260 (९5072-
भांग, १४३४४, सिगये. 8०१ उतंखाएाप, 6, 7., ॥णुक 5०८07 2४०/(८क5, ०७
ए'शालाइ9त बाप॑ 0०., १४९७ ४०78, 959, 504-05.
834 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
जब समाज में वहुत से व्यक्ति वेरोजगारी के कारण अपनी आकांक्षाओं को
समाज द्वारा मान्यता प्राप्त साधनों से प्राप्त नहीं कर पाते तो इससे समाज में
ऐनामा (४007०) की स्थिति उत्पन्न होत। है । मर्टन तथा क््लोबाई और ओहंलिन
से इसी ऐलासी और “अपराध और अवसरवादिता' को लेकर विचलित व्यवहार को
समझाया है।
इस प्रकार हम कह सकते है कि पराधीनता के कारण बेरोजगार व्यक्तियों
के लिए विशेष रूप से तीन प्रकार की समस्याएँ पायो जातो है--[क) पराघीनता
व्यक्ति को हिंसक और विनाज्ञकारी बनाती है। (ख) यह अपराध, मदिरापान आदि जैसी
सामाजिक समस्याएं उत्पन्न करती है । (ग) यह निराशा व निरुत्साह पैदा करती है ।
(3) बेकारी झौर पृथक्माव---ऊपर हम देख चुके है कि किस प्रकार वेरोज-
गारी के कारण व्यक्तियों में निराशा, हृदयहीनता, अनुशासनहीनता, अड्ियलपन आदि
लक्षण उत्पन्न होते हैं तथा वे आथिक, मनोवैज्ञानिक व सामाजिक समस्याओं का
सामना करते है। इससे व्यक्ति अपने को परित्यक्त (504०0) तथा जाने पहचाने
व्यक्तियों में स्वयं को अपरिचित व अजनबी अनुभव करता है। उसे न केवल अपने
से पृथक् होने परन्तु अपने मित्रो, सम्वन्धियों और यहाँ तक कि अपने जीवन से भी
बिलगाव (276७॥४7070) का आभास होता है। _
(क) स्वयं से पृथक्ता--वेरोजगार व्यक्ति एक भावनात्मक कठिनाई में होता
है और इस संवेग्रात्मक संकट वाले व्यक्ति अपने को विच्चछिन्न (७४४०8०१) समभति
हैं। वे स्वयं के महत्त्व तथा योग्पता को पहचाव नही पाते जिस कारण अपनी बात
को कही निष्ठापूर्वक नहीं कह सकते । अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वे अन्य
लोगों पर आश्रित रहते हैं जिससे उनसे आत्मविश्वास व आत्तमनिर्भस्ता की भावना
भी समाप्त होने लगती है। इसकी समाप्ति से फिर उनका आत्मसम्भान बने: शर्नः
खत्म होने लगता है | वे अपना अधिक समय दूसरों को प्रसन्न करने में व्यय करते हैं
जिससे स्वयं के ध्येय और आदशों, उद्देश्यों और लक्ष्यों को भूल जाते है। इसी के
कारण वे परित्यक्त ($0960) भी अनुभव करते हैं। नौकरी ढूंढने को आशा से वे
अन्य लोगों को प्रसन्न करने के लिए अपने प्रयास दुगुने करते हैं और फिर भी जब
उसे प्राप्त नही कर पाते तो उनमे और अधिक नैराश्य पेंदा होता है झौर अपने को
भौर अधिक निर्जन आमास करते हैं जिससे फिर उनके लिए अपसमायोजित व्यक्तित्व
की समस्या उत्पन्न होती है ।
(खत) मित्रों से पृथवता--वेरोजगार व्यक्ति न केवल अपने से पृथक होते हैं
परन्तु अपने मित्रों आदि से भी एकलित हो जाते हैं जिस कारण वे समान लोगो के
समूहों (८८ हः००फ) में माय लेकर व समुदाय में योगदान से प्राप्त प्ननुभव के
लाभ से घचित रहते है जो फिर उनके व्यक्तित्व पर नकारात्मक भ्रमाव डालता है।
हमारे बर्नेमात समाज वा एक प्रमुख लक्षण यह है कि सामाजिक सम्बन्धों को स्वयं
साध्य मानकर नदी अपितु उनको साध्य की प्राप्ति के लिए साधन के रूप मे विकसित
. विया जाता है। इसलिए लोग बेरोजगार व्यक्तियों से सामाजिव सम्पर्क रताने के बहुत
बेकारी ३335
उत्सुक नहीं होते क्योकि वे उनकी किसी भी आवश्यकता को विशेषकर उनकी भौतिक
आवदश्यकताम्रों को पूरा करने मे सहायता महीं दे सकते । बेरोजगार व्यक्ति फिर
किनारा किये जाने व विलगाव (आक्षा०ध०)) के कारण समान लोगों के समूहों व
मातेदारों आदि मे कोई रचनात्मक व लाभदायक कार्य नहीं कर पाते जिससे उनमें
होनता की भावना पैदा होती है ।
(4) बेरोजगार झौर सामाजिक विंघटन--बेकारी के कारण समाज के
विघटन का भी डर रहता है । सामाजिक विधटन से हमारा अभिप्राम है समाज की
बह स्थिति जिसमें (क) सामाजिक नियन्त्रण के सामान्य साधन नष्ट हो गये हो,
(ख) विभिन्न सस्थाओ मे पर्याप्त समन्वय न हो, और (ग) लोगो के विचारों मे मर्तक्य
का अभाव हो | इस स्थिति के कारण आत्महत्या, ग्रनैतिकता, श्रपराध श्रादि को
प्रोत्साहन मिलता है। दास” का भी कहना है कि बेरोजगारी से झ्राचार-अ्रप्टता व
नैतिक-पतन उत्पन्न होता है जिससे एक पीढी से दूसरी पीढ़ी मे हस्तान्तरित होने से
उसका योग प्रभाव (०एशर्णोथ0९6 थींटए)) बढता जाता है पयोकि समाज में पायी
जाने वाली इस श्थिति के प्रति जिसके लिए व्यक्ति स्वय उत्तरदामी नहीं होते, एक
व्यक्तिगत क्षति व अपकार की भावना रहती है । यह भावना सुव्यवस्थित प्रगति की
जड़ को ही प्रभावित करती है। ः
बेरोजगारी प्रौर पारिवारिक विधघटन--वेरोजगार व्यक्ति के व्यक्तित्व तथा
समाज पर प्रभाव के अतिरिक्त उसके परिवार पर भी प्रतिकूल प्रभाव पडता है।
रोजगार के अभाव में परिवार कुछ समय के लिए अपनी बचत पर आश्रित रहता है
और जब वह भी प्षमाप्त हो जाती है तो उसे कर्जा लेना पडता है, गहने और प्रन््य
बहुमूल्य वस्तुएँ बेचनी पड़ती है तथा कभी-कभी मकान का किराया आदि न देने के
कारण मकान खाली करने की धमकियाँ भी सहन करनी पड़ती हैं । उपवास के कारण
फिर पत्नी व बच्ची को काम ढूँढ़ने का प्रथत्त करता पडता है। पत्नी को शिक्षा व
प्रशिक्षण के अभाव में केवल बर्तन माजने जैसे ही छोटे-मोदे कार्य मिल सकते हैं
जो परिवार की आवश्यक आय के लिए अपर्याप्त ही होते हैं। यदि पत्नी शिक्षित् है
और उसे नौकरी मिल जानी है तो उसे फिर घर के अन्दर और बाहर विविध कार्य
करने पड़ते हैं जो कभी-कभी उसे चिड़चिड़ा व धेर्यहीव बनाते हैं वथा बमायोजन में
बाधा उत्पन्न करते हैं। इसी प्रकार जब वच्चे छोटी आयु में ही कार्य करना बास्म्भ
करते हैं तो औपचारिक शिक्षा का न मिलना उनके व्यक्तित्व के विकास हो प्रभावित
करता है। इस प्रकार बेरोजगारी से परिवार के संगठन प्र भी विसोेत्री श्रक्माव पड़ता
है। इलियट और मेरिल”* ते भी कहा है कि बेरोजगारी में पश्चिर को मानसिक
दरल |,
धीट 0०५८ * ' का » 24:
इध 078 कु व अआ ५
इटए८३ ५५४ 3५०५ +८3५००४३:०३८५--३४१, १५. (५.
> ब्यु॥8 0॥93208॥ 0९9798008, उमा ॥।
हे 2 च्ल्डर $
डाभप्रां00एच७ एफुणा ग्रियभटड $ 8 ९०2८0पच्ठा 23% कर उमा िरआ
396 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
व्यथा, नैतिक पतन और तनाव आदि का सामना करना पड़ता है । पत्नी के लिए नये
कर्तव्य, पिता के लिए सामान्य कार्यो का भ्रभाव तथा बच्चों का छोटी आयु में ही
कारखानों मे कार्य करना परिवार के ऊपर प्रतिवूल प्रभाव डालते हैं। परन्तु वेकारी
के कारण परिवारों का विघटन उनके भ्रभियोजनशीलता (30229) की शक्ति
पर हो निर्भर करता है।
राजनीतिक परिणांम--वेरोजगारी के * परिणाम राजनीतिक क्षेत्र में भी
भयंकर सिद्ध हो रहे हैं । यदि हम केरल और बंगाल के उदाहरण लेकर वेरोजगारी
की बढती हुई मात्रा और राज्यों में साम्यवाद के सिद्धान्त को मानने वाली वामपंथीय
(0श07०7/60) सरकारें बनने में पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित करें तो गलत नही
होगा । हमारी यह उपकल्पना और भी मजबूत हो सकती है यदि हम उड़ीसा, विहार
झौर उत्तर प्रदेश में बेरोजगारा से सम्भन्धित विश्वास-योग्य आँकड़े प्राप्त करने का
प्रयास करें । इन तीनों राज्यों में वेरोजगारी की मात्रा अधिक मिलती-है। परल्तु
तमिलनाडु और पंजाव में यह उपकल्पना सिद्ध नही होती । इन राज्यों में बेरोजगारी
के निम्न प्रतिशत होते हुए भी प्रादेशिक दलों ने राजनीतिक शक्ति को प्राप्त किया
है । फिर भी बेरोजगारी और साम्यवादी विचारों वाली सरकारों के बनने का सम्बन्ध
स्पष्ट ही है। लोगों द्वारा शासित दल के लिए समर्थन इस कारण कम होता गया
क्योकि उनमें यह धारणा बढती गयी कि हमारी अर्थव्यवस्था की असफलता कृषि-
क्षेत्र मे आकस्मिक कमी के कारण नही अपितु कांग्रेस के ग्राथिक योजना बनाने की
अक्षमता के कारण हुई है। अथेब्यवस्था की असफलता से कार्य करने वाले व्यक्ति तो
प्रतिकूल रूप से प्रभावित होते ही हैं परन्तु बेरोजगार व्यक्ति अधिक प्रभावित होते
हैं। साथ में बेरोजगार व्यक्ति बाग्रेस में जातीयता व प्रान्तीयता की धारणाएँ भी
अधिक पाते हैं जिससे उतका दल के समाजवादो प्रोग्राम में विश्वास समाप्त होता जा
रहा है। अकेला पराजय व निराशा अनुभव करने वाला बेरोजगार व्यक्ति वोट देते
चाले तीन प्रकार के व्यक्तियों को प्रभावित करता है--(क) अपने परिवार व निकेद
मित्रों को, (ख) पड़ोस और घर के आस-पास के समूहों को, तथा (ग) गाँवों से बाहर
रहने वाले रक्त-सम्बन्धियों को ॥ इस प्रकार परिवार, जाति और गाँवों मे वेरोजगार
च्यक्तिपों की चढती हुई संप्या सन्देहवाद (४००७४ं»ए०) की धारणा को उभारती है
व उनको विद्रोह के लिए भडकाती है तथा राजनीतिक दलो झौर वोट देने वाले
व्यक्तियों के बीच दरार को बढाती है । (967 के चुनावों तथा बाद के उप-चुनावो
में युवकों में ऐसा सन्देहवादी विरोध बहुत से राज्यों मे देखने को मिला था)।
व्यक्तियों के यह नारे कि 'हमें दल नहीं चाहिए, राजनीतिज्ञ नही चाहिए, हमें नौकरी
ड[2550$ 20पऐ इश७॥05 एा 0779, धाढ प्र८ण ठगहइबा।00$ 07 जि 204 ए0णाहा, पढ़
उष्डा]2530९55 बाप ॥820 छी॑ छछ्डो बटाएशेए 09 घी एड ० एट वितीला, पद ध्या
उग्रतैप्रश्ला०ण ७ प्ाविबत त्र० 00079 शव डी फदवर्द ,पाविए0एाउ9 ० धीढ _ जित॥
#$ 4 रीए८- व0छटच्टा, वितिी|लड पी॥६ दीईशल्डाबाल क्यीटात ०09गराल्त 57 पोद
€डहदशट्राल्4 ता. छाच्ग्राफ़ो0थ्तादगा_ अवाज़ 05६7८ॉ/ कं पीली छव्ट्राक्ांगा शात॑ँ
बत3फबजीज- नागर गाव ऋच्गी, डशसंग 074फ/ख्लावरातत, ०5 ८7., 465.
बेकारी 37
चाहिए, साना चाहिए" बढ़ते जाते है। चुनावों में विदेशी नीतियाँ, रक्षा, समाजवाद
आदि बातचीत व वाद-विवाद के विषय न होकर नौकरियों की कमी, मुद्रा-वृद्धिकरण
(जीता), खाद्य समस्या आदि विपय मुख्य रहते है। इस तरह बेरोजगारों,
विशेषकर शिक्षित बेरोजगारों, की निराश्माओं की प्रतिछाया राजनीति में दिसायी
देती हैं। उनका क्रोध व सन्देहवाद उनसे होते हुए शान: घने: अद्धं-शिक्षित और अन्त
में अशिक्षित बेरोजगारों तक फैलता है। इस फैले हुए क्रोध का राजनीतिक ढाँचे पर
प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही है। कुछ शिक्षित वेरोजगार फिर दल के कार्यकर्त्ता बन-
कर उसको आजीविका का साधन बनाते हैं। राजनातिक दलों के यह सीमान्त
(एशा््ट॥2) कार्यकर्त्ता दल के विश्वासो व विचारधारा के प्रचार करने व उसके
लक्ष्यों की प्राप्ति में महीं अपितु अपनी नौकरी के लिए अधिक चिन्तित रहते है । जब
दल मे ऐसे व्यावसायिक फार्यकर्ताओ की सस्या बढ़ जाती है तो उसके विधटन की
सम्भावना भी अधिक रहती है। यह ही मिथ्या राजनी तिज्न छात्रो में असन्तोप बढ़ाते
है, श्रमिक संघो में विद्रोह की भावनाएँ उत्पन्न करते है तथा निम्न श्रौर मध्य बर्गों
के लोगो में अद्यान्ति फैलाते हैं ।
बैकारी के कारण जन-सामान्य का असन्तोप इतना बढ़ जाता है कि इससे
भम्भीर आन्दोलन और कभी-कभी सामाजिक क्रान्ति उत्पन्न हो जाती है । बेरोजगार
व्यक्ति वर्तमान राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था के बदलने के प्रयास करते है क्योकि
इस परिवर्तन में उन्हे स्वर्य कोई हानि नहीं होती । किसी सामाजिक व्यवस्था को
स्थिर रखने के लिए दो बातों की आवश्यकता होती है--(क) छिद्त-भिन्न करने वाले
कारको के प्रभाव को वर्तमान व्यवस्था द्वारा प्रतिरोध करने की हृढ शक्ति (जैसे
अमरीका में पूँजीवादी व्यवस्था इस कारण स्थिर है क्योकि उसने निहित स्वार्थ
(५८६:०१ 7/:7८४/5) उत्पन्न किये हुए हैं । (ख) यदि वर्तमान व्यवस्था को दूर करके
कोई विकल्प व्यवस्था स्थापित नहीं की जा सकती तो लोगो को उसी व्यवस्था को
सहन करने की शक्ति ) परन्तु सामाजिक व्यवस्था की स्थिरता की यह दोनों भ्रवस्थाएँ
तब कमजोर हो जाती है जब समाज मे बहुत से व्यक्ति बेरोजगार हो जाते है। ये
बवैरोजगार व्यक्ति ही वर्तमान ढाँचे को बदलने का प्रयत्न करते रहते है। इस पूरे
विश्लेषण से ज्ञात होता है कि बेरोजगारी के राजनीतिक परिणाम कितने भयानक
होते हैं ।
बेकारी निवारण के प्रयत्त
बेकारी व भ्रर््ध-बेकारी को समाप्त करने के लिए सरकार ने कुछ निम्न प्रयत्त
किये हैं---
(१) आशिक विकास के लिए योजनाएँ बताकर -लाखो व्यक्तियों को रोजगार
के अवसर प्रदात किये गये है । पहली पंचवर्षीय योजना में 2378 करोड़ रुपया
लगाकर लगभग 50 लाख व्यक्तियों को रोजगार के भ्रवसर प्रदान किये गये थे |
द्वितीय योजना के आरम्भ में बेरोजगारी इतनी विकृत थी कि सरकार को 53 लास
438 सामाजिक समसयाएँ और सामाजिक परिवर्तन
व्यक्तियों को सेजगार देने के साधन जुटाने थे परल्तु इनमें से केबल 80 लाख को ही
((5 लाख ग्रामीण क्षेत्रों मे, 65 लाख शहरी क्षेत्रों में) रोजगार दिया जा सका ।
योजना कमीक्षन का विचार था कि सभी बेरोजगारों को नौकरी के अवसर प्रदान
करने की असमर्थता (वेकारी) समस्या के बहुत किक मात्रा के कारण थी। सभी
बेरोजगारों को कार्य दिलाने का लद्य शर्म: झनेः बन, कृषि, मत्स्य-पालन और उद्योग
आदि के विकाम् द्वारा ही सम्भव हो सकता है /* तृतीय योजना के आरस्म होते के
समय 90 लाख व्यक्ति वेरोजगारी और 350 लाख अर्द्धऔबेरोजगारी की स्थिति में
थे । इसके अतिरिक्त 70 लाख नये व्यक्तियों के लिए रोजगार की व्यवस्था करनी
थी । इस योजनाकाल में सरवगर ने 260 लास में से 730 लाख बेरोजगारों को
रोजगार प्रदाव करने की व्यवस्था की । चतुर्थ योजना में भी सरकार ने 3*6 करोड़
(१-3 करोड़ अवशेष और 2'3 करोड़ नये व्यक्ति) बेरोजगारों में से |:9 करोड़
व्यक्तियों के रोजगार की व्यवस्था करना अपना लक्ष्य माना था।
(2) जनसस्या की तीब्र वृद्धि को नियन्नित करने के लिए परिवार नियोजन
कार्यक्रम पर चल दिया गया है जिससे ग्रायोजन के लक्ष्य प्राप्त किये जायें।
(3) बैकों के साप्ट्रीयकरण द्वारा कुटीर उद्योग व छोटी मात्रा के उद्योग
' आदि को अपने व्यापार के विकास के लिए ऋण आदि वित्तीय सुविधाएँ प्रदान की
गयी हैं। इससे मौसमी वेकारी व कृपि-सम्वन्धी वेकारी कम होने की सम्भावना है ।
(4) सामुदायिक विकास योजनाओं द्वारा कृषि विकास सम्बन्धी आशुनिकतम
सुविधाएँ प्रदान की गयी है। कृषि व हरित क्रान्ति लाने के लिए अथवा कृषि मजदूरों
की बैकारी को दूर करने के लिए अनेक भूसेचन-सम्बन्धी, सहकारी सम्बन्धी अथवा
यान्त्रिक खेती में वृद्धि-सम्बन्धी योजनाएँ बताया गयी है । परन्तु इन समस्त प्रयतों
के बाद भी बेरोजगारी कौ कम नही किया जा सका है और न बेरोजगारों के लिए
कोई सामानिऊ सुरक्षा-सम्वन्धी योजना प्रारम्भ को जा सकी है।
(5) भ्रृद्ान आन्दोलन में मिली भूमि को भूमिहीद कृपकों मे वितरित करके
व सामाजिक सुरक्षा की कुछ योजनाओं को बताकर सरकार ने वेकारी के प्रभाव को
कम करने का प्रयत्त किया है ।
वेरेजगारी और सामाजिक सुरक्षा
सामाजिक सुरक्षा की योजनाएँ वेकारी को समाप्त करने के लिए नही
अपितु वेशेजशार व्यक्तियों के कष्ट व बलेश को कम कर उनके भावात्मक अस्थिरता
> >टफाबउल्ांतड 886 फग्हताप्रपंह णी ६६छफाड परयाध्काओ०॥फलतर बावे अवेबीशंणता5
(० ॥बघ०घ८ छि८०, 50 %ए0एठ 0० बराएण7६०ए (७ शग॑व 60908 छा 00798 छ।80 णि। ९॥एछ०9-
_ 707 छ0णञंति 56 5९०छा<प ७४ (96 लात ता पा& इ९००३०. 80... पाठ छण्थी ग88 ६० 00
बलांलण्टत एज 8 इछा९5 एज ज्ोड्ग्रपरव लींगाड (पल तएटॉग्एग्राला छई बट्लांटण।धत्छ
तुड्स्टा99फ८०५ ० गश्ञालाढ$ 200 0555, 6८एड०जाला( ० बेतउप५ं८5, एए/008 ०005-
चएलॉएा बलाम॑(तल्ड डा दलशश०एकब्ण ण॑ (्तांदा३ उबटलाएा, गेबडतट्ठ 05८९ 2 एच
86५09. धाड उल्णणाव छीकव *--एाउ्ल्रव0ाएड ९0०फाचाडे०्), डल्टकाब हो6 2श्वा कीधिा। (2:
बेकारी 39
थे व्यक्तित्व के विघटन को नियन्त्रित करने के लिए है। इन सुरक्षा की योजनाओं
द्वारा समाज व्यक्ति की आपत्तियों व कष्टों को स्वय ग्रहण करता है। भारत मे अभी
तक बेरोजगारी-सम्वन्धी सुरक्षा सरकार द्वारा उपलब्ध नही की गयी है यद्यपि 4969
में लोकसभा में उससे सम्बन्धित एक विवेयक रखा गया था। अमरीका, ब्रिठेन,
कनाडा, स्वीडन, तथा आस्ट्रेलिया मे सामाजिक सहायता की योजनाएँ आरम्भ की
गयी हैं जहाँ बेरोजगार व्यक्तियों को सरकार से सहायता पाने के लिए कुछ निम्न
प्रकार की आवश्यक शर्तें पूरी करनी पडती है : (अ्र) व्यक्ति कार्य करने के योग्य हो,
(भा) वह किसी भी प्रकार का कार्य दिये जाने पर उसे लेने के लिए तैयार हो,
(इ) रोजगार के दफ्तर में पजीयन (7०87/४2००) हो, तथा (ई) वह प्रशिक्षण प्राप्त
करने के लिए तैयार हो आदि । भारत मे सामाजिक सहायता की योजना बहुत
अधिक बेरोजगारी व निर्धनता के कारण आरम्म करना वांछनीय नहीं है और न
सम्भव ही है। यदि एक बेरोजगार व्यक्ति को प्रतिमाह 20 रुपये भी दिये जायें (जो
आज के युग में केवल खाने, कपडे जैसी आवश्यकताओं के जिए भी पर्याप्त
नही हैं) तव तीन करोड़ लोगो को प्रतिमाह 60 करोड व प्रतिवर्ष 720 करोड़ देता
पड़ेगा । भारत जैसे निर्धन देश के लिए इतना बड़ा मूल्य समाज के केवल एक समस्या-
ग्रस्त समूह के लिए व्यय करना सम्भव नही है । इस कारण यहाँ सामाजिक वीमे की
योजना ही अधिक उपयोगी होगी जिसमे श्रमिक, मालिक झौर राज्य के त्रिपक्षीय
चन्दे में बीमान्वित (7577९0) व्यक्तियों को हित-लाभ दिया जाता है | ऐसी योजनाएँ
इंग्लैण्ड (935), कमाडा (940), न्यूजीलंण्ड (935), इटली (939), नार्बे
(939), दक्षिण अफ्रीका (937) और अमरीका (937) आदि राष्ट्रों में पायी
जाती है। इस योजना के मनोवैज्ञानिक व सामाजिक लाभ को देखते हुए भारत में
इसे शीक्षतापूर्वक आरम्भ करना आवश्यक है। परन्तु जैसा कि हम पहले बता चुके
हैं भारत में वह बेकारी नही है जो थोड़े समय के लिए है और जिसे प्रवन्ध करने
योग्य सीमा (गर॥9863896 970900०7) तक कमर किया जा सकता है । हमारे यहाँ
बेरीजगारी की प्रकृति तथा मात्रा ऐसी है कि सुरक्षा जैसी योजनाएँ आसानी से
प्रारम्भ नहीं की जा सकती | यदि हम केवल कृपक का ही उदाहरण लें तो वह
निश्चित रूप से अपने थीमे की किश्त देने के योग्य नहीं हैं। दूसरे झब्दों मे सारा
भार सरकार पर ही पठेगा जो कि इस वोफ को उठाने की अवस्था में नही है ।
सम्भवत. यही कारण है कि दिसम्बर 958 में सामाजिक सुरक्षा पर नियुक्त किये
गये अध्ययन समूह ने भी बेकारी सहायता को किसी भी रूप मे आरम्भ करने के
लिए कोई सुझाव नही द्विया |
सम्पूर्ण बेकारी निराकरण की सम्भावना
क्या समाज में पूर्ण रोजगार की स्थिति लाना सम्भव है अथवा एक कल्पना ?
बैवरिज का विचार है कि पूर्ण रोजगार न केवल स्वाघीन समाजो में अपितु सर्वा-
धिकारवादी समाजों में भी सम्भव है; दूसरी ओर कार्ल माक्स का विचार हैं कि
]40 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
पूर्ण रोजगार पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के कारण असम्भव है। पिछले दो महायुद्धों में
बहुत से देशों मे पूर्ण रोजगार की स्थिति पायो गयी थी। जब युद्ध-काल में यह
सम्भव है तो युद्ध-निवृत्ति काल में क्यों नही ? प्रइन केवल ऐसे साधन अपनाने का
है जिनकी सफलता प्रायोगिक व वास्तविक हो ।
बेकारी को दूर करने का दीधंकालीन (]978-०7) सुझाव केवल तीत्र गति
का आर्थिक विकास ही हो सकता है जिसकी सफलता फिर बढती हुई जनसख्या को
रोकने पर आधारित है| दुसरे शब्दों में जनसंख्या-नियस्त्रण वेकारी के निवारण कै
लिए अत्यन्त आवश्यक है। एक ओर जआध्िक विकास रोजगार के अधिक अवसर
उपलब्ध करेगा, दूसरी ओर जनस्रख्या;नियन्त्रण युवकों के श्रमिक समुहो के बढ़ती
संख्या को कम करेगा । है
दूसरा सुझाव बेरोजगारी को कमर करने के लिए माध्यमिक और स्नातक
स्तर पर विद्यार्थियों को बढती हुई प्रवेश-संख्या को रोकमा है। यह विशेषकर शिक्षित
गरुवकों मे वेकारी को रोकने में सहायक होगा । शिक्षा कमीशन की रिपोर्ट के अनुप्तार
966 मे 60 कालेज ऐसे थे जहाँ सौ से कम विद्यार्थी ये । सम्भवतः ये शिक्षा"
स्रस्थाएँ समाज की आवश्यकता को प्रा करने के लिए नही परन्तु अन्य आवश्यकताओं
के कारण खोली गयी थी । अधिक शिक्षा-संस्थाएँ खोलने के बजाय शिक्षा के स्वरूप
में सुधार करता आवश्यक है। जब तक शिक्षण-व्यवस्था का उत्पादन भौर नये
उपलब्ध किये हुए रोजगार के अवसर वराबर न हों, शिक्षित-बेरोजगारी कम मही
हो सकती । परन्तु माध्यमिक भौर ऊँची शिक्षण संस्थाओं मे प्रवेश पर प्रतिवनन््ध
सम्भवतः वतंमान समय में राजनीति की दृष्टि से स्वीकृत न हो। इसके अतिरिक्त
ग्रामीण लोग व पिछड़े हुए वर्ग भी अवश्य इस विचार का विरोध करेंगे । नगरीय
क्षेत्रों मे भी कुछ व्यक्ति माध्यमिक और ऊँचे स्तर पर प्रवेश के भप्तिवन्धों को समाज
के आधुनिकीकरण मे बाधा मानेंगे । इस्र प्रकार सीमित प्रवेश की नीति के प्रतिकूल
जनमत होने के कारण हमें प्रत्यक्ष तरीके नहीं अपितु अप्रत्यक्ष तरीके ही अपनाने
होंगे। उद्यहरण के लिए माध्यमिक शिक्षा के बाद यदि लोगों को आवश्यक
व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाये तो बहुतों को ऊँची शिक्षा को प्राप्त करने से रोका
जा सकता है तथा स्नातक वे ऊँचे स्तर प्र दबाव की कम किया जा सकता है।
इसी प्रकार यदि केन्द्रीय और राज्य सरकारें अपनी भर्ती करने को नीतियाँ बदल दें
तथा अपने आवश्यक कर्मचारियों को माध्यमिक शिक्षा की समाप्ति पर चुनाव करने
के बाद सरकारी सचे पर प्रशिक्षण दें तो इससे भी ऊँची शिक्षा पर दबाव को रोका
जा सकता है। केवल वे ही युवक ऊँची शिक्षा भ्राप्त करना चाहेये जिनकी ऊँची
ज्षिक्षा में बहुत रुचि होगी ) फिर माध्यमिक स्तर पर पाठ्यक्रम को भी व्यावहारिक
बनाने से युवकों को न केवल रोजगार उपलब्ध करने मे सहायता दी जा सकती है
परन्तु उन्हें विश्वविद्यालय (डिग्री) उपाधियों के प्रलोभव से वचाया जा सकता है।
तीसरा सुझाव यह दिया जा सकता है कि लोगो को इस प्रकार की शिक्षा
दी जाये जिसधे उनके सौकरी-सम्बन्धी प्रतिष्ठा के मुल्य बदल जायें। स्वेतवस्त्रघारी
वेकारी वा
नौकरियों को अधिक प्रतिष्ठा देना और छोटी नौकरियों को छोड़ देना तथा वेतन
वाली नौकरियों (४०४० थणए0/7८॥) को अपने घन्ये (5४व॥ए०एशा।) से
अधिक अधिमान देने जैसे मूल्यों को बदलना आवश्यक है। केवल साहसी और
निर्धारक प्रयास ही इस प्रकार वेकारी की समस्या का निवारण करने मे सहायक हो
सकते है । समस्या पर विद्या-सम्वन्धी वाद-विवाद असयोजित है। राजनीतिज्न भी
अभी तक इस समस्या से प्रभावित नही हुए हैं, विशेषकर इस कारण क्योंकि बेरोजगार
व्यक्तियों से उन्हें आवश्यक राजनीतिक समर्थन मिल जाता है। इस कारण
विद्वानों और राजनीतिक नेताओं के आपसी सम्पर्क और सहयोग के अभाव में समस्या
के समाधान के लिए शक्तिशाली कार्य नही किये गये है । इस अक्रियता (8०007)
को पृष्ठभूमि में बेरोजगार व्यक्तियों की संख्या वढना स्वाभाविक ही है । भारत जैसे
अद्ध-विकसित देश में यदि अनैच्छिक निष्क्रियता को नियन्त्रित न किया गया तो इसके
परिणाम न केवल व्यक्ति और उसके परिवार के लिए परन्तु समाज के लिए भी अति
हातिकारक सिद्ध होंगे ।
बेरोजगार व्यक्तियों की आथिक स्थिति कंसी भी हो वे समाज में तनाव के
केन्द्रीय-विन्दु (0०७) 90०75) होते है और जब बेरोजगारी में शिक्षित व्यक्तियों का
मिश्रण होता है तो परिस्थिति ज्वलनशील ([7गीभग790०) वन जाती है । इस'
प्रज्यलित परिस्थिति को यदि आवश्यक पूवपिक्षित क्षण (70-०५परंआं(०5) मिल
जायें तो उससे विस्फोट ही उत्पन्न होगा जो विद्यमान सामाजिक व्यवस्था को ही
समाप्त कर सकता है | जैसा कि पहले ही बताता गया है, बंगाल, उत्तर प्रदेश आदि
राज्यों मे विद्यमान बेरोजगारी और सामाजिक अन्याय के विरुद्ध कुछ छोटे विस्फोट
और छोटी चमक अभी से ही दिखायी देते है । इन सबको रोकने के लिए बेरोजगारी
को समस्या को युद्ध के स्तर पर हल करने का प्रयत्न करना अत्यन्त आवश्यक है।
न
) धदिद्यार्यों अ्रतन्तोष
| ए7रए०7ह७प' एरार879)
प्रिछते कुछ वर्षों में भारत में कोई विषय इतना बहुचचित व् चिस्ताजनक
नहीं रहा है जितना विद्यार्थी असन्तोष व छात्र अनुशासनहीनता ) प्रायः प्रतिदित ही
हमे अनवरत रूप से समाचारपत्रों में छात्र आन््दोलनों की घटनाएँ पढने को मिलती
है । यह घटनाएँ कई रूपों में मिन्नत्ती है; जैसे हड़ताल, पथराव, सत्याग्रह, मूख-
हडताल, दंग्रे-फस्ताद, परीक्षाओं से वहिगेंमन, आगजनी, अध्यापकों का अनादर,
सा्वेजनिक़ सम्पत्ति का विनाश, कालेज व विश्वविद्यालय में फ़र्केक्तर व खिड़की की
तोड़-फोड, रेल की पटरियों व सावेजनिक स्थानों पर धरना देकर समाज के सामान्य
जीवन को भंग करना, इत्यादि । डा० फिल्रिप एलबैच के अनुसार 966 में भारतवर्ष
में कुल 2206 छात्र प्रदर्शन हुए जिनमे 480 हिंसात्मक थे ।! यदि इन अनुशासन-
हीनता की क्रिंयाओ का हम वर्गीकरण करें तो मुख्य रूप से हमें इनके चार अकार
मिलते है । £
() विश्वविद्यालय व फालेज के नियप्रों का साधारण उल्लंघन (गाए0/
4८ए०७४०)---जैसे कालेज के वरामदों में चिल्लाना, धास के मंदान को नप्ट करना,
कानेज कैन््दीन में कोलाहल मचाना, आदि ।
(2) शहर के लोगों से संघर्ष व लड़ाई--किसी वास्तविक या कल्पित
विद्यार्थी-स्थिति की अवहेलना की लेकर शहर के लोगों से कगड़ा आदि करना, जैसे
सिनेसा से कम्सेशन को लेकर, ट्रैफिक पुलिस द्वारा नियम पालन पर बल देने को
लेकर, अथवा किसी रेस्टराँ मालिक से किसी चीज के पैसों की लेकर लोगों की
मारपीट करना । $
(3] भ्रहिसात्मक व शान्तिपुर्ण प्रदर्श--जों शिक्षा-सम्बन्धी शिकायतों थे
सार्वेजनिक समस्याओं को जताने हेतु किये गये हो ।
(4) हिंतात्मक झारदोलन--जो अपने शिक्षा-सम्बन्धी कप्ट व क्वेश को दूर
करने के लिए अथवा किसी राजनीति व सामाजिक समस्या को लेकर किये गये ही।
देश मे बढते हुए हिमात्मक व अहिंसात्मक घटनाओं से ऐसे लगता है कि
हमारे चवयुवक्र उपद्रवी व अध-पत्तित (४0०७७) व्यक्ति बनते जा रहे हैं। एक
3 3॥98०॥ उ्फी।क, २४१एच८०१ द्वाए ?०प्रोऐैद७ इंच ठीम्बैंटवश स्का८ट+, (20.). [52५
860५५ ॥६३४४४७, 835 छ8000:5, ॥0९., एप्जा$ढ5, 7. ४०४६, 967, 74-92.
विद्यार्थी असन्तोष ]43
साधारण व्यक्ति की हृष्टि में आज का छात्र भूगड़ालू, असभ्य और कुशिक्षित माना
जाता है ।
बैसे छात्र-प्रदर्शन व प्रतिवाद कोई नयी चीज नही है । स्वतन्त्रता आन्दोलन
में विद्याथियों ने इन प्रदर्शनो द्वारा प्रमुख कार्य किया था । ऐतिहासिक हृष्ठि से
विद्याथियो का पहला आन्दोलन 905 में दिखाई दिया था जब कलकत्ता और ढाका
के विद्यार्थियों ने बंगाल के विभाजन का विरोध किया था। इसी आन्दौलन को हम
देश के राजनीतिक क्षेत्र मे विद्याथियों द्वारा भाग सेने को आरम्भ-विन्दु मान सकते
हैं। तब से विद्याथियो मे ।99, 932, 942, 947 भौर उसके बाद कई
अवसरो पर राजनीतिक आन्दोलनों में भाग लिया है। परन्तु स्वतन्त्रता के पहले
विद्यार्थी आन्दोलनो और प्रदर्शनो का रूप और उनके कारण दूसरे थे और अब दूसरे
ही मिलते है ! उस समय के छात्रों का शिक्षा प्रणाली के उद्देश्यों में पूरा विश्वास
था। वे केवल विदेशी शासव के विरुद्ध विद्रोह करना चाहते थे तथा उनका कार्य
राष्ट्र के अन्य व्यक्तियों के साथ एक सहानुभूति-युक्त कप्ट भोगने का कार्य ($/प्रफथा-
७४० डगीटिएंगह) था । उनका राजनीति में इस प्रकार का भाग लेना विश्व के बहुत
देशों में पाये जाने वाले विद्यार्थियों के राजनीतिक क्षेत्र में विक्षोभ व आन्दोलन से
मिलता है; जैसे जमंनी, रूस और फ्रान्स में विद्यार्थियों ने 9वी शवाब्दी में ही
राजनीति में सक्रिय भाग लिया था। वर्तमान समय मे विद्याधियों द्वारा राजनीति में
ऐसा भाग लेना जापान में छात्रो द्वारा प्रधानमन्त्री किसी के विरुद्ध प्रदर्शन में
इन्डोनेशिया में अमरीका के विरुद्ध प्रतिवाद मे, चीन में सास्कृतिक क्रान्ति स्थापित
करने के लिए, भ्रीर अमरीका व इंग्लैण्ड में एटम बम्व के भ्रयोग की समाप्ति के
लिए मिलता है। इन सभी देशो में छाभो का कार्य पूरे देश के साथ एक सहानुभूति
जताने का कार्य था। परन्तु अब उनके आन्दोलन का रूप ही भिन्न है। अब वे
वर्तमान ईक्षणिक व्यवस्या को ही बेकार समभते है। झपनो शिकायतों को दूर
करवाने के लिए आन्दोलन को अन्तिम आश्रय अपनाने के बजाय झब आरम्भ ही
आन्दोलन से करते हैं । इसके पूर्व की हम आन्दोलन और अनुशासनहीमता के कारणों
और परिणामों का विश्लेषण करें हमें विद्यार्थी असन्तोप व अनुशासनहीनता का सही
अर्थ समझना चाहिए।
विद्यार्थी अनुशासनहीनता की परिभाषा ,
विद्यार्थी श्रनुशासनहीनता में हमे “विद्यार्थी और 'अनुशासतदह्दीनता” शब्दों को
समभना होगा | वैसे विद्यार्थी तो तीन साल से चालीस तक या उससे भी ऊपर
की श्रायु का व्यक्ति हो सकता है परन्तु 'विद्यार्यी से हमारा अभिग्राय उस शिक्षा पाने
बाले व्यक्ति से है जो अनुधासनीय कार्य करने तथा अव्यवस्था व अग्मान्ति उत्पन्त करने
' के योग्य हों। ऐसे व्यक्ति अधिकतर 5 और 25 वर्ष के आमु-समूह के होते हैं।
यह आउु-समूह बाग विशेष विवरण मनमाना व लिरंकुण (#छाध०9) है परन्तु फिर
भी यह छात्र विक्षोम की समस्या के विश्लेषण के लिये आवश्यक है। इस आयु-समृहद
]44 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवतंन
के व्यक्तियों को शारीरिक व माठसिक भक्ति तथा अत्युल्लास व उत्साह इतना अधिक
होता है कि उन्हें अपने प्रदर्शत के लिए आवश्यक निकास (०४७७) चाहिए । यदि
यह शक्ति और उल्लास किसी निर्माण सम्बन्धी (४०४४८) कार्य के लिए प्रयोग न
किया गया तो यह अपने को किसी असाम्राजिक कार्य करने में व्यस्त करेगा। तथ्य
तो यह है कि विद्यार्थियों में वर्तमान असन्तोप का प्रमुख कारण यही (शक्ति प्रदर्शन
का उचित निकास न मिलना) है ।
अब प्रश्न है कि अनुशासनहीनता' क्या है ? क्या यह सत्ता या प्रमुत्व के
प्रति भवज्ञा (त8096वी०70७ ६0 धा।०तं() है, अयवा वृद्धजनों के प्रति असम्मान
व अशिष्टता है, अथवा प्रथाओं से विचलन है, अथवा नियन्त्रण की अवहेलता करना
है ? यदि विद्यार्थी अपने उचित व जायज अधिकारो की प्राप्ति के लिए हड़ताल व
सत्याग्रह आदि जैसे अहिसात्मक तरीके अपनाता है तो इनकों 'अनुशासनहीनता' नही
माना जा सकता। समाज विद्यार्थियों से क्या प्रत्याशा करता है ? मुख्य रूप से
विद्यार्थियों से (क) विनिहित ज्ञात व विद्या प्राप्त करने, व (ख) उत्तरदायी और
उपयोगी नागरिक बनने के लिए व्यक्तित्व के विकास का प्रयास करने की भागा की
जाती है । इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए समाज द्वारा मान्यता प्राप्त साधन हैं:
परीक्षा पास कर डिग्री प्राप्त करना, पाठान्तर क्रियाओं में भाग लेना तथा शिक्षण
संस्था के विभिन्न कार्यो मे भाग लेकर अनुशासन व प्रवन्धकीय सम्बन्धी प्रशिक्षण प्राप्त
करना, आदि। विद्यार्थी अनुशासनहीनता इन लक्ष्यों की छोड़ देना व मात्यता-आरप्त
साधनों से विचलित होना है । विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा विद्यार्थी असन्तोप
के अध्ययन हेतु नियुक्त की गयी 960 की कमेटी ने भी विद्यार्थी अनुशासनहीनता की
परिभाषा में अध्यापक के प्रति अशिष्टता, लड़कियों से असम्य व दुव्यंवहार तथा
मान्यता-प्राप्त धर्म-सहिता अथवा विधि-संग्रह से छोठे उल्लंघन जैसे कार्यों को
सम्मिलित नहीं किया है क्योकि उनके विचार में जहाँ युवा लड़कों और लड़कियों
के मिले-जुले बडे समूह इकद्छे पाये जायेगे वहाँ ऐसा विचलित व्यवहार अवश्य
मिलेगा ) इसलिए कमेटी ने विद्यार्थी अनुशासनहीतता को इस प्रकार परिमापित
किया : जनसमूह का नंतिक पतन व सत्ता का सामूहिक उल्लंघन व वास्तविक या
काल्पनिक शिकायतों को दूर करवाने के लिए ऐसे तरीकों का उपयोग जो विद्याथियो
के लिए उचित नही हैं ।*
इस परिभाषा में दो मुस्य बातें मिलती हैं--(7) अनुद्यासनहीनता की
परिभाषा में व्यक्तियों द्वार नियमों के उल्लघन को सम्मिलित नही किया गया है तथा
केवल उन्हीं कार्यों को इस परिभाषा में रखा गया है जिसमे समूह द्वारा नियमों का
उल्लंघन पाया जाता है। परन्तु श्रश्व यह है कि जब एक व्यक्ति में पाया जाने वाता
साधारण विचलित व्यवहार छात्रों में ध्यापक रूप में पाया जाता हो तो उसे कंसे
३ हक्कना ० 0:6.0, टछन्यधलर ०5 98 276८८ त॑ 5५:०५ [032 96 ]
088, 3960.
विद्यार्थी असन्तोष ]45
अनुशासनहीनता की परिभाषा से अलग किया जा सकता है क्योकि उतके ये कार्य
विद्या्ियों में नये नियमों के संग्रह के उभडने को सूचित करते हैं | (2) इस परिभाषा
में कमेटी ने शिकायतों को द्रुर करने के लिए अनुचित साधनों के प्रयोग
को ही अनुणासनहीनता माना है।अब यह कैसे मालूम किया जाये कि
कौन से साधन उचित हैं। किसी चीज का उचित अथवा अनुचित होता समाज
द्वारा मान्य व्यवहार के नियमो .पर निर्भर करना चाहिए और इसे मालूम करना
आसान नही है ।
इन्ही कठिनाइमों के कारण कुछ विद्वानों ने अन्य रूप से हो विद्यार्थी
अनुशासनहीनता को सफाया है। उदाहरण के लिए मर्टन के सिद्धान्त के आधार
पर एक यह विचार दिया जाता है कि किसी संस्था मे अनुशासन का अर्थ है उसके
नियमों और रूढियो का आदर करना तथा उनका पालन करना । इसके उल्लघन की
अनुशासनहीनता कहा जा सकता है। सस्था के सदस्य इन नियमों को इस कारण
मानते है क्योंकि वे उसके लक्ष्यों को स्वीकार करते है और सोचते है कि व्यवहार के
विनिहित नियम इन लक्ष्यों को प्राप्ति मे सहायक होगे। अब कोई भी संस्था सभी
सदस्यों से नियमों के पालन की आशा नहीं करती । परन्तु संस्था के विध्यात्मक
(ए०आं।५०) और नकारात्मक नियम और निर्देश सदस्यो की अनुशासनहीन ता को इतने
सीमित रूप मे रखते हैं कि सस्था के सामान्य कार्य मे कोई रुकावट न हो । परल्तु
अनुशासनहीनता की कठिन समस्या तब उत्पन्न होती है जब नियमों का उल्लघन इस
सीमा तक पहुँच जाता है जहाँ उपलब्ध व प्रचलित नियम परिस्थिति को नियन्त्रित
करने में असफल मिद्ध होते है । यह परिस्थिति श्र उसके परिणामस्वरूप अनुशासन-
हीनता निम्न तीन तरीकों से उत्पन्न हो सकती है--
() सदस्यों की संस्था के लक्ष्यो मे श्रभिरुचि ही समाप्त हो जाये । ऐसी
परिस्थिति में वे शस्था के सदस्य तो रहते है परन्तु उसके नियमों के कठो रतापूर्वक
पालन करने मे कोई रुचि नहीं दिखाते १
(2) सदस्य लक्ष्यों को तो स्वीकार करते हो. परन्तु सस्था उनको प्राप्त भी
कर सकेगी इसमे उनको सन्देह हो। ऐसी परिस्थिति में उस अयोग्यता व अपर्याप्तता
को दूर करने का प्रयास सही भोर उचित तरोका होगा । परन्तु क्योकि पृर्वेस्थापित
सियमों में परिवर्तन लाठे मे विरोध के कारण सुधार यावा आसान नहीं है इसलिए
सदस्यों का संस्था में विश्वास हो समाप्त हो जाता है जिसमे नियमों का पालन भी
समाप्त हो जाता है तथा अनुशासनहीनता उत्पन्न होती है ।
(3) संस्था के नियम और निर्देश परिस्थितियों के बदल जाने के कारण
अनुपगुक्त होने से निष्फल व निरथंक हो जाये ।
१ जी, से, $., शाते एशेफॉड, 5०३, ग्रेट 7950फ८० (४७४७७३" ॥98 57६०-
/089 ली खइतमांग वंछ शीत, 2३६५ ४५ 6076, 2५, 5., ]रक्षा००४३) 20०7८! 6" 584फटर-
ह073] २९$८चाल। 306 पपांपा/ए, 05४ ॥967, 343.
[46 सामाजिक समम्याएँ और सामाजिक परिवर्दत
विद्यार्थी विक्षोस व अनुशासनहीनता के कारण
उपर्युक्त तीन परिस्थितियों के आधार पर विद्यार्थों अनुशातनहीनता का
विश्लेषण अलय-अलग रूप में किया यया है। यह चविइलेषण विश्येप स्थानों में विशेष
भाल्दोलन को लेकर नही अपितु घटना को भारतीय इतिहात्त, संस्कृति व संरचना के
सन्दर्भ में सामान्य रूप मे रखकर किया गया है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग
द्वारा वियुक्त कमेटी ने छात्र श्रनुशासनहीनता के निम्न कारक दिये है*--
(4) श्राथिक कारक--जैसे फीस बढाना, छात्रवृत्ति कम करता तथा उसका
पक्षपातपूर्ण वितरण, आदि |
(2) परीक्षा व प्रदेश प्रणाली--जैसे प्रवेश सम्बन्धी नीतियाँ, कक्षा में पढ़ाने
का माध्यम, परीक्षा प्रणाली में परिवर्तेद, पास होने के नियम, आदि !
(3) पअ्रपर्पाप्त ध्यवस्था--जेसे अयोग्य शिक्षक, पुस्तकालयों व प्रयोगशालाओं
की अपर्याप्त सुविधाएँ, शिक्षकों व छात्रों के पारस्परिक सम्पर्क का अभाव प्रादि।
(4) रहने सम्बन्धी व्यवस्था--जँसे पीने के पाने व कैन्दीन आदि की
सुविधाओं का न होना, होस्टल की कमी अथवा होस्टल में स़राब खाना मिलना,
भादि ]
(5) नेतृत्व---विद्यार्थी-राजनी तिज्ो, अध्यापकनराजती तिज्ञों तथा राजनीतिक
नेताओं द्वारा प्रोत्साहन मिलना व उकसाया जाता ।
विद्यार्थी श्रसन््तोष पर एक ताजा रिपोर्ट में छात्रों में असन्तोष के तिम्व चार
कारण दिये गये हैं*---
(7) विद्यौशार्जन हेतु उचित (97०9०ए ३८४००॥7०) वातावरण का भभाव ।
(2) सत्ता (माता-पिता, झैक्षणिक व सरकारी) के प्रति आदर व सम्मान का
मभाव।
(3) आदर्चात्मक निराशा (0०००ह८०४) ॥7ए87द्घ/00) ।
(4) राजनीतिक हस्तक्षेप ।
एक समाजशास्त्र के विद्यार्थी! के अनुसार विद्यार्थी अनुशासनहीनता का दोष
विद्यार्मी मे नही परन्तु उस सामाजिक पर्यावरण में है जिसमें वह रहता है। आाधिफ
अयुरक्षा, शिक्षा-अणाली में वार-बार परिवर्तन, पढ़ाते की माध्यम सम्बन्धी अनिशचयत्ता,
का्लेजों मे भीड-भाड़, अयोग्य प्राध्यापक, आदि कुछ ऐसी बाघायें हैं जो विद्याधियों
की उनके लक्ष्यों की प्राप्ति नही करने देती $
मेटा स्पेन्सर के अनुसार भारतीय छात्रों की असन्तुष्टि बात मूल बारण
अविष्य की असुरक्षात्मक भावना है (! एडवर्ड शिल्स के अनुसार भारत में छात्र
3 00727 2. ७. ६. (०शणएऑ[7१९, ०. ८7.
+ /& (00च65907४८७६, *5६७0८6७६ वच्ता१टलछ06 च्रवते€र 50079, उ#7्०2/7 96६५
20, 966, १!.
# इल्ट उटवरंबबल, १ैरे0, 44 ०त *(घंडंड जा 46 एथायए०5९ शै0पो 963.
3 ९(७ उरटयव्टट, ११८० डसंग्जा, उद्ल्वघीर 899 ऑटल्थएओ 5॥2600 व
चिता 75 5/0स४7 22704, ९०४. 0५ !वक/5०, ००, ४४७ 357-69.
विद्यार्यी असन्तोष 847
आन्दोलन भारतीय सुसस्क्ृति में विद्यमान यौन सम्बन्धी रिक्तता (उध्ययर्ष
एएप्रणा) के कारण हैं (*
जोजिफ डायवोता ने उत्तर भारत मे एक विश्वविद्यालय में विद्यायियों के
आस्दोलन का अध्ययन करके छात्र अनुशासनहीनता के आथिक, राजनीतिक तथा
मनोवैज्ञानिक व सामाजिक कारण दिये है ।!* उसके (क) आथिक व्याश्या के अनुसार
अनुशासनहीनता विश्वविद्यालयों और देश की अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं में
असम्वन्ध के कारण उत्पन्न हुए तनावो का एक लक्षण है। शिक्षा का व्यावसायिक
दृष्टिकोण एक मान्यता प्राप्त दृष्टिकोण है । आज की बदली हुई परिस्थितियों में
नौकरी चाहने वाले विद्याथियो और रोजगार के पर्याप्त अवसरो के अनुपात मे बहुत
अन्तर मिलता है । इससे उन छात्रों मे बेकारी अधिक मिलती है जिनमे आवश्यक
प्रशिक्षण का अभाव होता है। (ख) मनोवैज्ञानिक-सामाजिक व्याख्या के अनुस्तार
छात्र-शिक्षक के वीध सामाजिक व मनोवैज्ञानिक दूरी अथवा शिक्षा-प्रणाली में दोप
तथा भारतीय समाज के श्रेणीवद्ध (#८»०॥८४७)) संरचना के कारण श्रनुशासन-
हीनता उत्पन्न होती है। छात्र-शिक्षक में दूरी मुख्य रूप से शैक्षणिक व्यवसाय में
अयोग्य प्राध्यापक पाये जाने के कारण विद्याथियो पर अनैतिक (4श॥रणाथ्राआ)
प्रभाव की वजह से तथा कक्षा में बहुत जिद्यार्थी होने के कारण प्राध्यापक का सभी
छात्रों के साथ सम्पर्क न रखने की वजह से उत्पन्न होती है। इस सन्दर्भ में चचल
सरकार द्वारा भारतीय विश्वविद्यालय की व्याख्या भी बहुत उपयुक्त है कि जहाँ
आचारश्रप्द (66४०एथा5९०) शिक्षक पढ़ाते हैं वहाँ निरुत्साहित विद्यार्थी अधिक
मिलते है ।/ (ग) राजनीतिक व्याख्या के अनुसार विद्यार्थी असन्तोष का सम्बन्ध
उन बड़े राजनीतिक आन्दोलनों के साथ है जिन्होने भारत को उपनिवेश (०ण०गंध-
शा) से लोकतन्त्रवाद मे बदल दिया है। इसके अतिरिक्त शिक्षकों मे छीठे-छोटे ग्रुद
(६४०४०॥$), स्थानीय राजनीतिज्ञों द्वारा विश्वविद्यालय के कार्यों मे हस्तक्षेप और
विद्यार्थी नेताओं को विद्याधियों के विभिन्न संगठनो व राजनीतिक दलों द्वारा समर्थन
आदि भी इसके प्रमुख कारण हैं। ३
दुर्खीम, पारसन्स और मर्टन आदि जैसे कुछ विद्वानों के संरचनात्मक सिद्धान्तों
के आधार पर यदि हम विद्यार्थी भ्नुशासनहीनता की समस्या को देखें तो हम यह
कह सफते हैं कि छात्रअसन्तोप के मूल कारण सामाजिक संरचना में निहित हैं ।
भुस्य विचार यह है कि छात्र असन्तोष परम्परात्मक व्यवहार के आदश् प्रतिमानों से
विचलत का एक रूप है जिसमे समाज के व्याधिकार्य और आदर्श-शुन्यता या
3 595, 809०, बुगञाादा) 50प्रतधवड ; रिक्राहटर 53वीएड- पड० एकर।इपं02३" [9
झकटग्मावल, ०0, 77, 8कम ॥96, 45. -
3+ [)9079, 70$679, '[॥050छपाढ छ७व 5एपटा। हह्वतंताडकए वा बव दता॥त
एप्रर्शाआए" क्8 '5/प्रवंद्ाा 0०5१ 0०9. 2? ५ 373-74.
मे 84080 टोगादाओ, 486 एफवुप्रांद: (ड्ञपए०3--फ्रता80 एंचार्टाआतब३ प०02९,* हर
जै उादाहउनावत ५03८४, )रटछ था, 960. छ
पु
]48 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवत्ेन
विचलन की समस्याएँ उत्तन्न हो रही है। प्रत्येक समाज के सास्क्ृतिक आदर्शों के
अभुरूप एक जीवन-शैली होती है और साथ ही उसके मान्य व्यवहार भी होते है । यह
व्यवहार उन सांस्कृतिक आदर्शों की प्राप्ति में सहायक होते हैं, अतएव आदर्शोन्मुख
होते हैं । व्यक्ति जब इन श्रतिमानित आदर्शो के अनुसार आचरण करता है तो उसका
व्यवहार समंजनकारी कहलाता है और यही समंजनकारी व्यवहार समाज में सन्तुलन
बनाये रखने में सहायक होता है। किल्तु कतिपय कारणों से जब व्यक्ति इन सान्य
आदरशों के प्रतिकूल आचरण करता है तो उसका व्यवहार विचलन व अनुशासनहीन
कहलाता है।
इलियट और मेरिल का विघटनात्मक सिद्धान्त यदि अनुशासनहीनता पर लागू
किया जाये तो उसके अनुसार समाज व्यवस्था के विभिन्न अंगों के समुचित संयोग
(००४८८०००) का अभाव ही छात्र असन्तोप का मूल कारण है । विघटनात्मक तत्त्वों
में व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामुदायिक विधटन के अनेक कारण हो सकते है। जब
संगठित सम्बन्धों मे ऐसे तत्त्व उत्पन्न होते है जो मिराशा, उदासीनता, कुमंलाहूद और
दु.ख लाते हैं त्तो यह संगठित सम्बन्ध द्ूट जाते है । पिछले कुछ वर्षो में ऐसे ही कुछ
सम्बन्ध छात्रों व शिक्षकों के बीच विकसित होते दिखायी दिये हैं। बढ़तो हुई बेरोज-
गारी के परिणामस्वरूप भी छात्रो की विघटनात्मक प्रवृत्तियाँ इस सीमा तक पहुँचे
गयी हैं जहाँ हमारे विद्यार्थी विप्लव (०॥४०५) की अवस्था से गुजर रहे है। इसी
प्रकार परिवार में पीढ़ी संघ तथा समाज में पाया जाने वाला पक्षपात, भ्रष्टाचार,
निर्धनता, बढता हुआ व्यक्तिगत स्वार्थ, राजनीतिक सघर्ष आदि भी विद्याथियों के
मूल्यों व आदर्शों आदि को प्रभावित करके विघटनात्मक स्थिति उत्पन्न करते हैं तथा
विद्यार्थी असन्तोष वढाते है ॥
मार्क्सवादी हष्टिकोण के अनुसार छात्र असन्तोप समाज में व्याप्त वर्य-संघर्ष
क। प्रतिविम्व है । समाज में वर्ग-संघ् एक ऐतिहासिक तथ्य है। सम्पूर्ण समाज का
इतिहास वर्मे-संघर्ष का इतिहास है। समाज में जितने भी ऋगड़े, गुट्वाजी व असन्तोष
के स्वरूप हमें देखने को मिलते हैं उन सबकी वर्गाय व्याख्या की जा सकती है / वर्ग
संघर्ष में शक्तिशाली वर्ग जीवन-“व्यापन के सभी तरीकों पर एकाधिकरारवादी आधिपत्य
स्थापित कर लेता है और कमजोर चगे का शोषण करता रहता हैं। शिक्षक एवं
विद्यार्थी बर्गें में भी ऐस। वर्म-मंपर्यं दिखायी देता है। विद्यार्थी को राजनीतिक
दलों से सम्पर्क, विश्वविद्यालय के प्रशासन की आलोचना, शिक्षा व्यवस्था में सुघार
को माँग करना इत्यादि वर्ग-संघर्ष के प्रभाव के ही लक्षण हैं।
सामाजिक सुल्यों के सिद्धान्त के अनुसार छात्र असन्तोष नये और पुराने
मूल्यों के सधर्प का ही परिणाम है । परिवार में माता-पिता व सन्तान के मूल्यों तथा
शिक्षा-पद्धत्ति में अध्यापक व छात्र के मूल्यों में परिवत्तेत के कारण युवकों की
आयॉक्षाएँ भी बदल रही हैँ जिससे उनमे विद्रोह की भावना पनपती है। अबने
कपाडिया वा भी कहना है कि हारे विद्यार्यी जिनका प्रालनन्थोषण अधितायफवादी
+ » । में हुआ है अब व्यक्तिगत स्वतन्त्रता चाहते हैं। फिर दमारो सोज>रीतियो
विद्यार्थी असन्तोप 449
में विपमता व प्रभेद के कारण भी छात्रों में बिना जड़ के होने (70005आ९55) की
भावना उत्पन्त होती है। सामाजिक जीवन में पाये जाने वाले पाखण्ड (जिसमें अचार
एक चीज का होता है और अभ्यास व प्रयोग दूसरी चीज का) के कारप ने हन्फ्दे
युवकों में मनोविक्ृत व्यक्तित्व पैदा हो रहा है 0१ पु
हम विद्यार्थी असन्तोप व अनुशासनहीनता के कारणों का सीड ्ायदिल्डि/क्यिं
का विश्लेषण करके अध्ययन करेंगे : () शैक्षणिक प्रणाली,
संरचना, और (3) राजनीतिक हस्तक्षेप ।
. झैक्षणिक प्रणाली और अ्रनुशासनहीनता
इसमें हमें यह देसना है कि ज्ैक्षणिक प्रधान
बरतमान स्थिति में इन उद्देश्य को प्राप्त क्रिया हा
उद्देश्य प्राप्ति के अभाव में कया शैक्षणिक प्रणाती में
है और यदि नहीं तो क्या यह परिवर्तन झा बमाद हर दछाओं
शासनहीनता, उत्पन्न कर रहा है ? मुख्य रुप
सकते हैं--() समाज के युवकी का समाक्तीवरछ डतही धम दब्य, #चप.
प्रथाएँ, धारणाएँ व मातवोचित व्यवहार ढे दिस्न सविता: हे दपम्द् मापम-पविज
कार्यो के करने के लिए विभिन्न प्रकार के द्वसन््ति सफलओ का सब स्तप 5 चरम
सहायता देंगे। (2) युवको को वियी सकतार $ 77 ऋडपनड परक:ए ल््धिर री माओ
करना अथवा इस भ्रकार का प्रेडिक्ष: बक फित्दे दे सफल दिधनान अप्मि
व्यवस्था मे अपनी आजीविका रण रड £ के मय
अब प्रश्न यह है द्वि कय वदसत अप:
रही है ? सरल और साधारत हक कदर सलझासन्तद ही हा से
उद्देश्यी की असफलता की दृत बच्सक्रका सके ह..... 2
रण
में कत्ल झज-
म्चाप
हा +
न
कऋाड शक इडृड्ों बा आप
]50 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
कहा जा सकता है कि शिक्षा-पअणाली सही समाजीकरण नहीं कर था रही ।
(ख) भ्राजोबिका कमाने सम्बन्धों शिक्षा देने में ग्रसफलता--देश में पायी जाने
वाली कृपि-सम्बन्धी, प्रौद्योगिक तथा शिक्षितों की वेसेजगारी को देखते हुए अथवा
इस चात को घ्यान में रखते हुए कि यह समस्या इतनी उग्र है कि सरकार ने चौथी
पंचवर्षीय योजना में :9 करोड़ लोगो को रोजगार उपलब्ध करने का लक्ष्य बवाया
है, हम कह सकते हैं कि वर्तमान शिक्षा-प्रणाली आजीविका सम्बन्धी उद्देश्य प्राप्त
नही कर पायी है । स्वतन्त्रता के पूर्व ब्रिटिश काल में अधिक युवक हाईस्कूल तक ही
शिक्षा प्राप्त कर कोई नौकरी ढूंढ लेते थे । जो थोड़े व्यक्ति ऊँची शिक्षा प्राप्त करते
थे थे अपना समायोजन कुछ व्यवसायो तथा शासकीय व श्वैतवस्त्रधारी (प्ञा.6-
एणाथ) नौकरियों में ही कर लेते थे । इस प्रकार शिक्षित व्यक्तियों को नौकरी, आय
व प्रतिष्ठा की कुछ सुरक्षा थी। परल्तु स्वतन्त्रता के पश्चात् परिस्थिति बदल गयी
है। प्रारम्भ भे तो नथी भाथिक नीतियों के कारण कुछ औद्योशिक संस्थाओं का
विकास हुआ और औद्योगिक शिक्षा प्राप्त कामिको ((८णीएंट्ण ए४३०शाश) की भी
आवश्यकत्ता बढती गयी परन्तु पिछले कुछ वर्षों मे वर्तमान सरकार के कुछ दोपपूर्ण
आशिक सीतियो के कारण यह कामिक भी आधिक्य (5एएप$) हो गये हैं। कला,
विज्ञान व वाणिज्य के स्नातक तो अब बहुत अधिक वेरोजगार मिलते हैं । परन्तु फिर भी
व्यावसायिक व प्रौद्योगिक शिक्षा प्राप्त विद्याधियों मे कला वर्ग आदि के छात्रों की अपेक्षा
क्रम अनुशासनहीनता मिलती है। इसका कारण यह है कि पहले प्रकार के विद्याथियों
के पाठ्यक्रम सीधे व्यवसाय से सम्बन्धित होते हैं। वे प्राप्त प्रवीषता (0) को
कारखानों, अस्पतालों आदि में प्रयोग कर अपना भविष्य बनाते हैं जिस कारण उनमे
अपने व्यवसाय के प्रति आदर तथा प्रशिक्षण प्रक्रिया के प्रति मम्भीरता रहती है । दूतरी
ओर कला आदि पाठ्यक्रमों मे यह चीज नही पायी जाती । शिक्षा का विस्तार तो
तेजी से हुआ है. परल्वु शिक्षा को देश के व्यावसायिक आवश्यकताओ के अनुकूल नहीं
बनाया गया है। पहले जब विद्वत्ता को व्यक्ति की ऊँची जाति व स्थिति से आँका
जाता था अब उसकी पहचान (00॥/6०८400०४) कालेज की डिग्री से की जाती है ।
क्योंकि प्रौद्योगिक और व्यावसायिक शिक्षा प्राप्ति के लिए अवसर कम भाप्त हैं तथा
कुछ व्यक्ति इन क्षेत्रो में भी वेरोजगार रहते हैं इस कारण कला, विज्ञान और वाबिज्य
के कालेजों मे प्रवेश के लिए भाड़ मिलती है। समाज के वे अनुभाग जो अमी तक
अशिक्षित थे अब शिक्षा के लिए उत्छुक पाये जाते हैं । डिग्री प्राप्ति के बाद युवक अपने
को हर नौकरी के लिए योग्य समभते हैं और जब वे अपनी इच्छा के अनुसार ऊँची
नौकरी प्राप्त नहीं कर पाते तो निम्न स्थिति वाली नौकरी स्वीकार करते हैं। इस
परिस्थिति को वे फिर शिक्षा-प्रणाली का व्यक्ति को आजीविका कमाने के लिए शिक्षा
देने के उद्देश्य की श्रसफलया बताते हैं । फिर जिन नौकरियों मे वे लोग होते हैं उनमे
जो उत्तरदायित्व पाया जाता है उसको भी वे पूरा नहीं कर पाते। यह अक्षमता
भ्रौद्योगिक व अप्रौद्योगिक दोनो प्रकार के कर्मचारियों (एथ३णाएश]) में पायी जाती
है। इस कारण विदेशी डिग्री पर अधिऋ निर्मेर्ता मिलती है। इससे फिर भारतीय
विद्यार्थी असन्तोष 5]
शिक्षा-प्रधाली के लिए सन्देदह और बढ़ता है। लिप्सेट का भी कहना है कि शिक्षा का
विस्तार और किर उनमे बैयक्तिक भाव का अभाव विद्याधियों में निराशाएँ बढ़ाता है
ब मुसमायोजन की समस्या उत्पन्न करता है २
इस प्रश्ार कालेज शिक्षा की विषयवस्तु (०्ण्याणा) व पढ़ाई का तरीका
व्यवसाय कै लिए अनुपयोगों है । परन्तु नोकरियो के प्रवरण में भ्रव भी विश्वविद्यालयों
की उपाधियों पर बल दिया जाता है। सरकारी नौकरियों में तो इस पर विशेष बल
मिलता है। यदी कारण है कि अब यह माना जाता है कि कालेज शिक्षा का महत्त्व
ही फेवल इस कारण है वयोकि इससे जो डिग्री उपलब्ध होती है वह नौकरी प्राप्ति में
आवश्यक होती है | इससे भ्रधिक विद्याथियो के लिए उसका उनके भविष्य निर्माण में
कोई योग नहीं होता । पाव्यक्रम के जीवन बनाने में अप्रासगिकता (ए7८८एक००) के
कारण ही विद्यार्थियों में वर्तमान शिक्षा के लिए घृणा व अश्वद्धा पायी जाती है /*
शिक्षित युवक अपने को जब नौकरी प्राध्वि के लिए सही रूप से तैयार नही पाता तो
बहू भविष्य के प्रति निश्चितता न होने के कारण शिक्षा को भी गरम्भीरता से नहीं
लेता । वह न अध्यापकों या आदर करता है और न शिक्षा-प्रणाली के नियमों का
पालन करता है ।
शिक्षा-पद्धति वी इस प्रकार की असफलता का कारण पुराने और अनुपयोगी
पाठ्यक्रम के अतिरिक्त सरकार की दोषपूर्ण नीतियों के कारण शिक्षा-प्रणासी में परि-
वर्तन लाने की असफलता भी है। हिन्दी के स्थान पर अंग्रेजी का शिक्षा का साध्यम
होता, हिन्दी पुस्तकों का अभाव, तथा श्रनियन्थित प्रवेश पर बल देने के कारण छात्र-
अध्यापक सम्वन्धों का धनिष्ठ नं होता भी विरोधी भावनाओं की जन्म देता हैं ।
अधिकतर विद्यार्थी अध्यापकों की व्यग्यपूर्ण, उदासीन, पक्षपाती, असभ्य व कठोर
मानते हैं, जबकि उनको सहानुभूतिक, दयायुक्त, शिप्ट, बिनीत, कल्याणकारी ब
सहायवारी होना चाहिए । बहुत कम ऐसे शिक्षक होते है जो छात्रो मे अपने विपय के
प्रति अभिरुचि उत्पन्न कर पाते हैं। परिणामस्वरूप विद्यार्थी कक्षा में व्यास्यान को
नींद की गोली समभते हैं। ऐसे व्याख्याव ही छात्रों मे विक्षोभ पैदा करते हैं ।
विद्यार्थियों में न केवल शिक्षकों के लिए अविश्वास की भावना मिलती है परन्तु
विश्वविद्यालय के निर्णय लेने व मीतियाँ बनाने वाले उपकुलपति, सचिव आदि जैसे
फ न्य्पाढ छडफ़क्ाइण शाप ए)5८५ए७८०६ एल्फुलाइ004ी546097 . ण €(एटव्वां00 ॥$
्रए५ 7९8फ॒7596 0 ॥05फब्राणा ह0त ॥9/370]0576९00 47078 #006005. 4/95०६,
$, /,, कैक्क 8927०: 7२०, 205, 529. 966.
24 ५8 €एॉद० ९0एव्वांता ॥8 वराफ्रणाा। 0चॉ9 ४८ए४४५८ 0 86 0९8726 40 0785,
छ८/णापर पिक्ां ॥ ९००७0०:६5 ॥0)6 (80 $(90टआड ६90 ४ए७ वध 73 0 शा चिप
गर्ल, धिएए605 ॥९4]5०- ध्राट वाशैट्एब४०८ ण॑धीढ ए०पंदा ता घोटंए ९ए०९४४०७७
ले दग्शए खत प्रीराढ 5 ठाइडील्टीगा लि. पी सणारएड क्ण्प्रांपट,.. 8 तच्ह7८९ ब्ात॑
वाशन्लंला 2४006 बढ वच्ाफजांका, 0९एप॒एश/9ा ह09$5 बा 0क्0कांए4९, ताढ पट
ह पक्ष त॑ एशाएट, ९१0९८३॥०एा ग्रट89व०९ ्ी एशीयपड 8 ववावटए,!. #8फबपव
(एक्रांफा5, *$००००४५ ण॑ 80प८३4ॉ07 49 [0097, 02. (/., 39,
52 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
अधिकारियों के प्रति भी उनमें ऐसी ही मन्देह की भावनाएँ मिलती हैं। इन अधि-
कारियों को वे नौकरणाही शासन-पद्धति के अनुयायी, विद्यार्थियों के श्रति सहानुभूति-
रहित व अयोग्य शासनकर्तता समभते है।
विद्ववविद्यालय को डिप्री के अवमूल्यन (0८एशेए०थग/णा) का एक कारण परीक्षा
की वतंमान प्रणाली भी है। यदि परीक्षक पेपर बनाने में थीड़ा नया परिवर्तन भी
लाना चाहते हैं तो , विद्यार्थी आन्दोलन मचाते है। इसके फलस्वरूप छात्रों में रटने व
घोटा लगाने (० क्षणाएएट्ट) पर अधिक वल मिलता है तथा नये विचारों का निर्माण
वे स्वतस्त्र विचार शक्ति समाप्त होती जा रही है । फिर श्रलग-अलग विश्वविद्यालयों
की आन्तरिक अंक निर्धारण (गधय॥4। 955८5७7९॥/) प्रणाली तथा अंकों का परीक्षा-
फल मे जोड़ा जाना भी प्राप्त श्रेणी को प्रभावित करता है । यही सब चीजे विद्या्ियों
मे असन्तोष उत्पन्न करती हैं।
एक अन्य कारण विद्याधियों में अनुशासनहीनता पाये जाने का यह भी है कि
जब उनकी माँगे एक बार आ्रान्दोलन के उपरान्त मान ला जाती हैं, तो वे यह घारणा
बना लेते हैं कि अपने हर उचित व अनुचित माँग को विद्रोह व आन्दोलन द्वारा पूरा
करवा सकते है जिस कारण छोटे-छोटे अवसर मिलने पर वे उपद्रव मचाते है ,जिससे
विद्यार्थियों मे भ्नुशासनहीनता बढती दिखायी देती है ।
2. पारिवारिक संरचना और अनुशासंनहीनता
व्यक्ति के व्यवहार को नियन्भ्रित करने मे परिवार भी सदा एक मुस्य समूह
रहा है। विद्याधियों का पारिवारिक स्वरूप, उनके माता-पिता का शैक्षणिक स्तर,
परिवार की आय, पारिवारिक मान्यताएँ, पिता की व्यावसायिक पृष्ठभूमि आदि
विभिन्नताएँ उनके व्यवहार व असन्तोष को निश्चित करती हैं । परिवार से परम्परागत
व्यवसाय की शिक्षा प्राप्त करने में व्यक्ति का सामंजस्य आसानी से हो जाता है; इस
कारण पिता के व्यवसाय को अपनाने का बच्चों के मानसिक सामजस्य पर प्रभाव
पड़ता स्वाभाविक ही है! फ़िर शिक्षित माता-पिता बच्चो में शिक्षा के प्रति जो रुचि
व लगाव उत्पन्न कर सकते हैं तथा जो आदर्शात्मक कार्य करने की उन्हें प्रेरणा दे
सफते हैं यह अधशिक्षित माता-पिता नहीं दे सकते । शिक्षित माता-पिता वे! बच्चों की
आकादाएँ भो अपड माता-पिता के बच्चो की अपेक्षा कुछ अधिक व ऊँची होती हैं।
ये अपने माता-पिता से प्रेरणा लेकर भपने विकास के लिए सदा प्रयत्नशील रहते हैं।
अभिक्षित माता-पिता की सन््तान कतिपय हीम-भावना की शिकार रहती है । द्र्सी
प्रसार आधिक स्तर का भी बच्चे के व्यवहार, रचियों व मानसिक रास्तुलन पर प्रभाव
पड़ता है। उच्च आय वाले परिवारों में असहनशीलता, उम्रता एवं ब्रगन्तियारी
आवनाएँ प्रधिक मिलती हैं। परिवार में सत्ता बा मनन भी बहुन महत्वपूर्ण है । कुछ
काल पुर्च परिवार के मुसतिया वार सदस्यों वर इतना प्माव था कवि यें परिवार मे
अन्दर सो क्या परिवार के बाहर भी कोई ऐसा कार्य बरसे का साट्स सदी कर सबते
थे जिसने सिए उन्हें मुस्तिया व माता-पिता द्वारा दण्ड मिलने हो डर होगा पा ।
विद्यार्थी असन्तोष 53
परन्तु अब परिवार पहले जँसा अधिनायकवादी (॥7707रोक्षाएंश) नही रहा | विवाह
की आयु भी बढ गयी है । शिक्षा-समाप्ति के बाद युवक से आशा की जाती है कि वह
परिवार पर आश्रित नही रहेगा परन्तु अपने कत्तंव्य व उत्तरद्ययित्व को स्वयं निभाने
का प्रयास करेगा । इन सब परिवर्तनों के कारण युवकों में श्रपने परिवार के प्रति पहले
जैंसा आदर व डर नही रहा । यही कारण है कि विद्याथियों मे जब विक्षोभ बढता है
तो परिवार भी उसको रोकने में सहायता नहीं कर पाते ।
पीढ़ियों फा इन्द--कालेजों व विश्वविद्यालयों में पढने वाले विद्यार्थी
किशोरावस्था (800९६४०८॥०८) की अन्तिम सीढी और वयस्क अवस्था (907॥]000)
की पहली सीढ़ी के सीमा के वीच होते है। किशोरावस्था में व्यक्ति को वयस्क
उत्तरदायित्व के बोझ से तो मुक्ति होती है परन्तु उसे वयस्क अवस्था के कुछ कर्तव्य
निभाने व कठित निर्णय आदि लेने होते है। यद्यपि इस आयु के वे युवक जो शिक्षा
ग्रहण नही कर रहे होते हैं वयस्क क्रियाओं को अपना लेते है परन्तु शिक्षा पाने वाले
अधिकतर युवक वयस्क कर््तंव्यों को ग्रहण करने की क्षमता होते हुए भी वयस्क उत्तर-
दायित्व से मुक्त ही रहते हैं। आधिक रूप से वे अपने माता-पिता पर ही निर्भर रहते
हैं। समाज इनको इसलिए अनुत्तरदायो व अविश्वसनीय किशोर ही समभता है भ्ौर
उनके द्वारा नियमों के साधारण उल्लंघन को दण्डित नही करता । लिप्सेट ने भी छात्रों
के बाह्य सत्ता से अनिर्भेरता की व्यास्या की है ।* परन्तु वयस्क समाजे के नियमों के
प्रति अनुत्तरदायी होते हुए भी ये घुबक भादशंवादी होते है । उनके विश्वास हृढ दे
स्थिर नही होते तथा वे समायोजनीय (90[०७५४७०) होते हैं। उनकी श्रपने को अन्य
व्यक्तियीं ब समूहों से तादात्मीकरण की क्षमता शिशु अवस्था व वेयस्क प्रवस्था
की तुलना में श्रधिक होती है। समाज के नैतिक स्तर और राजनीतिज्ञ मानक के
साथ उनकी मुठभेड स्वयं के अनभिन्नता व अनुभव के संसर्ग से नहीं अपितु प्रौढ
व्यक्तियों द्वारा प्रख्यापित नियमों के रूप में अथवा सत्ता द्वारा आदेश मिलने के रूप
में होती है)
आधुनिक युग मे वे समानता, न््यायपरता, तिष्पक्षता, निपुणता, आधिक
कल्याण आदि जैसे भूल्यों को एक अच्छे समाज के मूल्य मानते हैं तथा जाति-प्रथा,
सामाजिक असमानता, प्रशासनीय व राजनीतिक घूसखोरी व अ्रप्टता, स्थिति के आधार
पर भेदमाव करने जादि को ऐसे मूल्यों का उललघन सममभते हैं। विश्वविद्यालय में
पहुँचने से पहले युवकों को जिन परिवार, स्कूल आदि समूहों से गुजरना पड़ता है वे
बृद्धजनों द्वारा स्वीकार किये हुए पुराने सास्क्ृतिक मूल्यों को हस्तान्तरित करने में
लगे रहते हैं। विश्वविद्यालय मे पहुँचने पर उदार व नये विचारों का समर्थन करने
वाला हृष्टिकोण विकसित होने के कारण वे इन मूल्यों का विरोध करते हैं और जो
इन मूल्यों को सुरक्षित रखता चाहते है, वे युवक उनके विरुद्ध हो जाते हैं तथा उनके
75९९, 5. 8, *एदाएटरअऑंप 36प्रत॑शाड इतवे एजाएंड (5 ए+6९:6८४६०फ६४,
(0प्रतरावांटड" ३9 5अद्वे(। 2०075, ००. ८४ , 46., है हर
]54 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवतंन
खिलाफ आन्दोलन करते हैं और कभी-कभी उनके इस आन्दोलन में हिसात्मक चीजें
भी पायी जाती है। परम्परागत सामाजिक, सांस्कृतिक, आथिक व राजनीतिक मूल्यों
के विरुद्ध तथा आधुनिक मूल्यों के पक्ष मे ऐसा आन्दोलन व प्रदर्शन केवल भारतीय
समाज में हो दिखायी नही देता परन्ठु पिछले कुछ ब्यों में ऐसे प्रदर्शत चीन, जापान,
इन्डोनेशिया, पाकिस्तान आदि देशो में भी विद्वविद्यालय-छात्रों में देखने को मिले
हैं। इस कारण प्रौढ़ अध्यापकों व छासकों के परम्परागत मूल्यों व युवकों के आधु-
निक मूल्यों मे सघर्प भी छाव-चिक्षोभ का एक कारण बताया जा सकता है।
3. राजनीति और छात्र-अनुशासनहीनता
हर देश में विश्वविद्यालयों के ऊपर राजनीति का कुछ प्रभाव पाया ही जाता
है। राजनीतिक नेतुजन॒(०॥४४6) की काफी मात्रा सदा विश्वविद्यालय के स्मातकों
से ही निकलती है । फिलिप आलवंच का कहना है कि न केवल नये राज्यों के नेता
अधिकाशतः विद्यार्थियों से निकतत्ते हूँ परन्तु बहुत से राज्यो के सामाजिक आदर्श भी
विद्यार्थी आन्दोलनो से प्रभावित होते हैं ५ छात्रो का राजनीति में भाग लेने का एक
मुख्य कारण यह है कि वे समाज के अमुर्त बेचारिक व्यवस्थाओं (३958८ 40500-
80७ 8५४७॥5) की उन व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक अच्छी तरह समझ सकेते हैं
जो नियमपूर्वक अवौद्धिक परिस्थितियों में कार्य करते है। विद्यार्थी संदा बोद्धिक
पर्यावरण में काये करने के कारण आदशशंवादी आन्दोलनों की ओर शीघ्न खिच जाते
हैं। आश्चये तो यह है कि विद्याधियों को बार-बार यह कहा जाता है कि वे किसी
प्रकार के राजनीतिक कार्यों में भाग न लें । एक प्रकार से यह अनियमितता है । बहुत
से बिद्याथियों को, विशेषकर कालेजों व विश्वविद्यायल के विद्याथियों को, एक ओर
तो बोद देने का अधिकार होता है तथा चुनाव लड़ने की छूठ होती है और दूसरी
ओर उनसे कहा जाता है कि वे राजनीति से दूर रहें । यह' वास्तव में विरोधाभासी
(?५४४००%८४|) है । एक रूप में छात्रों का राजनीतिक व्यवहार पूर्वभासित वयस्क
राजनीतिक व्यवहार (70णएशंण9/ उवणा एगाएंत्य एलावरं०णा) होता है। यह्
व्यवहार वयस्कों के राजनीति का भी एक प्रतीक होता है। भारत में छात्रों ने राज-
मीति मे भाग स्वतन्त्रता के पूर्व भी लिया था और अब भो ले रहे है । प्रश्न यह है
कि इसके आजादी के पूर्व और पश्चात् के राजनीतिक दृष्टिकोण में क्या अन्तर है ?
क्या यह कहना सही होगा कि स्वाधीनता के पूर्व उनका राजनीनि में भाग केवल
ब्रिटिश सा श्राज्य को समाप्त करने के एुक आदर्शवादी धारणा के कारण ही था और
अब उनकी राजनीति में रुचि एक वात्कालिक उम्रता (थ्वापंणा बह87९38४९7०55)
है जो किसी विशेष धारणा पर आधारित नहीं है ? शिल्स का इस श्रश्व के लिए
पर नुचठप योर 9म्घ८ फ़ा ८३३टाऊ जी ॥08 पट डा्ाध्ड विव्युपध्ता एजार #णा
बचवटए इच7८5, 59६ प्राल 6९0००हांटछ) 935९ ० ग3॥9 ता पार 76५ ०ए३ट5 ऐ35 फटा
बधी एद्ा८व्व 89 ७6 3॥एवेटश क0ए४चआशइक,.. #वी02८क एक, कांड बा( ० *5494677 87
एण।एड" पा बहता #णाॉ25 [5८६ ०7. ८7. 74.
विद्यार्थी असन्तोष 55
उत्तर नझारात्मक है। उनका वहना है कि दोतो काय में एक प्रकार की मूल
समानता मिलती है और वह है विद्यमान सत्ता के प्रति विरोधात्मक भावना अथवा
शत्रुता” पहये यह विरोध ब्रिटिश सत्ता के लिये था और अब भारतीय सत्ता के लिए
है। वर्तमान भारतीय सत्ता को विद्यार्थी दूपित, भ्रप्ट तथा नौकरशाही पर आधारित
मानते हैं। शिल्स का विचार है छि भारत में विद्यमान सत्ता बहुत भान्तिमूलक वे
समझौते पर आधारित, इस विश्व के भ्रप्टाचार से भरपूर, नौकरशाही शासन
सम्बन्धी तथा विद्रोही विद्याथियों में राजभक्ति की भावना उत्पन्न करने के अयोग्य
है ॥!४ विद्याधियों का राजनीति में भाग दो स्तर पर विभाजित किया जा सकता
है--() कालेज अथवा विश्वविद्यालय स्तर पर, (2) राष्ट्रीय स्तर पर । विश्व-
विद्यालय स्तर पर छात्रों की झियाएँ केवल छांत्रो की समस्याओं से ही सम्बन्धित
होती हैं। एक प्रकार से छात्रों का यह राजनीतिक भाग प्रकायंवादी ([णि०/०॥्श)
है बयोकि () यह उनके लोरतस्त्रीय भ्रक्षिया की शिक्षा देता है, (2) इससे विश्व-
विद्यालय के शायन ब प्रबन्ध में विकेन्द्रीकरण आ जाता है, तथा (3) इससे छात्रों को
रचनात्मक कार्य करने का अवसर मिलता है। क्योंकि छात्रों की इन क्रियाओं को
बाह्य राजतीतिक स्थिति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, आलबेच ने इनको
परीक्षणबादी (८0०४) छोटा आन्दोलन माना हैं ।* दूसरी ओर राष्ट्रीय
स्तर पर प्राए जाते बाला राजनीति में भाग राजनीतिक समस्याओं के बहस में,
राजनीतिक दलों भें मक्रिय भाग सेने में तथा राष्ट्रीय मीतियो व उद्देशयों मे बाद-
विवाद के रूप में शिलता है । इसके उदाहरण भारत में उड़ीसा में 964-65 में
तथा दक्षिण-भारत में 965 में मिले थे । हम विद्याथियो के इस “आन्दोलन को
समाज हितोन्मुसी ($0००५-०४०॥४०) आन्दोलन बता सकते हैं। इस विभेद के
आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि दिस्ली, वाराणसी तथा इलाहाबाद विश्व॑-
विद्यालयों में विद्यार्थी आन्दोलन छात्र-हितोन्मुजी (४७५६॥(-०७९८॥(८०) कआान्दोलन ये
और उड़ीसा व मद्रास विश्वविद्यालयों में आन्दोलन समाज-हिंतोन्मुखी श्रानदोलत थे ।
दोनो प्रकार के क्रियाओ व आन्दोलनों में मुएय वात यह मिलती है कि वे अधिकतर
श्रस्थिर (0800777००७५) होते हैँ ॥ जब तक आच्दोतन रहता है तब तक तो बह
उग्र व गम्भीर रहता है परन्तु उसके उपरान्त एक लम्बे काल के लक्ष्य के रुप में
उसे जारी नही रसा जाता । यह कहता गलत नही होगा कि विद्याधियो का राजनीति
में भाग कोई झुधार लाने के लिए नही अपितु कुछ विदेष कप्ठो के समाधान हेतु
7? 50835, 80%, *५5॥086705, 00905 89 ए॥#एशातञ265 व 7द4437 खबर 7:7०?
चा वाक्काउमंगा २ ऑडीश डकधरगाएव काबे ऊीबबेध्याऊ केलधांदड वंक इवोग, ९१/, फ६
#फैड९02३, एएए 0., 2.32/39/ ?9४9775%ंगड 720052, फै००१०४७ 2969, 2,
36 कराए ब्णयगरी।९5 40 [004 87९ ९०0 एणचरफाणा5०6, ६00 धर 6९९१ ४ए प५
20799)70 ए४ 9५ ४०.]0, ६७9 एच्रबएटशांट, [09 7४०20/6 १0 ६०६56 (हद इ८७2[ए0ए६
वुप्रांगा डापपैटवांड" €३एग्टाए 0िए ॥0980.' 70४6., 4.
2 2०% 7ग्रॉफ, 0. 'हिएकलाए एणााव बात म्राइमचत ए00९उफ ० मर 7...
ब॥ एक्नक्रागां क्राव ग/क्काडह0५ ०१, टा। + 2, न
ड्
56 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवतंन
होता है। थे उपकुलपति के विरुद्ध नारे लगायेगे तया उसके बंगले पर आक्रमण करके
सामान की तोड-फोड़ करेंगे परन्तु उपकुलपति के अधिकारों को बदलवाने का कोई
प्रमत्न नही करेंगे। वे प्रदर्शनो मे पुलिस पर पत्थरों से हमला करेंगे परन्तु पुलिस
प्रक्रियाओं मे परिवर्तन का प्रयास नही करेंगे। वे विश्वविद्यालय से निकाले गए
विद्याधियों को वापस प्रवेश दिलाने के लिए हड़ताल करेंगे परन्तु निप्कासने से
सम्बन्धित नियमों को चंदलवाने की कोशिश नही करेंगे । इसका परिणाम यह होता
है कि विद्याथियों के इन राजनीतिक आन्दोलनों से विश्वविद्यालय तथा समाज की
संरचना अग्रभावित ही रहती है। इस श्रकार के विद्यार्थी-क्रिया को स्मेलसर ने
“नियम-अभिमुस (70पा-०४ं००6) राजनीतिक आन्दोलन' माना है जिसका सुस्य
उद्देश्य होता है किसी विशिप्ट कप्ट का निवारण अथवा किसी विशेष लक्ष्य की
प्राप्ति । इसके विरुद्ध 'म्ल्य-अभिमुख (५५४७८-०४४८:/००) राजनीतिक आन्दोलनो' मे
कोई आदर्श सम्बन्धी समस्या पायी जाती है । जब नियम-अभिमुख आन्दोलन लक्ष्य
प्राप्ति के उपरान्त समाप्त हो जाते है, मूल्य-अभिमुख आन्दोलन सुधार लाने तक
चलते रहते हैं !९
छात्रो का राजनीति में भाग (विश्वविद्यालय स्तर तथा राष्ट्रीय स्तर बाला)
किस प्रकार का होगा अथवा कितना तीत्र व उम्र होगा यहू निम्व तीन बातों पर -
निर्भर करता है ।
() कालेज या विश्वविद्यालय में कठित प्रशिक्षण के कारण छात्रों की
. शिक्षण से असम्बद्ध (१०॥-४८७०७॥४०) विषयों मे रुचि कितनी मिलती है। विश्व-
विद्यालग्य से डिग्री प्राप्ति के उपरान्त एक अच्छी नौकरी पाने के लिए शिक्षण काल
मे विद्यार्थियों, से कठिन कार्य करवाने पर जितना अधिक वल होगा उतना ही छात्र
किसी भी प्रकार की राजनीति में कम भाग लेगे | इस प्रकार के कठिन प्रशिक्षण
पर वल अध्यापकों की कार्यकुशलता पर निर्भर करता है। जहां शिक्षक अयोग्य,
अनिपुण व अदक्ष होगा वहां छात्रों का ध्यान शिक्षण से असम्बद्ध वादों पर अधिक
होगा । यह चीज भारत में बहुत से कलिजों व विश्वविद्यालयों में पायी जाती है।
यही कारण है कि किसी विश्वविद्यालय में छात्रों द्वारा राजनीति में भाग लेना
अधिक मिलता है और किसी में कम |
(2) छात्रों का राजतीति में भाग लेना राज्य में राजनीतिक दलों के शक्ति
व कार्यों पर भी निर्भर करता है। दक्षिण-भारत मे राजनीतिक दलों द्वारा राजनीतिक
अद्देश्यों की प्राप्ति के लिए छात्रों का उपयोग बहुत मिलता है । इस्पात के कारबानों
की स्थापना, अग्रेजी को समाप्त ने करने तथा हिन्दी को अनिवार्य न बनाने आदि
जैसी समस्याएं वहां विद्याथियों के आन्दोलन के मुख्य आधार रहे हैं। दूसरी ओर
उत्तर भारत में इसके विपरीत राजनीतिक दतों के कम हस्तक्षेप के कारण विद्या
# 5कछ0385 शी, 72207 थी (गॉन्टाएल फल्कदांग्वाक सि€० एा653, कर, ४णा५
963, २75.
विद्यार्थी असन्तोष 7 ]57
सम्बन्धी विपय विद्याथियों के झ्रान्दोलनों के आधार अधिक रहे हैं।
: (3) छात्रों में राजनीतिक विपयो को लेकर कितना असन्तोप व अनुशझासन-
हीनता प।बी जाती है यह उनके राजनीतिक चेतना पर भी निर्भर करता है। कुछ
विद्यार्थी राजनीतिक दलो से प्रेरणा लेकर अपनी राजनीतिक आकाक्षाओ की प्राप्ति
हेतु अन्य विद्याथियों में अनुशासनहीनता एवं उपद्रव फैलाने के प्रयास करते रहते है ।
फिर कुछ विद्यार्थी तो राजनीतिक दल के सदस्य होते है और कुछ केवल राजनीतिक
दल से सहानुभूति ही रखते है । इसी तरह कुछ छात्र आन्दोलन तो राजनीतिक दलों
से नियन्त्रित ही रहते है। राजनीतिक दल निम्न प्रकार से विद्याथियो को हड़ताल
आदि में सहायता करते है--(क) आथिक सहायता देकर, (ख) उनके लिए प्रचार के
साधन जैसे जीप, लाउडस्पीकर आदि उपलब्ध करके, (ग) हडतालियों की माँगों को
उचित बताकर उनका मनोबल ऊँचा करके, (घ) छात्रो के साथ अधिकारियों से
मिल्नकर उतको उसकी मोौरगें स्वीकार करने के लिए वकालत करने तथा बाध्य करने
से, (च) गिरफ्तार किए गए छात्रों को जैलों से रिहा करवाने में सहायता करके आदि।
राजनीतिक दली के अतिरिक्त विद्याथियों के स्वय के संगठन भी छात्रो के
राजनीतिक व्यवहार के लिए बहुत उत्तरदायी है। मुख्य विद्यार्थी दल जो भारत में
इस समय कार्य कर हैं वे हे--विद्यार्थी महासघ, युवा काग्रेस, समाजवादी फोरम,
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् और समाजवादी युवजन सभा । इस पूरे विवरण
के आधार पर यह कहा जा सकता है कि विद्याथियों की अनुशासनहीनत्ता में
राजनीतिक उद्देश्य भी एक प्रमुख कारक है।
. विद्यार्थियों की राजनीतिक क्रियाओं में क्षेत्रीय मिन्नताएँ बहुत मिलती हैं।
यह अन्तर क्रियाओं के प्रकृति और उग्रता दोनों में मिलता है । एक ओर जब आईन्ध्र
प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बंगाल और विहार के विद्याथियों मे राजनीतिक
कार्यक्षमता और अमन्तोप अधिक मिलता है, दूसरी ओर महाराष्ट्र, राजस्थान और
पंजाव के विद्याथियों मे कहुत कम मिलता है। तमिलनाडु में केवल 964-65 में
भाषा को लेकर कुछ उपद्रब हुए थे । इसी प्रकार जब साम्यवादी-अभिमुख बंगाल
में भीषण व सैनन््यवादी (एरांतशा।) राजनीतिक कार्यकलाप मिलता है, केरल में
(णों उतना ही साम्यवादी-अभिमुख राज्य है) ऐसा कार्यकलाप बहुत कम मिलता है ।
फिर एक ओर हिन्दी-प्रान्त उत्तर प्रदेश में उपद्व अधिक मिलता है तो दूसरी ओर
राजस्थान और मध्य प्रदेश के हिन्दी राज्यों मे कम | जब मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र
में वामपक्षीय विद्यार्थी परिपद् शक्तिशाली मिलता है तो बंगाल और दक्षिण भारत से
लगभग अप्रवल । उत्तर प्रदेश मे समाजवादी बलशाली हैं परन्तु महाराष्ट्र में नही।
इन क्षेत्रीय भेदों के प्रति किसी प्रकार का सामान्यीकरण (8८णएशश्षा६७४०7) देना
आसान नही है ।
भारत में जो 964 और 966 के बीच विद्यार्थियों हारा विभिन्न हड़तालें
ब प्रदर्शन हुए थे यदि उनका विश्लेषण करें तो हमे मिलेगा कि अधिकतर हड़तालों
का उद्देशम राजनीतिक न होकर शिक्षा सम्बन्धी था। 964 में हुए कुल 700
विद्यार्थी असन्तोष 59
() पहले प्रफार के विद्यार्थी क्योंकि ऊंची सामाजिक व आधिक स्थिति के
कारण हर कोर में प्रवेश प्राप्त कर सकते है तथा क्योंकि उनको हर प्रकार का सही
मार्ग-अदर्शय व सहायता मिलती रहती है अथवा उच्च योग्यता के कारण उनकी
अपनी सफलता में पूरा विश्वास होता है व अपने को हर नई उत्पन्न हुई परिस्थिति
में समायोजित कर सकते है इस कारण वे अध्ययत पर अधिक ध्यान देते है और
छात्र-प्रदर्शनो व हड़तालों आदि से दूर रहते है ।
(2) दूसरे समूह वाले लड़के भो अपने इच्छा अनुसार कोर्स में प्रवेश तेने में
समर्थ होते है। कभी-कभी ऐसे बच्चो के माता-पिता उनको ऐसी शैक्षणिक संस्थाओ्रों
में भेजते हैं जहाँ उच्च योग्यता बी आवश्यकता नहीं होती अथवा जहाँ विद्या-सम्बन्धी
मानक (3080८गा0 &8708705) भी बहुत ऊँचे है । परन्तु निम्न योग्यता के कारण
यह बच्चे अन्य बच्चों की प्रतिस्पर्धा मे नही भ्रा सकते जिस कारण उनकी उच्च स्थिति
भी खतरे में होती है। इसलिए प्रतियोगिता में हारने के डर के कारण व अपनी
स्थिति को बनाए रखने के लिए ये ऐसे नियम, मूल्य और व्यवहार लाते हैं जो
शिक्षण से असम्बद्ध होते हैं। यह अविद्या सम्बन्धी मूल्य (7णा-३०४00॥० श्थ०८5)
और क्वियाएँ विभिन्न प्रयार के पाये जा सकते है, जैसे कक्षा में शरारत करना, क्लास
में अनुपस्थित रहना, अधिक समय रैंस्ट्ररां और मिनेमाओ में विताता, अ्रध्यापकों पर
अनुचित प्रभाव डलवाना, परीक्षाग्रों में मकल् करना, परीक्षकों को रिश्वत देकर
इच्छानुसार नम्बर प्राप्त करने का प्रयास करना तथा प्रतिनिधि-मण्डलों (08७फ8०
8075), जन सभाग्रों, जबूसों व प्रदर्शनों आदि में भाग लेता एव दूसरो को उक्साना |
(3) तीसरे समूह वाले लड़के जो निम्ब,जातियों तथा मिम्त आशिक, शैक्षणिक
व व्यावसायिक समूहों के सदस्य होते हैं यद्यपि माता-पिता आदि के प्रभाव में नहीं
होते परन्तु स्वयं की ऊँची भाकाक्षाओं व उच्च योग्यता के कारण सही और गलत में
अन्तर करने का भ्रयत्न करते है तथा हातिकारक कार्यो से दूर रहते है। फिर इनकेगे
शिक्षा,क्षेत्र में सफलता भाप्त करने के लिए अथवा इच्छा के अनुसार अच्छी संस्थाश्रों
में प्रवेश पाने के लिए व शिक्षा समाप्ति के वाद अच्छी नौकरी के लिए स्वयं पर ही
निर्भर करना पड़ता है जिस कारण ये सदा ऊँची श्रेणी प्राप्त करने की कोशिश में
रहते हैं तथा उपद्रवों व प्रदर्शनो आदि से दूर रहने का प्रयास करते है। परन्तु इस
समूह भें ऐसे भी विद्यार्थी पाये जाते है जो उच्च योग्यता के होते हुए भी जब
आवश्यक प्रवेश आदि प्राप्त नही कर पाते तो कुंठा के कारण आन्दोलनों में भाग लेते
हैं तथा असन्तोप पैदा करने के लिए विद्यार्थी आन्दोलन प्रारम्भ करते है।
(4) चौथे समूह वाले विद्याथियो की संख्या कालेज स्तर पर कम ही मिलती
क्योंकि इनमे से अधिकतर तो माध्यमिक स्कूल स्तर पर ही छेंट जाते है। शेप
बच्चों में न तो माता-पिता का अच्छी श्रेणी पाने के लिए कोई दबाव होता है. और
न स्वयं की कोई ऊँची आकांक्षा । इस कारण अगर ये प्रतियोगिता भे असफल भी
होते हैं तो भी इन्हे कोई निराशा नही होती । परन्तु थे अपनी सफलता के अवसरों
को बढ़ाने का सदा प्रयास करते रहते हैं। इस कारण इस समूह के कूछ सदस्य तो
इड8.7 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
हंडतालों और प्रदर्शनों में से 280 हड़तालों के अ्रध्ययत से यह ज्ञात हुआ कि 354
प्रतिशत हड़ताले परीक्षाओं तथा झिल्षण-संस्थाओ के शासन से सम्बन्धित थी, 2"4
अतिशत पुलिस ब अन्य सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध प्रदर्शन के रूप में थी, और
42'8 प्रतिशत में विविध कारण ये । इससे ज्ञात होता है कि अधिकतर आन्दोलनों
मे प्रत्यक्ष राजनीतिक लक्ष्य नही होता । फिर इन अध्ययनों में यह भी पाया गया कि
30 अवसरो पर कम्युनिस्टो ने हड़तालों का सक्रिय समर्थन किया, दो में जनसंध ने
गौर १7 में अन्य राजनीतिक दलो ने । यदि हम 964 के आँकड़ो की 965 और
966 के आँकडों से तुलना करे तो हमे मिलता है कि जब 964 में 700 में से
3 प्रतिशत उपद्रव शिक्षण से असम्बद्ध विषयों को लेकर हुए थे, 9 65 में ऐसे उपद्रवों
की संख्या कुल उपद्रबों का 5 प्रतिशत थी तथा 966 में कुल 2206 में से 74
प्रतिशत इस प्रकार के उपद्रव थे [/
अब यदि सभी कारकों को इकद्ठा लेकर विद्यार्थी विक्षोम व अनुशासव-
हीनता के कारणों का विवरण करना चाहें तो हम कह सकते हैं कि विद्यार्थी
अनुशासनहीनता केवल शैक्षणिक समस्या ही नही है परन्तु मूल रूप में यह सामोजिक
वे सरचनात्मक समस्या भी है जिसमें आर्थिक, राजनीतिक ओर सामाजिक आदि सभी
प्रकार के कारको का योग है। दूसरे शब्दों भे हम यह कह सकते हैं कि विद्यार्थी
असन््तोष के कारण व्यक्तित्व, साम्राजिक व्यवस्था तथा सास्कृतिक संरचना में दिसाई
देते हैं । व्यक्तित्व में आधुनिक मूल्यो की स्वीकृति तथा य्रुवा व पक्ौड़ पीढ़ियो में संघर्षो
के कारण उत्पन्न कुंढा जैसे कारक आते है; सामाजिक व्यवस्था में वर्तमान शिक्षा
प्रणाली का रोजगार-अभिमुख (व्याफ्ञो०॥आश्या-०रए्ण८४्) न होता, राजनीतिक
हस्तक्षेप विश्वविद्यालयों के अधिकारियों का छात्रों के प्रति नौकरणाही शासन पद्धति
पर आधारित व सहानुभूतिरहित भावनाओं जैसे कारक आते हैं। ओर सास्कृतिक
संरचना में परिवार आदि जैसी संस्याओ में परम्परागत सत्ता पर अनिर्भरता आदि
जँसे कारक प्रमुख हैं । ;
दुर्बोध्य विद्यार्थी (700६३ 80९८७)
अभ्रव हमे यह देसना है दि झिस प्रकार के विद्यार्थियों में असन््तोष व अनुशासन-
हीनम्ा अधिक पाणी जाती है? इसमें दो कातें प्रमुस हैं---(क) विद्यार्यी की पारिवारिक
पृष्ठभूमि, (से) उसकी योग्यता । इन दो तत्त्वों कें-आधार पर बो० बी० शाह ने
विद्यावियों को चार ममूहो में विभाजित किग्रा है--(3) श्रेष्ठ पद (#ट कप)
व उच्च योग्यता वाले विद्यार्यो । (2) श्रेष्ठ पद व निम्न योग्यता बाले विद्यार्थी
(3) विम्त प्रद व उच्च योग्यता छादे विद्यार्थी ) (4) विम्त पढ़ वे तिम्त योग्यता
बाले विद्यार्थी 2
हर डुद२ उवाटजाा, 9 6९. 776.. #]$0 ३८६ डतांटोट- 0प *डाएएटया मिपकल॑9व058
एश्ठद्ा 5९फरज 45 72%8267. २७ 050, 966, ].
4३ छत, छ ४ 4 5260 ऋ#त्वे 02॥20%, पजै>7ए0 96९, 57-65.
रु
विद्यार्थी असन्तोष 59
(।) पहले प्रकार के विद्यार्थी क्योकि ऊँची सामाजिक व झाधिक स्थिति के
कारण हर कोर में प्रवेश प्राप्त कर सकते है तथा क्योकि उनको हर प्रकार का सही
मायं-प्रदर्शन व भहायता मिलती रहती है अथवा उच्च योग्यता के कारण उनको
अपनी सफलता में पूरा विश्वास होता है व अपने को हर नई उत्पन्न हुई परिस्थिति
में समायोजित कर सकते है इस कारण वे अध्ययन पर अधिक ध्यान देते है और
छात्र-प्रदर्शनो व हड़तालों आदि से दूर रहते है ।
(2) दूसरे समूह वाले लड़के भी अपने इच्छा अनुसार कोस में भ्रवेश लेने में
समर्थ होते हैं। कभी-कभी ऐसे बच्चों के माता-पिता उनको ऐसी ज्ञैक्षणिक सस्थाग्रों
में भेजते हैं जहाँ उच्च योग्यता की आवश्यकता नही होती अथवा जहाँ विद्या-सम्बन्धी
मानक (3०0धापं० #शतं॥आ05) भी बहुत ऊँचे हैं । परन्तु निम्न योग्यता के कारण
यह बच्चे अन्य बच्चों की प्रतिस्पर्धा में नही झआ सकते जिस कारण उनकी उच्च स्थिति
भी खतरे में होती है। इसलिए प्रतियोगिता में हारने के डर के कारण व अपनी
' स्थिति को बनाए रखने के लिए ये ऐसे नियम, मूल्य और व्यवहार फँलाते है जो
शिक्षण से असम्बद्ध होते हैं। यह अविद्या सम्बन्धी मूल्य (70-०७१४ँ7० ४००४)
और क्रियाएँ विभिन्न प्रकार के पाये जा सकते हैं, जैसे कक्षा में शरारत करना, बलास
में अनुपस्थित रहना, अधिक समय रैस्ट्ररां और सिनेमाओ मे विताना, अध्यापकों पर
अनुचित प्रभाव डलवाना, परीक्षा्रों में नकल करना, परीक्षकों को रिश्वत देकर
इच्छानुसार नम्बर प्राप्त करने का प्रयास करना तथा प्रतिनिधि-मण्डलों ((९७08-
40॥5), जन समाशों, जलूसो व प्रदर्शनो आदि में भाग लेना एवं दूसरों को उकसाना।
(3) तीसरे सभूह वाले लड़के जो निम्न,जातियों तथा निम्न आधथिक, शक्षणिक
व व्यावसायिक समूहो के सदस्य होते है यद्यपि माता-पिता आदि के प्रभाव में नही
होते परन्तु स्वयं की ऊँची आकांक्षाओं व उच्च योग्यता के कारण सही और गलत में
अन्तर करने का प्रयत्न करते हैं तथा हानिकारक कार्यो से दूर रहते है। फिर इनको
शिक्षा क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए अथवा इच्छा के अनुसार अच्छी संस्थाप्रों
में प्रवेश पाने के लिए व शिक्षा समाप्ति के वाद अच्छी नौकरी के सिए स्वयं पर ही
निर्भर करना पड़ता है जिस कारण ये सदा ऊँची श्रेणी भ्ाप्त करते की कोशिश में
रहते है तथा उपद्बबी व प्रदर्शनों आदि से दूर रहने का प्रयास करते है। परन्तु इस
समूह में ऐसे भी विद्यार्थी पाये जाते है जो उच्च योग्यता के होते हुए भी जब
भावश्यक प्रवेश आदि प्राप्त नही कर पाते तो कुठा के कारण आन्दोसनों में भाग लेते
हैं तथा असन्तोप पैदा करने के लिए विद्यार्थी आन्दोलन प्रारम्भ करते हैं ।
(4) चौथे समूह वाले विद्याथिमो की संख्या कालेज स्तर पर कम ही मिलती
है क्योकि इनमे से अधिकतर तो माध्यमिक स्कूल स्तर पर ही छेंद जाते हैं। भेष
बच्चों में न तो माता-पिता का अच्छी श्रेणी पाने के लिए कोई दवाव होता है बौर
ने स्वयं वी कोई ऊँची आकाक्षा ! इस कारण अगर ये प्रतियोगिता में असफल भी
होते हैं तो भी इन्हे कोई निराशा नही होती । परन्तु ये अपनी सफलता के अवमरों
को बढ़ाने का सदा प्रयास करते रहते है ॥ इस कारण इस समूह के वृछ सदस्य तो
260 सामाजिक समस्याएँ और साम्राजिक परिवतंन
जलूसों और सभाओं आदि में भाग लेते की कोई रुचि नहीं दिखाते और कुछ फिर
इस कारण आशन्दोलनों में अधिक भाग लेते हैं क्योकि उससे उनको लाभ की ही
सम्भावना होती है, हानि की नहीं ।
इन चार प्रकार के विद्याथियों में से बी० वी० शाह के अनुसार अभ्रधिक
असन्तोध व अनुशासनहीनता उन छात्रों मे मिलनी चाहिए जो ऊँची शिक्षा का व्यय
सहन नहीं कर सकते तथा जिनको सफलता के कम अवसर होते हैं। शाह की इस
उपकल्पना में जो व्यक्ति की योग्यता, पारिवारिक पृष्ठभूमि व शिक्षा व्यवस्था पर बल
दिया गया है वह सही है ! लिप्सेट का फिर विचार है कि विद्यार्थी का आन्दोलयों
आदि में भाग लेना इस पर निर्भर करता है कि उसने कालेज में कितने वर्ष व्यतीत
किए हैं। युवक जितने अधिक वर्ष कालेज में रहा होगा उतनी उसके आस्दोलन में
भाग लेने की सम्भावना अधिक रहेगी (४
विद्यार्थी नेतृत्व
विद्यार्थी समुदाय में, विशेषकर किसी भी विद्यार्थी आन्दोलन में, नेता एक
प्रमुख व्यक्ति होता हैं। यह नेता कौन होता है तथा एक साधारण छात्र से यह कैसे
भिन्न होता है ? यह क्यों, कैसे, और कब नेता वनता है ? ये कुछ प्रश्न हैं जिनका
हुम यहाँ विश्लेषण करेंगे । हे
विद्यार्थी नेता ग्रधिकांशत: कालेज अथवा विश्वविद्यालय के छात्र-संघ का
निर्वाचित पद-प्राप्त व्यक्ति (0॥०४-06०7) जैसे प्रेसीडेण्ट, सेक्रेटरी आदि होता है,
यधपि कभी-कभी बह कोई पद ग्रहण किये बिना सघ की पृष्ठभूमि में रहकर ही कार्य
करता है । मनोनीत पदाधिकारी होने के कारण वह छात्र समुदाय का प्रतिनिधि वक्ता
होता है। इसका चुनाव द्वारा पद प्राप्त करना ही उसकी योग्यता व जंनप्रियता
का प्रमाण होता है। अब जब शर्म: शर्नें: विद्याथियों को विश्वविद्यालय के विभिन्न
शासकीय व सलाहकार समितियों से साहचर्य किया जा रहा है, विद्यार्थी नेता की
श्थिति वे उसका महत्त्व और अधिक बढ गया है ।
गई विद्यार्थी नेता कौत होते है ? जिन छात्रों की साधारण छात्रों से उच्च
योग्यता होती है तथा जिनको सफलता प्राप्त करने की उत्कृष्द लालसा होती है वे
पादुभक्रमों के श्रतिरिक्त कार्यों के अभाव में, वैकल्पिक रूप में राजनीति में भाग लेते
हैं। ब्राके ने भी कहा है कि जिन विश्वविद्यालयों में बाह्म-शिक्षा सम्बन्धी कार्यों का
अभाव होता है, वहाँ छात्र नेता बनने की अभिलापा को विश्वविद्यालय के प्रबन्ध में
आग लेकर अथवा विदार्थी सामूहिक क्रिया को उत्तेजित कर, भडका कर ब प्रोत्साहित
करके पूरा करते हैं ।7*
बग (95८0, उस्॥चशाई ईंट, ०, 27... 24.
४+ "एटा 40८ ९डध9 एपाडीव्शोएता 35 भंतिप्रशाक श०7-कढइटए0, 30 ॥६४50 40 6
हे हल ब» ह हडी 376 27०४०, २६४ कब निववध्यज्जीएि आात0007 गापचए जिएड तय
तह. 46 00० 09900 ॥0 इच्चाए6५
+ छ3६६&८, छ, १४., *40पए6प5 0०8 धौई
«# ३... न इंएप्ट & ला
जे का भा ७ इक
विद्यार्थी असन्तोष 767
अधिकांशतः ये नेता धनी परिवारों के सदस्य होते हैं । स्वाधीनता संग्राम के
पूर्व विद्यार्थी नेता साधारणतः एक मध्यम वर्ग के सदस्य व पढाई का दृष्टि से अच्छे
रियार्थी होते थे परन्तु अब स्थिति विपरीत है। अब नेता न तो उच्च श्रेणी प्राप्त
विद्यार्थी होते है और न अच्छे खिलाड़ी भादि। इनमे मुख्य लक्षण एक अच्छे व
अलंकारिक भाषण देनें वाले व वक्ता का मिलता है जिससे वे रुचि न रखने वाले
तथा निरत्साहित भोड़ को भी एक उत्सगे (0०0००&४0) बव्यक्तियों के एकता बलि
(००॥८४४०) समूह में बदलने में सफल्न ही जाते हैं । न
राबर्ट शाः* ने भी !966 में उस्मानिया विश्वविद्यालय के विद्यार्थी नेताओं
के अध्ययन में पाया कि नैताओं की पारिवारिक आय एक औसत भारतीय परिवार
की झाय से अधिक थी ! लगभग दो-तिहाई नेता मध्यम वर्ग के परिवारों के सदस्य ये
और एक-तिहाई धनी परिवारों के । स्थिति की हृष्टि से सभी नेता ऊँची जाति के
सदस्य थे । शिक्षा अनुष्ठान की दृष्टि से 22:2 प्रतिशत अच्छे (0747), 2352
प्रतिशत साधारण (3/८०४४०) और 567 श्रतिशत साधारण से निम्न (0७०७
घ५८०६४८) विद्यार्थी पयि गये | कालेज में व्यतीत किये गये वर्षों की हृष्टि से यह
पाया गया कि 33-3 प्रतिशत ने तीन से कम वर्ष कालेज में विताये थे, 33-3 प्रतिशत
मे त्ीत से छः वर्ष, !:2 प्रतिशत ने छः से नौ वर्ष और 22:2 प्रतिशत ने नौ से
अधिक वर्ष। दो-तिहाई नेताओं की राजनीतिक अभिलापाएँ थी और वे राजनीति
को जीवन का साध्य मान चुके थे और एक-तिहाई को इस तरह की कोई लालसा
नही थी । 222 प्रतिशत नेताओं के रिश्तेदार राजनीति में सक्रिय भाग ले रहें थे
परन्तु शेष 798 प्रतिशत में उनके किसी रिइतेदार की राजनीति में कोई रुचि नहीं
थी। 556 प्रतिशत कांग्रेस दल के समर्थक थे, )* प्रतिशत स्वतन्त्र थे और
33-3 प्रतिशत को किसी दल के लिए कोई पुरोधान (छार्शथाशा०८) नहीं था भथवा
इन नेताओं की राजनीति में कोई रुचि नही थी । इन आँकड़ो के आधार पर यह कहा
जा सकता है कि आधिक सुरक्षा, शिक्षा मे अरुचि व अगोग्यता, जीवन का कोई
विश्वेप ध्येय न होने के कारण अथवा राजनीतिक जीवन को अपनाने का निर्णय कर
लेने के कारण कालिज में श्रधिक वर्ष विताना आदि नेतृत्व में सहायक तत्त्व हैं।
अब प्रश्न है कि ये व्यक्ति नेतृत्व क्यो स्वीकार करते हैं ? प्रमुख रूप से इसके
चार कारण दिये जा सकते है---() विद्याथियों के कप्ठों ब विभिन्न शिकायतों को
दूर करने की इच्छा, (2) भविष्य में स्वयं के राजनीतिक नेता बनने का निर्णय,
(3) समाज की सेवा का विचार, तथा (4) अपने अहं («४०) को पूरा करना ।
रावंदशा को उस्मातिया विश्वविद्यालय के विद्यार्थी नेताओं ने श्रपने नेता बनने के
निम्न कारण बताये* : () भारतीय राजनीति से जड़तावाद (गरगण्णा$)
35 50899, रि०्छला ९., 50 #णरांधए छातव॑ 5प०व८०६ .ढ्वत८०३ाए वंघ 8५
वण्ठीशा एग्रास्टाडा9, [९ ९35४ ० 0शाग्रांब' था वाक्कागा का 27क्राओंधंणा : सही
डं॥टगांग् दावे स््द्वेंदह। 2शी[?5 सं उत्तर, ०9, २7. 90-95,
मे (874. 93. ्
]62 साभाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
की दूर करने का घ्येय, (2) दोस्तों के पथ-प्रदर्शन व परिचालन करने की लालसा,
(3) विद्यार्थियों के लिए 'कुछ' करने की इच्छा, (4) समाज की सेवा करने का
विचार, तथा (5) छात्र राजनीति में भाग लेकर वयस्क राजनीति-झैन्र तक पहुँचने
का लक्ष्य। गे
विद्यार्थी नेताओं का एक सफत व सम्पन्न नेता घनना कुछ तो उनकी स्वयं की
योग्यता के कारण होता है, कुछ उनके प्रचार के कारण, कुछ किसी राजनीतिक दल
के समन व सहयोग के कारण, कुछ आन्दोलन व हड़ताल के विषय की प्रह्ृति के
कारण और कुछ किसी छात्र-संगठव की अधीनता के कारण) कालेजों व विश्व-
विद्यालय में बहुत से छात्र याँवों के निवासी होते हैं। गाँवों में किसी रोजगार के
अवसर उपलब्ध न होने के कारण उनको अपने लक्ष्यों की प्राप्ति केवल नगरों में ही
सम्भव दिखायी देती है। विश्वविद्यालयों में जाने से वे अपना सामंजस्य नही बैठा
सकते और किसी ओर से सहायता न मिलने पर उन्हें छात्र नेताओं की ओर ही
भुकना पडता है ) यही कारण है कि विद्यार्थी नेताओं का ग्रामीण छात्रों पर बहुत
प्रभाव होता है] इसी प्रभाव के सन्दर्भ में मार्गरेट कारमेक ने भी कहा हैं कि छात्र
नेता छात्रों को हड़ताल व प्रदर्शन करने के लिए उकसा सकते हैं, घटना की दिशा को
बदल सकते हैं तथा आरम्भ किये हुए उपद्रव को कभी भी समाप्त कर सकते हैं ।
उनको अपना अनुमोदन करने घालों से एक प्रकार का अन्धविद्वास व अन्य-समर्थत
मिलता है ।7 अनुर्व्तियों (00४०७) के इसी आदर्श व विश्वास के कारण ही नेता
हडताल य प्रदर्शन आदि को भी सफल बना पाते हैं। हडताल की सफलता का नेता
के लिए अनुवर्तियों द्वारा अन्य-प्रया के अतिरिक्त अन्य कारण हैं--() विद्याधियों की
आपसो एफता, (2) विभिन्न नेतामों का वारस्परिक सहयोग, (3) आवश्यक आधिफ
संद्ायता, (4) राजनीतिक दलों ढारा आश्रय थे संरक्षण, (5) समाधारतपत्रों का
समर्पन, तथा (6) शिक्षको द्वारा अनुमोदन ।
उपचारात्मक उपाय
उपर्डक्त वियरण करे झ्ापार एर यह बढ़ा जा सता है कि छात्रों ये अनुशासन-
हीतता में कांशिक रूप से विद्याधियों का और ऑशिर रुप में समाज मा उत्तर
दायित्व है। समाज ने विद्याधियों की शिकापतों व कप्टो के समाधाव वा गोंई
डोस प्रयशा नहीं दिया है । उसदे उतरी मिराशाओं ये संघरषों थादि को सायूस करना
अनावश्यक गंगमा है । उससे विदावियों थे ठुच्छ विषलित आधार को अनुशासनकीयाय
उ भू दल क्िप्रहशदव बपाै6७, तउत्रफपॉज!९३ पीट "0फ्रकढ ता एफ्ल्प्रत बठप 008:
फ8 ह१्2009॥0 00 $80फ 8६ ी,.. ९ इक्तातोजश७ं॥ 80 बॉफफा हज (4०५ फय (2
परत... ८ पिडड ढग # प्ररव छा ८पैज्ञीसछड, हा के दा तीं हफएत बतवे वर बच दर: ड्व 6 #फज
70432 [ड[500.. #6 १35 # कक्षो३)0%, 8 #07955,. 68 ऊन! €च्कट्रॉड्ण पे धर
ड2 0१७ (७ छत ल्:3ै 6 "0 # प्रत्तवएट इच्छ०6. (एफ, कीडाइबारा ४७ पीिटज 5
विक६८४६ ['४०्ट३४७७ 6 ४८ 760:; #०:७ कि 7१८८ कर्म।का छा एकएबए। किए लीफरिसटीस 2
+९४ ), पहला 8 गैटछबर्शर:०%, ०# दा। »24॥ २९६.
विद्यार्थी असन्तोष 63
घोषित करके अपने सम्पूर्ण उत्तरदायित्व से छुटकारा पा लिया है। दूसरी ओर यदि
हम स्वीकार भी कर कि हमारा समाज विप्लव (धाणाणों) की स्थिति मे है तथा
हमारी शिक्षा-पद्धति दोपपूर्ण है तो क्या विद्यार्थियों को उनके उत्तरदायित्व से मुक्त
किया जा सकता है ? विद्याथियों को अपनी समस्याओ्रों का ज्ञान है, वे शैक्षणिक
व्यवस्था की कमियां जानते है, परन्तु फिर भी उनके समाधान के लिए उन्होंने अल्प-
काल के लिए हिसात्मक क्रियाएँ अपनाने के अतिरिक्त क्या किया है ? छात्र-संघों का
ही उदाहरण लीजिए । वर्तेमान छात्र संघ केवल पिकनिक, फिल्म-प्रदर्शन, सामाजिक
समारोह आदि की व्यवस्था करने तथए् कभी-कभी किसी प्रतियोगिता का संयोजन
करने के अलावा और कुछ नहीं करते । सम्भवतः यही कारण है कि अच्छे विद्यार्थी
इन संधों में कोई रलथि नही लेते तथा लड़कियाँ भी इनसे दूर रहती है १ अप्लबच का
भी विवार है कि छात्र सब छात्रों की विभिन्न समस्याओं को दूर करने में बिल्कुल
असफल हुए है जिस कारण ये कुछ छात्रो द्वारा केवल सत्ता हथियाने के साधन से बने
गये हैं। बहुत समय तो ये विभिन्न दलों द्वारा छात्रों में विक्षोभ फैलाने व आन्दोलन
प्रारम्भ करने के साथन का ही कार्य करते हैं (४
इसका प्रमुख कारण कदाचित् यह है कि विद्यार्थी संघो का नेद्वृत्व अगोग्य,
स्वार्थी, अविश्वसनीय तथा प्रप॑ंचपूर्ण नेताओं के हाथों में है जो केवल हड़ताल करवाना
ही संघ का मुख्य ध्येय समझते हैं । हम यह नही कहते हैं कि हड़तालों के लिए कठोर
दण्ड' की व्यवस्था की जाये । यह सही है कि जीवन में बल का प्रयोग अनिवार्य व
अति आवश्यक है तथा कोई कानून तब तक सुरक्षित नहीं. रह सकता जब तक बल-
पूर्वक उसका प्रात्नतन मे करवाया जाये। हम केवल यह मानते हैं कि दमनीय व
निरोधी विधान (ए०४६४58४० 289&00॥) स्वयं में कशक्त व निर्बल होता है । इसके
द्वारा हम विक्षोभ के लक्षणों को ही दूर कर पाएंगे, उसके कारणों को नहीं क्योकि
बल के कठोर प्रयोग से विरोध पव्रपता है। फिर हम लक्ष्यों का स्तर भी नहीं गिरा
सकते परन्तु साथ में ऐसे लक्ष्य भी नही बना सकते जिनको भ्राप्त करना ही कठिन व
असम्भव हो । हमें छात्रो के लक्ष्यों की प्राध्ति के लिए ऐसे साधन उपलब्ध करने होंगे
जो उनको प्रेरणा भी दें और उनकी प्राप्ति को सम्भव भा बनाएँ । इस सन्दर्म में
पुरस्कार और दण्ड के वितरण का प्रश्न मुख्य है। पुरस्कार धर्मानुवर्ती (णाण-
गरश) के लिए आवश्मक है और दण्ड विचलित ब्यवहार के लिए। जो छात्र नियमों
का सही पालन करते हैं तथा आवश्यक शिक्षा प्राप्त कर व्यक्तित्व के निर्माद करने
का प्रयास करते हैं उन्हें पुरस्कार मिलना ही चाहिए । यह पुरस्कार उन्हें अच्छी
887 ,00022 ३०7५8: 20/70/6447 2777%7 32
]64 सामाजिक समत्याएँ और सामाजिक परिवर्तत
नोकरियाँ उपलब्ध करके दिया जा सकता है जो फिर नियुक्ति में अ्रष्टता, पक्षपात आदि
को समाप्त करके ही सम्भव है । दुसरी भोर जो शिक्षा प्राप्त करने पर ध्यान नही देते
तथा तियमों का उल्लंघन करते हैं उन्हें भारी प्रतिस्पर्धा का सामना करना ही होगा ।
यह सब परिवरतंन तभी सम्भव होगा जब--() विश्वविद्यालयों में चुनाव-
प्रणाली को सही रूप से नियन्त्रित किया जाये, (2) पाद्यक्रम को रोजगार-प्रभिमुख
($00-०४००९०) बनाया जाये, (3) कुछ छात्रों को विश्वविद्यालय प्रशासन में
परामर्श समितियों में प्रतिनिधित्व देकर सदस्य बनाया जाये, (4) प्रवेश पर आवश्यक
प्रतिबन्ध लगाकर शिक्षक व शिक्षाथियो के सम्बन्धों में समन््वयित चनाकर पारस्परिक
विश्वास के संकट (०४४५ ०६ ००ारीव७॥०८) को समाप्त किया जाये और (5) दोष-
पूर्ण शिक्षा-पद्धतति में कुछ प्रवेश, परीक्षा आदि से सम्बप्धित परिवर्तन लाये जाएँ।
इन साधनों के अपनाये थिना छात्रों में अनुशासनहीनता आने वाले कई बर्षों में भी
समाप्त नही हो सकेगी । वर्तमान भारतीय वित्त-व्यवस्था का छात्रों व युवकों के लिए
पूर्ण रोजगार उपलब्ध करना सम्भव नहीं है। राजनीतिक दल अपने स्वार्थों के लिए
छात्रों को भड़काते ही रहेगे। देनिक जीवन के तनाव भी छात्रों के लिए समाप्त नहीं
होंगे क्योकि आने वाले वर्षो में भारत की उन्नति की कोई आशा नहीं है । परम्परागत
और आधुनिक मूल्यों में पीढ़ियों के संघ भी निरन्तर (कछा८्शं४०्या) होंगे जिससे
विद्यार्थी बड़ों का सदा विरोध करते रहेंगे । ४
इन सबके होते हुए भी मिराशावादी होने की आवश्यकता नहीं है। विश्व-
विद्यालय को अपरिवतंनीय जेल (जिसमें कठोर नियमों के पालन पर हो बल मिलता
है) बनाने के स्थान पर एक अच्छी चरित्र-निर्माण संस्था के रूप में ही विकसित करने
से छात्रों के असन्तोष को कम किया जा सकता है। छात्रों में उत्साह है, जोश है,
व्यप्रता है, उद्योग है, योग्यता है, शक्ति है। एक औसत छात्र व[स्तविकता को
पहचानने वाला (09००४ए७), प्रतियोगीय (०००७५०४४०), जिज्नासु (०ण्म०75)/
कल्पनाणील (28800श70८), व व्यक्तिवादीय (एाठाशंतयथ5४०) है। उसे केवल
सही प-प्रदर्शन चाहिए । यही प्रदर्शन-विधि प्राध्यापकों और प्रशामकीय अधिकारियों
के सम्बन्ध मे भी चाहिए । शिक्षा समुदाय और सरकार के मध्य नये सम्बन्ध स्थापित
कर उनका एक-दूसरे में विश्वास उत्पन्न करता अति झ्ावश्यक है। कारमेंक ने भी
कहे है कि इस समय सरकार का विश्वविद्यालय के शिक्षकों मे कोई विश्वास नहीं है
तथा एक शिक्षक भी सरकार को भ्रविश्वास की दृष्टि से देखता है। यह पारस्परिक
सन्देह ही दोनों मे आवश्यक वातलिाप को सोके हुए है ।/ विद्वों और शासको का
सही वार्तालाप और शिक्षक-विद्याधियो का पारस्परिक विश्वास ही छात्रों में असन््तोष,
विज्लोभ व अनुशासनहीनता को नियन्त्रित करने में सहायक होगे।
>+*०्न--+-+ 3. >«>_8 +०० >न्टजबब्तय किए कीं
पड बन * +; 5 कया
| नगरोकरण
(ए२84ध5&770७४)
सामाजिक व्यवस्था को जीवन के तरीके” के अन्तर के आधार पर प्रायः
ग्राम-नगर द्वि-भाजन (१०४००७३) के सन्दर्भ में देखा गया है। तगरीय व्यवस्था,
मंगरीकरण तथा नगरीयता अवधारणाओ को स्पष्ट समभने के लिए हमें सर्वप्रथम
नगर शब्द को समभना होगा ।
नगर को निम्त पाँच जनसंख्यात्मक, आर्थिक व सामाजिक तत्त्वों के आधार
पर परिभाषित किया गया + (१) प्रशासनिक (07797909०), (2) जनसंख्या
का आकार, (3) जनसंल्यां का घनत्व, (4) प्रधान आधिक व्यवस्था, (5) कुछ
सामाजिक लक्षण । इनमे से पहले तीन जनससख्यात्मक तत्त्व हैं। उपर्युक्त कुछ तत्तवों के
आधार पर 96] जनगणना के लिए किसी क्षेत्र को नगर मानने या न सातने के
लिए कुछ मानदण्ड निर्धारित किए गए थे : () क्षेत्र की जनसंख्या 5000 से अधिक
हो, (7) उसकी जतसंख्या-घनत्व एक वर्गमील में 7000 व्यक्तियों से कम न हो,'
(॥) तीन-चौथाई व्यक्ति अकृषि धन्धों में लगे हों, (५) उस क्षेत्र में यातायात और
सन्देशवाहन की सुविधाएँ, न्यायालय, मनोरंजन-केन्ध, अस्पतालें, पानी के लिए नल
प्रणाली, वेक, सण्डी व मार्केट, छापेखानें, समाचार-पत्नों आदि जैसी सुविधाएँ
उपलब्ध हों ।
2964 जनगणना में प्रयोग किया गया मापदण्ड 95] जनगणना के
मापदण्ड से भिन्न था जिस कारण 967 में 44 लाख जनसंख्या के 82 ऐसे क्षेत्रो
को नगर ही नहीं माना गया जिनको 95] जनगणना में नगर साना गया था।
अब 5000 से 20000 जनसंख्या वाले क्षेत्रों को कस्वा (शादा 80४5), 20000
से 50000 जनसंख्या वाले क्षेत्रों को नगर ([48० (0७75), 50000 से एक लाख
जनसंस्या वाले क्षेत्रों को बड़े मगर (४४०७) तथा एक लाख से ऊपर जरसंत्या वाले
क्षेत्रों को महानगर (ग्राध्ध0०ए०॥४॥ ४7६७७) माना जाता है ।
बैसे, केवल जमसंख्या के आधार पर किसी क्षेत्र को नगर नहीं मात्रा जा
सकता मर्योकि अलग-अलग देझ्यों में जनसंस्यात्मक सीमा अलग-अलग मिलती है।
फांस, आस्ट्रिया द पश्चिमी जमेनी मे 2000 से अधिक जनसंख्या की इकाइयों को
77 पपयच्छ ठाइछ, शधफ (८५), एर#कह सध्तवा 0एड्करालर संत उत्दा#लल- 47,
एलन, 962,33. हि
66 सामाजिक ममस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
जापान में 30000 से अधिक वांसे क्षेत्र को, तथा अमरीका व डेसमार्क में 2500
से अधिक एवं नीदरलेड में 20000 से अधिक वाले क्षेत्रों को मगर माना जाता है ।
अतः स्पष्ट है कि जनसंस्यात्मक मापदण्ड में बहुत भिन्नता मित्ती है। फिर, किसी
क्षेत्र में पूर्णतः ग्रामीण व नगरीय लक्षण भी नहीं पाए जाते । प्रत्येक क्षेत्र में यद्यपि
दोनों लदाण मिलते हैं परन्तु किसो में नगरीय लक्षण अधिक तो किसी में ग्रामीण
लक्षण वहुस॑स्यक मिलते हैं। लक्षणों के इन्ही अधिक संझया के आधार पर किसी
क्षेत्र को हम मगर व किसी को ग्राम मानते हैं । अतः ग्रामीण-नगरीय घारणाओं का
अर्थ हमें द्विमाजन (09॥००॥9) के आधार पर नही किन्तु मापक्रम (४०४७) के
आधार पर ही देसना चाहिए।
पुइस चर्यः (.005 ५७४7॥0) के अनुसार समाजश्चास्त्रोय हृष्टि से एक सगर
की परिभाषा सामाजिक भिप्ता वाले व्यक्तियों के बड़े, घने बसे हुए एवं स्थायी
निवास स्थान के रूप में की जा सकती है । साधारण छब्दों में हम कह सकते हैं कि
नगर एक समुदाय है जहाँ जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है, जहाँ अधिक श्रम-
विभाजन व विशेषीकरण मिलता है, व्यक्तियों में सामाजिक विभिष्नता पाई जाती
है तथा. जहाँ लोग अकृपि व्यवसाय थे उद्योग एवं व्यापार आदि घन्धों में लगे रहते
हैं। 'नगर' शब्द की उपर्युक्त अवधारणा फे आधार पर अव हम नगरीकरण भौर
मगरीयता धारणाओं को समभने का प्रयास करेंगे
नगरीकरण और नगरीयता की अवधारणाएँ
नगरीयता (प्राह४प्रांशा) एक वह जीवन का तरीका है जो व्यक्तिवाद,
अंनामिकता (४079एाॉ/४), सम्बन्धों के उपरिष्ठता (579०7णंबा(४) एवं क्षेणिकता
(४४०आ०१०१), गतिशीजता, सन्देशवाहनशीलता आदि जैसे लक्षणों पर आधारित
है। दूसरी ओर नगरीकरण एक वह प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति गाँवों से शहरों में
प्रबास करवे हैं अथवा गाँव सगरीय जीवत का रूप घारण करते हैं। घारन थाम्पसन
(फ्रक्षाआ 7907950०॥)% के अनुसार नगरीकरण व्यक्तियों का क्ृपि से सम्बन्धित
समुदायों से ऐसे समुदायों में संचरण (700ए८४७॥/) है जो आकार में बड़े होते है
तथा जिनकी क्रियाएँ प्रमुख रूप से सरकारी कार्यालयों, व्यापार, वाणिज्य, उद्योग
आदि से सम्बन्धित होती हैं। इस परिभाषा से ऐसा ज्ञात होता है कि नंगरीकरण *
एक-दिल्ञा प्रक्रिया (०0०-७७५ 97००५४५) है परल्तु एन्डसंन* (870४0) ने इस
परिभाषा की आलोचना की है। उसका कहना है कि नगरीकरण केवल लोगों का
गावों से शाहरो मे संचरण तथा कृषि सम्बन्धित कार्य से व्यापार, नौकरी आादि शहरी
3 ण्ताएत, (,.0एॉ5, अक्ालहांटका बग्प्राचदा थी 5०लगां225, 4938, 7-24,7
कक 4 5 +. + €0ाएशाएलएं
॥# वहाहइट0
डिएपरह 07
4 #06 ३०7, 7रल509, 7४० (४26 (०#फ्राम्मां 22, 5.
नगरीकरण 767
कार्यों में प्रतिस्थापन नहीं है किन्तु इस प्रक्रिया में लोगों के विचारों, व्यवहार, मनो-
वृत्तियों, मूल्यों आदि में भी परिवर्तत सम्मिलित है । अतः भंगरीकरण द्वि-प्रथवर्ती
प्रक्रिया (०-७४) 970०८55) है। एल्ड्सत ने नगरीकरण की पाँच विश्येपताएँ बताई
हैं: मुद्रा भर्थेव्यवस्था [घाणा८ए ००णा०णगा?), नागरिक प्रशासन (णंशंठ बतणांपाड-
प0॥), सांस्कृतिक नवाचार (70/28/0705), लिखित रिकार्ड, तथा आविष्कार ।*
नगरीयता के लक्षण
सुइस वर्य (7.0प५ ५७0) ने इसके चार लक्षण बताएं हैं-- ।
हि () क्षणिकता (प्४४7४०४८५७)--जिसके अनुसार शहर का व्यक्ति पुराने
परिचित लोगों को भूलता जाता है और नयी जान-पहचान पेदा करता जाता है
तथा वह अपने पड़ोस आदि समूहों में लोगों के आने-जाने से अधिक प्रभावित
नही होता है ।
(2) उपरिष्ठता (8एए़थ्णीएंआ//)--जिसके अनुसार व्यक्ति अपने आस-
पास के व्यक्तियों को औपचारिक रूप से ही जानता है तथा उनके साथ उसके सम्बन्ध
अवैयक्तिक ही होते हैं।
(3) भ्नामिकता (870/»ग्रा५/)--व्यक्ति पहचाने जाने के भय से भीड़
में धूमता रहता है।
(4) व्यक्तिवाद (70शं6ए2॥57)--जिसके अनुसार व्यक्ति अपने हितों
को अधिक महत्त्व देता है।
रूथ ग्लास (रप!॥ 085$)? ने नगरीयता के निम्न लक्षणों का वर्णन किया
है: (!) गतिशीलता, (2) अनामिकता, (3) व्यक्तिवाद, (4) अवैयक्तिक सम्बन्ध,
(5) सामाजिक विभेदीकरण, (6) क्षणिकता, (7) शरीर-्यन्म (०ह4४०) जैसा
सामाजिक संगठत |
“- एन्डसंन (१02750॥)* ने इसके तीन लक्षण दिए हैं ;
(7) समायोजन (#०एशंबण9)--छहरी व्यक्ति बहुत समजनीय होता
है क्योकि वह् सदा नये उपक्रम अपनाने के पक्ष में रहता है तथा परम्परावाद
के प्रति असहिष्णुता रखता है क्योंकि यह (परम्परावाद) उसके लक्ष्यों की प्राप्ति में
बाधाएँ उत्पन्न करता है।
(2) गतिशीलता (/४०७॥॥9)---ब्यक्ति की सामाजिक गतिशीलता न केवल
गतिशील , है परन्तु वह दूसरों की सामाजिक गतिशीलता (सामाजिक स्थिति में
परिवर्तेन) को भी आसानी से स्वीकार करता है ।
(3) विस्तरण (7)विएऑं०7)--वहू अन्य नग्रों के प्रसारित सांस्कृतिक
3 #ाएधा३00, ऐप, ध्गाप (5जछ789, 79३ 5०लगे०2), .
4 छाडतता, क्.0ए 5, ०7, ८7/., 9.
१ 5]853, (९७१४ (८०,), ०7०. ८॥४., 32.
+ 8006८5६500, 67. ८7. 2... है 2875
68 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
लक्षणों को अपनाता है तथा अपने लक्षण भी विसरित करता है ।
सार्शल वित्तनार्ड ((व५० (॥ै)०7)* ने फिर इसकी पाँच विशेषताएं
बताई हैं: () तीव्र सामाजिक परिवर्तेन, (2) नियमों और मूल्यों में संघर्ष,
(3) जनसख्या की बढ़ती गतिशीलता, (4) भौतिक वस्तुओं तथा व्यक्तिवाद पर बल,
(5) घनिपष्ठ परस्पर संचार में छास ।
उपर्युक्त लक्षणो के अतिरिक्त हम नगरीय जीवन के निम्व लक्षण भी दे सकते
है ; वाजारू मनोरंजन, वैयक्तिक परिवारों की बहुसंख्या, गन्दी वस्तियाँ, शैक्षणिक
ओर औद्योगिक बेरोजगारी, द्वेतीयक नियन्त्रण, तथा प्रतिस्पर्धा और संघर्ष ।
नगरीय सामाजिक ढाँचे की विशेपताएँ «
किग्स्ले डेविस ने नगरीय समुदाय के निम्ब लक्षण दिए हैं: सामाजिक
विभिन्नता, दैतीयक सम्बन्ध, सामाजिक गतिश्ञीलता, व्यक्तिवादिता, स्थानीय विलेगाव
ये पृथवक्रण (879४ $६87०४४0॥), सामाजिक सहिष्णुता (६0/0&0७), द्वेतीयक
नियन्त्रण तथा ऐच्छिक समितियाँ । रोनाल्ड फ्रीडमैन! (9०7४१ ह्वध्थ्यागढ्ा)) ने
इसके छः लक्षण दिए हैं: व्यक्तियों व समूहों के मध्य कार्यात्मक अन्यान्योश्रितता,
अधिक जवसख्या, सदस्यों में अन्जानापन (89०0)फआ9), सचारण (00एशगाफ्रांए4-
॥00) साधनों का बाहुलथ, प्राथमिक सम्वस्धों का अभाव, श्रम विभाजन तथा
विज्ेपीकरण की प्रधानता ।
सोरोकिन और जिमरमत” ने नगरीय सामाजिक ढाँचे की निम्न विशेषताएँ
बतायी हैं.
(!) प्रकृषि व्यकक्षाप--तगरीय ढाँचे के लक्षणों में सर्वाधिक महत्त्व
व्यवसाय को दिया जाता है। जब ग्रामीण अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार क्पि होता
है, नगरीय अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार उद्योग, व्यापार व वाणिज्य होता है।
व्यवसाय की प्रकृति के कारण ही नगरीय क्षेत्रों में रहने वाले व्यक्ति प्राकृतिक
पर्यावरण में कायये नं करके अधिकांशतः कृत्रिम, अवास्तंविक और कोलाहलयुक्त
वातावरण में ही कार्य करते हैं जिसमे प्रीष्म ऋतु की गर्मी, शीतऋतु की सर्दी,
बरसाती ऋतु की सीलन थे नमी को व्यक्ति अपनी प्रवीणता द्वारा संयत करते हैं।
जेम्स विलियम्स (7070० ज्875)/ के अनुसार अप्राकृतिक पर्यावरण में कार्य
करने का प्रभाव व्यक्ति के व्यवहार, विचारों, व्यक्तित्व व जीवन के प्रति दृष्दिकोण
पर पड़ता है। व्यवसाय की प्रकृति के कारण ही व्यक्ति उदार भी मिलते हैं तो:
शढिवादी भी, परम्परावादी भी तो आधुनिक भी, औपचारिक भी तो सम्पर्कशील भी ।
3 (जाग्रडाए, #४5॥व, 50लग॑297 7060 डशेक्शांलफा
3$ 94१5, उा8569, 20:द्रदा/ग मु फैल्ेट का >क/आब॥ 329-35.
3३ इय९८9॥039, 80746, 7१/7%2;7/5 27 59097725 3952, 448,
23 5070४05 85१ 20 क्रद्य३45, रिकटाॉफ्रॉएक छा कबन्ग॑-(/04व 5980, 56-57:
3 जड़, 7765, तुए0/८पं 0च #कपेटाइ00, ०7. ८/:
णग 769
मगरीकर
समुदाय बड़ा होता है । गाँवों में
(2) जनसं्या फा भ्राकार--तगरीय की आवश्यकता होती है जिस कारण
कृषि करने हेतु प्रत्येक व्यक्ति को अधिक भूमिव कार्यालय भी शहरो मे ही स्थापित
चहाँ कम ही लोग रहते हैं। फिर नए उद्योग फरने वाले व्यक्ति अपनी व सन्तान की
किए जाते हैं जिसके कारण इनमें काम रक्षा, चिकित्सा, मनोरजन आदि जँसी
सुविधाओं हेतु यहाँ रहना पसन्द करते हैं। शितए आकपित करती हैं ।
सुविधाएँ भी व्यक्तियों को शहरों में रहने के अपनी भूमि की देखभाल के बिए
(3) जनसंट्या का धनत्व--गाँवों में वा पड़ता है परन्तु शहरो मे व्यक्ति का
व्यक्ति को अपनी कृषि-भूमि के पास ही रह तत्त्वो पर निर्भर करता है। यह ही
निवास उसके आफिस, मार्केट, स्कूल आदि जैसेती हैं वहाँ रहने वाले लोगों की सख्या
कारण है कि जहाँ यह सब सुविधाएँ अधिक हूँ हर के स्कूल, बेक, भत्पताल, सरकारी
भी अधिक मिलती है। आज वयोकि प्रत्येक शूपरण शहर मे जनसर्या का घतत्व
दपतर आदि की सख्या बढती जा रही है इस दर एक वर्गमील से औसतन 3000 से
भी अधिक मिलता है। भारत में महानगरो * घनत्व के लाभ भी हैं तो हानियाँ
5000 व्यक्ति रहते हुए मिलते है । इस अधिक्पर्क बहुसंल्यक होते है, सभी विशिष्ट
भी | लाभ इस रूप मे कि इससे साभाजिक स,[वसर अधिक मिलते है, मित्रो के
सेवाएँ अधिक उपलब्ध होती है; विशेषज्ञता के भू होने के कारण एवं अपने काम में
चुनाव की सम्भावना होती है, तथा अधिक चोगों में इतनी कम रुचि लेते हैं जिससे
सदा व्यस्त रहने के कारण लोग इुसरों की वा दुसरी ओर हानियाँ इस रूर मे हैं
कौतूहल व फालतू गपञ्मप से बचे रह सकते हैं ने है, एकान्तता कम होती है, सम्बन्ध
कि इससे आवासन की समस्या अधिक बढ़ जात|करण व अलगाव के कारण मानसिक
अधिक अव॑यक्तिक हो जाते हैं, मतीवेज्ञानिक पृथ (ण व्यक्ति विभिन्न रोगों से अविरत
तनाव बढता है तथा अशुद्ध हवा में रहने के का
रूप से घिरा रहता है। क् ते चार प्रकार के पर्यावरण बताए'
(4) पर्यावरण--बरनार्ड (86णरआ॥0)7 (००एफु०आं०) । भौतिक पर्यावरण
हैं : भोतिक, जेविकीय, सामाजिक और मिश्रितयु आदि में रहता है; जैविकीय
से तात्पर्य है कि व्यक्ति किस प्रकार की जलवा वेड़-पौधो आदि से घिरा रहता है;
पयविरण से अर्थ है कि व्यक्ति किन जानवरों वामाजिक (ए97५0-5०००) और
सामाजिक पर्यावरण का अभिप्राय भौतिक-सारण से है। पहले में हथियार,
मनोवेज्ञानिक-स्तामाजिक (957०70-$0०४]) पर्याकरे में जन-रोतियाँ, रूढ़ियाँ, प्रयाएँ
यान्त्रिक उपकरण, मशीन आदि आते हैं तथा टूर राजनीतिक, प्रजातीय, शैक्षणिक
आदि। मिश्चित पर्यावरण में व्यक्ति की आथिक,ने वाला भौतिक पर्यावरण घूल
आदि व्यवस्थाएँ सम्मिलित है। नगरों में पाया ज॑र मिश्रित पर्यावरण मानव निर्मित
भौर घधुएँ से भरा हुआ तथा सामाजिक भररेण के कारण ही व्यक्तियों के
होता है। यहाँ के मनोवैज्ञानिक-सामाजिक पर्याव
डग्ए2 ला मदकवं ६०, 30.
एकता देण्मल्ठ छ५ 85705, 7./99, 5908०
70 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक पर
विचार, 'रहन-सहन आदि के तरीके विभिष्ट प्रकार के मिर्दी हैं। उदाहरण के लिए
यह सामाजिक और मिश्रित पर्यावरण के कारण ही है # हाँ के व्यक्तियों में
त्कबुद्धिवाद, धर्मनिरपेक्षता, प्रतियोगिता झादि की भाव न विचार अधिक पाएं
जाते हैं। . - हर
(5) सामाजिक विभेदीकरण--नगरों में भाषा, पमार्जि ामानिक पृष्ठ-
भूमि, व्यवसाय, रहत-सहन के स्तर, धामिक विचारों व से घारणाओं आदि
में अधिक विभिन्नता मिलती है। किन्तु फिर भी नगर का अंग दूसरे अगों से
पूर्णता स्वतन्त्र न होकर दुसरो पर निर्भर ही रहता है; अतः सभी अंग मि्ेक्रर
एक वृत्यकारी व्यवस्था ([णा००/०ए४०ह ऊा००) ही बन क्र हैं जिक प्रत्थिति से
(6) सामाजिक गतिशीलता--नगरो मे व्यक्ति ए| 200 ति प्ले कं
अधिक संलगित नहीं रहता किन्तु वह एक प्रस्थिति इसरो प्रत्यि पर श्िष्ट जद पद,
रहता है। अतः जब स्थायित्व (४४७॥09) ग्रामीण समु शशि एक होता हे
जाना जाता है, गतिशीलता फिर नगरीय समुदायों का के कप कण हू करके
सामाजिक प्रस्थिति मे परिवर्तत व्यवसाय बदलने से, 3888 पेय का ऐप ४ ग)
तथा शिक्षा आदि द्वारा अधिक सम्भव होता है । गतिश्ञीलत गतितसता (00 उदाहरण
भी मिलती है तो विषमस्तरीय (एथय/८४) भी । समस्तर्र दुण & श्र 2 8५] प्रश्यिति
है कि एक श्रमिक 'अनिषुण से अर्द्धनेपुण और फ़िर नि पल्तु 228 रहन-सहन के
प्राप्त करे। तीनों स्तर पर वह रहता तो श्रमिक ही हैं पश्वोकषक, हु परिवीक्षक से
स्तर आदि उसके भिन्न होते हैं । दूसरी ओर श्रमिक से ह विपमंस्तरीय शधिशीलिता
मैनेजर और मैनेजर से मातिक की प्रस्थिति में परिवत्ता
का उदाहरण है । 'ैगोलिक गतिशी
सामाजिक गतिशीलता के अलावा शहरों में 00 पक गतिशीलता भी
घक रि े > 6 पड़ोस से निकल कर दुसरे
अधिक मिलती है। व्यक्ति न केवल एकु ही शहर में एश | दमरे पहर में भी अधिक
पड़ोस में जाते रहते हैँ परन्तु यह स्थानान्तरण एक शहूः इमर पह
मिलता है। ; किनाई
मगसों में अधिक गतिशीलता पाए जाने को सम न मा पर
स्मिथ (570)? ने निम्न पाँच कारण दिए हैं: (0): का गढ़ी का कार्य
भलतो हैं जो *' रिवर्तन में श्र प्त के लिए सीढ़ी का के
मिलतो हैं जो रिथिति प| में श्रेष्ठ प्रम्थिति प्रािक अधिक तीत्र होती है शि
करती हैं। (#) दाहरों मे सामाजिक परिवर्तन की ग॒. ..पत्त है हा गमिशाउता
कारण सामाजिक और सांस्कृतिक पर्यावरण भी तेजी रे के मनोवैश्ञातितन्सामार्निक
की गति भी तेन होती है। (|) माता-पिता और सन्त आमादी' में खेष्ठ प्रस्थिति
शसक्षयों में इतना अन्तर मिलता है कि ऊँची योग्यता वाले (नी अपरिववेनीय नहीं होती
प्राप्त करते हैं। (६४) शहरों में जाति की संए्चना भी. हे *
छ $070 9 853 खॉशिफरदा39, ०#- दा.
## 5 ला, [399 ० ६... 32. ५;
नगरीकरण [7
जिससे प्रस्थिति परिवर्तत अधिक सम्भव होता है । (५) शहरों में पायी जाने वाली
विभेदक जननक्षमता (परशीथिश्ाधं॥। लि) के कारण ऊँची स्थिति में रिक्त स्थान
अधिक होते है जी गतिशीलता के लिए आवश्यक रिक्ति (५३८४एा7) उत्पन्न करते है।
(7) सामाजिक झन्तःक्रिया--शहरो में व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्ध
प्राथमिक न होकर द्तीयक अधिक होते है, व्यक्तिगत न होकर अवैयक्तिक मिलते
हैं, घनिप्ठ न होकर सीमित होते है तथा स्थिर न होकर क्षणिक पाए जाते है।
सम्वन्धों के समभौते-युक्त होने के कारण लोग दूसरों के कार्यों से ही परिचित रहते
हैं, उतके व्यक्तिगत अधिकारों व हितो मे कोई रुचि नही लेते | यह ही क्षपरिचितता
अप्रत्यक्ष रूप से विचलित व्यवहार को भी जन्म देती है।
(8) सामाजिक एकता--शहरों में सामाजिक एकता यान्त्रिक (एाणक्रपा-
एव) ने होकर सावयवी (०४०००) मिलती है । पहली एकता की विशेषता एक-
रूपता व द्वितीय की विभिन्नता है। सावयवी एकता में प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व
का अस्तित्व अलग-अलग मान्य हो जाता है तथा यान्त्रिक एकता में व्यक्ति का
व्यक्तित्व समाज के सामूहिक व्यक्तित्व में विलीन हो जाता है। वयरों में सावयवी
एफता के कारण सभी व्यक्ति एक-दूसरे पर निर्भर भी अधिक रहते हैं ।
सगरों का विकास
नगरों का विकास जन्म-दर व प्रवसन-दर पर निर्भर करता हैं। इसके अतिरिक्त
राजनीतिक; आर्थिक, धामिक, शेक्षणिक आदि कारक भी नगरो के विकास में योग देते
हैं। राजनीतिक कारकों में किसी शहर का राजघानी होता (दिल्ली), राजनीतिक
गतिविधियों का केन्द्र होता, सेवा प्रशिक्षण का प्रमुस स्थान होना (जीधएुर), एवं मुद्ध
सामग्री निर्माण का केन्द्र होना, आधिक कारकों में मगर का व्यापार का केखद्र होना या
किसी बड़े उद्योग या उत्पादन का केन्द्र होना (कोटा, अहमदाबाद, कानपुर)। धामिक
कारकों में उसका तीर्थस्थान होना (हरिद्वार, काशी, इलाहाबाद), तथा शैक्षणिक कारणों
में उसका प्रमुख द्षैक्षणिक महत्त्व का केन्द्र होना (पिलानी) प्रमुख हैं। हम यह भी बाह
सकते हैं कि औद्योगीकरण, यातायात की सुविधाएँ, घ्यापार एवं ग्रामों से प्रबतन आदि
कारक नंगरों के विकास में महत्त्वपूर्ण रहते हैं। भारत में नगरों का विकास तीव्र गति
से होता जा रहा है । 92] में जब देश की कुल जनसंख्या का "4 प्रतिशत शहरों
में रहता था, 97 में यह बढकर 20 प्रतिशत हो गया । 92-3 के मध्य जब
नगरीय जनसंख्या 8*4 प्रतिशत वढी, 795-63 के मध्य 29*6 प्रतिशत बढ़ी ।
4937 में जब यहाँ एक लास जनसंख्या से अधिक वाले शहरों की संध्या 32 थी,
4974 में यह बढ़कद 747 हो यई । इसी प्रकार 0 खाख से अधिक जनसंख्या वाले
शहरों की संख्या 95] में 2 से बडकर 4, ओर 97 में 9 हो गयी ।॥?? इस
मेपाधग8, 4. 8,, शद्धायताड ० उजतंद सु 2 60०79व॥ /7
95-237. ४ 4५ ३ ४३
]72 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
विकास का व्यक्तियों के साभाजिक, आथिक, राजनीतिक आदि जीवन पर प्रभाव
पड़ना स्वाभाविक ही है, अतः हम अब इसी प्रभाव का विश्लेषण करेंगे ।
नगरीकरण, नगरीयता और सामाजिक जीवन
नगरीयता का सामाजिक जीवन पर प्रभाव विभिन्न आधार पर देखा जा
सकता है, जैसे परिवार पर प्रभाव, स्त्रियों की स्थिति पर प्रभाव, जाति की संरचना
पर प्रभाव, परम्पराओं और घारणाओं पर प्रभाव, ग्रामीण जीवन पर प्रभाव, तथा
सामाजिक समस्याओं पर प्रमाव। .
(।) नगरोयता और परिवार--नंगरीकरण और नेगरीयता “का परिवार
पर प्रभाव सरचना एवं सम्बन्धों की दृष्टि से देखा जा सकता है। सेस्चना की हप्डि
से यहाँ वैयक्तिक परिवार व एक सदस्यी परिवार अधिक मिलते है। जो परिवार
सयुक्त भी है ये भी छोटे आकार के ही मिल्रते है। भाई० पी० देसाई ने गुजरात में
भहुआ कस्बे मे 955--57 के मध्य किए गए 423 परिवारों के अध्ययन में पाया
कि 283 प्रतिशत परिवार पूर्णतः वेयक्तिक थे, 39-3 प्रतिशत क्रियात्मक रूप से,
सम्पत्ति की हृष्ठि से व सीमांतरीय (एथष्टां॥श!9) संयुक्त थरेर (अथवा रहने की
हेष्टि से वैयक्तिक परन्तु कार्य करने व सम्पत्ति आदि की हेष्दि से संयुक्त) भौर
32*4 प्रतिशत पूर्णतः संयुक्त थे | संयुक्त होने की मात्रा के आधार पर-उसने पाया
4-96 प्रतिशत परिवारों में संयुक्त होने की मात्रा शुन्य थी, 26-48 प्रतिशत में
निम्न, 702 प्रतिशत में उच्च, 30:26 प्रतिशत मे उच्चतर तथा 2"28 प्रतिद्षत
में उच्चतम थी) इससे स्पप्ट है कि नगरों मे वैयक्तिक परिवारों की संख्या बढ़ रही
है और संयुक्त परिवारों की सख्या घट रही है। देसाई ने यह भी पाया कि जो
परिवार समुक्त हैं उनमे केवल दो था तीन पीढियो के सदस्य ही अब इकट्ठे रहते हैं।
कपाडिया मे भी 955--56 में गुजरात मे नवसारी कस्बे व उसके आसपारा के 5
गाँवों के 345 परिवार के अध्ययन में पाया कि 437 प्रतिशत परिवार वैयक्तिक
थे और शेष एकायामी (!ए०७9) या भिन्नशाखीय (०्णांशल्तआध्र) संयुक्त?
एम० एस० गोरे” ने अपने दिल्ली शहर व हरियाना के दो जिसो के कुछ गाँवों के
अध्ययन में तथा एलिन रास” ने वेगलोर नगर मे 57 हिन्दू मध्यवर्ग परिवारों के
अध्ययन में पाया कि नगरों में सयुक्त रहन-सहन में परिवर्तत आ रहा है ।
+॥ [9९53॥, (. ९., 50त6 4357८ शी #2क्ाओ वह कवक्लोक्ारण, औैशंव एपणा$कएड
प्र०५5८. छ807099, 964, 4
3१ 44/१५., 69,
ज० ए(974079, है(, के, , 2429777ए2 कक रिक्राए बह उबरबॉक गाव एशंर्क्षभज
छा655, छ807949, (परभभा3 ८07067), 966, 283.
४१ (08, १4, 5 , एर#क्रा्॑वाका खा क्वामाज (एशक्ाह2% ?०फुणेश' एऑॉ८3530५
छ070999, 968, 24!-248.
ज१ ९०3३, #वाटए0, 0, उ#ल माहबंए सक्ामाफ सि हह- ए828 उली॥छ, फमगिव
एएक्सिशी३ ९7८४५, 496, 49,
नगरीकरण 73
संयुक्त परिवारों के प्रति विचारों के अध्ययनो मे के० टी० मरचेंट**, बी०वी०
शाह, कपाडिया?*, गोरेः*, दिल्ली जनमत इंस्टीट्यूट आदि से पाया कि अधिकांश
लोग अब भी संयुक्त परिवारों के पक्ष में ही है । मरचेंट ने 533 व्यक्तियों में से 50
प्रतिशत को, शाह ते बड़ौदा विश्वविद्यालय के 200 छात्रों में से 39-5 प्रतिशत को,
भोरे ले 274 व्यक्तियों में से 78:6 प्रतिशत को, कपाडिया ने 53 शिक्षकों में से
83-3 प्रतिग्मत को, तथा दिल्ली इंस्टीट्यूट ने 60"5 प्रतिशत को समयुक्त परिवार के
पक्ष में पाया । इससे केवल इतना ही कहा जा सकता है कि नगरो में लोग रहने की
हृष्टि से तो बैयक्तिक परिवार किन्तु कार्य की दृष्टि से संयुक्त परिवार को अधि-
मान्यता देते हैं ।
सम्बन्धों की दृष्टि से भी नगरीय परिवार के सदस्यो के पारस्परिक सम्बन्धों
मैं परिवर्तेत आता जा रहा है। एलिन रास, एम० एस० गोरे, कपाडिया, आदि ने
भी इस सम्बन्ध में पति-पत्नी, माता-पिता-सन्तान, व भाई-भाई आदि सम्बस्धो में
परिवर्तेत का वर्णन किया है । रास का कहना है कि आने वाले कुछ वर्षों में परिवार
के प्रतिबन्धन व दायित्व सम्बन्धी विचार क्षीण होते जायेगे, सदस्यों से भावात्मक
लगाव कम होता जाएगा और परिवार के भुखिया के अधिकार समाप्त होते जायेंगे ।१*
कपाडिया ने कहा है कि शहरी परिवारों में माता-पिता अपनी सत्ता सन््तान पर
प्रभाव पूर्णता थोपते नही और न ही बच्चे अपने बड़ो के आदेश आँख मूंदकर मान
लेते है ।? परिवार के अपने समवश्ञी समूहों (!3॥ 70095) से सम्बन्ध भी अधिक
गहरे और घनिष्ठ नहीं रहे है। दूर के स्वजनो (475) के साथ सम्बन्ध या तो
इृट्ते जा रहे हैं या फिर क्षीण होते जा रहे है ।
किन्तु आई० पी० देसाई परिवार पर नगरीकरण के प्रभाव को अधिक नहीं
मानते । उन्होंने अपने सर्वेक्षण में 423 परिवारों को शहर में रहने की अवधि के
आधार पर तीन समूहों में विभाजित किया : () नये परिवार जो शहर में 25 वर्ष
से कम अवधि से रह रहे थे ; (2) “पुराने परिवार” जो 25 वर्षों से अधिक परन्तु
50 वर्षों से कम समय से शहर मे रह रहे थे और ; (3) 'बहुत पुराने परियार जो
50 वर्षों से अधिक समय से शहर में रह रहे थे । उनका कहना था कि यदि नगरी-
करण का परिवार पर प्रभाव है तब जो व्यक्ति घहरों में बहुत लम्बे समय से रहते
हैं उनमे संयुक्त परिवार के नियमों का पालन कम और वैमक्तिक परिवारों को संख्या
अधिक, और जो कम समय से रह रहे हैं उनमें संयुक्त परिवार तियमों का पलन
9 फेशिणीबतपी ४. प., (+०७छडए 4ाधग्रर८ ॥95क्रवं) कैँगापडल बाय खतरा बढ
4#4/9, 4934, 323.
१ 903॥ $. ५., 33 (#कहल बनते ८०/६६४ उ॥;4८७॥॥ 2 60६7०, 43-46.
35 [(893343, ०7. ८॥/., 233,
3९ (5078, ;ै!. 5 , ०7. ४६., ॥2-3,
श चृतवैद्भव 05000० ७6 ९५७४८ 0005, 7४6०८ छ/##&४०%, छ0ल%, 0-0.
3५ (053, &.., ०9. ८॥४., 5.
> १ (0(:3073, [<, 'ह., 27. ल। , 326.
4 5 रि ९
74 सामाजिक समस्याएँ और सार 23220
अधिक और वैयक्तिक परिवारों की संख्या कम ्लिनी चाहिए न मिड
उसके उपर्यूक्त दीन समूहों में 'बहुत पुराने परि के तोसरे समुह में पहले और
दूसरे समूहों की तुलना में संयुक्त परिवारों कौ सं कम गिलनी चाहिए थी। परत
उन्होंने पाया कि इसके विपरीत तीसरे समूह में (हले दो समूहों ह कक
परिवार अधिक ये ।१? अत: उसमे यह निष्कर्ष हु 30080. 0288
परिवतेन में नगरीकरण प्रमुख तत्व नही है। कि समूहो में जो उससे समय-अवधि
इस आधार पर स्वीकार नहीं कर सकते कि तो 25 ब्चों से या 50 यर्षों से रह रहे
ली बह बहुत अधिक थी । जो व्यक्ति शहर में ि के
उनमें अध् करता यदि देसाई समय अवधि कम
है उनमें अधिक अन्तर नहीं पाया जा सकता । / करण
लेते तब सम्भवतः उन्हें उपर्युक्त निष्कर्ष न हि | बल कारग हम (00208
नगरीकरण के प्रभाव को पूर्णतः अस्वीकार नही. कर सकते। हम गोरे” के इस
| की रवारों के सदस्यों के विचारों, व्यवहार
उपकल्पना को स्वीकार करते हैं कि नगरीय र्प्ि से विचलन अधिक मिलता है।
एवं भूमिका अनुभूति में संयुक्त परिवार के नियत 0222 के नियमों का
(2) नगरीयता घोर जाति संस्वना- तु छाकवात, विवाह व सामालिक
बहुत कठोरता से पालन नहीं किया जाता ) य, ती है। परन्तु नरमदेशवर प्रसाद
अन्त.क्रिया आदि पर प्रतिबन्धों में काफी ढील गति सती अधणी पर संस अशो्े:
जैसे विद्वातों का विचार है कि नगरीकरण ने क 956 में गाँव व शहर से किए गए
नही डाला है ! उदाहरण के लिए उसने बिहार, चमार) के 200 व्यक्तियों (200
5 जातियों (ब्राह्मण, राजपूत, धोवी, अह्वीर अं शहर में) को अध्ययन किए गए
क्के र दपरा शहर में) को आ कए गए
छपरा जिले के एक ग्राम में और !00 कर्ताओं ने विवाह अपनी ही जाति में
सर्वेक्षण के आधार पर पाया कि सभी सर्वेक्षण. व 5 प्रतिमत गाँव में. रहने वाले
किया था यद्यपि 20 प्रतिशत शहर में रहने वा | व्यवसाय की दृष्टि से शहर में रहने
सूचनादाता अन्तरजातीय विवाह के पक्ष में थे | गिल कह
वाले सूचनादाताओं में से कोई भी अपना वर्क लग 24% 72
था जबकि गाँव में 8। प्रतिशत व्यक्ति परम्पर विचलन अहीर और राजपूत जातियों
व्यवसाय में लगे थे । परम्परागत व्यवसाथ सै. तुत कम था ( इसी प्रकार नरमदेशवर
में अधिक तथा चमार और धोवी जातियो में ता कॉधिक: नहीं मिलती, जाति-पंचायत
प्रसाद ने यह भी पाया कि दहरो में जाति एवं 32220)
मु ५) करती व उसका सदस्यों पर
सामपरिक और अस््थायी ससथा की तरह का... ५. ५ ला पाया जाता है॥
नियंत्रण अति कठोर नही होता तथा जाति घ॑ नगरीकरण के प्रभाव का यर्णत किया
कंपाडिया, घधूय्यें, डेविस आदि ने भी जाति पर... ने उन खान-पान आदि सम्बन्धी
है | कपाडिया का कहना है कि शहरो के 3
।
ठग, , है, कर. लो व: रे
# उग्र, च, $, ० थ। , 49-50, २25. ॥ ०/॥८ टेबल 3 क्ठक, 7957.
7 454, >एडातउतरडक्ड, उमंड 29% //06, 5८, 959, ४०, 8., ४०, 2, 74.
हकग्एववीड, ६. व. उत्सरव्डांत्य अं
£
नगरीकरण 7$
प्रतिवन्धों को काफी क्षीण बताया है जो कुछ समय पूर्च तक जाति व्यवस्था वे” लक्षण
माने जाते थे। धूर्ये का विचार है कि प्रवासी जनसख्या के साथ नगरीय जीवन के
विक्रास ने जाति के कठोर नियमों को परिवर्तित कर दिया है तथा (जाति के सदस्य)
प्रारम्भ में विवश्ता के कारण जो कार्य करते थे अब वह (उनके लिए) शहरी
बातावरण मे दैनिक क्रम वन गया है ! किग्लले डेविस* की मान्यता है कि अनामिकता
संकुलता, गतिशीलता, धर्मनिरपेक्षता आदि ने जाति व्यवस्था के नियमो के पालन को
कार्यत: असम्भव बना दिया है । छुआदूत के प्रति विचारों मे भी उदारता मिलती
है। हरिजनों के श्लोषण व उत्पोड़न के जो उदाहरण गावों में मिलते हैं वे शहरों में
नही मिलते ॥
(3) नगरीयता भौर स्त्रियों की त्थिति--नगरों में स्त्रियों की स्थिति भी ऊँची
मिलती है। इसका एक कारण उनका कुछ शिक्षित होना तथा कुछ स्त्रियों का
आधिक रूप से स्वतन्त्र होता भी हो सकता है । 97] के आँकडों के अनुसार 3
प्रतिशत ग्रामीण महिलाओ के साक्षर होने की तुलना में 4 प्रतिशत शहरी महिलाएँ
साक्षर है। फिर, शहरों में रहने वाली लड़कियाँ विवाह के समय क्षारीरिक, मानसिक,
सामाजिक थ भावात्मक रूप में भी परिपक्व (707८0) होती हैं.) इस परिपकक्वता,
शिक्षा आदि के कारण वे पूर्ण रूप से पति पर निर्भर न होकर उल्टा उन्हें उनकी
अपेक्षित भूमिकाएँ निभाने में सहायता करती हैं। अतः शहरी में स्त्री-पुरुष की
पारस्पिरिक निर्भरता इतनी मिलती है कि पुरुष स्त्री को निम्न स्थिति न देकर बराबर
की स्थिति ही देता है। शहरों की स्त्रियाँ परदा आदि जैसी परम्परागत प्रथाओं मे
भी अधिक विश्वास नही करती । अपनी भूमिकाएँ घर की चहारदीवारी तक सीमित न
कर वे सभी क्षेत्रों मे रुचि लेती हैं तथा प्रशंसनीय क्षमताओं का प्रदर्शन करती है। अपने
फो क्षीण और निर्भर जीवन साथी न समभकर रामान अधिकारों पर बल देती हैं।
(4) नगरीयता, विचार और परम्पराएँ--शहरो में रहने वाले व्यक्तियों के
विघार, 'घारणाएँ, आकांक्षाएँ व प्रथाएँ भो अलग होती हैं। उदाहरण के लिए लड़कों
ओर लडकियों को शिक्षा देने के विचार, विवाह की आयु-सम्बन्धी विचार, स्त्रियों
की स्वतन्त्रता देते सम्बन्धी विचार, लड़को और लड़कियों की पारस्परिक अन्तःक्रिया
सम्बन्धी विचार, अविवाहित लड़कियों और विवाहित स्त्रियों द्वारा नौकरी करने
सम्बन्धी विचार, मनोरंजन सम्बन्धी विचार आदि में बहुत उदारता मिलती है।
सगरीकरण का ग्रामीण जीवन पर प्रभाव
यातायात साधनों एवं आवागमन सुविधाओं के विकास के कारण बहुत से
ग्रामीण तगरवासियों के अधिक निकट सम्पर्क में रहते है। कुछ तो शहरों में
कारखानों आदि में काम करने के लिए एवं अपनी उपज शहरी बाजार मे बेचने के
# 579८, 0. 5., (%/०, ८: ई
8०98५, 222. /» '#्/2, (45४४ छा 0०ट2एब्रपंगा, 20फुप्रॉंदा 8002 0692, .....
भ एदरांड, एफइअट9, ०7, लए..*2५
376 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
लिए प्रतिदिन गाँव से शहर आते हैं; कुछ यदाकदा आते रहते हैं और बहुतों का
सम्पर्क फिर समाचार-पत्र, रेडियो आदि साधनों से बना रहता है। इन सम्पकों के
कारण नगरीय सांस्कृतिक लक्षणों का विसरण गाँवों तक होता रहता है । जब ग्रामीण
आविष्कारी और नवीन प्रक्रियाओ को स्वीकार करता है तव वह नगरीय सभ्यता
और नगरीय जीवन के तरीके से अवश्य ही प्रभावित होता है। इस प्रभाव के कारण
उसके ५ विचार वदतते हैं, वह परम्परागत मुल्यों और संस्थाओं को अस्वीकार करता
है, धर्म और संस्कारों को कम मानता है; कृषि व्यवसाय के लिए आधुनिक उपाय
अपनाता है तथा जीवन-स्तर ऊँचा करने के लिए नई आकांक्षाएँ रखता है। यथासम्भव
वह बच्चो को शिक्षा देकर उनका भविष्य बनाने का भी प्रयास करता रहता है । जीवन
यापन के लिए क्रृपि तक सीमित न रहकर अन्य सहायक साधनो को भी अपनाने का यत्त
करता रहता है । परिवार, विवाह आदि जैसी सामाजिक संस्थाओं एंव सामाजिक जीवन
पर भी सगरीकरण का प्रभाव स्पप्ट दिखाई देता है । शर्नेः शनेः वाल-विवाह की प्रथा,
जाति-संरचना में कठोरता, परिवार के सदस्यों के पारस्परिक सम्बन्ध आदि मे परिवर्तेन
होता जा रहा है । पहले जब जाति-पंचायत व ग्राम-पंचायत के निर्णय को अन्तिम निर्णय
मानकर स्वीकार किया जाता था अव शहरी व्यक्तियों की तरह ग्रामीण भी विविध
संघर्ष न्यायालय तक ले जाते हैं । आपसी सहयोग और सहानुभूति कम होती जा रही
है। द्वैतीयक सगठन अधिक बलवती होते जा रहे हैं। सामाजिक प्रतिष्ठा सम्बन्धी
प्रस्थिति पर निर्भर न रहकर साधित प्रस्थिति द्वारा निर्धारित होने लगी है तथा व्यक्ति
का सम्मान केवल उसके परिवार की स्थिति द्वारा निर्धारित न होकर उसके व्यक्तिगत
भुणों द्वारा भी निर्धारित होता है। एलोपथी चिकित्सा, प्राकृतिक चिकित्सा का स्थाव
लेती जा रही है। ग्रामीणों की राजनीति अब जाति तक सीमित न रहकर ग्राम, राज्य
व राष्ट्रीय स्तर तक फँलती जा रही है। पचायती-चुनावो में उम्मीदवार के व्यक्तिगत
गुण न देखकर उसके राजनीतिक दल सम्बन्धी वृष्ठभूमि को महत्त्व दिया जाता हैं)
राज्य और राष्ट्रीय स्तर के चुनावों में भी ग्रामीण अपने बोट के भहृत्व को
समभने लगा है।
परन्तु इसका यह अथे भी नहीं है कि नगरीकरण का ग्रामों पर प्रभाव इतता
. अहरा है कि आने वाले कुछ वर्षों मे गाँवों का अस्तित्व ही समाप्स ही जाएगा एवं
गाँवों में पूर्णतया नगरीय जीवन के तरीके ही मिलेंगे | परिवार पर प्रभाव होते हुए
भी यह (परिवार) अब भी अपने सदस्यों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने का कार्य
करता है । जब तक परिवार यह परम्परागत कार्य करता रहेगा, गाँवों में. परिवार"
बाद (शिश!8वा) का महत्व बना रहेगा तया व्यक्तिवादी विचार अधिक विकसित
नही हो पायेंगे । इसी प्रदार जाति-सरचना के कुछ लक्षणों में परिवर्तन के उपरान्त
भी, जाति का सदस्यों पर प्रभाव पुर्णर्प से समाप्त नही हुआ है और में आते वाले
समय में इसकी कोई सम्भावना ही है। बच्चो को शिक्षा दिलाने के उपरास्त भी
ग्रामीण बहुत सी बातों मे अब भी अद्विदादी ही हैं। अत. जब तक परिवार, पड़ोस,
जाति आदि का सामाजिक नियन्त्रण ग्रामीणों पर रहेगा, नगरो का जीवन गांवों के
नगरीकरण 477
जीवन को स्थानास्तरित नहीं करेगा। नगरीकरण का ग्रामों पर प्रभाव मानते हुए
भी हम यह स्वीकार नही कर सफते कि प्राथमिक संगठतों का प्रधुत्व ढीला पड़ता
जा रहा है। सम्भवतः हम यह मान सकते हैं कि ग्राम-नगरीकरण (7एरएशगंट2/07)
एवं ग्रामीण और नगरीग सक्षयों का सम्मिश्रण की प्रक्रिया अधिक मिलेगी ।
नगरीकरण शोर सामाजिक समस्याएँ
नगरीकरण के कारण कुछ सामाजिक समस्याएँ भी विकसित हो रही हैं जिन
में आवास, गन्दी वस्तियाँ, वाल व वयस्क अपराध, शराबसोरी, वेश्यावृत्ति, भिक्षा-
वृत्ति आदि प्रमुस हैं। नगरों की जनसंख्या इतनी तीज्र गति से बढ़ रही है कि लोगों
को आवासन की समस्या का कठिन सामना करना पड़ रहा है। एक सर्वेक्षण के
अनुसार बम्बई में अध्ययच्त किए गए 3369 व्यक्तियों में से केवल 4-8 प्रतिशत
अपने भकानों मे रहते हुए मिल्ले तथा 866 प्रतिशत किराए के मकानों में । कलकत्ता,
दिल्ली, मद्रास आदि महानगरों में भी ऐसो ही अवस्था भिली । बम्बई में जब 776
प्रतिद्यत व्यक्ति एक ही कमरे के मकान में रहते मिले, दिल्ली में 69-] प्रतिशत,
तथा कलकत्ता में 576 प्रतिशत । एक छोटे कमरे में रहते वाले व्यक्तियों की औसतन
संख्या 5'4 पायी गयी । जब सभ्य स्तर के अनुसार एक दम्पत्ति को रहने के लिए
औसतन 200 वर्ग फुट स्थान की आवश्यकता होती है, हमारे देश के महानगरों में
उन्हें 30 वर्ग फुट से भी कम स्थान प्राप्त है, पृथक् रसोई, स्तानघर, आदि के अमाव
में 70 प्रतिशत से भी अधिक व्यक्ति निम्नस्तर की अवस्था में ही रहते हैं। इस
संकुलता का प्रभाव आधिक, सामाजिक, व पर्यावारिक (शाप्रोण्णा८ए४) दृष्टि
से देखा जा सकता है | आर्थिक व पर्यावारिक हृष्ठि से लोग क्योंकि स्वयं
का मकाने बनवाने तथा अधिक किराया देने के समर्थ नहीं होते, अतः वे या तो
भौतिक रूप से अवहृरसित (979#०७॥५ 0०00]०7४8०0) मृहल्लों में सस्ते मकानों में
रहते हैं, या गन्दी बस्तियों में । फिर एक छोटे से मकान में रहने वाले व्यक्तियों की
संख्या अधिक होने का उनके एकान्तता, रहन-सहन व विचारों पर भी प्रभाव पढ़ता
है। सामाजिक हृष्टि से इसका प्रभाव परिवार के ढाँचे, स्वजतों से सम्बन्धों एवं
बच्चों के विकास पर गहरा दिखाई देता है ।
आवास की समस्या की तरह लोगों का नेराश्य, कुण्ठा थ॑ विफलता अन्य
बहुत सी समस्याएँ भी उत्पन्न करता है। अधिक रुपया कमाने की इच्छा से जब
पति-पत्नी दोदों नौकरी करने जाते हैं तो बच्चों में सामाजिक नियन्त्रण के अभाव में
अपराधी मनोवृत्तियाँ उलन्न होती हैं। कुछ व्यक्ति फिर वैध साधनों द्वारा आवश्यकता के
अनुस्तार धन न कमा सकने की अवस्था में अवैध व असामाजिक साधन उपयोग करते
हैं। कुछ लड़कियाँ निर्धनता के कारण वेश्यावृत्ति को अपनाने के लिए बाध्य हो
जाती हैं। कुछ निर्भन व्यक्ति शराबखोरी, जुआ आदि जैसी दुव॒ त्तियाँ अपनाहे हैं
थ
अरहाडडाउ: 8, ०. ४ , 22. रे
78 सामाजिक समसस््याएँ और सामाजिक परिवर्तन
तथा कुंछ घनोपाजेन का कोई भी साधन न ढूँढ़ पाने की अवस्था “में भीख माँगना
शुंद कंरते हैं। यह ही कारण है कि नगरों में हमें इन सभी समस्याओं की मौज
बढती हुई मिलती हैं।
नगरीकरण के इन भ्रभावों को देखते हुए नगरों के विकास को नियत्रित'
करना एवं शहरों के लिए विकास-योजना बनाना अति कावश्यक दिखाई देता:है।
यह आयोजन विखण्डन (काऋ्थ्चअं०)) और विकेन्द्रीशरण (6००८ 8क॥ा०)
प्रक्रियाओं द्वारा ही सम्भव हो सकता है । विखण्डन प्रक्रिया या से येंहाँ अभिप्राय है
जनसस्या को छोटे आकार के समुदायों में अनुग॒मन करना तथा विकेम्द्रीकेरेण का
अर्थ नगरों के परिसरीय (८८७) विकास एवं नगर क्षेत्र के विस्तार से है।
नगर योजना में हमे स्थानीय, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर दायित्व को निश्चित
करना होगा तथा तरकाली (॥ग7760/906), मेघ्यस्थित (77000) और दीघंकालीन'
मोजनाओं का नियोजन करना होगा । यह निवास-सम्बन्धी विकेस्द्रीकरण, औद्योगिक
विखेंण्डन, उद्योगों की तटीय स्थानों (7786) पंर स्थापना करना तथा नगर योजना
ही झहंरों के अस्त-व्य॑ंस्त विकास को रोकेगा, नगरीग समुदाय में सावयवी (0247०)
व्यवस्था स्थापित करेगा, तथा नगरीकरण-के कुप्रभावरों को रोकेगो । *
! श्रौद्योगीकरण
(7४७पएछारा4ा45&7708)
चस्वनफनपस--ततनत सस्ता तप पस्नननचिनसससससससन् भरा मा सन नर िससिस्स्स्स्स्स्फ्िस्सत+ नियत सतनलतततससिस्सिलस्स्स््स्र
औद्योगीकरण को साधारणतः प्रोध्योग (॥०८४४००४५) से संश्लिप्ट किया
जाता है। कुछ व्यक्ति प्रोद्योग को इंजीनियरों, मशीनरी, दिजली आदि से ग्रथित
करते हैं तो कुछ इसे उन रेडियो, रेफरीजरेटर, टेप-रिकार्डर, टेलीफोन, टेलीविजन,
इत्यादि विभिन्न युक्तियों (89080) से जोडते हैं जो उन्हें घरों, दफ्तरो, होटलों,
रेस्तरां आदि में सुख-सुविधा व आराम बढाने के लिए मिलते हैं। यह सव युक्तियाँ
बयोकि प्रोद्योग की उपज हैं इस कारण साधारण व्यक्ति प्रोद्योग को एक ऐसा साधन
मानते हैं जो हमारी सहायता के लिये यांत्रिक उपाय उपलब्ध करता है यद्यपि कभी-
कभी ये हमारे लिए दु'खदायी व अहितकर भी सिद्ध होते हैं। लेविस ममफीईड
(7८७४५ )(७॥/०7०)! ने भी कहा है कि प्रोद्योग को परिवर्तन के कारण के रूप से
देखा जाता है, फिर वह परिवर्तद लाभदायक है या हानिकारवः
ओऔद्योगीकरण और भ्रोद्योग का उपर्युक्त दृष्टिकोण बहुत सीमित है / विस्तृवे
हृष्टि से प्रीद्योग को, शिल्पविज्ञान (८प्काशं०४$) का अध्ययव” और ओऔद्योगीकरण को
उद्योगों में मानव-शक्ति व पशु-श्क्ति के स्थान पर अधिक से अधिक प्रौोगिकी:
अथवा निर्जीव (70770) शक्ति के भ्रयोग करने के रूप में, देखा:जा सकता है।
यद्यपि प्रौद्योगिकी वस्तुएँ उत्पादन करने सम्बन्धी अध्ययन सामाजिक विज्ञानों का नहीं
परन्तु भौतिक विज्ञानों का केन्द्र-बिन्दु है किन्तु सामाजिक विज्ञानों में, विशेषत:
समाजश्यास्त्र में, हम मह अध्ययन करते हैं कि व्यक्तियों के: विचार, व्यवहार, विभिन्न
समूहों से सम्बन्ध, संस्थाएँ आदि भौतिक: संस्कृति से कसे प्रभावित होते हैं। . 5
«.. ओद्योगीकरण का विकास अठारहवी और उद्नीसवो शताब्दियों से- ही. मिलता:
हैं ।आज संसार का भ्रत्येक देश या तो पूर्ण रूप से औद्योगीकरण में बंध गया है या-
बंधने के प्रयास में पाया जाता है। इसके फलस्वरूप समाजों में और व्यक्तियों के
जीवन में महत्वपूर्ण परिवर्तन आ गये हैं । एक ओर औद्योगीकरण द्वीरा प्रत्ति व्यक्ति ऑय
बढ़ाकर व्यक्तियों का जीवन स्तर ऊँचा उठाया गया है, मानव को श्रम के. कृप्ट-
दायक बोक से छुटकारा दिलाकर उसे अपने मानसिक विकास के लिए अधिक समय
उपलब्ध कराया गया है, कृषि मे यात्रिक उपाय अपनाकर व कृषि उत्पादन की मात्रा
बढ़ाकर देश को खाद्य पदार्थों में आत्म-निर्भेट बनाया गया है, त्तो दूसरी, ओर इससे
97) 3 काण्याठए7, प:6४ अटल ब््व दाप्राय्याग, सिशाप्णाा खाए प् श्गछ्
हक
[80 सामाजिक समभस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
पुराने रीति-रिवाजों, प्रथाओं, मान्यताओं आदि में भी परिवर्तत आ गया है। इसके
साथ फिर, बेरोजगारी बढ गयी है, व्यक्तियों का दृष्टिकोण अधिक भौतिकवादी हो
गया है, श्रमिकों की कलात्मक कुशलता तथा कला और कुटीर उद्योगों का पतन हुआ
है और व्यक्ति का जीवन यास्तरिक्नोय हो गया है तथा उसके कार्य में नीरसता,आा
गयी है । औद्योगिक नगर विभिन्न समस्याओं के केन्द्र बन गये है तथा व्यक्तिवाद जैसी
भावनाओं का विकास हुआ है।.. न हु
ओऔद्योगीकरण, कार्ल मावर्स और सामाजिक परिवर्तन
मार्क्स और वेवलिन जैसे विद्वानों का विश्वास है कि समाज में सम्पूर्ण
वरिवतन औद्योगिक कारणों की वजह से ही होता है। समाज के आथिक ढांचे को
बुनियादी ढांचा तथा अधोसंरचना (50०४7प0ए०7७) और अन्य सभी ढाचों को
ऊपरी भाग व'अधिसंरचना (50ए८४7ए०पा८) मानकर माक्स उत्पादन के उप«
करणों (औज्ञार, यन्त्र आदि) में परिवर्तत के कारण बुनियादी संरचना में परिवर्तन
द्वारा पूरे अधिसंरचता में परिवर्तेन व समाज के निर्माग को समभझाता है। उसका
कहना है कि उत्पादन अनुभव व'श्रम कौशल प्राप्त करके मनुष्य अधिक से अधिक
भौतिक वस्तुओं का उत्पादन करता है। इस प्रकार वह उत्पादन के उपकरणों के साथ
श्रम-कौशल को भी समाज की उत्पादक-शक्ति का प्रमुख तत्त्व मानता है। उत्पादक
शक्ति और उत्पादन सम्वन्धों के योग से जो समाज की आधथिक संरचना होती है वह
ही राजनीतिक, सामाजिक, धामिक, बौद्धिक व वैज्ञानिक ढ़ाँचों का निर्माण करती
है । इस प्रकार माव्स समाज के विकास के इतिहास को वास्तव में उत्पादन प्रणाली
के विकास का इतिहास मानता है। उसके मतानुसार सरकार, कला, घर्मं, विश्वास
थ पूरे मानव जीवन पर भौगोलिक परिम्थितियो, जनसंख्या की वृद्धि, आदि कारकों
का प्रभाव अवश्य पड़ता है परन्तु यह सब सामाजिक परिवततेंन के निणयिक कारक
नही हैं। वह यह भी मानता है कि नवीन उत्पादक शक्तियों व उत्पादन सम्बन्धों का
उद्भव पुरानी ध्यवस्था के समाप्त हो जाने के बाद नहीं किन्तु पुरानी व्यवस्था के
अन्तर्गत ही होता है। दुसरे शब्दों में नवीन व्यवस्था का बीज पुरानी व्यवस्था मे ही
अन्तनिहित होता है।_ अतः सामाजिक परिवर्तन एक अनोखी नहीं परन्तु एक स्वाभाविक
घदना है। 8 हु *+
भारत में झौद्योगीकरण
सोलहवी घरताब्दी तक भारत उद्योगों के विकास की हृत्टि से समृद्ध देश
माना गया है सूती वम्त्रोद्योग तथा लोहे व पीतल के उद्योगों का विकास इस सीमा
तक हुआ था कि उत्पादन का बुछ भाग अन्य देशों में भी निर्यात किया जाता था
किन्तु पुर्तेमीद्ध व अंग्रेजी झासन के उपरान्त बढ़े व लघू उद्योगों कया हास होता गया ।
अंग्रेजों वी. आधिक नीतियों के कारण भारत से बच्चा माल इस्लेप्ड तिमति कर
बढ़ाँ से उसी कच्ये माल से वस्तुएँ बनाकर भारत भेजी जाने लगी । सत्तरदवीं और
औद्योगीरुरण 8]
अठारहवी शताबिदियों में औद्योगिक क्रान्ति के साथ ही भाष को झक्ति से चलने वाले
करपो का अन्वेषण हुआ। इसने इंग्लेण्ड को एक प्रकार सारे संसार का वर्कशाप
बना दिया । इसमे इंग्लंण्ड में उद्योगों का अदभुत विकास हुआ किस्तु भारत से कच्चे
माल बाहर भेजते, यहां वस्तुओं के उत्पादव पर प्रतिबन्ध लगाने एवं बाजार में
दिदेशी माल्र को प्रोत्साहन देने की नीति के कारण भारत में निर्धनता बढ़ने लगी !
उप्रीसवी झत्राही में रेवीं की स्थाएना ने भारतीय नगरों व गाँवों को उत्पादन-केन्द्रों
को अपेक्षा वितरग-केस्द्त बना दिया । 872 में जब हमारी 6 प्रतिशत जनसंख्या
कृषि पर॒ तथा 39 प्रतिशत अन्य उद्योगों पर निर्भर थी, 492 में 73 प्रतिशत
कृषि पर वे 27 प्रतिशत अन्य उद्योगों पर निर्भर ही गयी जिससे भारतीय उद्योगों
के छास की स्थिति स्पष्ट होती है। प्रथम विश्वयुद्ध तक हमारे यहाँ किसी
प्रकार का औद्योगीकरण नही हो पाया था । किन्तु इस युद्ध के कारण लोहे, इस्पात
आदि वस्तुओं की आवश्यकता की मात्रा बढ़ने के साथ जब उनकी पूतति बराबर न
हो सकी तब अंग्रेज शासकों की भारतीय औद्योगीकरण के प्रति नौति बदलने लगी
तया भारत मे ही बड़े-बड़े उद्योगो की स्थापना को महत्त्वपूर्ण समझा जाने लगा।
किन्तु यह नीति अस्थायी ही रही और युद्ध की समाप्ति के बाद स्थापित उद्योगों का
पतन होीवा गया। लेकिन फिर द्वितीय महायुद्ध बाद पुनः इस्पात, कपड़े, चीनी, सीमेंट,
कांच आई जैप्त कुछ उद्योगों का विकास हुआ । इस औद्योगिक विकास के उपरान्त
भी कृषि की श्रधानता के कारण भारत को औद्योगीकृत देश माना गया था । 947 में
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद ही सरकार की परिवत्तित नीतियों के कारण अब हमारे देश
ने औद्योगिक विवयस सम्बन्धी काफी प्रगति की है, यहाँ तक कि हवाई जहाजो ब्
समुद्री जहाज़ों के उत्पादन, सेनिक आवश्यकताओं के निर्माण तथा उच्च कोटि के
इन्जी नियरिय व रास/यनिक उद्योगो आदि में भव हम आत्म“निर्भर हो गये है । बडे
उद्योगों की स्थापना के साथ-साथ कुटीर व झह .उद्योगों की भी प्रोत्साहन दिया
जा रहा है । वस्तुतः आज बहुत सी निर्मित वस्तुओं का हमारे यहाँ से निर्यात भी
हो रहा है । इस सम्पूर्ण विवरण के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि भारत शर्ते:
शरनः अब औद्यागिक रूप से विकसित देशो की श्रेणी में आ गया है। अब हमें यह
देखना होगा कि इस बढ़ते हुए औद्योगीकरण का हमारे समाज के सामाजिक, आधिक,
व् जनसख्य[त्मक ढाँचों पर क्या प्रभाव पड़ता है ? )
झौद्योगीकरण और सामाजिक ढांचा
औद्योगीकरण का भारतीय समाज के सामाजिक ढाचे पर प्रभाव परिवार व्
विवाह आदि जैसो साम्राजिक संस्थाओं, नेततेदारी सरचना, सामाजिक नियन्मण के
रूप तथा सामाजिक स्थिति मे परिवर्तव आदि के सन्दर्भ में देखा जा सकता है ।
ओऔद्योगीकरण के कारण ही व्यक्ति उद्योगों मे काम करने हेतु गांव छोड़कर
शहरों मे प्रश्षनन करते हैं । फंक्ट्री के आस-पास रहने की प्यवस्था मं कर' प्राने के
कारण आरम्भ में तो श्रमिक अकेले ही प्रव॒जन करते हैं परन्तु कुछ समय बाद बे
82 सामाजिक समस्याएँ और खमाजिक परिवर्तन
अपनी पत्नी व सम्तान को भी बुला लेते हैं। उनके माता-पिता व भाई-बहन गांवों में ही रह
ज़ाते,हैं। इससे परिवार का संयुक्त रूप एकांकी परिवार मे बदल जाता है,। परिवार
की इस संरचना में परिवर्तन के कारण पारिवारिक सम्बन्धों मे भी परिवर्तन मिलता है।
दूर रहने की वजह से न तो संतान अपने माता-पिता की आज्ञा का उसी प्रकार पालन
करती है जैसा कि संयुक्त परिवार के नियमों के अनुसार उनसे आशा की जाती है और
न ही पति-पत्नी के सम्बन्ध परम्परागत मूल्यों पर टिक पाते है। यदि पति के साथ पत्नी
भी फैक्ट्री व आफिस आदि मे कार्य करती है तो आधिक स्वतन्त्रता के कारण परिवार
के अन्य सदस्यो के साथ उसके सम्बन्धों में कुछ परिवर्तन आना स्वाभाविक ही है।
औद्योगीकरण के कारण विशिष्ट प्रशिक्षण की आवश्यकता बढ गई है । जब
तक व्यक्ति यह विशेषीक्ृत शिक्षा लेकर समाप्त नहीं करता, वह आज़'के युग में
विवाह करना पसन्द भही करता । अतः ओऔद्योगीकरण के कारण ही विवाह की आयु
में भी परिवर्तन मिलता है। बालविवाह के स्थान पर वयस्क-विवाह अधिक अढते
जा रहे हैं! विवाह के समय शारोरिक व मानसिक रूप से परिपक् होने के कारण,
दम्पति की वेवाहिक भुमिकाओं व वैवाहिक मूल्यों मे भी पुरिवर्तन मिलता,है,।
विवाह-विच्छेद और दहेज सम्बन्धी मूल्य आधुनिक होते जा रहे हैं। «व्यक्ति परि-
वारिक हितों को महत्त्व म देकर व्यक्तिगत हितो को अधिक महत्त्व देने लगे.है।
जीवन-साथी के चुनाव में परम्परागत प्रतिवन्धों' तथा अन्तर्जातीय, विवाह . सम्बन्धी
विज्नारो आदि में भी परिवर्तन आता जा रहा है। इन सभी परिवतंतों मे जौद्योगी-
करण की भूमिका को महर्व देना ही होगा.
,.. फिर, औद्योगीकरण के कारण नगरीकरण में भी विकार्स मिलता है | 88
में भारत मे जब सम्पूर्ण जनसंख्या का केवल ]0-8 प्रतिशत ही नगरों में रहता था, यह
प्रतिशत 2937 में बढ़कर 2'2, 96] में 8:0 तथा 97 में 20:0 हो गया ।
नगरों का रहन-सहन तथा वातावरण ग्रामीण रहन-सहन व पर्यावरण से विल्कुल भिन्न
होता है। नगरों में जब जनसंख्या सम्बन्धी विपम्रूपता, व्यावसायिक बहुलता, वकलीपग
आंगिक (०ष्टआ४०) एकता व द्वितीयक सम्बन्ध मिलते हैं, गांवों मे जनसंख्यात्मक
सरूपता, व्यावसायिक एकमात्रता, स्वाभाविकता, खण्डीय (5च्हागधा।४) एकता -व
प्राथमिक सम्बन्ध पाये जाते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि नयरों में पायी जाने वाली
व्यक्तिवाद, प्रतिस्पर्धा, ऊपरीपन ($एएथाीलं॥॥५9), अस्थायित्व आदि भावनाओं का
विकास औद्योगीकरण के कारण नगरो के विकास द्वारा ही होता जा रहा है ।
ओऔद्योगीकरण ने सामाजिक गतिधीलतां भी सम्मव बनाई -है। व्यक्ति
व्यक्साय बदलकर अपनी सामाजिक , . स्थिति ऊँची कर सकता है। यह ही कारण है
कि सांवन्धिक (4६०४०८०) स्थिति का महत्त्व भो कम ,होता जा रहा हैं। हैरोत्ड
गूल्ड (प्रृधाण4 0500॥0)१ का कहना है. कि अऔद्योगिक सम्यता से औद्योगिक
2228 अल आ लग शलरिकल ४ है 3
् ४ 0ण॥, सात, उत्तहाहगांगर्त क्रम ० टछतकव्॑श॥ड ढमटरम॑ग+ 5328
सम्पता में परिवुर्तत के साथ पुरानी प्रक्रियाएँभी नये परिवतित काल में हो पूर्या-
उधिष्ठ (प्थाा७ ०५०) होती है; बौर जब औद्योगीकरण विफास के उच्च स्तर,प्र
पहुँचता हैं तव सांवन्धिक स्थिति वाले व्यक्तियों ओर समूहों की संरया भी कम हो
जाती है तथा उनका महत्त्व भी घट जाता है। स्मेलसर (870८४) का भी कहना
हैं कि बदलती हुई अर्थव्यवस्था में उत्पादन व्यवस्था में स्थिति-परियर्तन एक निरन्तर
व अविच्द्धिप्त प्रक्रिया होती है। आरम्भ में जब सेतीहर खेतोबारी से उद्योग की
ओर जाता है तो अकुशल श्रमिक होने के कारण उसकी सामाजिक स्थिति में फोई
परियतेन नही होता । पी० के० हाट (?., 7. ह890) का.भो कहना है कि ऐसी परि-
स्थिति में केवल पादीय (!१४(८०) गतिशीलता ही पायी जातो है (५ परन्तु जैसे-जैसे
श्रमिक अधंकुशन और कुशल बनता जाता है; उसकी सामाजिक स्थिति भी गलती
जाती है मद्यपि यह स्थिति-परिवर्ततन समस्तरीय (॥0संट0्गांश) गतिशीलता का ही
प्रतीक है। कुछ समय बाद जब श्रमिक कुशल मजदूर से परिवीक्षक और व्ययस्थापक
व मैनेजर का पद प्राप्त करता है, उसकी परिवर्तित स्थिति विषमस्तरीय (५९॥४८०७॥)
गतिशीलता का रूप अपनादी है.।
सामाजिक नियन्त्रण के प्रकारों पर भो औद्योगोकरण का .प्रभाव मिलता
है। औपचारिक तियन्त्रण अनौपचारिक नियन्त्रण का रथान लेतों है। घूमिस
(70०४5) का कहना है कि औद्योगीकरण के कारण मार्केट अर्थव्यवस्था का विकास
होता है और इस अयथंव्यवस्था के कारण परम्परागत समुदाय में प्रचलित सामाजिक
नियन्प्श का छ्वास होता है ।£
औद्योगीकरण का राजनीतिक संगठनों की प्रकृति पर भी प्रभाव दिणाई देता
है। जटिल औद्योगिक समाज में श्रमिकों में अपने अधिकारों और रात्ता के प्रति
जागरूकता रहती. है तथा वे अपने को सदा संगठित रसने का प्रयास करते रहते है ।
इससे हड़तालों और तालावन्दी की संरया बढ़ती जाती है जिससे उत्पोदन, कम हो
जाने के कारण देश में सत्ताधारी दल के प्रति नैराश्य बढ़ता.णाता है तथा उसे
हटाकर नये राजनीतिक दल सत्ता प्राप्त करने का श्रयारा फरते हैं,।
औद्योगीकरण.का जाति सेरचना पर भी प्रभाव दियाई देता है ।उद्योगों मे
काम करने वाले व्यक्ति खान-पान, श्युआन्द्युत, साम्राणिक दूरी आदि प्रतिबन्धों
सम्बन्धी जातीय नियमों का पालन हढ़ता से नहीं कर पाते है गिशसे जाति संगठग
का स्वरूप बदलता जाता है। बिंगस्ले डेविस ((॥78909 40५5) मे भी कहा है
कि यदि भारत में औद्योगीकरण की _ यह ही गति रही तो यहू समय अवद्य आगरैगा
॥ हघालॉइल, "वक्ता णाँ 70073 8 ॥06 [7000९ 8)8९7) (६ ॥04 . ॥
शह8९, 00९०९-लि-2! ब्या्शशिवाबा00 35 क- €०णाणा३ ऐटएणा6ड ॥00९०॥ 0 8
एगापराप्रा।ड 900255, 7
+ 7. 4 शक्ल छठणा।ए वाएछारएवत ॥$ लडलाएडज [बलिया गाल (मत # गाबांदित्व
शाभाहुढ णी शव. सब, ए,,2., *00९0कबाला. छात्र इ50लंग | झा
#ग्लसवा गैग्बााएग 6/ 3०८2०/०0७, 4950, 5338-43,
8 [.00॥स्5, ए/गा९$, 7,, 30८4/ (०४7०, 953,
84 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
जब जाति प्रथा ही समाप्त हो जायेगी । हैरोल्ड गूल्ड (पब्मणत 5000) का भी
विश्वास है कि औद्योगीकरण के कारण जाति-अ्रथा समाप्त तो नहीं होगी किन्तु
निर्वेल अवश्य हो जायेगी । > हर
श्रौद्योगीकरण और श्राथिक ढांचा
औद्योगीकरण का आशिक ढांचे पर प्रमाव निम्न रूपों में देखा जा सकता है--
() उत्पादी जनसंख्या व थरमिकों में श्राथिक क्रियाप्रों का विभाजन--औद्योगी-
करण और आधथिक विकास के कारण श्रमिकों में कृषि से निर्माण कार्य और नौकरी
पैसे की ओर मुख्य संचलन दिखाई देता है। घरेलु नौकरी करने वाले श्रमिक सख्या
की हृष्टि से कम होते जाते हैं क्योंकि उनके लिए लाभजनक और प्रतिष्ठा वाले
रोजगार ज्यादा उपलब्ध होते जाते हैं। विल्वर्ट मर (फश००६ ४०००) का भी
कहना है कि जैसे-जैसे औद्योगीकेरण बढ़ता जाता है व भाधिक प्रगति अधिक होगी
जाती है, कृषि पर निर्मेर जनसंख्या की मात्रा कम होती जाती है
(॥) व्यावसायिक विशिष्टीफरण--औद्योगीकरण के कारण नयेलये व्यवसम्यो
की उत्पत्ति होती है जो नई कुशलता और तकनीकी ज्ञान पर ज्यादा बल देते हैं ।
(#7) श्रम बिंमाजन--कुशल श्रमिकों द्वारा एक व्यवसाय से दूसरे व्यवसाय
में विवर्तत की योग्यता के कारण श्रम-विभाजन अधिक होता है।
(५) विशेषोक्ृत क्रियाओं सें समत्वथ--औद्योगीकरण के कारण विश्वेपज्ञता
प्राप्त क्रियाओं में तालमेल थ सामंजस्य आवश्यक हो जाता है। इससे विभिन्न
व्यवसायों के मध्य परस्पर सम्बन्धों का विकास व प्रशासकीय संगठन आवश्यक हो
जाता है। र
(२) श्रमिक गतिशीलता--आरम्भ मे तो श्रमिक गतिशीलता केवल भौगोलिक-
गतिशीलता के रूप मे दिखाई देती है परन्तु कुछ समय उपरान्त यह स्थिति-गति-
शीलता को भी जन्म देती है। इससे श्रमिको की भरदी, क्रमड्डड और पदोन्नति की
हृष्ठि से व्यवस्था सें निवंन्धता आ जाती है।.._
* (श) भूलघन--औद्योगीकरण के कारण विस्तार की आवश्यकता उत्पन्न होती
है। इससे बेक, सुरक्षा-मार्केट और अन्य बचत के साधन पैदा होते हैं। राज्य फिर
टैक्स, विदेशी व्यापार, अनुदान व ऋण आदि सम्बन्धी तत्त्वों को नियस्त्रित करने क्के
उपाय अपनाती है। कप फल
(शा) उपभोग में परिवर्तत--अधिक उत्पादन के कारण उपभोग (०ए॥5णाए/-
म०)) भी बढ़ जाता है। यद्यपि, उपभोग में ,वहुवर्गीय (८००४४-४०८४०४४) अन्तर
बनयभ्ल्ब छकणाधंक्रड शाते €एचकक शाह )णगरएश३ छा शीठ ए0एफप्ॉआा07 वैकुनादंशाप
69 हड़तेंएप।छार ता ह्ंएणिड €790960 9 लिए 97000७४0॥ ए८प्सञाए८$ 8$ €९ण॥ा०फ्राए
हाए्थाफे घा0 इफ्त्पशींडबाण ००८एड-+. फैल शाला $०९ग #एच्एड
छ८6फणमॉट 0८४६॥०एचाद्फ्रा* छ क्कर्ब/००४६ गण ॥ॉ०८॑ला 50लगग्?छ, ९१ ०५ कथा
एर०छ७टा$, 900:
औद्योगीकरण 385
देखाई देते हैं ।
(शत) भाक्ेट का विस्तार--अर्थव्यवस्था के वाणिज्यीकरण (०णशधल-
72॥59007) के कारण मार्केट और वितरण का विस्तार आवश्यक हो जाता है ।
प्रौद्योगीकरण श्रौर जनसंख्यात्मक ढांचा
जनसंख्यात्मक ढाचे पर औद्योगीकरण के प्रभाव को दो आघार पर देखा जा
कता है : (क) जनसंख्या विस्तार के संखूप (/०॥7॥) के सन्दर्भ में; (व) जनन-
्॒मता (क्षाती३) पर नियन्त्रण की दृष्टि से ।
जनसंख्या विस्तार को हृप्टि से यह कहा जा सकता है कि औद्योगीकरण के
गरण गांवों की जनसंख्या कम होयी जा रही है तथा नगरो की जनसंख्या बढदी
गा रही है। यह भारत सम्बन्धी आँकडों से स्पष्ट है। 288] में जब नगरीय और
ग्रामीण जनसंख्या का अनुपात 9:6:] था, 93] में यह 7'2:7 था, 96 में
46:[ और 977 में 4:7 था। नगरीय «त्रों में जनसंख्या में वृद्धि के कारण
उद्योगों मे आस-पास गन्दी वतियों (४07) का भी विकास हो रहा है। यही
हारण है कि अब कुछ उद्योगो को नगरों से हटाकर उपनगरो (४००07 6४5)
बे स्थापित करने की योजनाएँ बढ़-ी जा रही हैं ।
कुछ विचारक प्रोद्योग को जनसख्या पर नियन्त्रण की ह॒प्टि से भी देखते हैं ।
उनका कहना है. कि परिवार नियोजन सम्बन्धी नये-नये आाविप्कारों के कारण ही
पढ़ती हुई जनसंख्या को कम करने का प्रयास किया जा रहा है ।
केवल मोटवानी (/८७४] ४०७७7) ने औद्योगीकरण के प्रभावों को विम्त
प्रकार बताया है :” (7) संचारण के साधनों मे परिवर्तन होता जा रहा है. जिससे
प़वों की आत्म-निर्भेस्ता समाप्त हो गयी है; (४) रोगों पर नियन्त्रण बढ़ता जा रहा
है जिससे जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है; (897) व्यापारिक (०णाशाधरंग5०१)
प्तोरजन बढता जा रहा है; (५) शिक्षा का उद्देश्य अध्यार्मिक निष्पत्ति (कांताएथा
॥(0ंग्रा270). से हटकर भौतिक लाभ प्राप्त करने के साधन जुटाना हो गया है;
(५) राजनीतिक दोवन में परिवर्तेन तथा स्थानीय झासनकरत्ताओं को प्रतिभा २४७
होती जा रही है और प्रभुताधारी एजेन्टो की प्रतिभा बढ़ती जा ही $ 76
पोग्यता व प्रभावशीलता पर प्रतिवूल प्रभाव पड़ा है; (थं) बनीये #7 ६4 क
मध्य संघर्ष बढ़ गये हैं; (शा!) धर्म का स्थान अधामिकता ने ले लिया £ ४
प्रौद्योगीकरण भौर सामाजिक परिवर्तन
विलियम आगेवर्न (श्वाशा) 080ए7) का बदला $// (वच्यर-
089) से समाज मैं अनेक परिवर्तन होते हैं यह इसमे स्पश्ट 8 8; &रुद # +- हि
4 धणनबा।, 4९०), उस (वह कार्व 40% 2.५० क्रच्लन
उत्वण करव०००००१, एप5500 एएजाव्वक्00 7963, 99,
786 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
बाद (८०००४) का नाझ किया, रेलवे ने नगरों का निर्माण किया, भाष के ईजन
ने तलाक की मात्रा -बढ़ायी है, मोटर-्याड़ियों ने मार्केट को उपनगरों में ढकेल दिया
है, तथा हवाईजहाजों मे सैनिक शक्ति वाले देशो का पुनः पदवितरण किया है।*
आगवर्न की मान्यता है कि भ्ौद्योगोकरण एवं निर्जोव वस्तुओं का प्रयोग उत सक्रिय
व्यक्तियों द्वारा सामाजिक परिवर्तन लाता है जिन्हें चयन करने का सामथ्यं होता
है। उसने प्रौद्योगिकी परिवर्तनों द्वारा समाज मे परिवर्तन लाने की प्रक्रिया के
विश्लेषण में तीन प्रकार के प्रभाव बताये हैं:* (0) प्रत्यक्ष व अविलम्ब, प्रभाव,
(7) व्युलादिता ((लाश्बधर०) प्रभाव, (#) अभिसारी (०्णाएथह०() अभाव ।
() भत्यक्ष प्रमाव-- यह वह प्रभाव है जिसमें नये आविष्कार प्रत्यक्ष रूप से
लोगों को आदतो, प्रवृत्तियों वे प्रयाओं को वदलते हैं; जैसे मोटर-कार, रेलगाड़ी व
हवाई जहाज के आविष्कार के उपरान्त लोग अब इनमे दुर-दूर तक सफर करके समय
चचाते है। यह परिवर्तन स्वगित न करके अविलम्ब स्वीकार किये जाते है, यद्यवि
कितना तुरन्त इनको स्वीकार किया जायेगा यह इस पर निर्भर करता है कि उत्पादित
वस्तु के वितरण में कितना समय लगता है। फिर, प्रयत्क्ष प्रभाव वस्तु को प्रयोग
करने वाले लोगों की संख्या पर भी निर्भर करता है । उदाहरण के लिए यद्यपि भारत
मैं टेलीफोन का प्रयोग बढ रहा है. किन्तु पश्चिमी समाज की तरह संचारण के लिए
टेलीफोन का यहाँ प्रयोग बहुत अधिक नहीं मिलता क्योकि यह सभी व्यक्तियों को
उपस्ब्ध ही नहीं है। ह - ः
() च्युत्पादित प्रमाव--व्यक्तियों की छुछ आदतें व प्रथाएँ प्रौद्योगिक
आबिष्कारों के कारण प्रत्यक्षतः न बदलकर अध्यक्ष रूप से बदलती हैं तथा वे कुध
प्रवृत्तियों और रूढ़ियाँ जो प्रौद्योगिक आविष्कारों के कारण सत्क्षण बदलती हैं वे
दूसरी प्रवृत्तियो और झुढ़ियों पर भी प्रभाव डालकर उन्हे बदल देती हैं। णेंसे मोटर-
फार आविष्कार का धोड़ा-गाड़ी बताने वालो पर अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा इस अप्रत्यक्ष ,
प्रभाव को,आगवर्न व्युत्पादित प्रभाव मानता है । इस सम्बन्ध में उसकी यह भी
मान्यता है कि आविष्कारों का प्रभाव एक ही ब्युत्यादित प्रभाव से समाप्त नहीं ही
जाता परन्तु एक व्युलप्न प्रभाव दूमरे व्युत्तन्न प्रभाव का कारण बन जाता है । जैसे, जी
लोग घोड़ा-गाड़ी बनाते हैं उनकी चेरोजगारी इस रूप में गेहूँ का उत्पादन बढ़ाती है कि
ये सेतो करना आरम्भ कर देते हैं । यानि मोटर-कार आविष्कार का थोड़ा-याड़ी बनाने
यालो पर पहला ब्युत्पादित प्रभाव गेहूँ का उत्पादन बढ़ाने सम्बन्धी दूसरे ध्युत्पादित
प्रभाव का कारण बना । इस प्रकार आविष्कारों का प्रभाव बहुत से व्युत्पादितों
(५८क५०५१४००४७) द्वारा निरन्तर रह सकता है। उदाहरण के लिए उदधोंगों मे मभीत
का प्रयोग (क) घरों से श्रमिकों को निकासता है, जिससे (स) परिवार के मुध्षिया
भंग सत्ताधिकार कम हो जाता है, जिससे (ग) भारी को अधियः स्वतसतरता भिलती है,
१6:0ण2० अ04 ै४७४णा, ग/द-गगत खचवे उन्दग कंबइद शैदफालवा (वशए7
एफणफ 6.५ ४, ४८०६४, 957, 2.
* 4844 , ॥9. ही 3० वीक हिल 87 अट
औद्योगीकरण 87
जिससे (घ) स्त्रियो की समाज में स्थिति ऊँची हीती है!
(00) भभितारी भमाव--औद्योगीकरण के कुछ च्युत्पादित प्रभाव फिर संयुक्त
रूप से कार्य करके एक नया प्रभाव पैदा कर सकते हैं। जेसे ऊपर हमने कहा कि
पुरुष का घर के बाहर फैक्ट्री में काम करना उसके पितृत्तत्तात्मक सत्ताधिकार को कम
कर सकता है किन्तु सत्ता का यह हास स्त्रियों के रोजगार, बच्चों की शिक्ष। सरकार
द्वारा अधिनियमित नये कानूनों आदि के कारण भी हो सकता है और यह सब कारण
भी औद्योगीकरण के प्रभाव से ही उत्पन्न हो सकते हैं। अत: इन सब कारणो के अभि-
सरण के कारण परिवार के मुखिया की सत्ता के छास सम्बन्धी एक नया प्रभाव
मिलता है। अभिसरण का यह संरूप उस पहिये के समान हैं जिसमे विभिन्न तीलियाँ
(४7०८०७) नाभि (१०४) पर अभिसारिव हो जाती हैं ।
आगबर्न द्वारा बतायी गयी ओऔद्योगीकरण के भह प्रभाव की प्रक्रिया वास्तव
में अत्यधिक सरल व्याख्या है। यह कभी नही माना जा सकता कि परिवर्तन केवल
एक अकेले कारक की वजह से होता है परन्तु इतना अवश्य स्वीकार किया जा
सकता है कि परिवतंन सम्बन्धी विभिन्न कारकों में से औद्योगीकरण एक प्रमुख
कारक हो सकता है। किक
अन्त में, हम यह भी कहेंगे कि ओद्योगीकरण का समाज और सभ्यता पर
प्रभाव इतना तिश्चायक व उत्कट है कि भविष्य में हमें बहुत सी नयी समस्याओं का
सामना करने के लिये तैयार रहना चाहिए ।
4986 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवतेन
वाद ([लिए02॥0॥) का नाह किया, रेलवे ने नगरो का निर्माण किया, भाष के इंजन
ने तलाक की मात्रा -बढायी है, मोटर-गाड़ियो ने “मार्केट को उपनगरों में ढकेल दिया
है, तथा हवाईजहाजों ने सैनिक शक्ति वाले देशों का पुनः पदवितरण किया है
आगवर्न की भान््यता है कि औद्योगीकरण एवं निर्जीव वस्तुओं का प्रयोग उन सक्रिय
व्यक्तियों द्वारा सामाजिक परिवर्तन लाता है जिन्हें चयन करने का सामथ्यं , होता
है। उसने प्रौद्योगिकी परिवतेनों द्वारा समाज में परिवतेन लाने की प्रक्रिया के
विश्लेषण मे त्तीन प्रकार के प्रभाव बत्ताये हैं :? () प्रत्यक्ष व अविलम्ब प्रभाव,
(|) व्युत्पादिता (तं्यए88४6) प्रभाव, (प्री) अभिसारी (०णाएथ्ाहर७।) प्रभाव ।
(0) प्रत्यक्ष प्रभाव-- यह वह प्रभाव है. जिसमें नये आविष्कार प्रत्यक्ष रूप से
लोगों की आदतों, प्रवृत्तियों व प्रधाओं को बदलते हैं; जैसे मोटर-कार, रेलगाडी व
हवाई जहाज के आविष्कार के उपरान्त लोग अब इनमें दूर-दूर तक सफर करके समय
बचाते है। यह परिवर्तत स्थगित न करके अविलम्ब स्वीकार किये जाते है, यद्यपि
कितना तुरन्त इनको स्वीकार किया जायेगा यह इस पर निर्भर करता है कि उत्पादित
वस्तु के वितरण में कितना समय लगता है। फिर, प्रयर्क्ष प्रभाव घस्तु को प्रयोग
करने वाले लोगों की संख्या पर भी निर्भर करता है । उदाहरण के लिए यद्यपि भारत
में देलीफोन का प्रयोग बढ रहा है किन्तु पश्चिमी समाज की तरह सचारण के लिए
टेलीफोन का यहाँ प्रयोग बहुत अधिक नही मिलता क्योकि यह सभी व्यक्तियों को'
उपलब्ध ही नहीं है । है ध
(0) च्युत्मादित प्रमाव-व्व्यक्तियो की कुछ आदतें व प्रथाएँ प्रौद्योगिक
आविप्कारों के कारण प्रत्यक्षतटः न बदलकर अप्रत्यक्ष रूप से बदलती हैं तथा वे कुच
प्रवृत्तियाँ और रूढियाँ जो प्रौद्योगिक आविप्कारों के कारण तत्क्षण,वदलती हैं वे
दूसरी प्रवृत्तियों और रुढ़ियों पर भी प्रभाव डालकर उन्हें बदल देती हैं । जैसे मोटर-
कार आविष्कार का धोड़ा-गाड़ी बनाने वालों पर अध्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा इस अप्रत्यक्ष ,
प्रभाव को आगवर्न ब्युत्पादित प्रभाव मानता है। इस सम्बन्ध में उत्तकी यह भी
भान््यता है कि आविष्कारों का प्रभाव एक ही च्युलादित प्रभाव से समाप्त नहीं हो
जाता परन्तु एक व्युतपन्न प्रभाव दूसरे व्युतन्न प्रभाव का कारण वन जाता है-। जैसे, जी
लोग घोड़ा-गाड़ी बनाते हैं उनकी वेरोजगारी इस रूप मे गेहूँ का उत्पादन बढ़ाती है कि
वे सेती करना आरम्भ कर देते हैं। यानि मोटर-कार आविष्कार का घोड़ा-गाड़ी बताने
वालो पर पहला व्युत्यादित प्रमाव गेहूँ का उत्पादन बढ़ाने सम्बन्धी दूसरे व्युत्यादित
प्रभाव का कारण बना | इस प्रकार आविप्कारों का प्रभाव बहुत से व्युत्यादितों
(१९सं९४४०॥७) द्वारा निरन्तर रह सकता है। उदाहरण के लिए उद्योगों में मशीत
का प्रयोग (क) घरों से श्रमिकों को निकालता है, जिससे (ख) परिवार के मुखिया
का सत्ताधिकार कम हो जाता है, जिसमे (गे) नारी को अधिक स्वतन्त्रता मिलती है.
* ठ89ए0 356 फिकाएणा, उल््क्ततगगढड कब 3० नौकर कैएफरोल० (०७०
(27०(5 40०., 7. ४०:४८, १957, 2. दे
7... 3 [७4., 9. हि > दे, 0 अत पल
औद्योगीकरण 387
, जिससे (घ) स्त्रियों की समाज में स्थिति ऊँची होती है।
(7) श्रभिसारी प्रमाव--औद्योगीकरण के कुछ व्युत्पादित प्रभाव फिर संयुक्त
रूप से कार्य करके एक नया श्रभाव पैदा कर सकते हैं। जैसे ऊपर हमने कहा कि
पृश्प का घर के बाहर फैक्ट्री मे काम करना उसके पितृसत्तात्मक सत्ताधिकार को कम
कर सकता है किन्तु सत्ता का यह हास स्त्रियों के रोजगार, बच्चों की शिक्षा, सरकार
द्वारा अधिनियमित नये कानूनों आदि के कारण भी हो सकता है और यह सब कारण
भी औद्योगीकरण के प्रभाव से ही उत्पन्न हो सकते है। अतः इन सब कारणो के अभि-
सरण के कारण परिवार के मुखिया की सत्ता के कवास सम्बन्धी एक नया प्रभाव
मिलता है! अभिसरण का यह संरूप उस पहिये के समान हैं जिसमे विभिन्न तीलियाँ
(४४०६४४) नाभि (॥79) पर अभिसारित हो जाती है !
.... आगबने द्वारा बतायी गयी औद्योगीकरण के यह प्रभाव की प्रक्रिया वास्तव
में अत्यधिक सरल व्याख्या है। यह कभी नही माना जा सकता कि परिवर्तंत केवल
एक अकेले कारक. की वजह से होता है परन्तु इतना अवश्य स्वीकार किया जा
सकता है कि परिवर्तन सम्बन्धी विभिन्न कारकों में से औद्योगीकरण एक श्रमुख्र
कारक हो सकता है। ,
अन्त में, हम यह भी कहेंगे कि औद्योगीकरण का समाज और सभ्यता पर
प्रभाव इतना निश्चायक व उत्कट है कि भविष्य में हमें वहुत सी नयी समस्याओं का
सामना करने के लिये तैयार रहना चाहिए।
0 सामुदायिक विकास योजनाएँ और पंचायती राज
(९0५शाएपा।' एछए्ष्टा.एशशएण्रा' ज.204207५9
कप ए8टप्र&५7। 87) ह
भारत में ग्रामीण क्षेत्र के सामाजिक संगठन, संरचना व विकास का अध्ययन
इस कारण आवश्यक है क्योकि यह अधिकांश ग्रामीण है। 55 ' करोड़ जनसस्या में
से 80 प्रतिशत से भी अधिक व्यक्ति गाँवों में ही रहते हैं। इन ग्रामी में नगरोय
समुदाय को अपेक्षा हमे अशिक्षा, जाति संस्तरण (पंधाधाणा॥) के अधधार पर
सम्बन्धों का विकास, निम्न जीवन-स्तर, गतिशीलता की कमी, अधिक जन्म तथा
मृत्युद्दर, उत्तादन मे तकनीकी साधनों के उपयोग में कमी श्रांदि ग्रधिक मिलते हैं।
इन समस्याओं के समाधान हेतु तथा ग्रामीण जीवन के सामाजिक एवं झ्रा«क स्तरों
में एक आसूल परिवर्तन लाने व ग्राम-पुर्नानर्माण के लिए सामुदायिक विकास
योजनाझों व पचायती राज की व्यवस्था की गयी है ।
सम्राजशास्त्रीय हृप्ठिकोण
इस विक्रास योजन ओ व पंचायती राज का अध्ययन राजनीतिज्ञो, वैज्ञ.निको, '
अयेशास्थ्रियों, शासतकर्त्ताओं आदि के द्वारा भी किया गया है। भदत यह है कि
समाजश/स्त्री इनका किस दृष्टि से अध्ययन करता है ? हमारे लिए इनके अध्ययन के
चार पहलू हैं--() सामाजिक विकास योजनाओं व प्रचायती राज को एक सेरचनात्मक
नवीनता (धधपरतणाव) ग70ए800०॥$) के रूप में देखना है, (2) संरचनात्मक
नवाचार के अलावा इन्हें एक विचारधारा (6०00०£५) व कार्यवद्ध उत्तरदायित्व
(०णगाणाधाक्षा() के रूप में समभना है, (3) पंचायती राज को गाँव, ».म, राज्य व्
राष्ट्र के पारस्परिक सम्बन्धों और उनके इच्छुक व भ्रनिच्छुक उत्रत्तित परिणार्मी
(धगश३878 ००१5८६७०७००३) के रूप में जानना है, तथा (4) इसे विभिन्न संरचनात्मक
(#ए्गणाप्र) ब आदर्शात्मक (ए०घ्गा४7४०) 'प्रकारों' के परस्पर क्रिया के रूप में
परखना है।
इन विभिन्न पहलुओं के झ्ाधार पर हम कह सकते हैं कि समाजशास्त्रीय
दृष्टिकोण से जो मुख्य प्रश्त हमें अध्ययन करने हैं वे हैं--
(।) उन ग्रामीण समाज के संरचनात्मक और आदर्शात्मएः सद्ाण वया हैँ
जहाँ विकास योजनाओं वे पंचायतों की व्यवस्या बी जा रही है ।
(2) पुरामी और सवा ते बी जाने बाली नयी व्यवस्था में पिछड़ापन (!०४8)
व अनुरूपता (व८६४2९ ०॥ ०००००६७०70०8०८) कितनी है ।
सामुदायिक विकास योजनाएँ और पंचायत्ती राज 489
(3) इस नवीद सेरचागातमफ़ व सांस्कृतिक परिवर्तत का सम्राज पर क्या
प्रभाव परेगा।
(4) पंचायती राज के कारण जो विभिन्न संरचनात्मक स्तरों पर परिवर्तन
होगा उससे किस प्रकार के नये तियम और व्यक्ति-कार्य (/065) उत्पन्न होगे
(5) इन नये नियमों और भूमिकाओ के आरम्भ और विकास को कौन से
कारक प्रोत्साहन देते है अथवा फोन से इसका विरोध करते है
इन सभी भ्रइनों के विवरण में विकास योजवाओ व पंचायती राज के अध्ययन
के लिए सर्नोचित तरीका सरचतात्मक-प्रक्रियवादी (57एथणरं-ए्श०४ंणाश) ही
हो सकता है जिसके द्वारा हम ग्राम, क्षेत्र और राज्य-स्तर के साम,जिक तत्त्वों के
सर्वतोमुखी हीटिकोण (68० शं८७) को अ्स्तुत कर सकते हैं। अभी तक यह
(संरचन:त्मक-प्रक्रियावादी) पद्धति ग्रामीण ञ्में केवल ज/तित्प्रथा के अध्ययन के
लिए ही प्रयोग की गयी है जिसके द्वारा परिवर्तत के सास्कृतिक कारकों को समभाया
गया है । परन्तु क्योकि इस पद्धति को वर्ग-संरचना के अध्ययन के लिए उपयोग नहीं
किया गया हैं, हमें ग्रामोण क्षेत्र में अ 4क और राजदीतिक तत्दों व प्भिरचि समूहों
(प्राश०5६ 87000$) के कार्य का कोई विश्येप ज्ञान प्राप्त नहीं हो फया है। ग्रामीण
क्षेत्र के अध्ययन में, विशेषफर विकास योजनाओं व पंचाय ] राज जैसी नयी य्ोजनामं
के आरम्भ के अध्ययन में, हमारे लिए ग्रामीण समाज मे सामाजिक संरचना, अर्थक
प्रस्थिति और राज प्रेतिक शक्ति के पारस्परिक सम्बन्ध को समझना झ्रावश्यक है।
यहाँ हम इसी विवरण को नेतृत्व, योजना-निर्माण तथा जन-सहभागिता आदि के
अध्ययव द्वारा अधिक महत्त्व देंगे। परन्तु इस विवरण के पहले यह देखना भी झ्रावश्यक
है कि सामुदायिक विकास कार्यक्रम व पचायती राज के उद्ददेश्य आदि क्या है ?
सामुदायिक विकास का भ्रर्थ
सामुदायिक विकास शब्द उस प्रक्षिया को सूचित करता है जिसके द्वारा जन-
समुदाय के प्रयतनों को राज्य अधिका रियो के प्रयत्नो से मिलाकर समुदायों के आवविक,
सामाजिक और सॉस्क्ृतिक जीवन के विकास का प्रयास किया जाता है। विकास
योजनाएँ याम समुदायों को राष्ट्रीय जीवन में संकलन करने व उन्हें देश की प्रगति में
भागी बनाने का महत्त्वपूर्ण प्रयास है। इस हष्टि से सामुदायिक विकास कार्यक्रम एक
अविदिछक्त प्रक्तियः बतरयी णा सकती है जो कुछ विश्वेय उद्देश्यों करे प्र/म्ति के बाद
समाप्त नहीं हो जाती परन्तु 'छोटे समुदाय' का “रप्ट्रीय समुदाय के लिए कार्य करने
की क्षमता को बढ़ाने का प्रयास करती रहती है। अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग शासक्रीय
बोई (. 0). &.) ने सामुदायिक विकास को एक वह प्रविधि बताया है जिसके द्वारा
सरकार क्रिसी स्थान-विज्लेप के लोगों वी प्रेर्णार्भक्ति व उपक्रम को उत्पादन बढ़ाने
व रहन-सहन के स्तर को ऊँवा करने के लिए प्रयोग करती है /*
व क्ादागाएत्बें द०्क्रमदंग सैकाफवेमलवांगयोड ८7००, 27 00०05% 49565-
४.)
(८0एशशण्गर ए:-एष्टा.णश्धह्रा' शर0गऋएटा5छ
औषा) 208८पघर$शया] 778/)
0 सामुदायिक विकास योजनाएँ और पंचायती राज
अअलमक्नकन न पपन नस फस सम भमपललेक पर >> पससससिसन सम सम पास नस सम भ पर पर फभननिभभभभपसप्पतय
भारत में ग्रामीण >न्र के सामाजिक संगठन, संरचना व विकास का अध्ययन
इस कारण आवद्यक है क्योकि यह अधिकाश ग्रामीण है। 55 करोड़ जतसख्या में
से 80 प्रतिशत से भी अधिक व्यक्ति गाँवो में ही रहते हैँ । इन ग्रामों में वगरीय
समुदग्य को ग्रपेक्षा हमें अशिक्षा, जाति संस्तरण (कांधाव्क्रात) के अधधघार पर
सम्बन्धो का विकास, निम्न जीवन-स्तर, गतिशीलता की कमी, झधिक जन्म तथा
मृत्यु-दर, उत्पादन में तकनीकी साधनों के उपयोग में कमी आदि झधिक मिलते हैं।
इन समस्याओं के समाधान हेतु तथा ग्रामीण जीवन के सामाजिक एवं झादिक ' स्तरों
में एक आमूल परिवतेत लाने व ग्राम-पुर्मनर्माण के लिए सामुदायिक विकास
योजनाओं व पंचायती राज की व्यवस्था की गयी है।
समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण
इन विक्रास योजन ओ व पंचायती राज का अध्ययन राजनीतिजों, वैश.निकों,
अयेशास्त्रियों, शासनकर्त्ताओ आदि के द्वारा भी किया गया है। प्रश्न यह है कि
समाजशास्त्री इनका किस हप्टि से अध्ययन करता है ? हमारे लिए इनके अध्ययन के
चार पहलू हैं--() सामाजिक विकास योजनाओ व पचायती राज को एवं सरचनातक
नवीनता (धध्परढाएार्थ। गरा॥0ए8४०१5) के रूप में देखना है, (2) सरचनात्मक
नवाचार के अलावा इन्हे एक विचारधारा (4०००४५) व कार्यबद्ध उत्तरदायित्व
(ए०ग़ंधा/क्षा) के रूप मे समझना है, (3) पचायती राज को गाँव, «|, राज्य वे
राष्ट्र के पारस्परिक सम्बन्धों और उनके इच्छुक व भनिच्छुक उत्तत्तित परिणामों
(७7०:९॥॥8 ००5९५०८॥८६७) के रूप में जानना है, तथा (4) इसे विभिन्न सरचनात्मक
(प्रताप) व आदर्शात्मक (700४७) 'प्रकारो' के परस्पर क्रिया के रूप में
परखना है। कि
इन विभिन्न पहलुओ के आधार पर हम कह सकते हैं कि समाजशास्त्रीय
इृष्टिकोण से जो मुख्य प्रदन हमे अध्ययन करने हैं वे हैं---
() उन ग्रामीण समाज के सरचनात्मक और आदर्शात्मक लक्षण या हैं
जहाँ विकास योजनाओं व पचायतों को व्यवस्था वी जा रही है। )
(2) पुरानी और स्थात मी जाने घाली नयी व्यवस्था में पिछड़ापन (०४
च अनुरूपता (4८६९८ ०॑ ०णा०घ१०००८००८) कितनी है ।
909 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
इस प्रकार प्रक्रिया में हमें तीन तत्त्व मिलते है--
() सामाजिक क्रिया को प्रारम्भ (४४॥०) करने के लिये लोकतस्त्रीय
सहभागिता (0॥०थ4ा० एथपंथ्ं६ध०॥) ।
(2) अधिक से अधिक आत्म-निर्भरता । *
(3) समुदाय के साधनों को आंवश्यक सेवाओं और सामान हारा सम्पूर्ण
करने हेतु सरकारी और गैर-सरकारी प्रतिनिधियों द्वारा भाग लेना ।
भारत भें सामुदाधिक विकास कार्यक्रम का देश के पंचवर्षीय योजनाओं के
साथ सकलन किया गया है। दूसरी पचवर्षीय योजना में जो विकास योजनाओो के
लक्ष्य बताये गये थे उनके अनुसार हमें विकास योजताओ के यह प्रमुख सक्षणा
दिखायी देते है--(0) अन्तरविभागीय कार्येक्रम में पारस्परिक सामंजस्य । (7) जेगे-
समुदाय द्वारा सहभागिता । (77) आत्म-सहायता और सहयोग ) , (४) सामाजिक
न्याय प्राप्त करने हेतु समुदाय के सभी वर्गों का समावेश ।
सामुदायिक विकास योजनाओं के प्रमुख उद्देश्य
साधारण शब्दों में सामाजिक विकास योजनाओं के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार
बताये जा सकते हैं--- हे
(।) एक ऐसी थोजना भ्रस्तुत करना जिससे राज्य शासन के सभी अंगे
समुदाय के आधथिक व सामाजिक विकास के लिए मिलकर काये कर सकें.।
(2) हर स्थानीय क्षेत्र को कुछ ऐसे आवश्यक ,साथव और तकवीकी ज्ञान
प्रदान करना जिससे क्षेत्र प्रगति कर सके व अपनी विभिन्न समस्याओं को समाधान
कर सके । ” हक
(3) समुदाय के सदस्थो को हर स्तर पर अपने को संगठित करने का अवसर
देना व उत्साहित करना जिससे वे अपने उन स्थानीय साधनों व शक्तियों को जुटाने
वे एकत्रित करने का प्रयास कर सके जिनका प्रयोग नही किया जा सका है। 2८
साधारण शब्दों में हम कह सकते हैं कि बिकास योजनाओं के मुख्य उद्देदय
क्ृषि-उत्पादन को बढ़ाना, बेरोजगारी दुर करता, जन-सहकारिता की भावना को
विकसित करना, ग्रामीण नेतृत्व का विकास करना तथा ग्रामीण जौवन का बहुओे
विकास करना हैं। 2
विकास योजनाओं के इस कार्यक्रम में हम सदा ऐसी सस्थाओ की खोज में
रहते हैं जो निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक हो सकें । विकास योजनाभों कक
आरम्भ काल में क्षेत्रीय स्वर पर गर-सरकफारी सलाहकार समितियाँ स्थापित की गगी
थी परन्तु यह लोगों को आवश्यक प्रेरणा देने मे _असफल पायी ग्यीं। इस कारण
यह आवश्यक समझा जाने लगा कि इस कार्यक्रम के लिए जिसा स्तर पर कोई नयी
संस्था स्थापित करनी होगी तथा ब्लाक को द्वी लोकतन्धीय दि में बदलना होगा
डिसमे विभिन्न स्वस्प्राम, ; ... * जिलालासस्परिक रूप में जंबिक झुपसे
(णाइव्प्मंव्थ)) सम्बन्धित रू ह 4३६ पर मेहता कमेटी की सिफारिशों के
सामुदायिक विकास योजनाएँ और पंचर्थिती राजे झ9+
उपरान्त पंचायत राज्य की स्थापना की गयी ।
952 में सामुदायिक विकास योजनाओं के आरम्भ के बाद इनके
विकास को चार प्रावस्थाओ (99568) मे अध्ययन किया जा सकता है---
() स्वीकारात्मक प्रशासकीय प्रावस्था (89००0४6 #07रांपरंजधवतए०
29॥85०--952 (9 955)
(2) प्राविधिक-समाकलन प्रावस्था (76णीप्रांथ्वानग्राशठुक्धा४० 0॥956---
4956 00 958) |
(3) लोकतन््त्रीय विकेन्दीयकरण प्रावस्था (0०घ०थथ४० 0०एशपम520थ'
2॥8582---959 ॥0 4964) 5
(4) मूल्याकन प्रावस्था (8४०४७॥४० 2॥358--49 64 के उपरान्त) ।
() स्वीकारात्मक प्रशासकोय प्रावस्था--इस काल में उत्पादन बढ़ाने एवं
ओत्मनिर्भरता तथा लोगो के उपक्रम एवं विभिन्न विभागों के सहयोग पर बल दिया गया ।*
(2) प्राविधिक समाकलन प्रावस्था--इस काल में तकनीकी विभागों, जन
सस्थाओं एवं देश की राजनीतिक संस्थाओं में सहंकारिता प्राप्त करने पर वल दिया
गया । इस सहयोग को प्राप्त करने हेतु विकास योजनाओं के कार्यक्रम, प्रशासन तथा
संगठन में कुछ परिवतेन लाये मये। कार्यक्रम मे परिवर्तत कृषि उत्पादन को अधिक
प्रधानता देकर तथा कुटीर उद्योग को प्रीत्साहिंत कर लाया गया; प्रशासन में परिवतंन
शासनकर्त्ताओ्रों, कार्यकर्त्ताओं और अन्य गैर-सरकारी व्यक्तियों के प्रशिक्षण पर बल
देकर तथा ग्नुसन्धान कार्यक्रम और प्रशिक्षण में समन्वय द्वारा लाया गया, सगठन में
परिवर्तन कार्यक्रम को सरकार-अभिमुख न मानकर जन-अभिमुख बनाकर एवं पचायती
राज को शक्तिशाली वनाकर व ब्लाक सलाहकार समितियाँ स्थापित करके लाया गया ।
(3) लोकतन््त्रीयं विकेस्रोफरण प्रावस्था--सामुदायिक विकास योजनाओं
पर मेहता कमेटी की रिपोर्ट के उपरान्त तीव स्तरीय सरचता आरम्भ की -गयी ।
इस व्यवस्था में ग्राम स्तर पर आराम पंचायतो, ब्लाक स्तर पर पंचायत समितियों
तथा जिला स्तर पर जिला परिपदों की स्थापना की गयी औरः इन्ही तीनों पर
सम्पूर्ण विकास कार्य निर्भर किया गया।
(4) भृल्यांकन प्रावस्था---] 96 3-64 के वाद पंचायती राज पर कुछ शोध
» कार्य किया गया जिससे उसका मूल्याकव करके उसकी सफलताओं व दीपो को मालूस
किया जा सेके तथा उसके कार्य को अधिक सफल बनाया जां सके। *
सामुदायिक विकास योजनाएँ भ्रौर पंचायती राज - नली अर
पंचायती राज की उत्पत्ति सामुदायिक विकास योजनाओं के कार्य करने.के.
अनुभव से ही हुई । वलवन्तराय मेहता के अनुसार सामुदायिक विकास उद्देश्य है
और पंचायती राज उस उद्देश्य को प्राप्त करते का साधन है। विकास योजनाओं
का शासन प्रमुख रूप से नौकरगझाही के हाथ में था । यद्यपि विकास परिषद् थी परन्तु
उनके कार्य-नॉममात्र" व औपचारिक था था उनका लोगो से कोई सम्पर्क नहीं
90 सामाजिक समस्याएँ ओर सामाजिक परिवर्तन
इस प्रकार प्रक्रिया में हमे तीन तत्त्व मिलते है--
() सामाजिक क्रिया को प्रारम्भ (#0905) करने के लिये लोकतस्त्रीय
सहभागिता (वंशा०णांए एगांणंएयंणा) । हे 5
(2) अधिक से अधिक आत्म-निर्मेरता । हे
(3) समुदाय के साधनों को आवश्यक सेवाओं और'सामान द्वारा सम्पूर्ण
करने हेतु सरकारी और ग्ैर-सरकारो प्रतिनिधियों द्वारा भाग लेना । हु
भारत में सामुदायिक विकास कार्यक्रम का देश के पचवर्षीय योजनाओं के
साथ संकलन किया गया है। दूसरी पंचवर्षीय योजना मे जो विकास योजना्रों के
लक्ष्य बताये गये थे उनके अनुसार हमें विकास योजनाओ के यह प्रमुस लक्षण
दिखायी देते है--(7) अन्तरविभागीय कार्यक्रम में पारस्परिक सामंजस्य | (7) जन-
समुदाय द्वारा सहभागिता । (77) आत्म-सहायता और सहयोग । , (४) सामानिक
न्याय प्राप्त करने हेतु समुदाय के सभी वर्गों का समावेश ।
सामुदायिक विकास योजनाशरों के प्रमुख उद्देश्य
साधारण शब्दों मे सामाजिक विकास योजनाओं के मुख्य उद्देश्य इस अकारे
बताये जा सकते है--- कक हे
(।) एक ऐसी योजना भ्रस्तुत करना जिससे राज्य शासन के सभी अंग,
समुदाय के आर्थिक व सामाजिक विकास के लिए मिलकर काये कर सकें. ! बे
(2) हर स्थानीय क्षेत्र को कुछ ऐसे आवश्यक ,साधन और तकनीकी ज्ञान
प्रदान करना जिससे क्षेत्र प्रगति कर सके व अपनी विभिन्न समस्याओं का समाधान
कर सके | ४ हि
(3) समुदाय के सदस्यो को हर स्तर पर अपने को सगठित करने का अवत्तर
देना व उत्साहित करना जिससे वे अपने उन स्थानीय साधनों व शक्तियों को जुटाने
के एकत्रित्त करने का प्रयास कर सके जिनका प्रयोग नहीं किया जा सका है। _
साधारण शब्दो मे हम कह सकते हैं कि विकास योजनाओं के मुख्य पहुँख
कृपि-उत्पादन को वढाना, वेरोजगारी दुर करना, जन-सहकारिता की भावना की
विकसित करना, ग्रामीण नेतृत्व का विकास करना तथा ग्रामीण जीवन का बहुम्र॒ुतती
विकास करना है । 528
काका मोना के इस कार्यक्रम में हम सदा ऐसी सस्थाओ की खोज हे
रहते है जो निश्चित उद्देश्यों की भाप्ति-मे सहायक हो सके । विकास 44/60: कक
आरम्भ काल में क्षेत्रीय स्तर पर गेर-सरकारी सवाहकार समितियाँ स्थापित की गेगी
थो परन्ठु यह लोगों को आवश्यक प्रेरणा देने में असफ़ल थायी गयी। इस 4822
यह आवश्यक समझा जाने लगा कि इस कार्यक्रम के लिए दल पर कोई सर्ये
संस्था स्थापित करनी द्वोगी तथा ब्लाक को ही लोकतन्त्रीय ढाँचे में बदलना होगा
जिमसें विभिन्न स्तर-प्राम, ब्लाक तथा जिला-पारस्परिक रूय में जेविक रूप सर
(०ड्शमं८०॥9) मम्बन्धित रदेगे । इसी जाधार पर मेहता कमेटी की सिफारिशों के
सामुदायिक विकास योजनाएँ: और पंचायती रोज 97
उपरान्त पंचायत राज्य की स्थापना की गयी । *
952 में सामुदायिक विकास योजनाओं के आरम्भ के बाद इनके
विकास की चार प्रावस्थाओं (9॥9589) में अध्ययत किया जा सकता है--
(7) स्वीकारात्मक प्रशासकोय प्रावस्था (890९ #फाएंशावरपरट
9॥888---952 (00 955)॥
(2) प्राविधिक-समाकलन प्रावस्था (व८्णाणांप्थनोगाशहकधंए० 2॥58---
956 ॥0 958)
(3) लोकतल्त्रीय विकेद्दीयक रण प्रावस्था (0ला००गा० 06०शशएगजोड४/0'
2॥756---959 ॥0 964) । हे
(4) भूल्याकन प्रावस्था (8५4770४० ?॥95०---964 के उपरान्त) ।
(7) स्वीकारात्मक प्रशास्कीय प्रावस्था--इस काल में उत्पादन बढ़ाने एवं
आओत्मनिर्भरता तथा लोगों के उपक्रम एवं विभिन्न विभागों के सहयोग पर बल दिया गया ।/
(2) प्राविधिक समाकलन प्रावस्था---इस काल में तकनीकी विभागो, जन-
संस्याओ एवं देश की राजनीतिक संस्थाओं में सहकारिता प्राप्त करने पर बल दिया
गया । इस सहयोग को प्राप्त करने रने हेतु विकास योजनाओं के कार्यक्रम, प्रशासन तथा
संगठन में कुछ परिवर्तत लाये गये । कार्यक्रम मे परिवर्तन कृषि उत्पादन को अधिक
प्रधानता देकर तथा कुटीर उद्योग को प्रोत्साहित कर लाया गया; प्रशासन में परिवततन
शासनकर्त्ताश्रों, कार्यकर्त्ताओं और अन्य गर-सरकारी व्यक्तियों के प्रशिक्षण पर बल
देकर तथा अनुसन्धान कार्यक्रम और प्रशिक्षण में समन्वय द्वारा लाया गया, सग्रठन में
परिवर्तन कार्यक्रम को सरकार-अभिमुख न मानकर जन-अभिमुख बनाकर एवं पचायती'
राज़ को शक्तिशाली बनाकर व ब्लाक सलाहकार समितियाँ स्थापित करके लाया गया ।
(3) लोकतन्त्रीय॑ विकेन्द्रीकरण प्रावस्था--सामुदायिक विकास योजनाओं
पर मेहता कमेटी की रिपोर्ट के उपरान्त तोन स्तरीम सरचना आरम्भ की गयी।
इस व्यवस्था भे ग्राम स्तर पर ग्राम पचायतों, ब्लाक स्तर पर पंचायत समितियों
तथा जिला स्तर पर जिला परिपदो की स्थापना की गयी और इन्हीं धीनों पर
सम्पूर्ण विकास कार्य निर्भर किया गया ।
(4) मुल्योकन प्रावस्था---963--64 के बाद पचायती राज पर कुछ शोध
कॉर्य किया गया जिससे उसका मूल्यांकन करके उसकी सफलताओं व दोयों को मालुम
किया जां सेके तथा उसके काये को अधिक सफल बनाया जा सके ।
सामुदायिक विकास योजनाएँ झीर पंचायती राज > है है4 >
पंचायती राज की उत्पत्ति सामुदायिक विकास योजनाओ के क्राय॑ करने.के,
अगुभव से ही हुईं। बलवन्तराय मेहता के अनुसार सामुदायिक विकास उद्देश्य हैं
और पचायती राज उस उद्देश्य को प्राप्त करने का साधन है। विकास योजनाओं
का शासन-प्रमुख रूप से नौकरशाही के हाथ में था | यद्यपि विकास परिषद् थी परल्तु'
उनको कार्य'माममात्र” व औपचारिक घा “तथा उनका लोगों से कोई सम्पर्क नही
सामुदायिक विकास योजनाएँ और पंचायती राज 93
लिए बनायी गयी योजनाओं और कार्यक्रमों को लागू करने के लिये एक साधन है ।*
यह सोचना कि पंचायती राज केवल सामुदायिक विकास योजनाओं को सफल बनाने
की आवश्यकता के कारण स्थापित किया गया, गलत होगा । तथ्य यह है कि जब
भूमि सुघार के विषय पर चर्चा हो रहो थी ओर जोत सम्बन्धी अधिकार ([थाएं
ईशाए।७) व्यवस्था के पुनर्गठन की आवश्यकता महसूस की जाने लगी, तभी योजना
आयोग ने 956 में वलवन्त राय मेहता को इस समस्या को व्यवस्थापक रूप
से अध्ययन करने के लिये आमन्त्रित किया और इसी कमेटी की नवम्बर 957
की रिपोर्ट को जनवरी 958 में राष्ट्रीय विकास परिषद् द्वारा स्वीकार किये
जाने पर 959 में पंचायती राज की स्थापना तथा जनतात्रिक विकेन्द्रीकरण
हुआ । इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पंचायती राज की स्थापना ग्रामीण समाज
में परिवर्तेत लाने के उद्देश्य से ही की गयी । प्रश्न है किस प्रकार का परिवर्तन ?
एक मत के अनुसार मह परिवर्तत केवल संगठन सम्बन्धी परिवर्तत लाना अथवा
पुराने ग्राम समाज को आधुनिक वत्ताना है; दूसरे के अनुसार यह परिवर्तन औद्योगिक
क्रान्ति अथवा पुरानी अर्थव्यवस्था में परिवर्तन लाना है और तीसरे मत के अनुसार
यह परिवर्तन है लोकतन्त्रीकरण, आधुनिकीकरण एवं राजनीतिकरण लाना ।
पंचायती राज घारणा के चार हृष्टिकोण है--(2) सर्वोदय हृष्टिकोण,
(2) स्थानीय सरकार हृष्टिकोण, (3) नौकरभाही (#प्य०७४४८०/४४०) दृष्टिकोण,
(4) सन्दर्भ-सम्बन्धी (००॥॥०४४४०)) हृष्टिकोण ।
» जयप्रकाश नारायण के सर्वोदयी मत के अनुसार (क) ग्राम सभा एक
सम्पूर्ण सत्ताधारी सस्था है; (ख) ग्राम पंचायत पंचायती व्यवस्था की आधारभूत
इकाई है; (ग) ग्राम प्चायत स्वायत्तमासी, आत्म-निर्भर व स्वानुशासन सस्था होनी
चाहिए; (ध) पंचायत का प्रमुख उत्तरदायित्व ग्राम सभा के प्रति होना चाहिए; «
एव. (च) पचायत के चुनावों मे राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए ।
स्थानीय सरकार के दृष्टिकोण के अनुसार पचायते स्वायत्त होनी चाहिए तथा
पंचायत के कार्य परम्परागत नागरिक और विकास-कार्यों तक सीमित नही होने
चाहिए किन्तु उनको कानून और व्यवस्था स्थापित करने का भी भार सौपना चाहिए ।
“. नौकरदाही हृ्टिकोण के अनुसार गाँवो के अशि्षित्र व्यक्ति अपने जीवन के
कार्यो की स्वयं देख-भाल व प्रवन्ध करने के थोग्य मही है इस कारण यह मत
पंचायती राज के आत्म-प्रबन्ध के पहलू को अधिक महत्त्व नही देता । ज्ोकतन्त्रीय
विकेद्रीकरण को यह केवल सत्ता का प्रत्यायोजन (१८ ०४०४०7) समभता है जिसमें
अन्तिम निर्णय का अधिकार सत्ता देने वाले के हाथ में होता है ।
5 8८०७४३, 55007, 49 [7308072] ह407८5५३9 उदक्षशहद्व 92॥ *ए800॥494 र०7)
णरडग्यंइटप 09 ए९ए0७5. 96 छएटगाठपांठ पते एप्णाए 407्रएंश्राबध०, वक्युंबदाअआय
एपाए८:४/9 28६ उक्रएण 9 06९, 964.. 566 ३० उैरक्ाडाए, उप्०9॥ ०7, ८॥., 2-3,
$ ?रगदा।), 3394 शएबए३5॥, 4 262 77 #वटखवऊसमटधामा ए्विदवोदय 20/9, 8. 8,
छिवा5व 86943 $बवाड्ा एए4४१५४॥, ९०802, 7:35व, 959. | ॥77*
१94 सामाजिक समस्याएँ ओर सामाजिक परिवर्तन
सन्दर्भ-सम्बन्धी हृष्टिफोण के अनुसार पचायती राज की उत्पत्ति किस
सन्दर्भ मे हुई केवल इसी बात के आधार पर ही उसके कार्यों को निर्धारित करता'
चाहिए । इस सन्दर्भ के प्रति यह कहा जा सकता है कि (क) सामुदायिक विकास
योजनाएँ जनसाधारण को आत्मनिर्भर बनाने मे बसफल रही थी। (ख) यह
असफलता व दोप केवल इस प्रकार दूर किया जा सकता है कि याँवों के विकास
की योजनाएँ, विशेषकर सामुदायिक विकास योजनाओं का प्रशासन, ग्रामवासियों की
व उनके चुने हुए प्रतिनिधियों को ही सौप दिया जाय | वास्तव में यह चार मत्त एक
दूसरे से पृथक् नही हैं। वे केवल अलग-अलग कारक पर बल्ल देते हैं
पंचायती राज के उद्देश्य
() पंचायती राज की स्थापना का तात्कालिक उद्देश्य सामुदायिक विकास
योजनाओं का विस्तार व. उनको सफल बनाने का प्रयास करना था। विकास
योजनाओं के कार्यों में पाया गया था कि ये जनसाधारण के उपक्रम व सहभागिता
पर आधारित नहीं थी, इस कारण मेहता कमेटी ने सामुदायिक भावना उत्पन्न करने
हेतु पच्ायती राज की स्थापना का सुझाव दिया ।
, (2) पंचायती राज द्वारा लोकतन््त्रीय विकेन्द्रीकरण की स्थापनों तथा
स्थानीय स्वानुरक्षण व स्वानुशासन सस्थाओं के विकास का प्रयास किया गया है।
(3) पचायती राज को गाँवों में राज्य के प्रतिनिधि के रूप में स्थानीय
साधनों और जनशक्ति के उपयोग से सुयोजित विकास, कल्याण सम्बन्धी कार्य व
आर्थिक विकास हेतु स्थापित किया गया।
“ कुछ व्यक्तियों का यह भी विचार है कि पंचायतों, का एक अव्यक्त (8०00)
कार्य सत्तारूढ़ दल द्वारा स्वतन्त्रता-प्राप्ति के उपरान्त जनसाधारण के ऊपर लोगे
हुए प्रभाव व अधिकार को पुनः प्राप्त करना था; परन्तु यह सही नहीं लगता । ईन
सभी उद्देश्यो को दूसरे णब्दो मे हम इस प्रकार भी बता सकते है--
(क) विकास सम्वन्धी चेतना को विकसित करना।
[(ख) जन-समुदाय द्वारा सहभागिता प्राप्त करना ।
(ग) सामाजिक कुरीतियो को दूर करने हेतु सामाजिक परिवतंन सम्बन्धित
धारणाएँ उत्पन्न करना ।
(घ) आधथिक परिवर्तत लाना - अथवा आधिक असमानता को दूर करना एव
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में समाजवाद लाने के लिए समानता की भावना उत्पन्न करता।
पचायती राज व्यवस्था
पंचायती राज का सस्वात्मक स्वरूप (ए5प0रपगा्वं विश्याइक्षणा:) वे...
उसका संगठन यद्यपि अलग-अवग शा्यो में भिन्न-भिन्न मिलता है परन्तु उसकी
चुनियादी ढाँचा सभी स्थानों मे एक समान है.।, पूरे देश में पच्चायत्ती राज मे तीव
स्तरीय संरचना की गयी है | इस व्यवस्था में सबसे निम्न ग्रामस्तर पर-प्राम पंचायद
सामुदायिक विफास योजनाएँ ओर पंचायती राज ]95
जातो है और सबसे ऊपर स्तर पर जिला परियद्, जिला प्रचायत अथवा जिला
विकात्न परिषद् आता है। खण्ड, ताखुका अथवा ब्लाक स्तर इसका मध्यस्थ स्तर
चना हुआ है जिसे अलग-अलग राज्यों में पंचायत समिति, तालुक पंचायत, जनपद
पंचायत, यूनियन परिषद् आदि नामो से जाना जाता है।
पंचायती राज्य के कार्य करते की व्यवस्था में तीन स्पष्ट प्रतिरूप मिलते हैं
जिनको उल्लेस करने (४व८८७॥००) हेतु राजत्थान प्रतिरूप, आध्र-प्रदेश प्रतिख्य व
महाराष्ट्र प्रतित्पष बताया जा सकता है । राजस्थान अ्रतिरूप में पंचायत समित्ति
प्रधान (४४०५) आपार है जिसे अधिणासी शक्ति व उत्तरदायित्व दिया गया है तथा
जिता परिषद् केवल एक समन्वय परियद् व पर्यवेक्षण (४79०८:शंह०7) एवं सलाह-
कार निगम के रूप में कार्य करता है। महाराष्ट्र प्रतिर्प में जिला परिपद् की सबसे
अधिक शक्तिशाली निगम बनाया गया है व उसे ही अधिशासी शक्ति सौपी गयी है ।
आध् प्रदेश प्रतिरूप में राजस्यान और महाराष्ट्र भ्रतिरख्पों का ससगें मिलता है
जिसमें:अधिकाश अप्रिशासी कार्य तो पंचायत समिति को दिये गये हैं परन्तु जिला
परिषद् को भी उसके समत्वय और परयंवेक्षण कार्यो के अतिरिक्त कुछ अधिणासी
भ्क्ति.भी मिली हुई हैं ।
“गाँव पंचाग्नत गाँव के वयस्कों में प्रत्यक्ष चुताव के फलस्वरूप गठित होती है
जवकि पचायत.समिति तथा जिला परिषद् अप्रत्यक्ष चुनाव से ही निर्मित होते हैं ।
पंचायत, समिति क्षेत्र की ग्राम पंचायतों के सरपंचों से, विधान सभा के स्थानीय
सदस्यों (जिन्हें मतदान का अधिकार नही होता) से तथा कुछ महिला एवं अनुसूचित
व पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधियों से निर्मित होती है। जिला परिषद् फिर पचायत
समितियों के प्रमुखों से तथा विधान सभा व लोकसभा के स्थानीय सदस्यों से एवं
महिला ब अनुसूचित जातियो के प्रतिनिधियों से बनती हैं। «7
जब ग्राम पंचायत अपने दैनिक कार्यक्रम के लिए मन््त्री नियुक्त करती है, पचायत'
समिति का मन्त्री एवं अधिशासी अधिकारी क्षेत्र विकास अधिकारी होता है तथा
जिला परिपद् का मन््त्री व अधिशासी अधिकारी जिलानियोजन अधिकारी होता है ।
“ कार्य की हृष्ठिसे ग्राम पंचायत का काये कृषि, स्वास्थ्य, शिक्षा, सुरक्षा,
भूमि-सुधार आदि की .व्यवस्था करना है तथएः पचायतः समिति का कार्य विकास
योजनाओं को कार्यान्वित करना, सहकारिता, कुटीर उद्योग एवं प्राथमिक शिक्षा का
प्रबन्ध करना हैं। जिला परिपद् का कायें - समितियों के कार्यों का निरदेशन करना,
बजद निरीक्षण करना आदि है । हि हा
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि गाँवों के परम्परागत * अधिकार संरचना में
जो पचायती राज्य द्वारा आधुनिकता घाने अथवा सामालिक नियम स्थापित: करने
का प्रयास किया गया है वह अग्रांकित है"... :.- » कक +
१5980, ४०8००५७, *502ंडश 500९एढ ६93 पर986 287०३ 8५* फ्मां
शक /3(5" 37 /'क्षाट/ब्फनाां
मन, #/4राओए दब 208#95/7%, ४१३, ७9 >तवघत बाय उिषदााद्वंए, ०8. ८४., 357-38.
96 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तत *
(() जब परम्परागत पंचायतों मे वोट देने का आधार सावन्धिक प्रस्थिति
(2४०ध०७4 $(४४5) थी अब यह नागरिक प्रस्थिति (०ंशं! ४205) है।
(2) पहले जब गाँवों की व्यवस्था परम्परागत सामुदायिक नियमों व आदेशो
(०्ण्णाप्रा8 5०0०४) के आधार पर की जाती थी अब पंचायती राज्य द्वारा
इसमे कुछ नौकरशाही तर्कशास्त्र (9पर८४ए८००७४० 72007श79) लाया गया है ।
(3) पचायत सस्था को ब्लाक, जिला और राज्य स्तर की संस्थाओं से
मिलाकर विकास सम्बन्धी कार्य सम्पादन में सुगमता लायी गयी है।
(4) विवेकपूर्ण जनतान्त्रिक मूल्यो की स्थापना की गयी है 4 १20 + 27
हे
प्रशासन में सरकारी अधिकारियों एवं... 9 ० ५०
गैरुसरकारी कार्यकर्त्ताशों में सम्बन्ध - - + .ल्> कक ,
सरकारी कर्मचारी एवं गैर-सरकारी' : कार्यकर्ताओं मे, सम्बन्ध तीन स्तरों पर
देखे जा सकते है--(॥),व्यंक्तिगत स्तर पर, (2) योजना-निर्माशः मे, और (3) अति-
दिन के कार्यक्रम व प्रशासन मे । ५», कक * * ) *
(4) व्यक्तिगत स्तर पर--प्रशासन में लगे हुए अधिकाश गैर-सेरकारी व्यक्ति
अशिक्षित, अज्ञानी, उतावले और सुपक्षी पाये जाते है और सरकारी अधिकारी भ्रष्ट,
दबाव डालने वाले (०००४८) और कार्य प्रणालीक. (.70०४०८:०) मिलते है।
गैर-सरकारी कार्यकर्ता व लोगो के प्रतिनिधि अधिक अनुभव न होते हुए भी अपनी
बाक्ति का पूरा श्रयोग क़रने के लिए उत्सुक रहते है। ये लोग शक्ति का उपयोग
अपने तथा अपनी जाति व अन्य सम्बन्धित समूहो को लाभ पहुँचाने के लिए ही करते
है। दुसरी ओर सरकारी! अधिकारी था तो लोगो-द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के
विश्वास को प्राप्त करने के लिए सदा व्याकुल रेहते है और हां मे हाँ मिलाने वार्ले
व्यक्ति का कोय्य करते है या फिर अधिक जिंद्दी और हठीले पाये जाते है!
(2) थोजना निर्माण--योजनाएँ बनाने का कार्य मैर-सरकारी व्यक्तियों को
करना होता है ) उन्हे ही रुचि लेकर आँकड़े उपलब्धः कर आदेश देने होते है यद्चपि
इसके लिए सरकारी अधिकारियों से सहायता लेने की सुविधा होती है। परन्ठु
वास्तव में बहुत जग्रहों पर यह योजनाएं सरकारी अधिकारी ही बनाते हैं तथा सन्नाई
देने के स्थान पर बहुत से निर्णय भी यही अधिकारी हीलेतेहै। * | *:
(3) दैनिक कार्य--इस क्षेत्र में सरकारी अधिकारियो और: गैर-
कार्यकर्ताओं में बहुत संघर्ष पाये जाते हैं। गैर-सरकारो ब्येक्ति इच्छाधीय अधिकार
प्राप्त-होने के कारण छोटी-छोटी बात पर अधिकारियों को अनुशासन सम्बन्धी दण्ड
देते हैं भथवा उसके स्थानान्तरण और नियुक्तियों में इस्तक्षेष करते हैं जिसते उनमे
अमस्तोष बढ़ता है । फलत: सरकारी और गेर-सरकारी कर्मचारियों में स्वस्थ सम्बन्ध
व सामजस्प बढुत कमर मिलता है जिसका विकास-कार्यों पर प्रभाव पड़ता
स्वाभाविक है ।
जे
सामुदायिक विकास योजनाएँ और पंचायती राज 497
संस्व॒नात्मक परिवर्तन
पंचायती राज के पहले जब तहसोलदार आदि अधिकारी प्रकार्यकारियों
([४॥०४०००7८७) की नियुक्त करते थे अब यह् प्रकार्यकारी जनता द्वारा चुने जाते
हैं। इन चुनावों में एक प्रमुख वात भूस्वामियों के विरुद्ध वर्ग-चेतना दिखाई देती है।
'धनी जमीदारों और निर्धन कृषकों में सदा वर्ग-सघर्प रहा है। पंचायती राज की
स्थापना से किसानों और भूमिदह्दीन श्रमिकों में परम्परागत सत्ताधिकारियों को शासन
से हटाने के लिए एक आरम्भिक लगन उत्पन्न हुई। दूसरे शब्दों मे पचायती राज ने
_ आतमेविश्वासी लोकवादी व॒र्गे को प्रवल व प्रभाव वर्ग से सामना करने का अवसर
दिया । यद्यपि 950 में जमींदारी समाप्त करने का अधिनियम पास किया गया था
परन्तु उससे निर्धन किसानों को स्वयं अधिकार प्राप्त करने का अवसर नही मिला
था। विभिन्न क्षेत्रो में गाँवों में चुनाव सही बताते है कि शनेः शने अद्धं-शिक्षित खेतिहर
उम्मीदवार सत्तारूढ़ बनते जा रहे हैं। इस प्रकार जो वेधघानिक अधिकारों और
सामाजिक संरचनात्मक वास्तविकताओं मे संघर्ष उत्पन्न हुआ! उसमें वास्तविकता की
हो विजय हुई है। अब ग्रामीण लोगो को खेत पर रोजगार, रुपया उधार लेने व
उप-काइतकारी ($79-4०727०9) आदि के लिए जमीदार परिवारों पर निर्भर नहीं
करता पड़ता है। फिर अब जमीदारों में भी आपसी संघर्ष मिलते है। इस तरह
अस्तर-वर्ग-संघर्षों ने अब वर्ग के सदस्यों के आपसी सघर्य का भी रूप धारण किया
है । भूस्वामियो से छुटकारा पाने से तथा सत्तारूढ़ समूह के आपसी प्रतिद्वन्द्धिता से
किसानो को अपनी श्वक्ति व अधिकार प्राप्त करने सम्बन्धी आकाक्षाओ को प्राप्त
करते का अवसर मिला है। फिर जमीदारो से स्वाधीनता मिलने से कृपको में लोक-
तस्त्र और विकास की भी भावना पेदा हुई है । पंचायती राज इसी भावता को
विकसित करने का एक साधन है । राजनीतिक प्रक्रिया के इस छोटे से वर्णन के आधार
पर हम कह सकते हैं कि पचायती राज की जो नयी सस्थात्मक संरचना स्थापित की
गयी है उसके निम्न कारण हैं
() परम्परागत सत्ताधिकारियों (ग्मंग्र8 ०४0७) का आवद्ध दवाव ।
(2) परम्परागत सत्ताधिकारियों और ऊपर उठने वाले व्यक्तियों की स्थिति
में विशाल आर्थिक और सास्कृतिक दरार ।
(3) कुछ कृपकों में परम्परागत शासकीय समूह के प्रति संस्थायत स्वीकृति
के विस्तृत रूप (५05८त) की मान्यता में स्थिरता (9&&5६४7००) ।
(4) ऊपर चढ़ने वाले कृपकों की आकाक्षाओं को मजबूत बनाने के लिए
चाहूर से विरोधी (००णा(धा-०थेणथं॥8) दबाव ।
(5) वैधानिक और साविधानिक परमाधिकार ([ँ८7०४०४४०) का स्थावित
स्तरीकरण (ध्धथध००भं०ा) के आधिक जौर सामाजिक माप से प्रत्यक्ष संघर्ष ।
(6) सामाजिक संरचना में अधिकार व्यवस्था के साथ-साथ प्रभावकारी एरि-
4 (६४4,
सामुदायिक विकास योजनाएँ और पंचायती राज 9५
विधान मण्डल के सदस्य का राजनीतिक प्रतिद्वन्द्ी वन गया है क्योकि वह भी विधान
मण्डल का सदस्य वनने का स्वप्न देखता है । इस कारण उससे या तो स्नेह प्राप्त
करने का या उसे बिल्कुल उखाड़ देने का प्रयास किया जाता है। दूसरे शब्दों में
प्रधान और विधान मण्डल के सदस्य के सम्बन्ध अधिकतर व्यक्तिगत लाभ पर
आधारित होते है ।
संसद सदस्य का कार्य जिला परिषद् तक ही सीमित है। क्योकि उसका क्षेत्र
बहुत विस्तृत है इस कारण प्रमुस और ससद सदस्य में अधिक संघर्ष नही मिलते । फिर
राज्य की. राजनीति का भी पंचायती राज पर प्रभाव पड़ता है तथा जाति,
परस्पराओं, व्यक्तिगत प्रभाव आदि जैसे स्थानीय कारकों के अलावा राज्य स्तर पर
कार्य करने वाली राजनीतिक श्वक्तियाँ भी पचायती राज पर प्रभाव डालती है।
फिर जहाँ राजनीति होगी वहां राजनीतिक दल भी होगे । अधिकाशनेता राजनीतिक
दलों की तरफ से , चुनाव लड़ते है। फलत: दलवन्दी का विप पूरे ग्राम जीवन को
दूषित कर देता है ।
.. राजनीतिक दलों के हस्तक्षेप के अतिरिक्त सरकारी अधिकारियों का व्यवहार
भी गाँवों मे नेताओ के कार्यो पर प्रभाव डालता है । दोनो में सामजस्य के अभाव के
फलस्वरूप असन्तोप के भाव दिखाई देते है। नेताओं का यही सन्तोप व असन्तोप व
कार्य करने की स्वतन्त्रता गाँवों के विकास कार्य को वल देती है अथवा वाधाएँ
उत्न्न करती है ययपि इसके साथ-साथ नेताओ के स्वयं के उत्साह, निष्पक्षता,
' थारम्भ शक्ति व रुचि आदि का भी विकास की गति से गद्दरा सम्बन्ध होता है |
पंचायती राज का मूल्यांकन
पंचायती राज्य की सफलता मालूम करने का तरीका उसके संगठन और
कार्यों का अध्ययन नही है परन्तु निम्न संरचवात्मक-प्रकार्यात्मक पूर्वाकाक्षिताये
(डाप्रतापराब चिालीगाड ए7०न०प॒ष्ठां 055) है--
() भाय वितरण एवं विभिन्न समूहों के भूमि स्वामित्व में असमानता में
कमी ।
(2) गावों में व्यावसायिक गतिशझीलता का बढ़ जाना ।
(3) नये प्रकार की आधिक क्रियाओं में तीब्र उन्नति जिससे ग्रामीण वित्त
व्यवस्था को घक्तिशाली बनाया जाये तथा उसकी सामाजिक गतिकी (०,7०३)
को बढ़ाया जा सके । पु 7
(4) ग्रामीण और नगयीय भागों में एवं कृषि और ओद्योमिक क्षेत्रों में कक्ति
सैन्तुलन के लिए विवेकपूर्ण मूल्य नीति (79ध०7० छग०० ए०/०/) का पाया जाना
' जिसमे भेद करने वाली शक्तियों को भी नियन्प्रित किया जा सके ।
(5) संचार व्यवस्था की प्रकृति और क्षेत्र में जामूल परिवर्यन ।
(6) ग्राम समाज के विभिन्न उप-संस्कृतियों में लौकिफ, आविक, सांस्कृतिक
और राजनीतिक क्रियाओ में सामान्य सहभागिता दास अधिक घ्न्त क्रिया ।
98 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
पूरक (०णराफदगशा(69) परिवर्तन का अभाव । _
पंचायती राज और नेतृत्व
पंचायती राज का एक राजनीतिक पहलू जनसाधारण की राजनीतिक चेतना
को जगाना है। इस राजनोतिक चेतना की जागृति की प्रक्रिया में नेतृत्व. भी उत्तन्न
होता है। हर समुदाय में कुछ नेता होते है जितको नेता मानने का कारण उनका
ज्ञान, समभने को शक्ति, लोगो से बातचीत करने की चतुरता, स्थानीय परिस्थिति
का गहरा ज्ञान, आदि होते हैं,। इन्हो नेताओं द्वारा सामाजिक सस्थाओं, रहत-सहत
के तरीकों आदि मे भी परिवर्तन लाया जाता है। यही नेता जनता का भी -प्रति-
निधित्व करते है यद्यपि वे न तो चुने हुए नेता होते है और न भौपचारिक रूप से
अधिकृत । उनकी लोकप्रियता का कारण है लोगो की अपनी समस्याओं के समाधान
हेतु उच पद निर्भरता । ऐसे नेताओं के बहुत से प्रकार होते है, जैसे अधिक आयु वें
अनुभव के कारण नेता, जाति के नेता, रिब्तेदार समूह के नेता तथा परम्परागत
नेता जैसे जमीदार, जनजाति क्षेत्रो के प्रधान आदि । विकास योजनाओं के कारण
कुछ परिस्थिति सम्बन्धी नेता और प्रायोजना नेता भी हुए है। पंचायती राज के
कारण फिर कुछ चुनाव किये हुए नेता भी मिल्त्ते है।, अब स्थानीय नेतृत्व एक पद
चिह्न और स्थिति प्रतीक बन गया है। अब यह अधिकार-विल्डु बन गये है जिनको
विशेष व्यक्ति व समूह के लिए लाभ प्राप्त करने तथा सामुदामिक आवश्यकताओं को
पूरा करने के लिए प्रयोग किया जाता है।
कुछ अध्ययनों से ज्ञात होता है कि पंचायती नेता आयु में छोटे, बहु पुरुष,
अधिकाश अशिक्षित, प्रमुख रूप से कृपक एवं ऊँची जातियों के सदस्य होते हैं।
विचारों की दृष्टि से वे क्रान्तिकारी परिवर्तन के अधिक पक्ष में नहीं होते! एक
रिपोर्टर के अनुसार 22 प्रतिशत सरपच 3000-5000 रुपये प्रतिवर्ष आय समूह के
सदस्य मिलते हैं और 3 प्रतिशत 5000 रुपये से अधिक आय समूह के सदस्य है ।
तीन प्रमुख सभसस््याएँ जो पंचायती राज के नेतृत्व मे मिलती हैं, वे हैं-
(।) निम्न स्तरव ऊँचे स्तर के नेताओ में एवं ग्रामीण और मेगरीय नेताओं में सम्व्भ,
(2) ग्रामीण नेतृत्व पर नगरीय नेतृत्व का प्रभाव अथवा इसका विपरीत, (3) नेताओं
का प्रशिक्षण । पहली समस्या मे हमें जो सघर्ष मिलता है वह है सरपच और प्रधाव
के बीच, प्रधान और प्रमुख के बीच, प्रधान और राज्य विधान मण्डल के सदस्य के
बीच और अमुख और . ससद सदस्य के बीच । सरप्रच और प्रधान के सम्बन्धी मे
सरपंच पंचायत समिति के राजनीति से अधिक और ग्राम पचायत की बातो में कम
रुचि लेता है। फिर प्रचायती राज में प्रधाव एक प्रमुख राजनीतिक व्यक्ति के रूप मे
समड़ा है जिसने प्रमुख को भी एक तरह दक दिया है । इसी प्रकार प्रधाव भी राज्य
3 डक्कारीक)बा( 20) ाल्टय०त सक्गमफ 96, छोॉथा छर8४०० ठ३४02(०2०
एरआं3शाड0, 36-
सामुदायिक विकास योजनाएँ और पंचायती राज 99
विधान मण्डल के सदस्य का राजनीतिक प्रतिद्वन्दी बन गया है क्योकि वह भी विधान
मण्डल का सदस्य वनमे का स्वप्न देखता है। इस कारण उससे या तो स्नेह प्राप्त
करने का या उसे बिल्कुल उखाड़ देने का प्रयास किया जाता है! दूसरे शब्दों में
प्रधान और विधान भण्डल के सदस्य के सम्बन्ध अधिकतर व्यक्तिगत लाभ पर
आधारशित होते हैं।
संसद सदस्य का कार्य जिला परिषद् तक ही सीमित है। देयोकि उसका क्षेत्र
बहुत विस्तृत है इस कारण प्रमुख और ससद सदस्य में अधिक संघर्ष नहीं मिलते । फिर
राज्य की राजनीति का भी पचायती राज पर प्रभाव पड़ता है तथा जाति,
परस्पराओ, व्यक्तिगत प्रभाव आदि जैसे स्थानीय कारको के अलावा राज्य स्तर पर
काये करने वाली राजनीतिक शक्तियाँ भी पचायती राज पर भ्रभाव डालती है।
फिर जहाँ राजनीति होगी वहाँ राजनोतिक दल भी होगे । अधिकाश,नेता राजनीतिक
दलों की तरफ से चुनाव लड़ते है। फलतः दलबन्दी का विष पूरे ग्राम जीवन को
दुपित कर देता है ।
राजनीतिक दलों के हस्तक्षेप के अतिरिक्त सरकारी अधिकारियों का व्यवहार
भी गाँवों में नेताओं के कार्यों पर प्रभाव डालता है। दोनो मे सामजस्य के अभाव के
फलस्वरूप असन्तोपष के भाव दिखाई देते हैं। नेताओं का यही सनन््तोष व असन्तोप व
कार्य करने की स्वतन्त्रता गाँवों के विकास कार्य को बल देती है अथवा बाधाएँ
अत्पन्न करती है यद्यपि इसके साथन्साथ नेताओं के स्वयं के उत्साह, निष्पक्षता,
आरम्भ शक्ति व रुचि आदि का भी विकास की गति से गहरा सम्बन्ध होता है ।
पंचायती राज का मूल्यांकन
पंचायती राज्य की सफ़्तता मालूम करने का तरीका उसके संगठत और
कार्यों का अध्ययन नहीं है परन्तु निम्न संरचवात्मक-अ्रकार्यात्मक पूर्वोकाक्षितायें
(एथंपाश पि।एणांणा॥। 97०-7८५४ं५४५४) हैं--- + ३) म
(3) आय वितरण एवं विभिन्न समूहों के-भूमि स्वामित्व में असमानता में
कमी ।
(2) गावीं में व्यावसायिक गतिशीलता का वढ़ जाना । ,
(3) नये प्रकार की आर्थिक क्रियाओं में तीब्र उन्नति जिससे ग्रामीण वित्त
व्यवस्था को शक्तिशाली बनाया जाये तथा उसकी सामाजिक गतिकी (०)7कश८७)
को बढ़ाया जा सके।।..,
(4) ग्रामीण और नगरीय भागों में एवं कृषि और औद्योगिक क्षेत्रों में शक्ति
स्न्तुलन के लिए विवेकपूर्ण मूल्य नीति (40०0० 9०० 907०५) का पाया जाना
जिससे भेद करने वाली श्क्तियो को भी नियन्त्रित किया जा सके ।
(5) संचार व्यवस्था की प्रकृति ओर क्षेत्र में आमूल परिवर्धन ।
(6) भ्राम समाज के विश्निन्न उप-संस्कृतियों में लौकिक, भाधिक, सास्कृतिक
और राजनीतिक क्रियाओं में सामान्य सहभागिता द्वारा अधिक बन््त.क्रिया।
200 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
नही पूर्वाकाक्षिताओं के भूल्याकन से हम यह् देखने का प्रयास भी कर सकते
है कि जिन उद्देदयो से पचायती सस्था का विकास किया गया था उनकी कहाँ तक
पूर्ति हो पायी है।
इसमे जो हमें भ्रमुख सफलता मिलती है बहू है एक युवा आयु समूह के उस
नव परम्परात्मक नेतृत्व का विकास होना जो न पूर्ण रूप से परम्परात्मक हुँ और न
पूर्ण रूप से आधुनिक, परन्तु जो भौतिक लाम की प्राप्ति हेतु आधुनिकीकरण के कुछ
अधिक पक्ष में है। ये नेता भविष्य के ग्रामीण सत्ताधिकारी होगे और गावो के विकास'
के प्रधात आधार होंगे तथा ग्राम और नगरीय राजनीति की कड़ी (॥76) बनेंगे और
अन्ततः, जिला, राज्य और राष्ट्रीय राजनीति पर एक संकल्पवाद सम्बन्धी प्रभाव
(१७७॥ंधा४४० 47067०७) डालेंगे
दूसरा, प्रचायती राज के कारण कुछ राजनीतिक चेतना (एणाधंए्शे
००१६४९०७७॥९५७) बढ ग्रयी है। यह् चेतना ग्रामीण लोगों में एवं गर-सरकारी
सस्थात्मक नेतृत्व के स्तर पर मिलती हैं।
इन सफलताओं के होते हुए भी इनमें दोप अधिक मिलते है जिनमे प्रमुख इस
प्रकार है--
() पचायती राजे ने प्रसार सेवाओं (७(८/आ०॥ $८:४०७) को कमजोर
कर दिया है। इसके मुख्य कारण है--(7) तकनीकी विभागों की काम से भागने की
प्रधारणा, (४) जिला स्तर के अधिकारियों की रुचि शून्यता, (77) ब्लाक स्तर के
नेताओं की जिला और राज्य स्तर पर दी जाने बाली तकनीकी सहःययता के प्रति
असहयोगी भावना, (५) गाँवों मे पायी जाने वाली अतिवूल परिस्थितियाँ, (४) ग्राम-
वासियों और प्रसार सेवाओ के कार्यकर्ताओं के बीच आदान-अ्रदात की कठिनाइया,
(शं) ग्राम सेबकों को प्रतोभन का अभाव, ओर (४) सरकारी ओर गेर-सरकारी
कार्यकर्ताओं के बीच संपर्प ।
(2) कार्यक्रम में जवसहमाणिता प्राप्त नही हुई है । ग्रामीण लोग तथा गैर
सरकारी सस्थात्मक नेता अब भी विकास कार्यक्रम को यदि राज्य द्वारा सादा हुआ
कार्यक्रम नहीं तो राज्य द्वारा घोषित किया हुआ कार्यक्रम अवश्य मानते हैँ । इस
प्रकार इसमे तावात्मीयकरण (#0०7/09807) की भावना और साझेदारी व
सहकारिता का अभाव पाया जाता है।
(3) पचारतो राज लोगों में सामाजिक परिवत्न के प्रति घारणाओं में कोई
परियतेन मही ला पाया है ! दहेज, गृत्यु-नभोज, बाल-विवाह, विधया-विवाह के प्रति
घृणा आदि सामाजिक कुरीतियां जब नो गाँवी में मिलती हैँ । इसी प्रकार परिवार
नियोजन कार्यक्रम को भी लोगो ने नहीं अपनाया है। बच्चों को वे अब भी ईश्वर
को देन समझे हैं। अस्यृस्यता की प्रपा अब भी प्राय जाती है। मिक्षा के बरठि
डिघार, विशेषरर स्त्रियों में शिक्षा के प्रति विचारों में भी परियतन नहीं मिलवा ।
[4) पंचायती राज अधिक आधिक परिवर्तेत भी नहीं चा वाया दे ॥ इसने
भपिश असमानाय को दूर करने के बजाय बढ़ाया ही है । माथिक विड्ाग के झाम
सामुदायिक विकास योजनाएँ और पंचायती राज -20]
राजनीतिक रूप से प्रवल लोगों को अधिक मिले है। यही लोग अधिकांशतः आधिक
और सामाजिक हृप्टि से प्रवत् व्यक्ति भी होते हैं। इस प्रकार हम कह सकते है कि
हमारी ग्रामीण अर्थ व्यवस्था में समाजवाद का भुकाव नही मिलता । जब तक भूमि
नीतियों मे परिवर्तन, कृषि सुधार, ग्रामीण ऋण पर नियन्त्रण आदि नहीं मिलते,
पंचायती राज्य आथिक परिवतंन लाने में सफल नही होगा |
(5) योजनाएँ अब भी निम्न स्तर पर नहीं बनती है जिसका मुख्य कारण
है योजना निर्माण के प्रति तकनीकी ज्ञान की अज्ञानता, उपलब्ध साधनों की
अनभिन्ञता ।
(6) पंचायती राज में यद्यपि सर्वसम्मत चुनावों को प्रेरणा दी गयी है तथा
ग्रामीण स्तर पर बिना राजनीतिक दलो वाले प्रजातन्त्र की स्थापना पर बल मिलता
है फिर भी इससे गांवों में गुटवन्दी वढ गयी है। शक्ति ग्रुटो के बढ जाने से पंचायतों
का एक प्रकार से राजनीतिक पक्षपुर्वंक सभूहो और राजनीतिक निर्वासित समूहों मे
विभाजन हो गया है जिससे प्राप्त लाभ के वाँटने मे विभेद-सा आ गया है।
(7) सरकारी अधिकारियों और गेर-सरकारी कार्यकर्त्ताओ के सम्बन्धों में
अविश्वास व असस्तोप पैदा हो गया है ।
(8) प्राम सभायें भी अभी तक शक्ति प्राप्त नही कर पायी है!
(9) एक ओर तो पचायती राज ने नये नेतृत्व के उभरने की सम्भावना को
जन्म दिया है जिससे शक्तिऔर सामाजिक पदो के पुनः विभाजन की आशा मिलती
है परन्तु दूसरी ओर इसने जाति-भेद और जाति-झासन की पभ्वृत्तियों को चिरस्थायी
किया है तथा गुटों और सघ्षों को बढ़ाया है।
मोटे शब्दों मे कहा जा सकता है कि पंचायती राज संस्थाएँ विकेन्द्रीकृत
जनतन्त्र के लिए विकास क्रियातन्त्र (46४श०कृआणा६ 776०॥2॥7॥) के स्थान पर
शक्ति क्रियातन्त्र (90छ८ 74९॥97॥9॥) के रूप मे पहचानी जाती है। शक्ति क्रिया-
तन्त्र के रूप में पंचायतों ने शक्ति के एकाधिपत्य को लोप करने के वजाय इसे नये
स्वामियो--सरपची और प्रधानों--के पक्ष में मोड़ दिया है।
उपर्युक्त दोपों को दुर करने के लिए तथा पचायती राज को सफल बनाने के
निम्न प्रयास किये जा सकते है--
(4) पचायती राज में सरकारी अधिकारियों और गेर-सरकारी कार्यकर्त्ताओ
व नेताओं के कार्यों में बहुत अतिक्रमण व परस्पर व्यापकता मिलती है जिससे
अधिकारियों और कार्यकर्त्ताओ के बीच संघर्ष बढ़ते हैं। हर व्यक्ति के उत्तरदायित्व
स्पष्ट रूप से परिभाषित करके तथा कार्य-विभिश्नता को परिशुद्ध (८८४०) बनाकर
कार्य-स्थिरता लायी जा सकती है तथा इन सघर्षों को कम किया जा सकता है ।
(2) कार्य-स्थिरता लाने के अलावा कार्य-अभिमुखता व कार्य-कुशलता लाने
की भी आवश्यकता है । दुसरे शब्दों मे हर व्यक्ति को सही प्रश्चिक्षण देकर उनके कार्यो
को सक्रियात्मक रूप से अर्थपूर्ण बनाया जा सकता है।
(3) विकेन्द्रीकरण के लिए कोई सस्थात्मक प्रतिरूप तैयार करना आवश्यक
202 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवततेत
है। वह प्रतिरूप दोनों विकास और. प्रजातस्त्रवाद के लिए वाछित फत्तोत्पादक
(०ग९७०४०५६) साधन होगा । इस समय पायी जाने वाली रीति के अनुसार जब कभी
पंचवर्षीय योजना वनानी होती है तो राज्य सरकारों को कहा जाता है कि वे अपनी
योजना प्रस्तुत करे । राज्य सरकार फिर जिला-स्तर पर सलाहकार समितियाँ आदि
स्थापित करके ब्लाक-स्तर पर बनायी गयी योजनाओं का समन्वय करके योजनाएँ
मगवाती है । इत जिला योजनाओं में राज्य परियोजना मिला करके योजना आयोग
को राज्य की योजना प्रस्तुत की जातो है जो सदा वित्तीय सीमाओं के अभाव में
उपलब्ध साधनो का तीन-चार गुना से भी अधिक होती है। योजना आयोग जब हर
राज्य के लिए वित्तीय सीमाएँ निर्धारित करता है तो राज्य सरकार को अपनी परि-
योजना छोटी करने के लिए कहा जाता है। राज्य सरकार फिर राज्य परियोजनाओं
की कम करने के स्थान पर जिला और क्षेत्रीय स्तर की योजनाओं को कम करती
है। इस प्रकार पचायती राज सस्थाओं का योजना-निर्माण में कार्य एक रूप से स्वाग
ही होता है। इसी को लेकर सदा यह प्रइन पूछा जाता है कि योजवा-विर्माण की
इकाई क्या रहे ? जिला, ब्लाक या ग्राम ? कुछ लोग जिले को इकाई वनाने के पक्ष
में हैं, कुछ ब्लाक को परन्तु अधिकतर ग्राम को । योजना आधोग के एक सदस्य
(श्री तरलोक सिह) भी ग्राम को ही योजना बनाने की इकाई के ही पक्ष मे थे,
क्योकि इनका कहना था कि ग्राम स्तर पर सामाजिक परिवर्तन की सभी क्षक्तियों
को जानकर हम समुदाय के प्रति उत्तरदायित्व समभ सकते हैं। परन्तु साथ मे उनका
यह भी विचार था कि ग्राम स्तर पर बिना एथ-प्रदर्शन के (कि ब्लाक-स्वर पर क्या
साधन उपलब्ध हो सकते है आदि) योजना चताना आसान नही है। इस कारण ग्राम,
बज़ाक और इसी प्रकार जिला, राज्य, राष्ट्रीय स्तर पर योजनाएँ बनाने के समत्वय
अत्यन्त आवश्यक है (१? कुछ लोग फिर गाँव को इकाई न मानकर ब्लाक व जिसे को
सही इकाई मानते है । उनका कहता है कि इस समय हमारे सामने दो' साडल वे
प्रतिरूप हैं--(क) राजस्थान माडल, और (ख) महाराष्ट्र माडल । राजस्थान माइल
मेहता कमेटी द्वारा प्रस्तावित माडल का परिवर्तित रूप है। यह माडल ब्नाक को
विकेन्द्रीकरण की इकाई भानता है तथा इसे प्रजातन्त्रवाद की स्थापना के लिये बहुत
सहायक माना जाता है। महाराष्ट्र माडल जिले.को विकेस्द्रीकरण की इकाई मानता
है तथा इसे प्रजातन्त्रवाद के लिये नही अपितु विकास के लिये बहुत सहायक माना
जाता है। इस कारण सबसे उचित तरीका यह होगा कि सादिक अली कमेटी द्वारा
सकेत किया हुआ दोनों भाडल का माध्य (77580) निकाला जाये ।/ इसके अनुसार
जिला स्तर पर जिला परिपद् को योजना बनाने के लिये इकाई समभता एवं ब्लाक
को योजना परिपालन तथा जन-सहभागिता की दृष्टि से इकाई सावना। परल्वु हमारे
एड्ठाक्र, वच्रोग, ६८३ स्क्कार्तीक वा कोने, 2क्रिगामए बाबव क्कात्वढदा, गून थीं +
237,
म कतार 24८ 5/बब उश्क्रा गा मक्मदीब) बागी. मन, ॥96% ए4००१3) 4६ शार्ष
ए9०5००फ्राए८०६ एचफथाफलत, 0050 ० छ/]३भध्ा, 54-98.
सामुदायिक विकास योजनाएं और पचायती राज 203
विचार में योजना-निर्माण की सर्वोचित इकाई निर्धारित करने में हमें योजना को घार
- स्वर पर देखना होगा--(अ) योजना के आकार को निश्चित करना, (आग) क्षेत्रीय
हिस्से (४]०८४४०॥७) निर्धारित करना, (३) विभिष्न योजनाओं का स्पान-नियत
(१0०७४०7) निश्चित करना, तथा (ई) गोजनाजों का वास्तविक परिपालन ।
इनमें से पहले दो स्वर को योजनाएँ तो केवल राज्य स्तर पर हो सम्भव हो
सकती हैं क्योकि राज्य ही साधन और तकनी की ज्ञान उपलब्ध करता है। तीसरे और
चौथे स्तर की योजना का निर्माण प्रामवासियों द्वारा ही अधिक उचित रहेगा बयोकि
“गाँव के लोगों तथा इनके प्रतिनिधियों को हो स्थानोथ जावश्यकताओ का ज्ञान तथा
सुधार लाने की प्रवल रुचि हो सकतो है। इस कारण स्थान निश्चित करता तथा
योजना बनाने का स्तर जिला और उन योजनाओ के परिपरालत के लिये योजना का
स्तर पंचायत समिति हो सही रहेगा ।
(4) चौथा प्रइन है कि पचायती राज की तीन स्तरीय संरचना में विस
स्तर को वास्तविक अधिकार व शक्ति प्रदान की जाये ? इसके लिए कहा जा सकता
है कि ब्लाक-स्तर पर पंचायत समिति को सर्वाधिकार देना अधिक सही होगा क्योंकि
जिला-स्तर पर नेतृत्द में अधिकतर नगरीय लक्षण पाया जाता है। यदि हम चाहते हैँ
कि पचायती राज ग्राम निवासियों की आवश्यकताओं को पूरा करे तो हमें नेतृरय
को उसी स्तर पर विकसित करना होगा जहाँ व्यक्ति सचमुच ग्रामीण समत्याओ को
जानते है। ग्राम पचायत इसके लिए बहुत छोटा क्षेत्र होगा । इस कारण ब्लाफ-स्तर
ही उपयुक्त है। इस समय ब्लाक-स्तर पर यदि अच्छे नेता नही भी मिलते तो भी
अन्ततः वे अवश्य उभरेंगे ।
योजना निर्माण एवं पंचायती राज
पंचायती राज में निचले स्तर पर योजना-निर्माण पर बय दिया जाता है
और यह कहा जाता है कि जब तक प्राम-स्तर का योजना-निर्माण राष्ट्रीय योजना*
निर्माण से जोड़ा नहीं जायेगा पंचायती राज सफल नहीं होगा। फिस्सु अशोक
मेहता का विचार है कि इस प्रकार का साहचर्य आवश्यक नहीं है। पुरी ओर
परन्जपे (९०7909०) का कहना है कि योजना निर्माण दो ओर को प्रक्रिया है तभा
निचले और ऊँचे स्तर की योजनाओ का सम्बन्ध ही सम्पूर्ण योजना के सद्दी सक्षण
निर्धारित करता है॥ योजना-निर्माण में प्रमुप रूप से तीम तत्व पाये जाते हैं---
(अ) राज्य स्तर पर योजना-निर्माण में राज्य के प्रधान पदाधिकारियों की पथ*
प्रदर्शन करना ही होगा क्योकि केवल उन्हे ही राष्ट्रीय एवं राज्य पिर्ा-ध्यवर्था फा
सही स्वरूप ज्ञात होता है। (आ) जिला स्तर पर तकनीकी अधिकारियों को योजमा
को सर्विस्तार निर्धारित करना होगा। (६) ब्लाक-स्तर पर जनसाधारण से योगभा-
निर्माण में साहचर्य प्राप्त करता भी जावश्यक ही हे जिससे उनकी सही आकाक्षाएँ
व अनुक्रियाएँ ज्ञात हो सके । दूसरे झब्दों में ब्ताक-रतर पर पदाधिकारियों के कार्थों .
को सीमिय करना होगा जबकि जिलानतर पर दोनो सरकारों, ओर गरूगरन
204 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
तत्वों की आवश्यकता है। हु
बलवन्तराय मेहता कम्रेटी में भी 957 में योजना-निर्माण में जन-
साधारण का साहचर्य प्राप्त करने तथा ग्रामीण समुदाय के विकास को पूरे देश के
विकास के साथ समाकलन करने पर बल दिया था ४ उनका विचार था कि इस
संकलन में स्वोपरि प्राथमिकताएँ सरकार द्वारा निर्धारित की जायें और उनका
विस्तार ग्राम समुदाय द्वारा किया जाये । इस प्रकार एक ओर अध्ययन समूह ने
प्राम-स्तर पर अधिकारों के परिक्रमण ((७४०७४०॥) की आवश्यकता बतायी और
दुसरी ओर राष्ट्रीय एवं राज्य सरकार द्वारा अनुमोदित प्राथमिकताओं को महत्त्व
देने के सुझाव से उनकी सक्रियात्मक' आरम्मन्शक्ति (०7शब्धं०ाण ई7/02॥08) की
सीमा बाँधने पर बल दिया | इसका अर्थ यह हुआ कि पंचायती राज सस्थाएं राष्ट्रीय
और राज्य योजनाओ के लिए प्रमुख रूप से अधिवासी कार्यवाहुक सगठन है तथा
ऊँचे स्तर पर योजना-निर्माण अब भी राज्य सरकार का उत्तरदायित्व होगा जबकि
पंचायतों को केवल उनको पूर्ण रूप से विकसित करना होगा ।
यद्यपि योजनाएँ बनाने में राज्य सरकारों को अधिक महत्त्व दिया गया है
फिर भी स्थानीय आवद्यकताओं व उपलब्ध साधनों की हृष्टि से पंचायतों का
योजना-निर्माण में साहचर्य हो स्वयं में देश के आधिक विकास में एक क्रान्तिकारी
उपसर्ग है। अब जो दो प्रमुख प्रश्न उत्पन्न होते हैं, वे है--(क) पंचायतों को किस
प्रकार यह शिक्षा व निर्देशन दिया जाये जिससे वे स्थानीय विकास के लिए अपनी
आकाक्षाएँ निर्धारित करने मे राष्ट्रीय योजनाओं और प्राथमिकताओ को घ्यान मे
रखना आवश्यक समझें, तथा (ख) क्या पंचायती राज खण्ड का इस प्रकार सीमाड्ून
(4७णाश०क0४००) सम्भव है जिससे स्थानीय समूह स्थानीय विकास के लिए
अपनी इच्छानुसार योजना बनाने में भी स्वतन्त्र हों और साथ में अन्य क्षेत्रों मे वे
राज्य और राप्ट्रीय सरकारो के केवल अधिशासी कार्यवाहक संगठन के रूप में
काये करें ।
पिछले दस वर्षों के अनुभव ने तथा कार्यक्रम मूल्याकन संगठन एवं राजस्थान
विश्वविद्यालय द्वारा किये गये पचायती राज अनुसन्धान प्रियोजन ने यह सिद्ध
किया है कि योजनाओ के निर्माण में पंचाग्रतों में अभी सक्रियात्मक निपुणता कम
है। राजस्थान विश्वविद्यालय के शोध ने स्थानीय स्तर पर योजनाओ के निर्माण की
चार सक्रियात्मक संमस्थाएँ सूचित की है*--() तकवीकी सहायता और निरीक्षण
का अभाव, (2) शासकीय प्रक्रियाओं की अनुपयुक्तता व अपान्ता, (3) वित्तीय
साधनों की कमी, और (4) राजनीतिक खिचाव और दवाद का अवब्यम्भावी व
अत्याज्य [गरन््शा०0०) प्रभाव। इन चारों समस्याओं के कारण पचायते स्थानीय
फज्कगाय थी #० उन्गव/क 08 3004 नी 0. 2. 72% ताब सेशागर डेडायमंग
6०६८०, १०. , ऐलाए, १२०४- 957, 3. है
मे करा 2व सह अाफड शी #का्ककाना फणा ईहए हीढ जैंगोएवा कम
एबएए०ए (६थ] (९६९३८) एए0९७ ए7#, एए/श्क्षप्नफ गण एन॒ं4चवि8फ, रर्एए/ 7263
सामुदायिक विकास योजनाएँ और पंचायती राज 205
योजनाएँ वनाने में विल््कुल विफल रहो है ।
राजस्थान में इस समय जो परिस्थिति पायी जाती है उसमें पंचायतों को
केवल सामुदायिक विकास योजनाओं को कार्यान्वित करने का का्ये दिये गया है
जिसके लिए संचित धन या तो विकास के क्षेत्रीय वजट द्वारा उपलब्ध किया जाता है
या फिर उन सहकारी विभागों द्वारा जिनके अन्तर्गत वे कार्य आते है। उदाहरणतया
पंचायतों को इस समय कृषि, -समाज-कल्याण, सहकारिता, कुटीर उद्योग, प्राथमिक
शिक्षा आदि के कार्य सौपे गये हैं। इन कार्यों के लिए उन्हें सरकार के इन्ही विभागों
से आवश्यक धनराशि उपलब्ध होती है। इन कार्यों के लिए शर्त भी इन्ही विभागों
द्वारा निर्धारित की जाती है। इससे ज्ञात होता है कि पंचायतो का योजना-तिर्माण में
सही रूप से किस सीमा, तक साहदचर्य प्राप्त किया गया है। मा
अन्त में, यह कहा जा सकता है कि पचायती राज सामुदायिक विकास कार्य-
क्रम से अधिक फलोत्पादक है तथा इसमे सम्भावित शक्ति अधिक मिलती है, यद्यपि
अभी तक यह् प्रजातन्त्र के लिए ओर.अधिक विकास के लिए कम सहायक सिद्ध
हुआ है। अपनी पभ्रत्याशाओं की पूर्ति के लिए इसे और अधिक विकसित होना है ।
||] राष्ट्रीय एकता
(&77088., एच55867707/9
पिछले वीस-पच्चोस दर्पों मे धघामिक सम्प्रदायों, भाषायी समूहों तथा विभिन्न
राज्यो द्वारा प्रादेशिकता की भावना पर आधारित बढ़ती हुई मांगों एवं उनकी
स्वायत्तता की अभियाचना के कारण भारत में राष्ट्रीय एकता तथा जनता में अखण्ड
भारत की राष्ट्रीय भावना का यथेप्ट विकास करने की समस्या ने राजनीतिजञों तथा
सभी विन्तनशील वर्गों के विद्वानों का ध्यान आकषित किया है। तीसरे और चोये'
आम चुनावों के उपरान्त एक हो राजनीतिक दल कांग्रेस के प्रभुत्व की समाप्ति के
कारण तथा विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा राष्ट्रीय हितों की अवहेलना करते हुए
किसी एक विश्येष क्षेत्र के लिए राजनीतिक इकाइयो के रूप में कार्य करने के कारण
भी इस सभस्या को महत्व मिला है। भारत विभिन्नतानों का देश है। यहाँ हमें
जातीय, धा्िक, साम्प्रदायिक, भाषायी तथा सास्कृतिक विपमताएँ मिलती हैं। इत
विविधताओं में एकता लाना राष्ट्रीय विकास व प्रगति के लिए अति आवद्यक है
दुसरे महायुद्ध के बाद स्वाघीनता संग्राम के लिए सभी भारतीयों में अग्रेजी शासन
के विरुद्ध एकता व राष्ट्रीय भावना अधिक दिखायी दी थी । ऐसी ही एकता फिर
962 में चीन और 965 और 97 में पाकिस्तान के आक्रमण के समय हप्टि-
गोचर हुई थी । परन्तु यह भावात्मक एकता स्थायी न रह सकी । फेलतः अब यहें
मालूम करने के प्रयास बढते जा रहे है कि कौन से तत्त्व राष्ट्रीयता की भावता कौ
कमजोर बनाने में विशेषत: उत्तरदायी हैं और उन्हें किस प्रकार नियन्त्रित किया जा
सकता है।
राष्ट्रीय एकता की समस्या के तीन विशिष्ट पहलू हैं और तीनो को समान
च उपयुक्त महत्त्व देना आवश्यक है क्योकि इनमें से एक को भी अस्वीकृत करने से
च उसके उपेक्षण से परिस्थिति निकृप्ट हो सकती है| ये तीन पहलू हैं--“राजनीतिक,
आधिक एवं सामाजिक । राजनीतिक पहलू मे हमें केन्द्र और राज्यों एवं विभिन्त
शज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों को समझता है तथा यह देखता है कि इनके सघर्षों को
नियस्त्रित करके किस प्रकार इनमें सामंजस्य व समरस सम्बन्ध स्थापित किये जा
सकते हैं; आधिक पहलू में अलग-अलग राज्यों व क्षेत्रों म॒ आथिक असमानताओं को
दूर करने एवं उतको अपने विकास के लिए बराबर व पर्याप्त अवसर प्रदान करने
हेतु उपलब्ध साधनों के समान वितरण की समस्या को समझना है; सामाजिक पहलू
में भाषादाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद आदि बन्धको को दूर करके समजातीय
जाष्ट्रोय एकता रण7
इप्टडोघ (४०४30.:४००००५ ०५ध००८) का विरात करना है॥ इन तोदों पहलुदों के
अनद-कतय दिवरुप से पहले हन यह देखने का प्रयास करेंगे कि राष्ट्रोच एकता को
व्यापक संहुल्पना व घारणा या है ?
चशप्ट्रोय एकता को घारणा
सप्द्रोय एकता समचेतना (०००5थ०पञ्मा०5५ ० 30) पर आधारित एक
बह प्रक्रिय है छिसमें देश के विभिन्न समूह द उपन्समूह् एकता एवं वादातल्नोबकरण
सर्वोच्च स्वर प्राप्त करने के सामान्य उद्देश्य हेतु रचनात्मक प्रयास करते है एं
चाघारन शब्दों में राष्ट्रीय एकता को वह प्रक्रिया दता सकते है जिसमें विभिन्न
घामिक समूह (हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, पररसी आदि), क्षेत्रीय समृह (महाराष्ट्रयन,
क्ेरपाइट, दंगाली, तामिलनायदूज आदि.) भाषायी समूह (पंजाबी, सिन््धी, पुजराती
आदि), एवं सामाजिक व सांस्कृतिक समूह (जातियाँ, जनजातियाँ आदि) व्यक्तिगत
केल्पाथ के लिए नहों जपितु अपने को सर्वेप्रपम भारतीय मानकर देश के केल्याघ व
उन्नति के लिए मिलकर कार्य करते हैं। विभिप्न समुहो का यह पारस्परिक सामंजस्थ
पूर्व निश्चित व समायोजित लक्ष्यों, नीतियों व युक्तियों पर आधार रखता है।
वास्तव में राजनीतिक एकता की समस्या बहुत पुरानी समस्या नहीं है।
प्राचीन एवं मध्य मोये, गुप्त आदि युयों मे अयवा पन्द्रहवों धताब्दो तक सास्कृतिक
आदि विविधताओं के होते हुए भी देश में भावनात्मक व राष्ट्रीय एकता के निर्माण
की समस्या उत्पन्न ही नहीं हुई। सोलहदवों शताब्दी के उपरान्त हो मुसलमानों और
अंग्रेजो को स्वार्थी नीतियों के कारण कुछ विधघटनकारी व पृषर्तायादो शक्तियों ने
राष्ट्र की अखण्डता को नप्ट करने का प्रयास किया है। देश के विभाजन के बाद पह
सोचा जाता था कि अब सभी व्यक्ति अपने उत्तरदायिस्वों को समझकर धरम, प्रान्त,
जाति आदि के भेद-भाव भूलकर राष्ट्र के गोरय की रक्षा करेंगे किन्तु पिछले बोस
वर्षों के अनुभव ने यह सिद्ध कर दिया है कि राष्ट्रीय एकता की समस्या अब पहले
से भी बहुत विकराल, उप्र व दीघ्र हो गयी है। केवल अपने क्षेत्र को विकसित करने
की भावना, भाषा के आधार पर नये राज्य स्थापित करवाने के राजनीतिक दवाव,
अपने पथ की प्रतिनिष्ठा पर जाधारित काये करने के विचार एवं साम्प्रदायिक
क्रियाओं ने देश की एकता पर गम्भीर आधात किया है। यहाँ हम इन्ही कारणों का'
विश्लेषण करके राष्ट्रीय एकता को समझने का प्रयास फरेयगे।
राष्ट्रीय एकता में वाधक कारक
प्रमुख रूप से चार कारकों मे देश की एकता पर आक्रमण किया है। पह
३ ुवाव्डाथाणय प३७ छट ठतद्वीयव्व॑ 35 ७ ए700053 (090 ॥00॥ ९३ ॥& (जा5४ए
0 पट छांगरप५॑ 3$ एछे] बड इथ्तथार्शो 5०एशीज ७जानराएच्ल लां0७ जा पंतासता।
309 $79-870095$ ६0 गया ३ >जग्राग्णा इ8०के भार 4. प्रगाताए॥। छह छा :
406पमिप्यंजा बाप ॥एजसटपराथय, 9
208 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
कारक हैं--क्षेत्रवाद, भाषाबाद, सम्प्रदायवाद और जातिवाद ) इन चारों का हम
अलग-अलग विवरण करेंगे ।
क्षेप्रवाद (८४०॥ कांच)
क्षेत्रवाद में दो प्रकार की भावनाएँ मिलती हैं--एक और यह उन राज्यों व
क्षेत्रों के असन्तोष, निराशाओ व अराजकता को अभिव्यक्त करता है जिसको अपने
आशिक, शैक्षणिक आदि विकास के लिए न्याययुक्त हिस्सा प्राप्त नहीं होता है; बूसरा,
यह उस प्रक्रिया को प्रकट करता है जिसमे कुछ प्रतिक्रियावादी अयवा विपटनकारी
थक्तियाँ देश के विशाल जमसमूह में प्रादेशिकता की भावनाझों की निरन्तरता पर
आधारित माँगों द्वारा फूट पैदा करने का प्रयास करती है। किसी भी फेडरल
(स्वायत्त सत्ताधारी राज्यों का संघ) संविधान में राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों एव
केन्द्र और राज्यो के मध्य सामजस्य सम्बन्धों की समस्या उत्पन्न होना स्वाभाविक
है। भारत में यह समस्या इस कारण भो विशेष रूप से उत्पन्न हुई है क्योकि यहाँ
राज्यों का निर्माण व संगठन भाषा के आधार पर हुआ है। स्वतन्त्रता के पश्चात्
यद्यपि यह निश्चित हुआ कि हमारी शासन-प्रणाली फेडरल प्रकार की रहेगी किन्तु
इकाइयो के गठन के लिए कोई निश्चित नियम व आधार निर्धारित नही फिये गये ।
केवल उस समय- विद्यमान प्रान्तों की सूची वनायी गयी | कुछ समय उपरान्त जब
भाया को फेडरल इकाइयों के संगठन् का आधार माना ग़या तब कुछ राज्यों का
पुनः संगठन किया गया । परन्तु क्योकि इसमे क्षेत्र में विमान, सस्कृति को महत्व
नहीं दिया गया है इस कारण बहुत से राज्यो में असन्तोष उत्पन्न आ, है । यह
असन्तोप ही अब बहुत से राज्यों के परस्पर सथर्य का कारण है।
फिर तीसरे आम् चुनावों तक केन्द्र और अधिकाश राज्यों मे एक ही राज-
नीतिक दल्न की प्रभाविता थी जिससे राज्यों ने केन्द्र सरकार की शक्ति व अधिकारों
को कभी चुनौती नहीं दी । परल्ठु "अब वहुत से राजनीतिक दलों के शक्ति मे आने
से तथा राज्यो द्वारा अपने साविधानिक अधिकारों पर,निष्ठायूबंक बल देने के कारण
केख और राज्यों के आपसी सधर्ष बढ गये है। इसके अतिरिक्त नये राजनीतिक दलों
के झक्ति में आने से राज्यों के वित्तीय सम्बन्धी पर भी आपत्ति उठायी जा रही है
एवं दोपारोप लगाये जा रहे है (- बहुत-से राज्य केन्द्र से प्राप्त आधिक सहायता की
राध्ति से सन्तुष्द नही है| वे अपने राज्य के विकास सम्बन्धी कार्यक्रमों के लिए केन्र
से अधिक वित्त प्रवन्ध की आशा व माँग करते है।
कुछ राज्य यह भी अनुभव करते है कि आथिक विकास के अरौद्योगिक
योजनाओं में उनका उपेक्षण किया जा रहा है। ब्रिटिश काल में औद्योगिक विकास को
क्रियाएँ वम्बई, कलकत्ता, मद्रास आदि कुछ चुने हुए बन्दरगाह के नेगरो तक ही
सीमित रही । आजादी के वाद यह सोचा जाने लगा कि उद्योगों के फैलाने का कार्य
देश के विभिन्न क्षेत्रो के विकास के लिए आवश्यक है तथा उद्योगों का स्थान निश्चित
'रना कच्चे माल के लम्यता, यातायात को सुविधाओं एवं क्रव-विक्रय के लिए
राष्ट्रीय एकता 209
उपलब्ध सुगमता पर निर्भर होना चाहिए और यथासम्भव उद्योग छोटे नगरो व
ग्रामीण क्षेत्र में स्थापित किये जाने चाहिए। यह शासन मीतियाँ भारत सरकार के
-6-अप्रैच 4948- झोर 30 अप्रेल 956 की औद्योगिक नीति रुम्बन्धी वक्तव्यों छे -
भी विदित होती है। दूसरी पंचवर्षीय योजना ने भी देश के विभिन्न क्षेत्रों में औद्योगिक
विकास सम्बन्धी सन्तुलन रखने हेतु उद्योगों के क्षेत्रीय वितरण पर बल दिया। परन्तु
957 तक की औद्योगिक परिस्थितियो से ज्ञात होता है कि केवल महाराष्ट्र और
बंगाल में ही औद्योगिक करमंचारियों की कुल संख्या का 57 प्रतिशत पाया जाता है
तथा इन दो राज्यो मे औद्योगिक एकाग्रता की ऊँची मात्रा मिलती है | इनकी तुलना
में उत्तर प्रदेश में केवल 0 प्रतिशत, तमिलनाडु में 9 प्रतिशत, विहार में 6 प्रतिशत
ओर अन्य राज्यों में 5 प्रतिशत से भी कम औद्योगिक कर्मचारी मिलते है ।*
इसी प्रकार कृपि क्षेत्र मे भी क्षेत्रीय विभेद मिलता है। जब 959-60 में
प्रत्येक व्यक्ति के पीछे उत्पादन राशि राजस्थान में 23.4 रुपये थी, केरल और
तमिलनाडु में यह् 45 रुपये थी, पंजाव में 67 रुपये, आन्श्रप्रदेश मे 75 रुपये,
महाराष्ट्र में 83 रुपये और आसाम, उत्तर प्रदेश व वगाल में ॥0 और 20 रुपये
के मध्य थी ।१ विजली के उपयोग में भी क्षेत्रीय विभेदीकरण मिलता है। 959-
60 में भारत में कुल प्रयोग की गयी बिजली में से 60 प्रतिशत केवल उत्तर प्रदेश
में प्रयुक्त की गयी थी ।* देश के विकास के लिए जो केन्द्र सरकार ने नये उद्योगों की
क्षेत्रीय योजनाएँ आरम्भ की हैं तथा हर राज्य में जो प्रत्येक व्यक्ति के पीछे पूँजी का
विनियोग मिलता है वह भी राज्यों के आथिक विकास में विपमता सिद्ध करता है।
7' राज्यों में 265:6 करोड़ रुपये की पूंजी पर आधारित कुल ] भोद्योगिक
इकाइयाँ आरम्भ की, गयी है जिनका वितरण पृष्ठ 270 पर अकित सारणी में
दिखाया गया है|
यह आँकड़े कुछ राज्यो को कम.और कुछ को अधिक महत्त्व मिलना बताते
हैं । सम्भवतः इसी कारण कुछ पृथक् राज्यों के निर्माण की माँग भी बढ़ती.जा रही
है। आन्प्रप्रदेश,में तेलगाना, महाराष्ट्र में विदर्भ, गुजरात मे डाग्र (02785) और
डूबला (0०995$) जनजातियों के लिए राज्य, उत्तरप्रदेश में कुमाऊँ, और देहरी-
गढ़वाल के पहाड़ी क्षेत्रों को मिलाकर अलग राज्य, उत्तर श्रदेश के कुछ क्षेत्र को पृथक
कर विद्याल हस्याना बनाने की अभियाचना, विहार, उड़ीसा और मध्य प्रदेश के कुछ
जनजाति जिलो को अलग कर भारखण्ड राज्य बनाने का दावा, तथा छतीसगढ
राज्यों की माँग आदि क्षेत्रीय स्तर पर बढ़ते हुए असन्तोष के लक्षण है। सम्मवत्ः
इसी कारणवश कुछ राजनीतिक दलो मे क्षेत्रीय विकास की भावना अधिक और
राष्ट्रीय हष्टिकोण कम मिलता है। कुछ शिक्षाशास्त्री भी इन छोटे राज्यों की स्वापना
3 ३9], 3. है, 2/7/छ्काड थी 'ैंक्रा7बों ग्ररद्धावा०॥, 6फत 4963, 75,
+ व, 77.
$ 45&४., 78.
8 उ7#6 3९+ 27 0:साां/थ, 4959.
208 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
कारक है--क्षेत्रचाद, भाषावाद, सम्प्रदायवाद और जातिवाद । इन चारों का हम
अलग-अलग विवरण करेंगे।
क्षेत्रवाद (९९४07थ5्या)
क्षेत्रवाद मे दो प्रकार की भावनाएँ मिलती हैं--एक ओर यह् उन राज्यों व
क्षेत्रो के असस्तोष, निराशाओं व अराजकता को अभिव्यक्त करता है जिनको अपने
आशिक, शैक्षणिक आदि विकास के लिए न्याययुक्त हिस्सा प्राप्त नही होता है; दूसरा,
यह उस प्रक्रिया को प्रकट करता है जिसमे कुछ प्रतिक्रियावादी अथवा विघटनकारी
शक्तियाँ देश के विशाल जनसमूह मे प्रादेशिकता की भावनाओं की निरल्तरता पर
आधारित माँगो द्वारा फूट पैदा करने का प्रयास करती है। किसी भी फेडरल
(स्वायत्त सत्ताधारी राज्यों का सघ) सविधान में राज्यो के पारस्परिक सम्बन्धों एव
केन्द्र और राज्यों के मध्य सामजस्य सम्बन्धों की समस्या उत्पन्न होना स्वाभाविक
है। भारत मे यह समस्या इस कारण,भी विशेष रूप से उत्न्न हुई है क्योकि यहाँ
राज्यों का निर्माण व संगठन भाषा के आधार पर हुआ है। स्वतन्त्रता के पश्चात्
यद्यपि यह निश्चित हुआ कि हमारी शासन-अ्णाली फेडरल प्रकार की रहेगी , किन्तु
इकाइयों के गठन के लिए कोई निश्चित नियम व आधार निर्धारित नहीं किये गये ।
केबल उस समय विद्यमान प्रान्तों की सूची वनायी गयी | कुछ समय उपरान्त जब
भाषा को फेडरल इकाइयों के सगठन् का आधार माना ग्रया तब कुछ राज़्यों का
पुनः संगठन किया गया । परन्तु क्योकि इसमे क्षेत्र में विद्यमान संस्कृति को महत्त्व
नही दिया गया है इस कारण बहुत से राज्यो में असन्तोष उत्तन्न जा है । यह
असन्तोष ही अब बहुत से राज्यो के परस्पर सघर्ष का कारण है।
,... फिर तीसरे आम् चुनावों तक केन्द्र और अधिकाश राज्यो मे एक ही रोजे-
नीतिक दल की प्रभाविता थी जिससे राज्यों ने केन्द्र सरकार की शक्ति व अधिकारों
को कभी चुनौती नहीं दी । परन्तु अब वहुत से राजनीतिक दलो के शक्ति मैं आने
से तथा राज्यो द्वारा अपने साविधानिक, अधिकारो पर निष्ठापूर्वक बल देने के कारण
केर्द्र और राज्यों के आपसी सघर्ष वढ गये हैं। इसके अतिरिक्त नये राजनीतिक दलों
के शक्ति में आते से राज्यों के वित्तीय सम्बन्धो पर भी आपत्ति उठायी जा रही है
एवं दोपारोप लगाये जा रहे है ) वहुत-से राज्य केन्द्र से प्राप्त आधिक सहायता की
राशि से सन्छुष्ट नही है । दे अपने राज्य के विकास सम्बन्धी कार्यक्रमों के लिए केर्द्र
से अधिक वित्त प्रवन्ध की आशा व॑ माँग करते है । पी मम
कुछ राज्य यह भी अनुभव करते है कि आथिक विकास के प्रौद्योगिक
योजनाझों में उनका उपेक्षण किया जा रहा है। ब्रिटिश काल में औद्योगिक विकास की
क्रियाएँ बम्बई, कलकत्ता, मद्रास आदि कुछ चुने हुए बन्दरगाह के नगरों तक ही
सोमित रही । आजादी के बाद यह सोचा जाने लगा कि उद्योगों के फंलाने का कार्य
देश के विभिन्न क्षेत्रो के विकास के लिए आवश्यक है तया उद्योगों का स्थान विश्वित
- 'रना कच्चे माल के सभ्यता, यातायात की सुविधाओं एवं क्रय-विक्रय के लिए
राष्ट्रीय एकता 209:
उपलब्ध सुग्रमता पर निर्भर होना चाहिए भोौर यथासम्भव उद्योग छोटे नगरो व
ग्रामीण क्षेत्र में स्थापित किये जाने चाहिए। यह घासन नीतियाँ भारत सरकार के
6 अप्रेंच 948 और 30 अप्रेल 956 की औद्योगिक नीति सम्बन्धी वक्तब्यों से: -
भी विदित होती हैं। दूसरी पंचवर्षीय योजना ने भी देश के विभि्ष क्षेत्रों में औद्योगिक
विकास सम्बन्धी सन्तुलन रखने हेतु उद्योगों के क्षेत्रीय वितरण पर बल दिया। परल्तु
]957 तक की औद्योगिक परिस्थितियों से ज्ञात होता है कि केवल महाराष्ट्र और
बगाल में ही औद्योगिक कर्मचारियों की कुल संख्या का 57 प्रतिशत पाया जाता है
तथा इन दो राज्यों में औद्योगिक एकाग्रता की ऊँची मात्रा मिलती है। इनकी तुलता
में उत्तर प्रदेश में केवल 0 प्रतिशत, तमिलनाडु में 9 प्रतिशत, बिहार में 6 प्रतिशत
और अन्य राज्यों में 5 प्रतिशत से भी कम औद्योगिक कर्मचारी मिलते हैं ॥*
इसी प्रकार कृषि क्षेत्र में भी क्षेत्रीय विभेद मिलता है। जब 959-60 में
प्रत्येक व्यक्ति के पीछे उत्पादन राशि राजस्थान में 23.4 रुपये थी, केरत्र'और
तमिलनादु में यह 45 रुपये थी, पंजाव में 67 रुपये, आन्भ्रप्रदेश में 75 रुपये,
महाराष्ट्र में 83 रुपये और आसाम, उत्तर प्रदेश व बंगाल में 0 और 20 रुपये
के मध्य थी ।१ विजली के उपयोग में भी क्षेत्रीय विभेदीकरण मिलता है। 959-
60 में भारत में कुल प्रयोग की गयी बिजली में से 60 प्रतिशत केवल उत्तर प्रदेश
मे प्रयुक्त की गयी थी-।$ देश के विकास के लिए जो केन्द्र सरकार ने नये उद्योगों की
क्षेत्रीय योजनाएँ आरम्भ की हैं तथा हर राज्य में जो प्रत्येक व्यक्ति के पीछे पूंजी का
विनियोग मिलता है बह भी राज्यों के आर्थिक विकास में विपमता सिद्ध करता हे ।
]7 राज्यों में 265*6 करोड़ रुपये की पूँजी पर आधारित कुल 3] औद्योगिक
इकाइयाँ आरम्भ की, गयी हैं जिनका वितरण पृष्ठ 270 पर अंकित ,सारणी में
दिखाया गया है ।£
यह आँकड़े कुछ राज्यों को कम और कुछ को अधिक महत्त्व मिलना बताते
है । सम्भवतः इसी. कारण कुछ पृथक् राज्यों के निर्माण. की माँग भी बढ़ती.जा रही
है। आन्भ्रप्रदेश-में तेलंगाना, महाराष्ट्र में विदर्भ, गुजरात मे डाग (0478$) और:
डुबला (2५98$) जनजातियों के लिए राज्य, उत्तरप्रदेश में कुमाऊं, और देहरी-
गढ़वाल के पहाड़ी क्षेत्रो को मिलाकर अलग राज्य, उत्तरे प्रदेश के कुछ क्षेत्र को पृथक्ः
कर विशाल हरयाना बनाने की अभियाचना, विहार, उड़ीसा और मध्य प्रदेश के कुछ
जनजाति जिलो को असग कर भारखण्ड राज्य बनाने का दावा, तथा छतीसगढ़
राज्यों की माँग बादि क्षेत्रीय स्तर पर बढ़ते हुए असन्तोष के लक्षण है। सम्भवतः
इसी कारणवद कुछ राजनीतिक दलो में क्षेत्रीय विकास की भावना अधिक और
राष्ट्रीय हष्टिकोण कम मिलता है । कुछ शिक्षाशास्त्री भी इन छोटे राज्यो की स्थापना
३ (20, 3. ,, 2#ठ0/शरड ० खेक्यांगदों गक्रटक्ा47०0, 097 963, 75,
न ह4., 77.
$ (64. 78.
5 7#& उ।दा४% २7 02०८८प7००:, 4969.
240 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
केन्ध द्वारा राज्यों में स्थापित श्रौद्योगिक इकाइयाँ तथा
प्रत्येक व्यक्ति के पीछे पूंजी का विनियोग .. _-
| के अनुसार ३ । द्वारा कुल | प्रत्येक व्यक्ति के
राज्य की इकाइयो की पूँजी का... पीछे पूँजी का
सटक जनसंख्या संख्या विनियोग विवियोग
(लाखों मे) (करोड़ो मे) (छपयो में) .
मध्य प्रदेश 3237 ऊ २४३ 58:2 , 460 08
बिहार 465-6 व0 4707 क्0.0 .
बंगाल उठ | 3 403 3 5:45
उड़ीसा व55 * पर 395 +थ35 097
तमिलनाडु. * 3369 9 १2360 7000
उत्तर प्रदेश 2375 ४ शो - 2567 | ०» वर्कर
महाराध्टू , 3955 8 " 924 ' 2304 5
गुजरात - 20653 82८ 778 या. -«
आमक्र प्रदेश , 359-8 « 8 - - 79 , २000 -
मैसूर 235-9 6 708 300
केरल 69 0 7 694 _- 40 89 *
अआसाम - प्रहच 4 53 दब.
पंजाब व , 2 3255 हे
हरियाना । 44 व कद 9859
राजस्थान 2056 6 (४५ 8-48
दिल्ली है 4:9 34 4]9 - 79-86
हिमाचल प्रदेश 3355 2 ऐ8॥ 42 59
योग 4306 8 | 265-6 ही
अ-++++++++++++++++++++____+++++/-/+++++/++/+++“ 7 का (३
में कोई घुराई. नही समभते । एम० एन० श्रीनिवास का विचार है कि यद्यपि छोटे
राज्य कुछ राजनीतिक दलो, क्षेत्रों और व्यक्तियो के हितो के विरुद्ध होंगे परन्तु यदि
इससे देश को लाभ होता है वो हमे इन्हे स्वीकार ही करना चाहिए ।
८. + राज्यों में विभेद के अतिरिक्त दक्षिण भारत और उत्तर भारत मे भी विषमता
मिलती है, यहाँ तक कि दक्षिण के लोगों में अब यहू भावना अधिक बढ़ेती दिखायी
देती है कि उत्तर के साथ पक्षपात हो रहा है और दक्षिण का उपेक्षण हो रहा है।
यही: कारण है कि मद्ास में द्रविड़ मुनेज कजगस (0. 0(. ३.) द्वारा क्षेत्रीय विष्ठाओं
पर-आधारित आन्दोलन बढ़ते जा रहे हैं। निकटवर्ती राज्यों के सीमा के झंगडे की
लेकर तथा नदियों के पानी का संयुक्त उपयोग करने के वाद-विवाद के कारण भी
3 ष्छ्तवदर ड90८5 कम ल्ण्प्परष्वा (0 पट ग/टा८5४(ड 66 50076 #प्ाावक धकलग
ब74 एवभंवेची$ 9पा पलक 2४800 98 ३०८८ए७७व ॥| फैल श० 49 प्९ प्राधक्कार 9
प॒त्रची 35 3 भऋगणर,?. वार्ड ग शरीक, चिं #ैणड्रफा, 7269.. - मच
राष्ट्रीय एकता 244
राज्यों के परस्पर सम्बन्धों पर प्रभाव पड़ा है। एक झोर कृष्णा और गोंदावरी
नदियों के पानी के उपयोग में भागी होने को लेकर राज्यों में विवाद चल रहे हैं तो
दुसरी ओर नमंदा नदी के प्रइन को लेकर ग्रुजय॒त, राजस्थान और मध्य प्रदेश में
विवाद, तथा भाखड़ा नागल को लेकर पंजाब और हस्याना में विदृद मिलता है ।
इसी प्रकार एक और महाराष्ट्र और कर्नाटक में सीमा सम्बन्धी विवाद मिलता है तो
दूसरी ओर पजाब और हरयाना मे । कुछ राज्य अपनी माँगों को वैध तरीके अपना
कर प्राप्त करने के स्थान पर जन-समूह आम्दोलन द्वारा केन्द्र सरकार पर राजनीतिक
दबाव डासकर प्राप्त करने का प्रयास करते है। राज्यों के इन परस्पर विवादों को
समाप्त करने तथा केन््द्र-राज्यों के सम्बन्धों में सामंजस्य बनाने के लिए प्रशासकीय
सुधार आयोग व सीतलवाद की अध्यक्षता में स्थापित किये गये अध्ययन दल ने
अन्तर्राज्य परिषद् स्थापित करने का सुझाव दिया है। यद्यपि दोनों इसकी संरचना
के बारे में सहमत नहीं हैं किन्तु दोनों का विचार है कि यह परिषद् राज्यों के विभिन्न
परस्पर संघर्पों को समाप्त करने में अवश्य सफल होगा ।
भाषाबाद (0807)
राष्ट्रीय एकता में जितनी क्षेत्रवाद की समस्या गम्भीर है उत्तनी ही भाषधिद
की समस्या भी खतरनाक है । भाषावाद का अथ है देश में पाये जाने वाले विभिन्न
भाषायी समूहों द्वारा अपने भाषायी-सास्कृतिक जीवन को सुरक्षित रखने एवं विकास
करने का प्रयास | भाषायी सघर्षों के विस्तार और वेलक्षण्य (५३7००८७७) का ज्ञान
हमें आसाम और वंगाल में भाषायी दंगों से, उत्तर प्रदेश और विहार में उर्दू को
राज्य की भाषा स्वीकार करने की माँग से, महाराष्ट्र मे शिव सेना द्वारा मराठी व
बोलने वालो के विरुद्ध आन्दोलन से, तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कजगम द्वारा हिन्दी:
लादने के विरुद्ध प्रदर्शनों से, नागालंण्ड विधान-सभा द्वारा अंग्रेजी को राज्यभाषा
बनाने के निर्णय से, तथा पंजाब में हिन्दी ओर पंजाबी को राज्य-भाषा व शिक्षा
का माध्यम बनाने के प्रदन को लेकर संघर्षों से होता है।
भारत में 25 से भी अधिक ऐसी विकसित भाषाये पायी जाती है जिनमे से
प्रत्येक भाषा पाँच लाख से भी अधिक व्यक्तियों द्वारा बोली जाती है। इनमें से फिर
कम से कम दस भाषायें ऐसी है जो एक करोड़ से भी अधिक लोग बोलते है। महू *
है : हिन्दी -+6*2 करोड़ और उर्दू -+2:8 करोड, तेलगू-+4*4 करोड, बंगाली 44
करोड़, मराठी-54"“2 करोड़, तमिल--+37 करोड़, गुजराती--*6 करोड़,
कन्नड़->*4 करोड़, मलयालम--"3 करोड़, और उड़ीया+5'3 करोड़। इस
प्रकार 4*3 करोड़ व्यक्ति 0 भाषाये बोलते हैं ॥ इसके अतिरिक्त लगभग 47
भाषायें ऐसी हैं जिनमें से प्रत्येक 0 लाख से भी अधिक व्यक्तियों द्वारा बोली जाती
है। उदाहरणार्थ मारवाड़ी, मेवारी, और जयपुरी भाषायें बोलने वालों की संख्या
क्रमश: 45*], 20"[ और !5-9 लाख है तथा सथालो, गोंडी ओर भीली भाषायें
बोलने बालों की संख्या क्रमशः 28-, 23:9 और 23-] लाख है । भाषाओं
22 सामाजिक समस्याएँ ओर सामाजिक परिवतेत
की भिक्षता के कारण एक ओर राज्यो के पुनः सगठन की समस्या उत्तप्न हो रही है”
तो दूसरी ओर क्षेत्रीय भापा को राज्य के प्रशासन के लिए अपनाने तथा उसे शिक्षा
का मध्यम बताने की समस्या का सामना करना पड़ रहा है। मुख्य रूप से इस
समय हमारे सामने इस सम्बन्ध में तीन समस्याएं हैं--(क) शिक्षा के माध्यम की
समस्या, (ख) संयोजक भाषा की समस्या, (ग) हस्त-लिपि की समस्या। इन तौनों
का हम अलग-अलग विवरण करेगे--
(।) शिक्षा का माध्यम (%(९वाणाय ० 7500०००)--सस्कृति बंशागत
मोग्यता नहीं अपितु सीखा हुआ व्यवहार होती है। इस आधार पर ताकिक रूप से
यह कहा जा सकता है कि किसी व्यक्ति को किसी विश्वेप भाषा के लिए न तो वशागत
प्रेम होता है और न वद्यागत घृणा ) यह प्रेम और घुणा समाज मे पाये जाने वाले
सामाजिक तत्त्वों के कारण उत्पन्न होते है। व्यक्ति को किसी भाषा के लिए आकर्षण
या विद्वेप इस कारण भी नही होता क्योकि उसे उस भाषा से कुछ लेया-देता नही
होता । परन्तु यदि किसी भाषा का अल्प व अपर्याप्त ज्ञान उसके विकास व उन्नति
में वाधायें पहुँचाता है तो उसे उस भाषा से ही बेर हो जाता है। यह प्रवृत्ति न कैवल
व्यक्तिगत स्तर पर पायी जाती है परन्तु सामूहिक स्तर पर भी मिलती है।
दुसरी बात जो शिक्षा के माध्यम में महत्त्वपूर्ण है वह यह कि ऊंची शिक्षा
का उद्देश्य विशेष व्यवसाय व पेश सिखाना तथा वंज्ञानिक अनुसन्धान सम्भव बनाना
है अन्ततः ऊँची शिक्षा भे मात्रात्मक तत्त्व पर नही अपितु गरुणात्मक तत्त्व पर बल
दिया जाता है ।
वास्तव मे शिक्षा में अग्रेजी.को हटाकर क्षेत्रीय भाषा को माध्यम बनाने की
माँग दुसरे महायुद्ध के उपरान्त उत्पन्न हुई | परन्तु मुख्य बात तो यह है कि यह माँग
> शैक्षणिक और वैज्ञानिक विचार के कारण नही किन्तु राजनीतिक कारणो से उत्पन्न
हुई थी । यह राजनीतिक अभियाचना अब भी प्रवल है | वर्तमान स्थिति यह हैं कि
लगभग सभी उत्तरी राज्यो में क्षेत्रीय भाषा को हाई स्कूल स्तर तक शिक्षा का माध्यम
बवाथा गया है और स्वातकोत्तर स्तर पर अंग्रेजी ही माध्यम है, यद्यपि शर्नें: शनः इस
स्तर पर भी क्षेत्रीय भाषा को अपनाने की माँग बढती जा रही है। प्रमुख प्रश्न
क्योकि हाईस्कूल स्तर पर नही किन्तु . विश्वविद्यालय स्तर पर माध्यम का हैं इस
कारण इसी स्तर पर हम शिक्षा के माध्यम का विश्लेषण करेंगे |
स्वातकोत्तर स्वर पर छात्रो को दी जाने वाली शिक्षा का प्रमुख ध्येय उनको
समाज में प्रत्याशित (०४॥०००४००) भूमिकाओ के लिए प्रशिक्षण देना है जिसके लिए
फिर व्याप्त सम्पर्कों की आवश्यकता होती है। उस क्षेत्रीय भाषा मे उन्हें यह शिक्षा
देना जो केवल एक ही क्षेत्र तक सीमित है और जिसमे अच्छे और विश्ुद्ध पुस्तक भी
उपलब्ध नहीं है विद्याथियों के हितो के विरुद्ध है । जेब तक हम किसी ऐसी भाषा को
(चाहे यह हिन्दी हो या कोई अन्य) विकसित न करे जी इस सक्ष्य के लिए उपयुक्त
ही, हमे अंग्रेजी को ही शिक्षा का माध्यम रखना होगा । परन्तु यह भी आवश्यक नही
हैं. किःहम सभी विश्वविद्यालयों में ही अंग्रेजी को. माध्यम अपनाये । यदि बडे विदव-
राष्ट्रीय एकत्ता ग 23
विद्यालयों में भी अग्रेजी को माध्यम बनाया जाये तो भी हमारे उद्देश्यों की पूत्ति हो
सकती है। परन्तु क्योकि स्नातकोत्तर स्तर पर एकाएक विद्यार्थी को अग्रेजी का
पर्याप्त ज्ञान प्रदान नहीं किया जा सकता इस कारण आवद्यक है कि छात्र' छोटी
कक्षाओं में ही अग्रेजी सीखना आरम्भ करे । लेकिन इसके साथ हमें यह भी मानकर
चलना होगा कि उच्चतर शिक्षा हर विद्यार्थी को देना आवश्यक नही है और हमें हाई
स्कूल के उपरान्त चयन ($०९८४०॥) करना ही होगा जिससे हमारा शिक्षा के गुणा-
त्मक पहलू पर नियन्त्रण रह सके ।
अग्रेजी के विरुद्ध जो प्रमुख तक दिया जाता है वह यह है कि यह भाषा एक
नया 'साहबों' का वर्ग उत्पन्न करती है जो जनता और तत्ताधिकारियो के मध्य एकी-
करण की प्रक्रिया में बाधक है। लेकिन यह तक सही नही है क्योकि भापा का माध्यम
'साहवी भावना' पैदा नही करता किन्तु ऊँची शिक्षा व विशिष्ट प्रशिक्षण ही यह
भावना उत्पन्न करता है। फिर उच्चतर शिक्षा देऊर यह सत्ताधिकारी समूह बनाने में
हानि भी क्या है ? किसी भी समाज की प्रगति के लिए श्रेणीवद्ध व्यवस्था आवद्यक
हो होती है। यदि केवल भाषा ही असमानता, विपमता, विभेदन या जनता और
सत्ताधिकारियों के वीच जसमाकलन का कारण होती तो जिन देशो में हमे एक ही
भाषा मिलती है वहाँ स्तरण ($09॥0900॥) व्यवस्था न मिलती । इस आधार
पर हम कह सकते है कि यह विचार कि उच्चतर शिक्षा में क्षेत्रीय भाषा अपनाने से
एकीकरण प्रक्रिया आसान हो जायेगी सही नहीं है।
बड़े विश्वविद्यालयों के अलावा अन्य विश्वविद्यालयों मे तथा हाईस्कूल स्तर पर
क्षेत्रीय भाषा अपनाने से हमे नई पाठ्य-पुस्तको और सहायक (:४(८०००) पुस्तको
पर अधिक बल देना होगा । ज्ञान को अनुवाद किये हुए पुस्तकों द्वारा नही किन्तु नये
लेखनों द्वारा ही विकसित किया जा सकता है। प्रत्येक भाषा मे हर शब्द का अपना
ही अर्थ होता है जिसे अन्य भाषा में अनुवाद करने से कभी-कभी वह शब्द अवर्णनीय
(770/(97०5$४७) हो जाता है। इस कारण क्षेत्रीय भापा को एकीकरण प्रक्रिया के
लिए शिक्षा का माध्यम बताने से हमें लेखनों मे नवीन निर्माण पर वल देना होगा ।
(2) संयोजक भाषा (7/॥: 7.3780928०)--सयोजक भाषा की आवश्यकता
इैक्षणिक संस्थाओं में शिक्षा के माध्यम के लिए नही किन्तु विभिन्न राज्यों के परस्पर
सम्पर्क तथा केन्द्र और राज्यों के मध्य सम्पर्क के लिए आवश्यक है। दुसरे शब्दों मे,
इसकी आवश्यकता राज्यो के परस्पर सघपों को कम करने एवं राजनीतिक एकीकरण
के लिए है। भारतीय सरकार द्वारा अभी तक किसी एक राष्ट्रीय भाषा की प्रकृति
और मानक (४2709) परिभाषित न कर सकने के कारण देश की जनसस्या के
विभिन्न अनुभागों में संयोजक भाषा संघपं और मतभेद का कारण वन गयी है। दैसे
सरकार की घोषित नीति के अनुसार हिन्दी को संयोजक भाषा के लिए इस समय
उपयुक्त माना जा रहा है क्योकि यह भाषा उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरयाणा, बिहार
और मध्य प्रदेश राज्यों के अलावा अन्य कुछ राज्यों में भी काफी सीमा तक बोली
जाती है। 23
2(4 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
कुछ व्यक्तियों का विचार है कि सामान्य व सयोजक भाषा की पूरे देश के
लिए आवश्यकता ही नही है । दें शूगोस्लाविया और स्विद्जरलैण्ड के उदाहरण देते हैं
जहाँ पर चार भाषाये पायी जाती है परन्तु कोई संयोजक भापा नही है। इन देशों मे
प्राथमिक स्तर पर बच्चों की पढ़ाने के लिए शिक्षा का माध्यम उनकी भातृ-भाषा
होती है जबकि माध्यमिक स्तर पर हर वच्चे को एक अतिरिक्त भाषा सीखनी
होती है। यह अतिरिक्त भाषा उनकी राष्ट्रभाषा नहीं होती परन्तु कोई विदेशी भाषा
होतो है। इस आधार पर इन विद्वानो का विचार है कि भाषा सम्बन्धी वाहुलय राज-
नीतिक एकीकरण में बाधक नहीं है अपितु किसी भाषायी समूह की सदस्यता के
कारण सामाजिक गतिशीलता का रुक जाना ही एकीकरण में मुख्य वाधक है । यदि
हम भारतीय परिस्थिति को देखे तो हमे मिलेगा कि हमारे देश मे आन्तरिके प्रवसन
(प्रांहा॥४००) बहुत कम है और जो लोग प्रवास करते हैं (जैसे औद्योगिक श्रमिक,
सैनिकों में निम्ने स्तर के पदाधिकारी आदि) उनमें से अधिकाश नये स्थान की भाषा
को आसानी से सीख लेते है तथा भाषा उनके लिए कोई समायोजन की समस्या
उत्पन्न नहीं करती । 2६२ हु के
इसी प्रकार इत विचारकों का मत है कि सयोजक भाषा राष्ट्रीय स्तर
पर विद्वामों के बौद्धिक विचारों के आदान-प्रदात में मी इस कारण आवश्यक नहीं
होगी क्योकि बढ़े विश्वविथालयों में उच्चतर शिक्षा के लिए अग्रेजी ही शिक्षा का
माध्यम होगी जिससे हर क्षेत्र मे से इन विश्वविद्यालयों के लिए अध्यापकों और छात्रों
का पर्याप्त प्रिचालित समुह उपलब्ध होगा | यहाँ अग्रेजी भाषा जो बोढ्धिक स्तर
पर विचारो का आदात-प्रदान सम्भव फरेगी केवल राष्ट्रीय स्तर पर सीमित नहीं
होगी क्योंकि यह तो अन्तर्राप्ट्रीय व्यवहार की भाषा है। इस प्रकार उपयुक्त विद्वादु
अग्रेजी भाषा कौ राष्ट्रीय एकता के विकास के लिए. नही अपितु आदान-म्रदावे
(९०००७४४००(४०४) के सामान्य साध्यम के लिए सभूचित करते हैं ।
यद्यपि उपर्युक्त विचारों में छुछ तर्क मिलता है परन्तु फिर भी हमे मह मानना
होगा कि अग्रेजो हमारे देश में आपसी विचार-विनिमय के लिए इस कारण नहीं
अपनायी जा सकती क्योकि हमें केवल विद्वानों के विचारों के आदान-अ्रदान को द्दी
नही देखना है परन्तु अन्तरराज्यिक स्तर पर जबता के परस्पर सम्पर्क वो भी ध्यान
में रखना है । इस समय उपलब्ध भाषाओं में से केवल हिन्दी एवं उदूं तथा हिन्दुस्तानी
ही ऐसी भाषा है जो 8 में से 9 राज्यों में अधिक बोली जाती हैं । विभिप्न राज्यों मे
हिन्दी, उदू बोलने वाले व्यक्तियों की संख्या से ज्ञात होता है कि उत्तर प्रदेश मे इनकी
-सख्या राज्य की कुछ जनसंख्या को 96:09 प्रतिशत है, मध्य प्रदेश में 80:36 अतिशत,
राजस्थान में 55-85 प्रतिशत, विहारमें 53:25 प्रतिशत, हिमाचल प्रदेश में !0:63
प्रतिशत, महाराष्ट्र में 0 प्रतिशत, कर्तादक में 8:63 प्रतिश्मत, बंगाल में 778 अतिशवत,
गुजरात मे 2:88 प्रतिशत, तथा दिल्ली में 83:4 प्रतिद्यत 7?
3 कह ड968, २7 5670श॥००० )969,
शष्ट्रीय एकता ; | # > डर
इस प्रकार देश की जनसंख्या का अधिकाश भाग हिन्दी-बोलता है। दुत्तरी
ओर यदि हम यह भी मान लें कि हाईस्कूल और उसके ऊपर पढ़े लोग अंग्रेजी बोल
और समझ सकते हैं (जबकि हमें यह भली-भाँति ज्ञात है कि आज के स्नातकोत्तर
स्तर के विद्यार्थी भी सही अंग्रेजी नही वोल पाते) तव देश के कुल जनसंख्या की बहुत
छोटी मात्रा ही इस भाषायी समूह में आती है। इससे स्पष्ट है कि अंग्रेजी को-किसी
प्रकार भी परस्पर सम्पर्क के लिए संयोजक भाषा नहीं अपनाया जा सकता । वर्तमान
परिस्थिति में इसके लिए केवल हिन्दी (व हिन्दुस्तानी) ही उपयुक्त भाषा दिखाई
देती है ।
(3) हृस्तलिपि (5०777)--भाषा की समस्या में तीसरा प्रश्व हस्तलिपि का
है । क्या भारत में पायी जाने वाली 4-व5 प्रमुख भाषाओं की कोई सामान्य हस्त-
लिपि हो सकती है ? यदि हाँ, तो यह क्या होगी ? अपनी मातृभाषा के अलावा अन्य
किसी भाषा को बोलने के लिए सीखना तो बहुत आसान होता है परन्तु उसे लिखना
एवं पढ़ना इतना आसान नहीं होता । यह कठिनाई हस्तलिपि के कारण ही मिलती
है । इस कारण यह मान्रा जाता है कि सभी भाषाओं के लिए सामान्य हस्तलिपि
दूंढ़ना राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न करने मे सहायक् हो सकता है।
प्रश्न है कि यह सामान्य हस्तलिपि क्या हो सकती है ? कुछ लोग इसके लिए
रोमन हस्तलिपि के पक्ष में हैं तो कुछ देवनागरी के पक्ष में तक देते है। रोमन हस्त-
लिपि के पक्ष वालो का विचार है कि यह अब भी रेलवे, डाक व॑ तार विभाग,
सिनेमाओं, सेना आदि में प्रयोग हो रही है और इसमें किसी को कोई कठिनाई अनुभव
नहीं होती वो क्यो न इसे ही सभी भाषाओ के लिए प्रयोग किया जाये ? इससे एक
यह भी लाभ द्वोगा कि इस हस्तलिपि के विरुद्ध किसी को कोई ग्रम्भीर पूर्वाग्नह
(?/थं०१:००) भी नही है जैसा कि विभिन्न क्षेत्रों मे देवनागरी हस्तलिपि के लिए
पाया जाता है, विशेषकर अहिन्दी भाषायी क्षेत्रों में । दूसरा लाभ इससे यह होगा कि
अग्रेजी के बहुत से शब्दों को भी हम अपनी भाषा में मिला सकते है, विशेषकर उन
वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दों को जो इस समय जनसाधारण के लिए प्रतिदिन की
बोन्नी जाने वाली भाषा का अंग बने हुए हैं। दूसरी ओर हिन्दी भाषा न केवल इन
मान्यता प्राप्त शब्दों का विरोध करती है परन्तु इसने बहुत से अवोध्य व अस्पप्ट
इब्दो का भी अपदिप्काएर किया है जो कभी भी जनता के लिए बोलने वाले रब्दकोए
का अंग नही बने सकते ।
देवनागरी हस्तलिपि के पक्ष मे फिर यह कहा जाता है कि यह बहुत पुरानी
तथा आसानी से समभने वालो हस्तलिपि है, क्योकि रोमन हस्तेलिपि के विरुद्ध
भारतीय घ्वनियों (307॥05) का अधिक से अधिक आवरण करती है । उदाहरणाबं,
अग्रजी मे 'ए! अक्षर का उच्चारण 'आ भी होता है तो थे भी, 'ओ का 'आ भी
ओर 'ओ' भी, 'बु' का उच्चारण अ' भी ओर 'ऊ' भो इत्यादि । परन्तु इस प्रकार
की कठिनाई देवनागरी हस्तलिपि में नहीं मिलती | यही कारण है कि केशव घरद्व
सेन (880), तिचक (905), गराधी (930) जादि ने तथा विभिन्न... *
-26 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
समितियों जैसे विश्वविद्यालय स्तर पर शिक्षा के माध्यम से सम्बन्धित 948 की
ताराचन्द कमेंटी ने, 7956 की राज्य भाषा परिषद् ने एव 962 की भावनात्मक
एकीकरण कमेटी ने इसी देवनागरी हस्तलिपि को अपनाने के सुझाव दिये हैं ।
उपर्यूक्त रोमन और देवनागरी लिपि के पक्ष और विपक्ष के मतो के आधार
पर यही कहा जा सकता है कि हस्तलिपि का प्रश्न मावनाओं के आधार पर नहीं
किन्तु तर्क और उपयोगिता के आधार पर ही हल करना होगा |
सम्प्रदायवाद ((०॥रणणाओऔंआ))
क्षेत्रवबाद और भाषाबाद के बाद तीसरा कारक जो राष्ट्रीय एकता में बाधक
मिलता है वह है साम्प्रदायिकता ।-सम्प्रदायवाद घामिक समुदायों में भेद, कलह व
विवाद बताता है। यह कलह यद्यपि भारत में हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों में अधिक
मिलती है परन्तु इसके अतिरिक्त हिंदू-सिक््ख, हिन्दू-इसाई एवं मुस्लिम-ईसाई धामिक
समुदायों में भी दिखायी देती है | यहाँ हम भारत मे राष्ट्रीय एकता की हृष्टि से केवल
हिन्दू-मुस्लिम सम्प्रदायवाद का ही विश्लेपण करेंगे। एक अधिक उपार्जत करने की
लालसा बाला समाज अपने सदस्यों को सामूहिक हिंसा के लिए अप्रत्यक्ष प्रेरणा देता
है क्योकि इसमे सदेव आर्थिक लाभ से सम्बन्धित सत्ता प्राप्त करने के लक्ष्य जुड़े हुए
होते हैं। ऐसे वातावरण में स्थिति को निश्चित करने वाला श्रमुख तत्व घन व
सम्पत्ति होता है। इस कारण प्रत्येक समूह आथिक साधनों पर अधिकार प्राप्त करने
“का अधिक से अधिक प्रयास करता है। इससे फिर श्रमिको का आर्थिक शोपण वढता
जाता है तथा उपेक्षित 'और बंचित वर्गों मे असुरक्षा, व्याकुलता व अश्यान्ति की
भावना रहती है। सामन्तशाही विचारों वाले व्यक्ति (०70०॥55) अपने व्यक्तिगत
स्वार्थों के लिए इस परिस्थिति का लाभ उठाते है और द्वेष व घृणा की ' भाववाएँ
उकसाने के लिए पधमम को आधार बनाते है । यही परिस्थिति हमे जव॑लयुर, याची,
मेरठ, कलकत्ता और करीमरगंज व भिवाडी के साम्प्रदायिक दगो में मिलती है । इन
सभी दंगों का समाजशास्त्रीय विश्लेषण निम्नलिखित तथ्य स्पप्ट करता है---
(१3) शक्ति और घन के भूखे सामस्तझाही प्रतिक्रियावादी व्यक्ति ही राज-
नीतिक क्षेत्र मे घृणा, ईरपप्या, सन्देह, भय, अंसुरक्षा आदि उत्पन्न करते हैं जो फिर
* साम्प्रदायिक हिसा को श्रोत्साहित करते है ।
(2) सम्प्रदायवाद की भावना सकीणे धर्म-निष्ठा के कारण उत्पन्न होती है ।
(3) साम्प्रदायिक दगों में सबसे अधिक हानि सरल साधारण व्यक्ति को
होती है जिसे वास्तव मे अन्य धामिक समूहो के सदस्यों से किसी अकार का सय वहीं
होता । ऐसे निरपराघ व्यक्ति उन नेवाओं का आसानी से शिकार देन जाते हैँ
जो अपने सकुचित स्वार्थों की पूर्ति के लिए उन्हे जन-हिंसा के लिए उकसाते हैं ।
(4) संस्थागत साम्प्रदायिक संगठन और अपकारक (एायंलं१०४) घार्मिक
नेता जो सत्ताधिकारी समूहों के अधीन होते हैं, जनसाधारण मे विपैला सम्प्रदायवाद
फैलाने के साधन होते है । |
राष्ट्रीय एकता 247
.... (5) कुछ रूढ़िवादी विचार, अफवाह और प्रचार जैसी सामाजिक व वैज्ञानिक
प्रक्रियाएँ भी साम्प्रदायिक मनोविक्षिप्त (05/०7०अं$) की आग को भडकाती हैं ।
ह (6) सरकारी अधिकारियों की उदासीन अभिवृत्ति और उनका समुदायों के
अमीर वर्ग के साथ अन्दर-अन्दर से समर्यन करने (००्रांश्श्ा००) के कारण आना-
कानी के तरीके भी साम्प्रदायिक संकट उत्पन्न करते हैं।
पिछले कुछ वर्षों के साम्प्रदायिक दगो से यह भी ज्ञात होता है कि साम्प्र-
दायिक असामंजस्यथ (०ींशाक्षागा०7५) के कारण विखण्डन (9शथोपांडथा०१) की
भावनाओं को भी प्रेरणा मिलती है। अल्पसख्यक समूह क्षेत्रीय पृथक्केरण माँगते है
जो राष्ट्रीय एकीकरण में निश्चित रूप से घातक होता है ।
है साम्प्रदायिक असामेजस्थ व हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों मे मुसलमानों की धर्मे-
विरोधी भावनाओं को भी तुच्छ नही समझा जा सकता । यह सही है कि हर समुदाय
मे धामिक विरोधी भावनाओं के कारण पृथक्त्व के विचार मिलते है परन्तु मह
विचार भारतीय ' मुसलमानों में कुछ अधिक मात्रा में ही पाये जाते है। 857
के स्वतस्वता आन्दोलन से लेकर अग्रेजो द्वारा मुसलमानों में साम्प्रदायिक उत्तेजनाओं
को भड़काने वाली तीति ने मुसलमानों और हिन्दुओं के बीच पूर्वाग्रह व प्रतिकूल
धारणाएँ उत्पन्न की हुई है। वहावी आन्दोलन द्वारा प्रचार किये गये धार्मिक
असहिष्णुता के बिचारो ने भी मुसलमानों के प्रथक्करण की भावना को उकसाया था।
इस भावना को फिर अलीगढ़ आन्दोलन के आधुनिक विचारों वाले नेताओं ने प्रयोग
किया और मुसलमानों को कांग्रेस के सदस्य बनने से रोका | 930 तक मुसलमान
अग्रेजों के पक्ष मे रहे परन्तु 930 के असहयोग आन्दौलन की असफलता व खिलाफत
आन्दोलन से साम्प्रदायिक संधर्पों को जन्म दिया । इसी समय जमात इस्लाम व
तवलीगी जमात (प०0॥8 72ग247) आन्दोलन भी आरम्भ हुए जिन्होने मुस्लिम
समुदाय को संगठित करने का प्रयास क्रिया। दोनो आन्दोलनो के लक्ष्य यद्यपि भिन्न-भिन्न
-ये परन्तु लौकिक राजनीति के प्रति तिरस्कार व घू्णा इनका सामान्य लक्षण था। ]940
* के बाद पाकिस्तान की माँग ने हिन्दुओ और मुसलमानों में और दरार पैदा कर दी।
देश के विभाजन के बाद लगभग सभी मुस्लिम लीगी नेता पाकिस्तान चले गये और
भारत में रह गये चार करोड़ मुसलमानों का नेतृत्व मिथ्यावादी, विश्वासहीन व
पराज्यकारी व्यक्तियों के हाथ मे आया। इन मध्य बर्ग के सघु नेताओं में स्वयं के
स्वार्थों के अलावा रूढ़िवाद एवं धर्म-परायणता भी अधिक मिलती है। 95] में
जमात-ए-इस्लामी आन्दोलन ने मुसलमानों को आम चुनावों का बहिप्कार करने का
आदेश दिया । 956 के बाद और विश्येपकर 965 के पाकिस्तान के झाक्मण के
उपरान्त फिर कुछ हिन्दुओं के घामिक जागृति सम्बन्धी नीतियो के कारण भारतीय
“ मुसलमानों की अभिवृत्तियाँ और बदल गयी हैं ।* यही परिवर्ततीय विचार हिन्दू
मुस्लिम दंगो के लिए उत्तरदायी है। साधारण मुसलमानों में परम्परागत इस्लाम के
प्रति भावनात्मक उत्तरदायित्व की घारणाओं को शक्तिश्वाली बनाने वाले आन्दोलन
ने मुस्लिम समुदाय को संगठित किया है एवं प्रबल बनाया है। इस समठन ने फिर
शप्ट्रीय एकता 29
पाया जाता है ।* उदाहरण के लिए राज्य और जिला-स्तर पर, राजनीति पर बहस
करने में कोई अर्थ नहीं होगा यदि हम महाराष्ट्र मे मराठा, ब्राह्मण और भमहर के
बीच, भुजरात में वनिया, पट्टीदार और कोली के मध्य, उत्तर प्रदेश में जाट, वतिया
और कायस्थ के बीच, आन्ध्र प्रदेश मे रेड्डी और कामा के मध्य, विहार में भूमिहर
और क्षेत्रियों के बीच, और राजस्थान मे राजपूत और जाट के बीच संघर्ष और पति-
द्वन्द्रिता को ध्यान में ने रखें । के० एम० पणिक्कर का भी कहता है कि इस समय
भारत में जो सामाजिक संरचना पायी जाती है वह अपनाये गये वर्तमान सामाजिक
मूल्यों के विरुद्ध है। जो सभाज वंश्ञागत जातियो के सन्दर्भ में कार्य करेगा, जो
अस्पृश्यता णैसीः कुप्रथाओं की प्रेरणा देगा वह इस युग मे जीवित नहीं रह सकता ।९
. वास्तविकता यह है कि आजादी के बाद लोगों की प्रत्याघाएँ बढ़ गयी हैं।।
248 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
मुसलमानों को अपनी सामाजिक और राजनीतिक सस्थाजओं को आधुनिक बनाने के
प्रयत्तो के विदद्ध वेरी (70५४५) बनवाया है। वर्तमान हिन्दू सरकार द्वारा उनके
सुधार लाते के प्रयासों को वे ,(मुस्लिस) धामिक स्वतन्त्रता में हस्तक्षेप समझते है ।
अपनी इन्ही सुधार-विरोधक धारणाओं के कारण भारत के मुसलमान यहाँ को आधिक
व सामाजिक वास्तविकताओं से अधिक विरक्त (2॥०॥०८४]) होते जा रहे है तथा एक
समुदाय के रूप में वे धामिक अधिक और साहसी व उद्योगी कम बनते जा रहे हैं।
उनका यही इृष्टिकोण, उपक्रम (0889०) का अभाव तथा पृथवकरण की भावना
उनके देश के राजनीतिक क्षेत्र में अप्रभावशाली व निरर्थंक बनने का भी कारण है।
इसको फिर वे अधिक संख्या, वाले समुदाय द्वारा विभेदन (08०प्राणाक्षा०्ा) और
अभिनति (०४99) मानते है । इसी विभेदन व भेद-भाव की, धारणाओं को फिर उनके
स्वार्थी नेता उसमे हिन्दुओं के विरुद्ध घृणा उत्तन्न. करने में प्रयोग करते है। दूसरी
ओर अलगाव (शांव्यकव०0) के कारण उत्पन्न हुए उनके आधिक, राजनीतिक व
सामाजिक पिछड़ापन को लेकर कुछ हिन्दू उनको कूर, निष्ठुर, निर्देयी, अत्याचारी
आदि के रूप में प्रस्तुत करते है। मुसलमानों और हिन्दुओ में यह परस्पर विरोधी
पूर्वाग्रह और शत्रुता-प्रद्शंक विचार ही देश की सुरक्षा पर आक्रमण करते है एवं
राष्ट्रीय व भावनात्मक एकता का नाद करते हैं । * 4
जातिवाद (८४४९४०) श
राष्ट्रीय एकता मे चौथा बाधक जातिवाद है। एक भाषायी क्षेत्र से वियम-
स्तरीय (एथाधं०॥) एकता पायी जाती है जो यहाँ रहने वाले ब्राह्मण से लेकर
अस्पृश्य तक संभी जातियो में मिलती है; दूसरी ओर जातिवाद वह समस्तरीय
(४०४ं2०7/4)) एकता है जो भाषायी क्षेत्र को टुकड़ों में बाँदती है। जातिवाद
एक वह प्रक्रिया है जिसमे जाति-पृथकत्व का- तत्त्व राजनीतिक जीवन में पाया
जाता है। संसदीय प्रजातस्त्रवाद पर आधारित राजनीतिक व्यवस्था में जातिवाद
की भावना सामूहिक तनिप्ठा को उत्पन्न करमे के कारण वहुत ही हानिकारक है।
यद्यपि जाति प्रथा सरचतात्मक रूप से बदलती जा रही है परन्तु एक व्यवस्था के रूप
में यह अब भी हमारी सामाजिक और राजनीतिक आचारतत्व (०४०5) का अंग बनीं
हुई है। इसे आधुनिक लोकतान्त्रिक राज्य.की आवश्यकताओं के अनुसार समायोजन
करने व अनुकूल बनाने के जभाष में जातिवाद की भावगा और गक्तिशाली बने गयी
है। एम० एन० श्रीनिवास का भी कहना है कि जातिवाद एक राजनीतिक शक्ति बन
गया है और दाक्ति-प्राप्ति के सघर्प में एवं प्रतिनिधि सस्थाओं के प्रकार्य में यह एक
महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहा है। मतदान-सम्वन्धी व्यवहार, विधान-स्म्बन्धी कार्यक्रम में
और यह तक कि यज्य मन्त्रियों की तियुक्तियों मे भी जातिवाद एक भ्रमुज तत्त्व
5ड्5वघ का, 0४... टक्कर छ अाम्खहत फिबोंग, सब, रिएशीआंएड सश्णल
8०749, 962, 98, कं |;
राष्ट्रीय एकता 249
पाया जाता है ।* उदाहरण के लिए राज्य और जिला-स्तर पर, राजनीति पर बहस
करने में कोई अर्थ नही होगा यदि हम महाराष्ट्र मे मराठा, ब्राह्मण और महर के
बीच, गुजरात में बनिया, पट्टीदार और कोली के मध्य, उत्तर प्रदेश मे जाट, वनिया
और कायस्थ के बीच, आमन्प्न प्रदेश में रेड्डी और कामा के मध्य, बिहार में भूमिहर
और क्षत्रियों के वीच, और राजस्थान में राजपूत और जाट के बीच संघर्ष और प्रति-
इन्द्िता को ध्यान में न रखे । के० एम० पणिक्कर का भी कहना है कि इस समय
भारत में जो सामाजिक संरचना पायी जाती है वह अपनाये गये वर्तमान सामाजिक
मूल्यों के घिरुद्ध है। जो समाज बंशागत जातियो के सन्दर्भ मे कार्य करेगा, जो
अस्पृश्यता जैसी कुप्रथाओ की प्रेरणा देगा वह इस युग मे जीवित नही रह सकता ।*?
वास्तविकता यह है कि आजादी के बाद लोगो की प्रत्याद्याएँ बढ गयी है।
वे अधिक से अधिक सासारिक व लौकिक वस्तुओं की मॉँग करते हैं और लोकतस्त्र में
अपने अधिकारों और शरक्ति के लिए जागरुक हो गये हैं। जो लोग इनको व्यक्तिगत
रूप से प्राप्त नही कर पाते उनमे सामूहिक आधार पर मिलकर अपनी शिकायतों को
दूर करवाने की भावना वढ़ जाती है। इस समय सामूहिक कार्य केवल जाति-स्तर
पर ही सम्भव है क्योकि यही एक ऐसा समूह है जो अधिक संगठित है। इससे फिर
जातिवाद की भावना बढ़ती है। यही कारण है कि जातिवाद सामाजिक शक्ति से
राजनीतिक शक्ति में परिवर्तित हो गया है । निम्न जातियों मे यह जातिवाद की
भावना अधिक तीक़ मिलती है क्योकि इसी आधार पर वे अपनी पुरानी अधीन स्थिति
को एवं अपनी जाति के एकाधिकार को समाप्त करने का साधन समभते हैं । रालफ
निकोलस मे भी 96 में किये गये बंगाल के दो गाँवों के अध्ययन में इसी जातीय
राजनीति का उल्लेख किया है और बताया है कि किस प्रकार जातिवाद गांवों में
गुट स्थापित करता है जो एकीकरण का नाश करता है ।!
राष्ट्रीय एकता प्राप्ति के उपाय
देश में जातिवाद, क्षेत्रबाद आदि भावनाओं को समाप्त करने एवं भावनात्मक
ब राष्ट्रीय एकता प्राप्त करने हेतु भारत सरकार ने कुछ कानूनी उपाय अपनाये: है
१ ५(४६(८ाडप ॥85 9९९0९ & 900८३) 0708 ॥॥0 ३5 0978 8 साएए॥। 708 ॥॥
> पा चिए्यंग्रागड् ० 7६ए65६ए/क४० 40005 बाएं ॥0 [6 धधाप्28॥० 0 97८7५
२० ४०००४०६ ०६ ६०४०६ ऐटाइशतठप7, प९ €ह 526 ए9700९९७॥85 07 ९१ १. पर ढायओ
ग्कएणेपाधाट्या$ छ०प्रौव एड ००7९ प्रगोध5६ ९०एश्च॑उधष्व॑ व्वपंगा जदाल हाज८9 (0
पड च९07 0 सह ६४5ए- 46#4., 98-44. *
३९ चुधरढ 30ल्ंडी आफलण एाएंट जाव्य पापा [६८5१४ 99 394 488 एतारव(व
॥० पार 5००३) १ बए65 56 0385 009 3560, # ३००४५ छा सिवलाणाड स्यपांग
धाढ एशाएल्रण7 रण गै्ञव्ठापब्राज ९३४९5, गंदी एथाया5 छ००प्रथड0॥9, 45 476५0-
७३ ००एरऐेटागए८8 85 घप्एा(९१ 8० ग्रा0उंट्या पंणल$, ++२749627 ६, ४.
मे ८0045, २4 जछ., *धप्लणढ$ ण॑ एण/0०5 ३० धो भरमोग8८5 ० $0पपाक्षा
शंका 40 5मट्॑वर गरर्ध॑ (फकाइट गे क्हदावत 39लंट, सवा. छ> खाता $709३8० 06
एप्रणशाक्रांगड ९०., ए४आं००४०, 968, २4३3-80.
220 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
जिनसे से कुछ इस भ्रकार हैं--शैक्षणिक सस्थाओं में घामिक उपदेश नहीं दिये
जायेंगे; साम्प्रदायिक आधार पर मतदाताओं को सूची नहीं बनायी जायेगी और ससद
व राज्य विधान सभाओं में चुनाव के लिए प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र के लिए एक ही
व्यापक मतदाता-सूची होगी; प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार घामिक विचारों के
मनन, व्याख्या व प्रचार करने की स्वतन्धता होगी; सार्वजनिक स्थानों के उपयोग के
लिए कोई धाभिक, ज़ातीय, लिगीय, भाषा आदि भेद-भाव नही होगा; लोक सेवाओ में
भर्ती में किसी भाषा व प्रादेशिकता आदि,के विभेद के बिना सभी व्यक्तियों को बराबर
अदसर प्राप्त होंगे; तथा शैक्षणिक संस्थाओं मे प्रवेश में कोई भेद-भाव नही होगा; आदि।
इन कानूनी उपायो के अतिरिक्त सरकार ने एक शप्ट्रीय एकीकरण परिषद्
भी स्थापित की है जिसके प्रमुख उद्देश्य है आाधिक विपमता और क्षेत्रीय विभेदों
को दूर करने के लिए उपाय दूँढ़ना तथा लौकिकीकरण, समानता एवं सभी समुदायों
के लिए न्याय प्राप्त करने का प्रयास करना । इस परिपद् ने राष्ट्रीय एकता मे बाधक
सम्प्रदाययाद, क्षेतरवांद आदि को दूर करने हेतु त्तीत उप-्समितियां स्थापित की हुई
ई--प्म्प्रदायवाद सम्बन्धो पर कमेटी, लेत्रोय दिभेदीकरण समस्याओं सम्बन्धी कमेटी,
और शक्षैक्षणिक एवं जन-रपूह संचार से सम्बन्धित फमेटी। इस उप-समितियों ने
निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु कुछ सुझाव दिये थे जिनको राष्ट्रीय एकीकरण
परिषद् ने 968 में स्वीकार किया था ॥४ ४
सम्प्रदायवाद से सम्बन्धित कमेटी के सुभाव थरे--फेन्द्र और राज्य-स्तर पर
बिशेष गुप्तचर इकाइयों की स्थापना जो जिला दण्डनायक और जिला पुरिस थधि-
फारो को नियन्धरित रूप से रिपोर्ट अस्तुत करेंगे; साम्प्रदायिक दगो से रोडन्याम मे
जिला मजिस्ट्रेट और जिला पुलिस अधिकारियों द्वारा कार्य करने का बव्यक्तितत
उत्तरदामित्व; अफबाद फँताने पर, विशेषकर उत्तेजऊ समाचार तया साम्प्रदादिक
घुषा को प्रीत्ताहित करने याते विचारों के छापने पर, सावधानों बरतना; जन फ्
स्थानों मे ऐसी सम्राथों पर प्रतिबन्ध धग्राना जो साम्प्रदायिक अस्तामजस्प उत्तर
फरती हो; साम्प्रदाधिक फियाओं के लिए दण्ड बढ़ाने देतु कानून में सरोधन; और
साम्प्रदायिक सामंजरुस को प्रोत्माहन देसे के: लिए राज्य, जिला और यासा-रतर पर
भागरिझ समितियों की परामर्ण इस्गदयीं के रूप में स्घापना करना ।
क्षेत्रीय समस्पानों में सम्बन्पि कमेटी छे सुम्यय बे"-भाषा-मग्दन्धी सोमा
बाद-वियाड के समापाने हेसु अभिन्न सामान्य नियम झताना; बहुत गमय में विपारा-
पीस महिशें झे रातों मे सम्मन्पित संप्थों को 956 के जल्तरसब्यिद्र बत-विग३
अधिनियम (िक्म-डागप डाटा ऐफड्रप्र्ड तैद)) हे आायार पर इंपया करना;
देजीए और पा्दिक दिषमपा हो दूर रुएवा; ऐसो वैनाओं के दिए कोर उतार
मबनागा जो दिखा भड़झाते हैं सदा उमयापारण को होडोम भारतावों थो उर्तीजिय
करवे है ।
कर #4.०७३/३+०२७- दे उैनट४ / ६३२.
राष्ट्रीय एकवा 22]
शिक्षा तथा जन-समूह सचार (77855 77८0|9) से सम्बन्धित कमेटी के सुझाव
ये : प्राथमिक स्तर से स्नातक स्तर तक शिक्षा का फिर से प्रादुर्भाव; शिक्षा सम्बन्धी
राष्ट्रीय नीतियों का निर्माण; राज्यों के शेक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश पर निवास
सम्बन्धी (१077५॥०9॥9५) प्रतिबन्ध हटाना; ऊँची शिक्षा के लिए अन्य राज्यों में जाने
के लिए विश्वविद्यालय अनुदान कमीशन द्वारा योग्य विद्याथियों को छात्रवृत्तियाँ देता ।
उपर्युक्त उद्देश्यों के प्राप्ति हेतु राष्ट्रीय एकीकरण परिषद् ने अब तीन
समितिर्या स्थापित की हैं : (४) स्थायो कमेटी जो परिपद् द्वारा दिए गये सुभावों के
प्रभावकारी परिपालन (ंगरा्जौद्यट्वा5807) के लिए तथा परिपद् की कार्यकारिणी
के रूप में कार्य करतो है। (7) सम्प्रदायवाद पर एक उप-समिति जो समय-समग्र
पर देश में साम्प्रदायिक परिस्थिति का पुननतिरीक्षण करती है तथा जो साम्प्रदायिक
एकता स्थापित करने के लिए परिपद् द्वारा दिये गये सुझावों के परिपालन की प्रगति
का अध्ययन करती है । (7॥) जन-समूह सचार पर विश्येपज्ञों की कमेटी जो राष्ट्रीय
एकता स्थापित करने के लिए जन-समूह संचार के कार्य पर परिषद् को सलाह
देती है ।
इस एकीकरण परिपद् की सफलता सन्देहजनक ही है । हमारे देश में कम
से कम चार ऐसे कारक हैं जो एक संकलित व सगठित समाज की स्थापना में बहुत
बाधक है। यह हैं--(क) जाति प्रथा पर आधारित सामाणिक स्तरीकरण |
(ख) सामन्तशाही अतीतकाल पर आधारित सामाजिक व आधिक स्तरण । (ग) विभिन्न
क्षेत्रों मे आथिक विकास योजनाओं में विशाल भेद-भाव। (घ) शिक्षित सत्ताधिकारियों
का जन-समूह से अलगाव (9॥९०॥2007) । जब तक इन कारको को दूर नही किया
जायेगा, राष्ट्रीय एकता लाना असम्भव ही होगा और इन कारको को तुरन्त दूर
करना आसान भी नहीं है।
इसके अतिरिक्त भावनात्मक एकता के लिए समाज में लौकिकीकरण
($८८०।४४५॥) की भावना विकसित करना भी अत्यन्त आवश्यक है। लौकिकीकरण
का अये धर्म-विहीनता (्रथाट्टॉ००) नही है; इसका अर्थ है सभी धर्मों मे बराबर
का व्यवहार एवं राज्य द्वारा लोगों के घामिक आचरण में अहस्तक्षेप। साधारण
शब्दों में कहा जा सकता है कि लौकिकीकरण वह दार्शनिक हृष्टिकोण है जिसमे
धर्म और राजनीति का पृथककरण, सामाजिक और सास्कृतिक उत्तराधिकारी
(एथ्य48०) के लिए सहिष्णुता, सभी व्यक्तियों को बिना धामिक भेदभाव के समान
अवसर प्रदान करना, विज्ञान व औद्योगिक मूल्यों की स्वीकृति, तथा मनुष्य जाति
का भौतिक, सामाजिक व सास्कृतिक सुधार आदि जंसे तत्त्व आते है ।* केवल यह
दार्शनिक दृष्टिकोण ही हमारे समाज को एक समूह के रूप में सगठित कर सकता है ।
राष्ट्रीय एकता के प्रोत्साहन का तरीका देश में वलपूर्वक समानता और
2 इ80 म85॥70, चृता॥व 5660 क्वांध्रा--32 छेंड5३३ 0. एशीपयाप्र00', ईलट्मावा
426क०7/7८७, 00, 969,
222 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवतंन
समजातीबता स्थापित करना नहीं है परन्तु यह मातना है कि भारत एक बहु-
राष्ट्रीयता वाला देश है जिसमे धर्म, भाषा, संस्कृति आदि की विभिन्नताएँ पायी
जाती है जिनको समाप्त करना नही परन्तु उनको विकसित होने के पूरे अवसर प्रदान
करना ही हमारा मुख्य ध्येय है। साधारण शब्दों में राष्ट्रीय एकता की समस्या
व्यक्तियों के विचारों व व्यवहार मे केवल मनोवैज्ञानिक और भावात्मक परिवर्तन
लाना नही है किन्तु यह एक प्रमुख रूप से लोगो के अपने विकास में बाधाओं को
दूर करने की सामाजिक और आथ्िक समस्या है।
राष्ट्रीय एकता को प्राप्त करने का सही उपाय आधुतिकीकरण की प्रक्रिया
की गति को तीत्र बनाना ही है। यहाँ आधुनिकीकरण से हमारा तात्पय॑ है
विभिन्न भाषायी समूहो का इच्छापूर्वके समाकलन (जिससे भाषावाद समाप्त हो),
जाति प्रथा को शक्तिहीन बनाना (जिससे जातिवाद समाप्त हो), देश की अर्थव्यवस्था
में विभिन्न क्षेत्रों का सन््तुलित विकास (जिससे क्षेत्रवाद समाप्त हो), तथा सभी धर्मो
को समात स्थान प्रदान करना (जिससे लौकिकीकरण लायाजा सके) । : यह
आधुनिकीकरण ही राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में सहायक होगा ।
| व्शहा . १77
] ] जनसंख्या-बद्धि एवं परिवार नियोजन
(?0एएछा,&70४8 छर०फ्राप्त #9 एथधा।र
ए.0राधार०5)
मानवीय समस्याओं मे जनसंख्या की समस्या इस कारण मौलिक व प्रधान
मानी जाती है क्योकि अत्यधिक जनसंख्या न केवल व्यक्ति और परिवार को परन्तु
देश और विश्व को भी हानि पहुँचाती है। जनसंख्या का अनियन्त्रित विस्फोट
(०४७।०भं०॥) व्यक्ति की योग्यता, स्वास्थ्य व प्रसन्नता को, परिवार के आध्िक स्तर
व उसके सदस्यो की आवश्यकताओं की पूर्ति को, देश की आशिक प्रगति व वँसव
को, तथा विश्व में शान्ति स्थापना को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। जब
किसी देश की जनसंख्या इतनी बढ़ जाती है कि अपने नागरिको के रहने, खाने व
कार्य करने की सुविधाओ को जुटाना उसके लिए कठिन दिखाई देता है तो वह अन्य
देशों पर आक्रमण करके उसे अपने अधीन करने का प्रयास करता है जिससे इन
उपनिवेश्यों में अपनी बढ़ती हुई जनसंख्या का समंजन कर सके । लड़ाइयों के कारण
फ़िर न केवल देशों की आर्थिक उन्नति रुक जाती है परन्तु इससे ससार की शान्ति
भी भंग होती है । दुसरी ओर जब परिवार के सदस्य परिवार के बड़े आकार व कम
आय के कारण अपनी आवश्यकताओं को पूरा नही कर पाते है तो उसके लिए अवेध
तरीके अपनाते हैं जिससे समाज में न केवल अपराध जेसी सामाजिक समस्याएँ बढ़ती
हैं परन्तु भावनात्मक विकार व विधटित व्यक्तित्व जैसी मनोवेज्ञानिक समस्याएँ भी
उत्तन्न होती हैं । यहाँ पर भारत में बढती हुई जनसंख्या के कारण इन विभिन्न समस्याओं
के समाधान हेतु परिवार नियोजन के साधनों का ही विवरण किया गया है ।
भारत में जनसंख्या में वृद्धि
भारत की जनसख्या 93] में जब पूरे विश्व की जनसंख्या का पांचवाँ
भाग थी, इस समय यह उससे भी कुछ अधिक मानी जाती है यद्यपि 936 में
बर्मा को भारत से पृथक् किया गया था तथा 947 के देश-विभाजन से लगभग नी
करोड़ व्यक्ति पाकिस्तान प्रवास कर गये थे । 600 मे भारत की कुल जनसख्या लगभग _
0 करोड़ आँकी गयी थी जवकि ]750 में यह 3 करोड़ हो गयी थी, 850 में
5 करोड और 87 मे पहली जनगणना के अनुसार यह 254 करोड़ हो गयी थी ।?
ह का (॥800:45$फ८४॥8, 8., स्कंब'ज >2कंबा०क १7तब7 ॥79006 [0 ?०फणेबघ०य
5[प्४85, &ए8फ44ं एणाएटा५५, ९#प77ल्७४89, 7704 (290 ४४४००), 950, 88.
छ
224 सामाजिक समस्याएँ ओर सामाजिक परिवर्तन
493 में जब यह 33"3 करोड़ और 294] में 3!:85 करोड़, 295॥ में 369
करोड़, 96] में 43-90 करोड़, 97] में 54-49 करोड़ थी, अब 973 में
535 करोड़ का अनुमान लगाया जाता है 7
इस प्रकार जब 600 से 750 तक वृद्धि तीन करोड़ ही हुई, 750 से
850 तक 2 करोड़, 850 से 950 तक 9 करोड़, 95 में 964 तक
7:8] करोड़ और 96] से 97। तक 0-59 करोड़ । दूसरे दाब्दों में जब
89] से 90॥ तक इसकी वृद्धि केवल -5 प्रतिशत थी, 93॥ से 94] तक
यह वृद्धि 4-2 प्रतिशत थी, तथा 95] से 96] तक यह 2]*3 प्रतिशत एवं
2967 से 97] तक 25 प्रतिशत पायी गयी है। अनुमान लगाया जाता है कि
हमारे देश में प्रतिदित 55 हजार बच्चे पंदा होते है ।
राज्यों म॒ 96] और 97] के मध्य सबसे अधिक वृद्धि! उत्तर प्रदेश
(8-8 करोड़), बिहार (2:45 करोड़), महाराष्ट्र ("54 करोड़) ओर वगाल
(0:99 करोड़) में मिलती है तथा सबसे कम वृद्धि नागालेण्ड (१07 करोड़), जम्मू
व काइमीर (053 करोड), ह्रयाणा (2.74 करोड़), पंजाब (4:03 करोड़),
जासाम (4-8 करोड़) व केरल (484 करोड़) में पायी जाती है ।* शहरों में इसी
काल के मध्य सबसे अधिक वृद्धि कलकत्ता और वम्बई में मिलती है।
जनसंछ्या में वृद्धि के कारण
जनसस्या के प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से वृद्धि के कारण समाजशास्प्रीय,
आर्थिक, राजनीतिक व धामिक बताये जा सकते हैँ । चन्द्रशेसर ने इसका एफ फारण
देश मे पिछले 50 वर्षों में शान्ति का पाया जाना बताया है। यथपि 94-49
में प्रथम महायुद्ध, 7735-40 में द्वितीय भद्दायुद्ध, /947-48 में फाश्मीर को
सेकर पाकिस्तान से अप्रत्यक्ष युद, 7762 में चीन के आक्रमण, तथा 963 3 में
वाकिस्तान के आक्रमण जैसी घटनाएँ हुई हैं. परन्तु इन समी में मानव क्षति अधिक
ग हुई। 943 में बंगाल के अकाल में अवश्य सगभग 30 लाश व्यक्तियों की
मृत्यु हुई थी परन्तु 969 मे बिहार के जडाल में हमारे यहाँ मानव-्शक्ति यो
अधिक हानि नही हुई थी |
दैरोल्ड डारत का भो कदना है. झि सिस विकास बुद्धि ने पिछली इसे
डवाडिदयों के पायों जाने वाली प्रजननणीलता (विए7७) भौर मरणनीतता (माधव
99) मे बीच गन्युलन को नष्ट झिया दे उससे प्रमुख दत्त हैं: (क) इृपि में
ग्रतयाएण मेलतक 4. 9िच्प्प्प्यण्दः 970 १54 4॥ ६०४०7 शिउ:
8 (:0.375309६ इक, ०7२६ दाॉ।७ 5-9.
* #नंडाव-्य वो#४४- 2). 9<:स्प्यॉँ/६ 4970.
के (१35११ ६3३, ०७. ८8.« २4.
+॥३/०-, 8. "व *केण्सेज 70इ५५0०२ 0:7ए9ल्७597 6 विपवाद/ शिक:- हैँ
(ब्व.), 788 ॥7/००-वां२१ 0 सचस+य० औप-<॥23५ हैफटम्यएट। (० ०ड70५+ एडपडाकली+
६५९१, ३-9.
जनसख्या-वृद्धि एवं परिवार नियोजन 225
ब्
तकनीकी परिवर्तन एव आधुनिक उद्योग मे विकास से उत्पादन मे वृद्धि; (ख) यातायात
के साधनो मे विकास के कारण नये महाद्वीपो के साथ सम्पर्क के अवसर जिन्होंने
खाद्य सामग्री के अतिरिक्त साधनों एवं वहुमूल्य घातुओ ब कच्चे माल को उपसब्ध
करने के अलावा बढती हुई जनसख्या के लिए भी बाहर जाने के मार्ग प्रस्तुत किये
(ग) व्यापार का विस्तार जिसने बहुत टूर के देशों मे खाद्य सामग्री एवं आगे
माल की पैदावार मे सहायक वस्तुओं का यातायात (ए॥5907270०7॥) सम्भव
बनाया है।
जनसबख्या मे वृद्धि का दूसरा कारण है चिकित्सा-विज्ञान के क्षेत्र में आविष्कारों
द्वारा प्रगति करके अधिक बीमारियों को नियन्त्रित करके मृत्युदर को कम करना ।
फिर, पिछले 50-70 वर्षों में हमारे देश को किसी भयकर व्यापक रोग (०ए08०॥०)
का भी सामना नही करना पडा है यद्यपि 98-20 के एन्फ्लूएन्जा के संक्रामक
रोग से लगभग 2 लाख व्यक्तियों की मृत्यु अवश्य हुई थी ।
वृद्धि का एक समाजश्ास्त्रीय कारण हमारे देश में प्रचलित बाल-विवाह की
प्रथा भी है। 93 की जनगणना के ऑकडो के अनुसार भारत में 72:2 प्रतिशत
लडकियों का विवाह 5 वर्ष की आयु से पूर्व हुआ था और 34] प्रतिशत का 0
वर्ष की आधु से पूर्व । 930-33 मे वम्बई में मर्चेन्ट (#धश्यशाक्षा)) द्वारा 398
युवा और अधेड अवस्था वाले लड़को व लडकियों के समाजश्चास्त्रीय अध्ययन से भी ,
ज्ञात हुआ कि स्नातक लडकियों की ओसत वेबाहिक आयु 4:2 वर्ष थी और हाई
स्कूल से कम पास वालों की 3:8 वर्ष थी ।! 9335 में सौराष्ट्र मे ममकद ()४4॥८40)
द्वारा तीन पीढियो के अध्ययन में भी पाया गया कि 'दादा' की पीढी के १58
व्यक्तियों के विवाह की मध्यम आयु '42 बर्ष थी, 'पिता' की पीढ़ी के 092
व्यक्तियों के विवाह की मध्यम आयु 3:59 दर्ष थी और बेटे” (सूचनादाता) के
पीढी के 82] लडकों के विवाह को मध्यम आयु 4:8। थी।* 95] के
जनाकिकी (५९7०९४7०४०!४०) आकड़ों के अनुसार भी भारत में लडकियों के विवाह
की औसत आयु 4-5 वर्ष धी ॥" यद्यपि अब देर में विवाह करने के पक्ष में भुकाव
बढ़ता जा रहा है परन्तु फिर भी काफी मात्रा मे, विशेयरर ग्रामों मे, विवाह | 5-
6 वर्ष की आयु से पहले हो होते है” [97] के वर्ष में ही लगभग 50 लाख
लडको और लडकियों का विवाह 0 और [4+ वर्ष की आयु के मध्य हुआ था।
३ (९४505 ६६७०६, ॥93, ?गा६], 25.
55 + 'वलायाथा।, ६९. 4, (ंबाह/78 कारक ता हाक्रकांबहूत ठाप्य॑ सक्आाा/,, 079४१
4933, ॥0].
१ (३५००५ 09५ उप, ॥९. ९, 3द/म्ब876 क्रत॑ उबर लि. ई.दीग, 0चत
छरं६टाआ।॥ 97255, छ94१ (उत्ते ०७0००), 4966, 457.
34 (टा5७३ िट707, 95, ९३7८४ 3 5 963, 445.
भ 'रपरणाओ। इच्चप्राए० $७5०५ ६९७०7, द०ण९३ ७५ 60०, 3, 5. छए/#ब्खाप्ण्य
ब्ार्च खव्यमॉज एक्ट, 209णै37 एयच्री 3४०थ, 8077039, 968, 62,
पर पहादीााद्वत उद्घाट5 4! +९०75०279 4973.
226 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिव्तेव
भारत में एक औसत स्त्री की प्रजनन-क्षमता की आयु [+वए7007०४९७ ०8०) 45 चर्ष
मानी जाती है। इसका अर्थ यह हुआ कि जितनी कम आयु में लडकी का विवाह होगा
उतनी अधिक उसे सन्तानोत्पत्ति की अवधि मिलेगी | अतः हमारे देश में बढती हुई
जनसख्या का एक भ्रमुख कारण ये बाल-विवाह भी है।
संयुक्त परिवार में भी परिवार के बड़े आकार को बल प्रदान किया है।
संयुक्त परिवारों में बच्चों की देख-माल व पालन-पोषण का बोकऋ उनके मात्ता-पिता
पर न होकर पूरे परिवार पर ही होता है जिससे बच्चों का विवाह तब तक स्थगित
करने की आवश्यकता नहीं होती जब तक वे आधिक रूप से स्वतन्त्र होकर अपना
वबोझा स्वयं संभालने की अवस्था में हो । पश्चिमी देशों में आ्थिक स्वतन्त्रता को
भावना, सम्बी शिक्षा और प्रशिक्षण की अवधि, तथा व्यक्तिगत व सामाजिक प्रगति
की लालसा के कारण विवाह को स्थगित किया जाता है परन्तु भारत में लड़के की
आधिक स्थिरता कभी भी उसके विवाह में बाधा नहीं वनतो | इससे बाल-विवाह
को प्रेरणा मिलती है जिसका फिर जनसंख्या पर प्रभाव पडता है।
निम्न जीवन-स्तर एवं मूल आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु कठोर संधर्ष के
कारण अरोचक व अनुत्तेजक जीवन में मनोरंजन के साधनों के अभाव के कारण भी
व्यक्ति केवल यौन-व्यवहार को ही मनोरंजन का साधन अपनाते है और अधिक सनन््तान
पैदा करते है। आर्थिक अस्थिरता व असुरक्षा व्यक्ति को भाग्यवादी बनाती है जिससे
बहू भविष्य के प्रति सोचना छोड़ देता है तथा बडे परिवार की हातियों को समभते
का प्रयास ही नही करता है ।
इसी प्रकार शिक्षा के अभाव मे भी लोग अधिक सन्तान के परिणामों को
नही समभ पाते । कभी-कभी औपचारिक शिक्षा के होते हुए भी व्यक्ति को आधुनिक
परिवार नियोजन के साधनों की शिक्षा नही मिल पाती जिससे गर्भ-निरोध के विभिन्न
कृत्रिम साधनों का सही प्रयोग करके अपने परिवार के आकार को सीमित कर सके ।
देश के कुछ छ्षेत्रों में समुन्नत (॥ए70५८५) आदिक परिस्थितियों ने भी जन-
सेंख्या मे वृद्धि को बल दिया है। उदाहरण के लिए राजस्थान व बिहार जो कुछ
बे युर्वे अधिक अनुपजाऊ से दिखायो देते थे अब विभिन्न भूसिचन योजेनाओं कै
कारण न केवल कृषि-उत्पादन को बढा पाये है अपितु तकनीकी विकास के कारण
इन्होंने औद्योगिक क्षेत्र मे भी उत्पादन बढ़ा लिया है। इससे लाखो च्यक्तियो म्ने
आग धिक तनाव कम हो गये है जिसका फिर जनसंख्या पर प्रभाव बड़ा है ।
परिवार नियोजन
देश की बड़ती हुई जनसंख्या को नियस्त्रित करने के लिए भारत मे 952
से परिवार नियोजन को योजना आरम्भ की गयी है ॥ इस योजना का उद्देश्य ने
केवल परिवार के आकार को सीमित करना है परन्तु दो बच्चो के जन्म के बीच
आवश्यक अन्तर रखना भी है जिसमे शिगुओ और उनको माताओं के स्वाम्स्य की
भी रक्षा की जा सके । 5. 5४
जनमंम्यान्यूद्धि एवं परिवार नियोजन 227
परिवार नियोजन के प्रमुख उद्देश्य
परिवार नियोजन में महत्त्वपूर्ण प्रदत्त यह निश्चित करना है कि परिवार
नियोजन का प्रमुख घ्येय व केन्द्र (0००५) क्या है--समाज की प्रगति एवं व्यक्ति के
व्यक्तित्व का विकास, अथवा क्या हम समुदाय के आधिक और सामाजिक विकास
द्वारा व्यक्ति का मानसिक सुस व॒प्रसन्नता बढाना चाहते है तथा व्यक्ति के व्यक्तित्व
के विकास द्वारा समाज की उन्नति चाहते है । अधिकांध लोग इन दो उद्देश्यों को
अलग-अलग नही समझते है क्योंकि वे यह मानते है कि एक के द्वारा दूसरे ध्येय की
प्राष्ति सम्भव होगी । यद्यपि यह सही है परन्तु इसमे प्रश्न केन्द्र-विन्दू का है । यदि
समाज की प्रगति ही जनसख्या को कम करने का केन्द्र-विन्दु है तब इसका यह भर्थ
होगा कि जब सके हम जनसस्या को कम नहीं करेगे न हमारी योजनाएँ सफल होंगी,
ने देश का आर्थिक विकास होगा, और न व्यक्ति का मानसिक सुख ही बढ़ेगा । परन्तु
मदि व्यक्ति के विकास को हम परिवार नियोजन का मुख्य केन्द्र-विन्दु मानते है तब
इसका यह अं होगा कि परिवार के रहन-सहनाः का स्तर ऊँचा करना ही हमारा
मुख्य ध्येय है जिससे सदस्य अपनी अधिक से अधिक आवश्यकताओं को पूरा कर
अपना विकास कर सके तथा अपनी खुशी व सन््तोष बढ़ा सके । अब यदि हमारा
उद्देश्य प्रतिदिन जो भारत में 55 हजार बच्चे पैदा होते हैं उनको कम करके खाद्य
सामग्री बढाना, औद्योगिक पिछडापन दूर करना एवं विभिन्न आथिक योजनाओं को
सफल बनाकर निम्न जीवन स्तर को ऊँचा करना ही है क्योंकि इनके बिना समाज
की प्रगति नहीं होगी तब तो हमे अमिवार्य आपरेशन व गर्भपात को कानूनी मान्यता
प्रदान करने भादि जँसे उपाय प्रयोग करके अपना उद्देश्य प्राप्त करना होगा, परन्तु
यदि व्यक्ति का मानसिक सुख बढ़ाकर ही समाज को आगे बढ़ाना है तव' अपने
परिवार के आकार को नियन्त्रित करने के लिए हमे व्यक्ति को पूरी स्वतन्त्रता
देनी होंगी कि वहूं नियोजन के जिस साधन को भी उचित समझे उसका प्रयोग कर
अपने परिवार की सीमित करे ।
परिवार नियोजन के साधन
प्रश्विर को सीमित करने के दो उपाय है : एक शल्य-चिकित्सा सम्बन्धी
उपाय, दूसरा सामाजिक उपाय । चिकित्सा सम्बन्धी उपायों में आपरेशन, कराटोम
आदि का प्रयोग जैसे तरीके आते है और सामराजिक उपायो में विवाह की आयु को
ऊँचा करना, शिक्षा का विकास, मनोरजन के साधनो की उपलब्धि, ऊँच रहन-सहन
के तरीके उपलब्ध करना आदि जैसे तरीके आते है । यथ्यप्रि हम यह जानते है कि
जनसंख्या को कम करने के लिए हमे इन दोनों उपायों पर वल देना होगा परन्तु
मुख्य प्रइन है कि तात्कालिक भविष्य में कौनसा उपाय अधिक उपयोगी होगा ?
साथ में हमें यह भी ध्यान मे रखना है कि चिकित्सा सम्बन्धी उपायों का भी एक
सामाजिक पहलू है और यह ह्दै किसी विशज्येप ऊेत्रिम साधन को जन-समुदाय द्वारा
228 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
मान्यता व स्वीकृति मिलना । दूसरे शब्दों मे परिवार नियोजन में दूसरा भमुख प्रश्न
है सामाजिक स्वीकृति (६०९०६ ४००८७/७॥०८) मालूम करना । हे
अभी तक हमारी सरकार किसी एक विशेष चिकित्सा सम्बन्धी साधन द्वारा
जनसख्या को नियन्त्रित करने में अधिक सफल नहीं हुई है। कभी आपरेशन, कभी
लूप, तो कभी कण्डोम के प्रयोग आदि पर बल दिया जाता है। धोड़े-धोड़े समय वाद
सरकार द्वारा नीति के परिवर्तत व नये उपायों के प्रचार से यह सिद्ध होता है कि
लाखों ओर करोड़ो रुपये व्यय करने से भी इच्छानुसार फल नही मिला है, इसके साथ
ही जनसाधारण के विश्वास को प्राप्त करने में भी सफल नही हुए है ।
परिवार नियोजन के प्रति विचार ड़
आजकल यह कहना सही नही होगा कि समाज के अधिकाश लोग परिवार
निधोजन के पक्ष मे नही है तथा वे बच्चो को ईश्वर की देन मानते है। यह मालूम
करने के लिए कि लोगो को परिवार नियोजन के विभिन्न साधनों का ज्ञान कहाँ तक
है एवं कितने व्यक्ति इनके प्रयोग के पक्ष व विपक्ष मे है तथा किन-किन साधनों का
प्रयोग अधिक किया जाता है, देश के विभिन्न भागो में सामाजिक सर्वेक्षण किये गये
हैं | इसी प्रकार का एक सर्वेक्षण नगरीय और गाँवों मे रहने वाले लोगो के परिवार
नियोजन के प्रति विचार मालुम करने के लिए 970 में तामिलनाडु के वेलोर
(५थ०।०7८) शहर व उसके पास के ग्रामीण ब्लॉक में भी किया गयय/ था। इस
अध्ययन/ में कुल 2426 व्यक्तियों का साक्षात्कार किया गया था। यह पूछे जाने पर
कि 'क्या आप मानते है कि बच्चों की सख्या कम करना भ्रत्येक व्यक्ति की शक्ति मे
- है यह पाया गया कि 2426 में से 37- प्रतिशत व्यक्ति इसको सम्भव समभत्ते हैं
और 4*2 अतिशत व्यक्ति असम्भव । हु
बया आपके विचार में बच्चों की संख्या कम करना प्रत्येक
दम्पत्ति की शक्ति में है ? /
दि ग्राम
उत्तर +-+++५ दर योग
पुरुष स्ब्वी स्त्नी
ह्दौ 56-9% 40 8% 4358% 374%
नही 344 46 ०0% 44 0५४ 424%
कह नही सकते 720; ॥3% ६: 4रस्थ् 27%
काज6850 कल्च्खर6
2२७७३३32 सजा
7. क# छू30, ए. 5. 5. इतव ग्ा0३आ, 5. 0, उतकरगवाँ की सबका आटटविएक ििएएा)
एग्गणा०३ 4550०३५७०० ण॑ [09303, 80939, १ण, >(प्वा, ॥0०८४ क्970, 20-22:
न
जनसख्या-वृद्धि एवं परिवार नियोजन 229
जिन 899 लोगों का विचार था कि बच्चों की सख्या कम करना सम्भव हे
उन्हीने इसके लिए निम्न उपाय वताये--
बच्चों की संख्या कम करने के साधन
नगर | ग्राम
उत्तर ् " ८ योग
पुरुष स्क्नी | पुरुष | स्क्नी
(सकल 5+ 5 | हा
(।) स्वय पर नियन्त्रण | 397% 35-3% 33% | 63% | अदझ
(2) परिवार नियोजन 'क्
के तरीको द्वारा उऊब 6-9% उ62% । अ-3582 46'6%६
(3) नहीं मायूम 69% 28% 325% | 72% 459%
औ>ब93 #(>०899
औन59 १29 | ४७३26
जिन 2000 व्यक्तियों का विचार था कि बच्चों की सख्या कम करना
सम्भव नही है उन्होंने इसके निम्न कारण दिये---
बच्चों की संख्या कम न कर सकने के कारण
नगर ग्राम
कारण
पुरुष सन्नी पुरुष स्त्नी
कम « ईश्वर की इच्छा 35-0% 26-2% हि 473५2
2, प्रम्भव नही है ) 45 6५% 62-8५ 769: 737४
|
3, अन्य कारण 78% 9१% क्चद् 73%
4. मालूम नहीं ८ -8% 86% वयद्रु
जज ला
मज03 औ४-328 2४७०269 ज300
यह पूछे जाने पर कि क्या वे बच्चों को सख्या को सीमित करने के पक्ष में
हैं या नही, 64-6 प्रतिशत ने 'हां' में उत्तर दिया और 254 प्रतिशत ने 'ना' में ।
* जो ब्यक्ति बच्चों की सख्या को सीमित करने के पक्ष में नही .थे उन्होने उसके बह
कारण दिये--(क) ईइवरी इच्छा के विरुद्ध एवं धामिक कारण, (ख) अप्राकृतिक
क्रिया, (ग) हानिकारक, तथा (घ) परिवार अर्थव्यवस्था के विरुद्ध ।
| जा,
जनसंस्यानृद्धि एवं परिवार नियोजन 234
दस अध्ययन से निम्न आँकड़े (प्रतिझत में) प्राप्त हुए
हियी पता मन दल िओी (वर्षों में)
उत्तर योग
प्यम्जिम्ि 3-44 रु
ज्ञान है ल्न (3) | 632 62) | 684 (3) 333 () | 580 (29)
पान नहीं है 667 (6) | 368 (7) | 3-6 (6) 667 (2) | 420 (2॥)
प्रयोग करते हैं 368 (7) | 224 (9) कर 320 (6)
परम जाँकड़ों से यह पाया गया कि--
(() प्रत्येक 40 में से 6 व्यक्तियों को परिवार नियोजन के साधनों का
ज्ञान है ।
(2) प्रत्येक 0 में से 3 व्यक्ति इन साधनों का प्रयोग भी करते है ।
(3) परिवार नियोजन के साधनों का ज्ञान ऊँचे आयु-समूहो (25 से 45)
के लोगो में अधिक है और निम्न आयुन्समूह (25 से कम) में कम है।
(4) ऊँची और मध्यम जातियों में निम्न जातियों की अपेक्षा ज्ञान अधिक है ।
(5) जिन व्यक्तियों के दो या कम बच्चे है उनमे परिवार नियोजन का ज्ञान
तथा विभिन्न साधनों का प्रयोग कम है तथा सबसे अधिक ज्ञान 3-4 बच्चो वाले
व्यक्तियों मे अधिक मिलता है और फिर जैसे-ज॑से बच्चों की संख्या अधिक होती जाती
है वैसे-दंसे ज्ञान भी कम मिलता है ।
दिल्ली में भी इसी प्रकार का एक अध्ययन , यह मालूम करने के लिए कि
जन्म-नियन्त्रित साथनों का प्रयोग किस प्रकार लोगों में अधिक मिलता है, 242
सरकारी कर्मचारियों का (29 पहली, दूसरी और तीसरी श्रेणी के वर्गों के और 23
चतुर्थ श्रेणी वर्ग के) किया गया था। इससे ज्ञात हुआ कि
() जितनी व्यावसायिक स्थिति ऊँची है उतना ही गर्भधारण को रोकने के
कृत्रिम साधनों का उपयोग करने वालो की सस्या अधिक है।
(2) जब परिवार नियोजन के साधनों के उपयोग करने वाले व्यक्तियों मे
भौसतन 3:08 बच्चे होने को इच्छा पायी गयी इन साधनों के उपयोग न करने वाले
व्यक्तियों में औसतन 3:5। बच्चे होने की इच्छा मिली, तथा सभी व्यक्तियों को
* मिलाकर औसतन 3-69 बच्चे होने की इच्छा मिली ।
है (3) प्रमुख बात यह मिली कि बच्चो के कम या अधिक होने को इच्छा का
परिवार नियोजन को स्वीकार करने या अस्वीकार करने से कोई सम्बन्ध नही था।
७ एफ अगवा ० क्विकाओ थार गला 490, 2.
एु7, 5. छे, बएत छत 6. ९.) उमर उत्वाजर्वा थी हद्वा॥/7 /20/४/2, ५०, 22५,
7१०. 2, 7060८॥०९८० 969, 5-0.
४
232 सामाजिक समस्याएं और सामाजिक परिवर्तन
यह मालूम करने पर कि व्यक्ति गर्भ-निरोध (छांगरा॥-20770!) साधनों का उपयोग
क्यों नहीं करना चाहते, यह ज्ञात हुआ कि 23% व्यक्ति इस कारण इसके विपक्ष मे
ये क्योकि उनको अधिक बच्चे होने की इच्छा थो, 23% ईद्वर में विद्वास के कारण
इसके विरुद्ध थे, 54% को प्रयोग के वाद हानि का भय था, तथा 77% को
लडके प्राप्त करने की साधना थी ।
इन सभी अध्ययनों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि परिवार
नियोजन के विरोध भे जो लोगो मे प्रमुख कारण पाये जाते है, वे है--
(१) ग्रामीण जनता के रूढ़िवादी विचार,
(2) किसी विश्वास'करने योग्य (2080|० थ॥0 00-970०), उपाय का
उपलब्ध न होना,
(3) नियोजित परिवारों के प्रति धाभिक विचारो का विरोध,
(4) अधिकाश लोगो का ऐसी परिस्थितियों में रहना जिससे उसके लिए
एकान्त स्थान के अभाव के कारण गर्भधारण के साधनों का व्यापक उपयोग कठिन
होता है, तथा
(5) कुत्रिंम साधनों के आसानी से उपलब्ध न हीने के कारण भी उनके
प्रयोग मे बाधाएँ पहुँचती है ।
पंचवर्षीय योजनाएँ प्रौर परिवार नियोजन
देश की बढ़ती हुई जनसख्या को नियन्त्रित करने के लिए हर नयी पंचवर्षीय
योजना में परिवार नियोजन कार्यक्रम को पहले से अधिक प्राथमिकता दी गयी है।
जब पहली पंचवर्षीय योजना में इस कार्यक्रम के लिए एक करोड़ रुपये से भी कर्म
पूँजी की व्यवस्था की गयी थी, दूसरी मे 497 करोड़ की?, तीसरी में 27 करोड़
की?!*, और चौथी योजना से 3]5 करोड़ रुपये को व्यवस्था की गयी थी चौथी
योजना में 385 करोड़ में से लगभग 269 करोड़ रुपये देहातों और शहरों
के परिवार नियोजन केन्द्रों द्वारा परिवार नियोजन सम्बन्धी सामग्री वितरित करसे
यथ मुआवजा देने पर व्यय किये गये हैं तथा शेप 26 करोड रुपये परिवार नियोजन
विश्ेयक अनुसन्धान प्रचार संगठन और मुल्यांकन आदि पर सर्च किये गये हैं ।?” चौपी
योजना के परिवार नियोजन सम्बन्धी प्रमुख लक्ष्य अग्नलिखित हैं--
() आगामी 0-2 वर्षों मे जन्मन्दर वर्तमान 39 प्रति हजार से घटाकर
25 प्रति हजार तक ले आना ; (2) विवाहित च्यक्तियों में छोटे एरियार हा आदर्श
स्वोकार करने हेतु धचार करना ; (3) उन्हें परिवार नियोजन के विभिन्न तरीडो से
परिचित करवाता ; तेया (4) इस विपय मे उन्हें जो सेया तथां सलाह चाहिए वह
उन्हें उपलब्ध झरना | यह सानकूर कि छोटे परिवार का सिद्धान्त लोग उसी स्वीकार
3३ ३8४2६ )96), ॥23.
7९ 4/६४८०५ 962, 44.
७७ [7.500..4725 777829, 0 9०८८ ०टा- 970.
जनसख्या-्वृद्धि एव परिवार नियोजन 233
करेंगे जब माता-पिता इस वात के कायल हो जायेगे कि बच्चे जितने कम होगे उनके
जीवित रहने की आशा उतनी ही अधिक होगी, सरकार ने जनसाधारण में विश्वास
उत्पन्न करने के लिए प्रचार का कार्यक्रम भी आरम्भ किया है! सितम्बर 956 में
परिवार नियोजन सम्बन्धी कार्यक्रम बनाने हेतु केल्रीय परिवार नियोजन बोर्ड भी
स्थापित किया गया था । इसके अतिरिक्त जनसख्यात्मक सलाहकार समिति भारतीय
चिकित्सा अनुसन्धान परियद् द्वारा स्थापित परिवार नियोजन के वेज्ञानिक तत्त्व की
कमेटी, तथा सम्बाद क्रिया अनुसन्धान कमेटी (एणायापराल्वाणि 4ै९/ंण
॥२९६८७३९॥ (०गाग7/6०) भी स्थापित की गयी है। बंगाल, दिल्ली, कर्नाटक और केरल
में जनसख्या विज्ञान केन्द्र (00॥087०9॥70 (०]ध७७) भी अनुसन्धान कार्य के लिए
स्थापित किये गये है । हर राज्य में परिवार नियोजन बोर्ड भी विभिन्न जिला
कमेटियों एवं परिवार नियोजन अधिकारियों द्वारा कार्य कर रहे है। परिवार नियोजन
कार्यक्रम की सफलता के लिए कुछ सामाजिक और जाथिक परिवतेन लाना भी
आवश्यक है क्योकि इनसे जन्म-दर घटाने मे सहायता मिलेगी । इस सन्दर्भ मे जिन
उपायो पर सरकार वल देने को सोच रही है उनमे प्रमुख है--विवाह योग्य कानून
बढाना तथा कुछ विशेष परिस्थितियों मे गर्भपात कानून में ढिलाई करना ।
अधिकतम जनसंख्या
उपर्युक्त गर्भ-निरोध उपकरण अपनाने से भी हम देश मे जनसख्या में विस्फोट
को नियन्त्रित नही कर पाये हैं तथा परिवार नियोजन कार्यक्रम की सफलता असन्तोष-
जनक ही रही है | मदि आने वाले कुछ वर्षो में ही हम अपने देश के लिए अधिकतम
(००४॥०७7१) जनसख्या को निर्धारित कर जन्म-दर कम नहीं कर पाये तो इससे न
केवल हमारे देश मे आर्थिक पिछड़ापन बना रहेगा परन्तु अनेक सामाजिक व
सास्क्ृतिक कुपरिणाम भी उत्पन्न होगे !
अधिकतम जनसख्या की धारणा का वास्तव में आर्थिक महत्त्त अधिक है।
इसको इस प्रकार समझाया जा सकता है। जनसख्या का कोई ऐसा आकार है जो
किसी दी हुई स्थिति में एवं किसी दी हुई सामाजिक व आधिक व्यवस्था में उपलब्ध
आशिक साधनों से प्रत्येक व्यक्ति के लिए अधिक से अधिक लाभ प्राप्त कर सकता
है । एक नये स्थापित राष्ट्र को अपने अविकसित साधनों के विकास के लिए अपनी
जनसख्या बढाने से ताभ ही होता है। इससे न केवल विश्विप्टीकरण बढ़ता है परन्तु
आम निषुणता व प्रगुणता भी बढ़ती है । परन्तु कभी न कभी यह राष्ट्र ऐसी स्थिति
में पहुँचता है जब वह अपने यहाँ उपलब्ध करने यीग्य कोयला, तेल आदि सभी
आधिक साधनों को प्राप्त कर लेता है जिस कारण राष्ट्र मे जनसल्या का बढ़ता उसके
लिए समस्या उत्पन्न करता है क्योकि इससे अब जीवब-स्तर निम्न होता ।जाता है ।
दूसरे शब्दों में यह राष्ट्र अब जनसख्या की ऐसी अधिकतम मात्रा श्राप्त कर लेता है ।
जिसको पार करने से लाभ के स्थान पर उसे हानि ही होती है। इस प्रकार जनसंख्या
का अधिकतम बिन्दु (7०70) वह विदु है जहाँ उपलब्ध प्राकृतिक साधन उगाहे
234 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
श्रम, धन एवं बुद्धि की तुलना में बहुत अधिक फल देते है।
भारत के लिए अधिकतम जनसख्या वह होगी जो राष्ट्र को शत्रु के आक्रमण
से सुरक्षा प्रदान करने के लिए उपयुक्त हो तथा जो उपनिवेशों की स्थापना जैसे
साम्राज्यवादी माँग के लिए आवश्यकता उत्पन्न न करे। इसके अतिरिक्त जनसख्या
की सर्वाधिक मात्रा वही होगी जो सास्क्रतिक मूल्यों को प्राप्त करने हेतु आवश्यक
अवसर व स्वतन्त्रता उपलब्ध करने के अतिरिक्त रहन-सहन के ऊँचे स्तर, राजनीतिक
स्थिरता और आशिक सुरक्षा को भी प्राप्त कर सके ।
परिवार नियोजन सफलता सम्बन्धी सामाजिक उपाय
अब प्रश्न है कि जनसख्या की इस सर्वाधिक मात्रा का ध्येय कंसे प्राप्त किया
जाये एवं परिवार नियोजन के कार्यक्रम को केस सफल वनाया जाएं ? इसके लिए
जो गर्भ-निरोध के उपकरणों को पर्याप्त सख्या में उपलब्ध करने के अतिरिक्त अन्य
सामाजिक उपाय अपनाना आवश्यक दिखाई देते है, वे हे---शिक्षा द्वारा मिथ्या विश्वासों
को दूर करना, विवाह की आयु को ऊँचा करना, मनोरजन के उचित साधन उपलब्ध
करना, गर्भपात के नियमों के प्रति उदार नीति अपनाना, एवं सुजनन (208०0)
कार्यक्रम आरम्भ करना ) इन सवका हम अलग-घलंग घिइज़ेपण करेगे।
शिक्षा--ब्यक्तियो के परिवार नियोजन सम्बन्धी मिथ्या विश्वासों की दूर करने
के लिए उनको पर्याप्त शिक्षा देना आवश्यक है। व्यक्ति कितने बच्चों का होना आदर्श
मानता है, यह उसके शिक्षा के स्तर पर अधिक आधार रखता है । लखनऊ के राष्ट्रीय
प्रतिदर्श सर्वेक्षण (४४078 $थगए6 5ए५०५) द्वारा 4960-6] में 20 हजार से.
अधिक व्यक्तियों के अध्ययन से भी, ज्ञात होता है कि जैसे-जैसे व्यक्तियों के शिक्षा का
स्तर ऊँचा होता जाता है वैसे कम बच्चों का होता अधिक आदशे माना जाता है ।”
वजह तह कु स्वर दम्पतियों की संख्या आदर्श बच्चो की संख्या
अशिक्षित... ब65 खा
शिक्षित (प्राथमिक स्वर मे नीचे) 296 3.29
प्रायमिक शिक्षा 2352 326
माध्यमिक शिक्षा 208६ 339
हाईस्कूल 235॥ उ्व4
हाईस्कूल से ऊपर छा... 298
ग्रह आऑँकड़े सिद्ध करते हैं-कि भारत में शिक्षा का विस्तार कितना
ऋष्ि॑ंपंगन डेकरफ। उद्कावक, (-ए८-००७, सव्कूणा ऐ२०, व6, उछाब /260--2708
496, 20-22.
जनसंल्या-बूद्धि एवं परिवार नियोजन 235
आवश्यक है ।
प्रश्न यह है कि शिक्षा किस प्रकार के लोगो के लिए अधिक आवश्यक है
तथा उनको कंसी शिक्षा दी जाए ? हमारा विचार है कि यह शिक्षा उन लोगों के
लिए भवितव्य है जो सन्तानोत्पत्ति के ([097040४०४४०) आयु-समृह मे प्रवेश करने
वाले होते हैं। अनुमान लग्राया जाता है कि प्रतिवर्ष नौ लाख लडकियाँ इस झ्ायु-
समूह में प्रवेश करती है जिनमे से बहुतों का विवाह भी हो जाता है तथा वे सन्तान
पैदा करमा भी आरम्भ करती है। यदि वे युवा दम्पत्ति पहले ही से जनसख्या
समस्या के परिणामों से एवं छोटे परिवार के नियम की वाछनीयता से परिचित होंगे
तो ये छोटे परिवार को नियोजित करने में और इसके लिए सही साधन ढूँढने में
अधिक सफल होगे । तीन-चार बच्चों के बाद माता-पिता को शिक्षा देना (जैसे कि
इस समय हो रहा है) इस प्रकार है जंसे मत को आग लगने के बाद कुंआ
खोदना है ।
जहाँ तक शिक्षा की प्रकृति का प्रइत है, इन युवा लोगो को परिवार नियोजन
की ही नहीं किन्तु जनसख्या-सम्बन्धी शिक्षा की भी आवश्यकता है। यह जनसंख्या
विज्ञान सम्बन्धी झ्विक्षा परिवार नियोजन शिक्षा से निहित वस्तुओं और प्रकृति (दोनो)
में भिन्न है क्योंकि इसमें जनगणना का विश्लेषण, निष्क्रमण, घनत्व (१८४9), जन्म
व भृत्यु दर, जीवनावधि, उत्पादन कार्यकाल आदि प्रश्नों का विश्लेषण सम्मिलित है|
दूसरे शब्दों में इसमें छोटे बच्चों को परिवार नियोजन के साधनों की शिक्षा देना नहीं
थाता है परन्तु यह मुख्य रूप से समकालीन विश्व के ज्ञान से तथा उन मूल तत्त्वों से
सम्बन्धित है जो राष्ट्र को बनाते है तथा उसके आथिक एवं मानवीय साधनों के
विकास को निर्धारित करते है। इस शिक्षा पर वल देने से आशा की जा सकती
है कि यह शिक्षित-समुदाय परिवार-नियोजन जंसे कार्यक्रमों की अधिक सफल बनाने
में बहुत सहायक सिद्ध होगा ।
बिवाह-प्रायु को वृद्धि--विवाह की आयु वढाने से जनसख्या का वैवाहिक
स्थिति सम्बन्धी वितरण (0५:09॥0०॥) बदल जाएगा और प्रजननञ्यी लता (/७:४0॥9)
की दर भी कम हो जाएगी । केरल मे, जहाँ इस समय विवाह की औसत आयु 20
वर्ष है, जन्म-दर एक हजार के पीछे 38 ही पायी जाती है जबकि पुरे भारत के
लिए यह एक हजार के पीछे 42 है। यह अनुमान लगाया जाता है कि यदि केरल
में भी पूरे भारत में पाये जाने वाली औसत सन्तानोत्पत्ति आयु, वेवाहिक स्थिति-दर व
लिंग अनुपात होता तो यहाँ जन्म-दर 000 के पीछे 48 ही होता क्योंकि यहाँ गुवा
आयु-समूह में वेवाहिक प्रजननश्चीलता-दर अधिक है। यह माना जाता है कि स्त्रियों
में 5-9 वर्ष के बीच की आयु अधिक प्रजननश्लील होने के कारण गर्भधारण की
दर उनमें इस काल में सबसे अधिक होती है । जब इस आयु में हर 00 विवाहित
स्त्रियों में प्रतिवर्ष 97 गर्भ होते हैं, 20-24 की आयु-काल मे केवल 72 ही होते है
तथा 25 से 29 के आयु-काल में यह कमर होकर 67 हो रह जाते हैं। इस कारण
यदि विवाह की वर्तमान आयु को 5 वर्ष से वढाकर कम से कम 20 या 22 कर
236 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन
दो जाएं तो देश में जन्म-दर अवद्य ही गिर जाएगी ।
..._ मनोर॑जन--भारत में जनसाथारण के ज़िए मनोरंजन के साधन उपतत्ध
करने की समस्या का एक प्रकार से उपेक्षण ही क्रिया गया है। यद्यपि किसी प्राणी
के लिए जीवित रहने के लिए खाना और कपड़ा अत्यन्त आवश्यक है परन्तु मनुष्य
को आवश्यकताये केवल जीवित रहने तक हो सीमित नही हैं। वह बहुत कुछ चाहता
है। मनुष्य एवं अन्य जीवधारियों मे यही अन्तर है कि मनुष्य ने अपने बौद्धिक और
आध्यात्मिक गुणों को विकसित्त किया हैं। एक वह जनसंख्या सम्बन्धी नीति जो केवल
भोजत, कपड़े, मकान को उपलब्धि व आधिक मुरक्षा पर बल देती है लक्ष्य के उपयुक्त
तही है क्योकि मतोरजन व रमणीयता की आवश्यकता भी उतनी ही प्रवन्न है।
प्राणी के जीवन में ऐसे बहुत से अवसर आते हैं जब किसी सिनेमा य रेस्टराँ मे जाना
उसी प्रकार होता है जिस प्रकार एक बीमार व्यक्ति को विटामिन की गोली देना।
एक निर्धन व्यक्ति को भी अवकाश और मनोरजन की आवश्यकता उतनी ही होती
है जितमी एक घनी व्यक्ति को। परन्तु भारत में इन व्यक्तियों को कोई सुलभ
मनोरजन प्राप्त नही है जिस कारण वे केवल यौन-क्रिया को ही मनोरजन समभतते हैं
जिसमे फिर वे यौन-सम्बन्धों की तृष्ति एवं सन््तानोत्पत्ति की क्रियाओं को पृथक से
कर सकने के कारण अधिक सनन््तान उत्पन्न करते है। फिर स्थियो को तो हमारे
यहाँ कोई भी मनोर जन. प्राप्त नद्ठी है । एक जनसख्या सम्बन्धी नीति वही ठोस वे
उचित मानी जाएंगी जो निर्धनों को मस्ता वे सुलभ सनोरजन उपलब्ध करने पर
एवं स्त्रियों को परिवार-वाह्य (कापम-शिएा।) क्रियाओ में भाग लेने पर बल
देती हैं। यह तभी सम्भव होगा जब नारियों को अधिक स्वतन्त्रता मिलेगी एवं उनमें
धिक्षा का विकास होगा )
गर्भपात नियमों में उदारता--कुछ छोगो का विभार'है झि हमे गर्भपात
(००० ४०४) को कामूनी मास्यता देनी चाहिए । जब जापान प्रतिवर्ध 22 सास गर्भ
गिराकर अपने यहूं मर्भघारणा की दर को 0 वर्षों मे 30 धतिश्त से भी अधिक
कम कर समझता है तो हम भी क्यों न यह तरोका अपनायें। परन्तु कुछ लोग इस
उपाय के पिरद्ध हैं। उनझा कहना है झि इससे (#) परमाज में अनेविकता को
समस्या बड़ जाएगी, (9) सरकार के लिए 3 सास गाँवों में गर्भ गिराने ऋ इस
मा अस्पताल सोलता कमी सम्भव नहीं होगा, बोर (8) दससे मातानों की स्वास्थ्य
सम्सस्पी समस्याएँ उतपके होगी । परल्तु वास्तविकता यह है हि गर्भपात के विरद
लविझ, परामिक, सामाणिक व अन्य आपतियाँ दुछु भो अयो न दो, बह विडिफत हैं
कि जब तक हुस भारत में मर्मंगाव ऊे नियमों में उदारता नहा दिसारेये हइ हु
पर्रिस्पीयों में गर्ध गिराने डो दय-स्पयद्वार स्रोहार सदी करेंगे जनसरहवा $ विपाड
को कमी भी पिरिचिक नद्ढी कर प्राउँसे । पु
मुजनन कार्यड्स--सुंरमतनीय (दण्कप्थांए) कार्यंशस वा खाधारत घम्भ थे
जय है शारीरिक प्रा मानति शप मे विध्लाग वखबा दोडप्रत क्यॉ्धियों का
मलानीलालि से विद रखता दिये उतमह्या को ने फरल सरयत्मक इक थे वाद
जनसब्यानूद्धि एवं परिवार नियोजन 237
ग्रुणात्मक रूप से भी नियन्त्रित किया जा सके । भारत मे किसी वैज्ञानिक सुप्रजननीय
अनुसन्धान के अभाव में इससे सम्बन्धित कानून बनाने के लिए कोई सुकाव देना
कठिन ही है । हमारे देश के लिए निश्चयात्मक, निित व बनुलोभ (फ०अंधं५०)
सुजननिक नीति प्रत्यक्ष रूप से असम्भव है क्योकि इसका मूल आधार वाछित मानवीय
लक्षणों का झोधन करना (००।४४०४०7) है और यह सही रूप से निर्धारित करना
कि दिये हुए मानवीय गुण ही आदशंवादी है आसान नही है । इस कारण यहाँ
निपेधात्मक सुप्रजननीय नीति ही सम्भव है क्योकि भारतीय जनसस्या में कौन से
गुण व लक्षण अनुचित व अवाछनीय है उससे सम्बन्धित सहमति सम्भव है। इस
बात को सभी मानते है कि भारतीय समुदाय में अश्क्त, अल्पमति, बुद्धिहीन, बिकृत-
मस्तिष्क वाले, पागल व रोगी व्यक्तियों को पृथक् करना चाहिए । इन्ही व्यक्तियो के
लिए ही सुजनन कार्यक्रम आरम्भ किया जा सकता है। परन्तु पक्षपात से बिमुक्त
जनमत के अभाव में वन्धीकरण ($८४!$७70॥) से सम्बन्धित कानूत पास करने में
हमे बहुत सजग रूप से (८४०॥०४४७) काये करना होगा। यह कठिनाई असन्दिग्ध
व निस्सन्देह चिकित्सा सम्बन्धी प्रमाण पर आधारित इकाइयों में इतनी नहीं होगी
जितनी अन्य इकाइयो में होगी । इस सन्दर्भ मे हम अमरीका के अनुभव से लाभ
उठा सकते है जहाँ लगभग 30 राज्यों मे बन्धीकरण सम्बन्धी कानून पाया जाता
है। कंलीफोर्निया में यह कानून तो पिछले 40 वर्षों से मिलता है। इन राज्यों में
कुछ असाधारण व्यक्तियों के लिए नसबन्दी को तो अनिवार्य किया गया है परन्तु बहुत
से व्यक्तियों मे ऐच्छिक वन््धीकरण पर वल दिया गया है। भारत में भी हमें इसी
स्वेष्छिक आपरेशन के आधार पर सुजननिक कार्यक्रम को लागू करना होगा।
अन्त में, हम कह सकते है कि परिवार नियोजन ऐसा कार्यक्रम है जिसे सभी
धर्मो, जातियों, समुदायों व राजनीतिक दलों के समर्थन की आवश्यकता और अपेक्षा
है । यह कार्यक्रम केवल सरकारी संगठनों द्वारा सफल नहीं बनाया जा सकता।
इसकी सफलता के लिए यह आवश्यक है कि जनता इसे स्वेच्छा से अपनाए और
बढाए ।
+ न्ट्भ 5
अभनन््टसे-मंथ-सूची
#-णओधाष्या, 0790, 29277०89 ० /क०, उगाह ए०ए आप 895,
उरि९छ ०7६, 960
#ैपीपा9, रिए, कशावादए 02रथिवंधरड के गध्याव,,. चला शिवाय व),
॥४८८०६, 969,
#पाएग्ला, शा 5., 4क्कार्नी बह 7:क्रार्मंधक : मरांझाश ककाटवांश करे
रबर सगाधंतर कर सबक, (बजा एक 4005०, 80709
968,
शक एा०्णाका, $०ढंग॑ #लंथाट९ का 39लंगी 247०8), 7..000॥,
959.
सिधशु$०, 8., #9॥वां 72/08/4008 गे? कब्र. 2क्रामएाड, 2 चैल्थायोएओएं
शिवो्न्रशात्ा, ९८०५, ॥969.
कत/्रा०7०, 7. 9, ०८076 : 4 9४/व6 70 2० द्ावे सॉफिदाएाट,
4.0700॥, ।962.
कप, (तो, 72॥6 उैगवाड़ 20शग्क्ालाा, पएथञाए जी (0१0, [.ण्राप॑णा,
3955
एकल), २60ण०7 0., (फक्गा०ंग्ह),, रिजा्शत ए8४5 (00,, चिल्फ ४०7,
3956. है
(एक, रिप॥, 3., (/॥/9॥0/०8)', 7॥0735 ४. (४०७ ९, )३८७ ४०:):, 948.
(याग्राव75, $05॥॥, $०0ल८००४)' थी 00पंद्राका कै शवीव,, #600. ?िए०॥च्राट$,
807999, 967.
(गरथशाप्राइालेादा, 3... #ादीवौड. 20्पावा।णा,. चिष्शामओएजीा।ओं
९2४०, 97.
(एणा0, चंबा 8., 5907/०६४७ वा /0०वा। किशीव्रापंगाए, िणी, विलीक्षा:
खाते शरण 200., 72४ ०४:, 2957.
ए9०७णव, 8. &. था 00, [... 8,, 0९४4४श८० क्रर् 097भ4॥05५. ॥6
कपल शट55, (50000९, (07052, 960.
(एणाला, #09था (., 700/#22 क्रर्व (छाए, ए०णाठ॥95 री फैग्वेध्या
$0ल्०8५४ $6765, शि्ा।०6 सजा, परटफ उद्यइ९५, 4966.
एफ, ॥00 मै, ४00 म््वएथ, रि्शेश्ा 8... क्498/क्षाक थी साला
क०टांट। : #कांपटड शो (०र्मीर, धणगा, र८छ १०, 948
छसाणा, १७, 2, 909 ऊ्रैल्यगा, 7, 8., 2०टव 07572व्रॉव/णा, विफल शाप॑
छाणऐएलाड, बर१७ ४०४४, 4950.
छिमणा), #.., ७४४), 3०लव (४४782 ६ $एम्ाट९, रिका।हगड कार्य (एवशवृ।शार28,
4964.
एवाईं5, रिक्शा 0. .., उ०टाव 29गइक्मांडवा0ा, रिया, 2४०७ ता
299%
खिवादचच्नीध),
सन्दर्भ-ग्रंथ-सूची 239
(ञए, व. .., 925, ९. 0., एग४०चा, छ उ. शाएं (०५6, ३, चे., उ्सदां
22/०0/0705, 4]6 पंगर$ ठी ताय एछ655, 807099, 4965.
ठग, ४. $., #लछगा थी ग्रोट अक्ीकगरऊ़ एकफरा[०्ट था. जशिशन(दा8
27ट्डक्माम्राट्ऊआ रेंगे, व, एलाएश 50०2८ जशक्षशिण फ्रिव्या०0, 2थाओ,
955.
(60, )ै, $., ४०लर्ग॑ण्हूए' थी सक्दाट्वागा रह वधबोँव, िबाणार्म (9णार्ती
एपाल्याणाण रिशट्याणी बाएं वरग॑यांगयह, ठछीण्राए१9, 967.
#प९, ), 5., 700 2288व/ काश गे नैईशा्मी।दा 202/8,.- एग्रोॉर्शजआंए
$» ० छा, एथ॥, 959.
4३0ाणा, एप 8. शव 69०, ठएलबात 2., 7#2 उ9लटंगगहए थी 3०2टंग!'
क.ाग्शशाऊ, #फफॉलिणा एथापाए (णी5 0. वटएछ ०5, (20
€000०॥), 960.
शाए्थाव), कि. , (/कराइ2 गाव (माया के उधवॉत्रांड. 22482, (०ए्र709,
एग्नांश्थञोए ए०55, २८७४ ४०४८, 970,
[$लाएश', 5. ६ू७४४४०७, ऊिकुणा णा $98०-९६ए७७०४४९ का हर्खाए 5४8४९
शुड#९०त 2845 77 ऑीबंधबचव-5९2कावेशब2०व 0 47९४, 0च्ा "
गादम/ए/6 ० ००7०॥765, 77/0ध८2००००, 959.
गंभंछ, 8०2थ (॥५90, (०/॥फापमोए 2श'शैक्रकथा। ब्ाव॑ शवालादु'वारं सदा ॥?
आाव्ाव, 967
उग्ा$0, वा 'र,, उ०लंगेंगह)--व 5क्करावांए कखवं॥टागा,, रयत
एप्रणाओक्षड, 98077039, 960.
एहपशाधवए99, 7. १४., 007 8८884 2/78/व्क, शिववाा74 - एफ्रीए्थिणा5$ 0 ,
807749, 945.
स्,9॥$, शिव पे. उ०शंबां 2/00/085, [4एछाॉं70000 (०., 7४७४४ ४०८, 959.
गाणाल, 9. 8व० 2&0ग्रगगांद : 2प्रेट#/285 का - 4708/0050, (0798 ऐ.
(7०एटा, 3२८४ ४०7):, 926.
398४, 50॥70ए ऐथिओ॥, $/#घंशव कै0725, ठि4॥० 800|:5 00. ?७७]9॥९75,
]४८४ ४०८, 4967.
मैलिता, हि, €ू,, 592८4/ 7॥९०7० क्र 8०टंवाँ 5॥70727#7०, 768 766 77053,
(900087०08, ॥]॥7058, 957.
१५[०ण४9, ४. १., 8८88व7 2/7शकशा थे 9#सवारट 20ा0व१, वावीशा एक
दिक्षाए8 0 8०ठ6॑ंबवा ४०7८, 959.
*०एाश, 5. र., 05978॥/5द्07--2श57र्वा द्रव 50०टर्वा, 7799॥0700 00.,
ए99॥9089॥9, 942,
)[एु८६४, रच, .विवांट. कडिलाटट. ता. सवरोबा &०टांगी॥.. वैलथावप्शां,
क7६9509॥, ६८४५६, ]972.,
उिशया), 3१५३3 शिडब॒घिती, 4 204 9 /2०एाजामटांगा णी शावॉक्ा 2गाए
+. कि, 54४३ 56५93 $5श8॥ किवा:३5ीशा, 3७0, 959.
ए)डा95$, संक्रगव है. बाएं पधातशइणा, एवशं०, एमाशिफ्मबाए 576ंवां
है 43०९0॥5, शिध्यधं०० ल8॥, ॥8]6४०0००१ (4॥ ०वंतं०7), 952, है
शिक्रश्वत, पे... (/क्राइ०उकबाणहओ गए 6. #शल'शेकराएड:. 57टंग) 5. क्कवोंव,
अ#ध्थाओत्या शिगृरवन्ञावा, फैल्यपा, 969. सेल 40
240 सामाजिक समस्याएं ओर सामालिक परिवर्तन
रिक्त, हिक्ों थाठ॑ 5ठग्ााए:, 0. 3., धुल उत्ठंबा 2/7श0क४,. रि०७,
रढांट्ा5त जापे (०., [05९, [959.
रिष्टर655, जार, फ्आाव8००: णी 2/वटांटवां 32880#भ5 /ण ९ गशध्वा-
गरश्ां शा 3धरंधर। कार उप्राोशआर 08 0०7485, (0००. 9 ॥709, 956.
रिएाञ०050०9, 0. .र., उच्चाशमांट- 28शफावृघटारएए द्रव 065 विद्ांगव शी 20007,
छ6०९८णा ९०॥686 ह&०5, ९0०7०, 947.
इलला, मद्या$३, स्ंप्ाश्यां[2 2शिवृशथाटए गे बरत गैधवींद्या बैशदार,.. 20987,
"शि85४47, 8077939, 96. गे
शाशत07 गाव ठप ८, एन्वाशीज़ड सकाशप्रों 2थप्रावु॥शाटए, सिथाकुल' फ़्म
उरलए १०८, 950.
शाएश, जाता, $॥प्रटाघार द्राव॑ एमब्ाइर से कवोंदा 592०७, पीर
एपणीआआए ९0०0., 00४2४४०, 968.
जाए, शिणाप600, 4॥० 26क/255९६ (05505 ; 0002... क्ा्बव $90ंबां
(क्राब्राधणाड, गिएव (70405, 80704५, 947.
जिष्टी, ४, #०बशांउबाण्य ० न्वंद्त गीचवंधाएा, वैं॥0राइणा न्ाठ$5, 720,
973.
$770५5९८, शा, 70९०7 ० एगा०्टाएश >थाोक्रांण॥, गिल्ड ऐि४४४, ९छ ०१४,
963.
क995, रथ. प., (व5/९ के ऑ०वंधय वधवीव, हैधंव २५०78 पि०५४५९,
छ७90939, 4962.
$000]9370, 8079, ##क2फ,/05 ०/ (+क्रपंध//०४७, 765 ० [08 ९85४,
8077099५, 965.
पाप 907शव छे., (7००29, 'चैब्प्पोशा , फिट ०६, 3950.
प्रच्द्य, पि, €ू, 70 छवा065, की. 8., कैश ऑगांडगाउ गैर एा।फएशंगढ)॥
(३४6 ४9600), ?7०४४४०० 7780, )२९७ ४००४८, 2959.
५०१, 56०८8९, 7%९०/९८८ (५7क्राक्कलंग8ए,. 0४06. प्रग्रश्क्षजाओ छ25५,
७७ ४०४८, 958. के
पर, (चाह 5. बगव एचा6ए, ऐड प्र, 37 2/7शक््काफ. बद ््श्टांव्रां
4८००४ (370 ८७४०0), ?760॥0०० ४५ 02., छाइ४४००९, 96,
>-+-य्ट४०२ २-० + शेक+लाव0 77 7 के
क्री किकराब्ध बहिफ्रत।,. फिर 6) टिपदप्यी 2 *ट्रो ६५०५ ०)
दललाप्ब) परत भा डी 2४०६६८९८ ०५२८ ६५२२ धर 2
पिकप्रेणन्पओोे न (०००५४ ने ५००७०३३ ई १ 23:०६ ४ ४
७५४७ (७53 " रस है
(9 न्ट(डम वे ००२० हु /₹१ ८५१२० 7१4 9 श्थ्क्े 597
न पाल धवन €'टत २४) को डल्त्न व्यय
खाल कब्र न्दीया चगरेछ 8975० जल टगिरार बला €+ वा
अप काठ
च्नहीवब2१ृ(6त। ६0 40००6 56६ 2 (डिक धब्खखशफा 2
इट व्व0 कुलण( ० प्म>नी॥(८ १७ ६ १॥ ६ ००) ००५ ।
जट द्र्व्न नि ६८< 298 #«<्प्व्य ०७५१ ०४ 7८० ०५ वि
थ्र ०७) रे
९ ८(८/४